08-25-2022, 12:26 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -59,60
सहज समस्त अनन्त अर्थगत विमल क्रमार्जित जो है |
ऐसा केवल बोध विश्वमें वहाँ वास्तविक सुख सो है ॥
विपरिणमनसे रहित केवल ज्ञान सदा सुख करता है।
घातिनाश करनेके कारण वे कदापि न धरता है ॥ ३० ॥
गाथा -59,60
सारांश :- ज्ञानावरणादि आठकों ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय घातिया कर्म हैं। ये आत्माके अनुजीवी गुणोंका घात करते हैं। ज्ञानावरण ज्ञान को नहीं होने देता है, २. दर्शनावरण देखने नहीं देता है, ३. मोहनीय कर्म मुख नहीं होने देता है। और ४. अन्तराय कर्म आत्मबल नहीं होने देता है।
शेष चार कर्म अघाति हैं। ये आत्माके मुख्य गुणोंका घात न करके, उन्हीं घातिया कर्मोकी सहायताके लिए परिकर के रूपमें होते हैं। जैसे १. वेदनीय कर्म और इष्ट व अनिष्ट वस्तुओं का संयोग कराता है, २. आयुकर्म मनुष्यादिरूप किसी भी एक शरीरमें रोककर रखता है, ३. नामकर्म काणा, खोड़ा आदि अनेक प्रकारकी शरीरकी अवस्थायें बना देता है और ४. गोत्र कर्म इस जीव को कभी उच्च और कभी नीच बना देता है। इसप्रकार इन आठ कर्मोका यह संक्षिप्त कार्य है। इनमेंसे श्री अरहंत देवके चार घातिया कर्मों का नाश हो जाता है। इसलिये वे भगवान् अपने पूर्ण आत्मबलसे सम्पूर्ण पदार्थोंके ज्ञाता, द्रष्टा और सदा के लिए सुखी होजाते हैं। इनके सुखके साथमें अब खेदका नाम लेश भी नहीं रहता है।
शङ्काः – अरहंत भगवान्के भी खेद का सर्वथा अभाव तो नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इनके भी साता और असाता नामके दोनों प्रकारके वेदनीय कर्मका सद्भाव रहता है। इनका कार्य सुख और दुख देना है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जो कर्म जिस कारणसे बनता है, वह कर्म अपने फलकाल में उसी को उत्पन्न भी करता है। जैसे कषायें करनेसे मोहनीय कर्म बनता है तो वह कषायोंको ही उत्पन्न कराता है।
तत्वार्थसूत्रके कथनानुसार भी दुःख शोक आदि से असातावेदनीय कर्मका बंध होता है और वह दुःख शोकादिको ही उत्पन्न करता है। इसीका समर्थन आगे नवमें अध्यायमें परिषहोंके वर्णनमें मिलता है। यहाँ पर भी यह बताया है कि- बाईस परिषहोंमें से प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परिषह ज्ञानावरणीय कर्मसे होते हैं। अदर्शन परिषह और अलाभ परिषह दर्शनमोह तथा अंतराय कर्मके कारणसे होते हैं। नग्न, अरति, स्वी, आसन, दुर्वचन, याचना और सत्कारपुरस्कार परिषह चारित्रमोह के उदयसे होते हैं। शेष क्षुधा, तृषा, शोत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ग्यारह परिषह वेदनीय कर्मके उदयसे होते हैं। ये जिन भगवान के भी होते हैं ऐसा स्पष्ट वर्णन है।
उत्तर:- सभी कर्मोंका बंध मोह राग द्वेष से अर्थात् कषाय भावोंसे होता है। कषाय रहित जीवके किसी भी कर्मका बंध नहीं होता है। ऐसा भी तत्वार्थसूत्रही में लिखा हुआ है। वहाँ बंधकारक साम्परायिकाश्रव और अबंधकारक ईर्यापथाश्रव है, इसप्रकार आश्रवके दो भेद बतलाये हैं। साम्परायिक आश्रव कषाय सहित जीवोंके होता है और कषाय रहित संसारी जीवोंके ईर्यापथ आश्रव होता है, यह एक अनपवाद नियम है। यहाँ पर विशेष विशेष कमौ के विशेष विशेष कारण बताये हैं, वे सब तो तादृश कषायोंके विशेष हैं। उन उन जातिके कषायविशेषों से उनजातिके कर्मोंका विशेष बंध होता है।
जैसे दुःखादिरूप कषाय भाव होनेसे असाता वेदनीयका और दयादिरूप सरल कपाय भाव होनेसे साता वेदनीयका बंध होता है। साता वेदनीयका उदय नियमसे अनुकम्पादिकको उत्पन्न करे ऐसी बात नहीं है। सरागसंयमादिरूप भावसे देवायुका बंध होता है किन्तु देवायुका उदय सरागसंयमादिभावोंको कभी भी उत्पन्न नहीं करता है, वह तो सरागसंयमादिरूप भावोंका विरोधी है।
अपने कारण कलापसे बना हुआ वेदनीय कर्म भी अपने उदयकालमें संसारी रागी द्वेषी जीवको इष्ट और अनिष्ट पदार्थोंका संयोग कराता है। जिनको अपने कषायांशके अनुसार इष्ट और अनिष्ट मानकर यह मोही जीव सुखी और दुखी होता है। वेदनीय कर्म इस जीवको सुखी और दुखी नहीं बनाता है। जैसे एक नगरमें रहने वालोंको निश्चित समाचार मिला कि कल यहाँ बड़े जोरसे भूकम्प होगा जिससे सब मकान नष्ट हो जावेंगे, लोगों को सावधान हो जाना चाहिये। इससे नगरके सब लोग नगरको छोड़कर जंगलमे जाने लगे। सभी नगर निवासियोंके अकस्मात् अशुभका (असातावेदनीयका ) उदय आया जिससे उनका स्थान छूट गया. अब चलते-चलते सामनेसे आता हुआ एक डाकू दिखाई दिया। जो मनुष्य अपने साथ सामान लेकर निकला था, वह सोचने लगा कि कैसा घोर पाप कर्मका उदय आया है। घर तो छूट ही गया परन्तु जो कुछ पासमें है उसे भी यह छीन लेगा। अब क्या किया जावे? ऐसा विचार करके वह घोर दुखी होता है।
दूसरा मनुष्य जो गरीब मजदूर था, जिसके पास कुछ भी नहीं था, वह सोचता है। कि यद्यपि सामने से डाकू आ रहा है परन्तु मेरे पास क्या है? घर तो छूट ही गया अब तो मजदूरी करके पेट भरना है अतः यह डाकू मेरा क्या करेगा? मेरे पास है ही क्या जिसे छीनेगा। ज्यादा करेगा तो मुझे अपने साथ रख लेगा, इसका काम करूंगा और पेट भरूंगा। इसप्रकार वह अत्यन्त विह्वल न होकर कुछ अर्द्ध सुखी सा बनकर तटस्थ होजाता है।
दूसरी ओरसे जानेवाले लोगों की एक साहूकारसे भेंट हो गई। तब जो कुछ काम करने लायक वह विचार है कि घर तो छूटा सो छूटा परन्तु इन सेठ साहबसे भेट होगई अच्छा हुआ, इनकी सहायता कुछ कार्य करूंगा जिससे सब ठीक हो जावेगा | एक मनुष्य वृद्ध है और भी काम धन्धा करनेके योग्य नही है, वह यह सोचता है कि, क्योंकि सेठ है इसलिये कुछ भी काम धन्धा बता सकता है, फिर भी इससे क्या जबकि मै स्वयं भी करनेके योग्य नही हूँ। ऐसा विचार करके वह मध्यस्थ होजाता है।
इन सब उदाहरणोंसे स्पष्ट है कि जिसको जितना मोह है उसको इष्ट और अनिष्ट पदार्थोंके संयोगसे उतना हर्ष और विषाद है। पदार्थोंके प्रति इष्ट अनिष्टकी कल्पना मोहभावसे हुआ करती है इनका संयोग वेदनीय कर्मके उदयसे होता है जिससे यह अज्ञानी संसारी अपनेको सुखी दुखी माना करता है भगवान् केवली के मोहका सर्वथा अभाव होता अत: उन्हें उनके द्वारा सुख दुख न होकर उनकी सदा आनन्दरूप अवस्था बनी रहती है।
शङ्काः- जब भगवान् केवलीके पदार्थ और अनिष्टरूप नही होता है तब उनके लिए वेदनीय कर्मका फल ही क्या रह जाता है?
उत्तरः- आयु कर्म शरीरकी रखता है |नाम तीर्थङ्करत्त्व या अरहन्त करता है | गोत्र कर्मके उदयसे परम परिमेष्टित्व होता और वेदनीय कर्म तत् समयोचित बाह्य पदार्थों संयोग कराता रहता है |जब भगवान् चलते हैं तब उनके चरणोंके नीचे स्वर्ण कमलों की रचना होती रहती परन्तु भगवान् वीतराग होनेके कारण स्पर्श न करके उनके ऊपर अधर चलते अरहन्तोंको प्रकारका खेद न होकर सदा अखण्ड सुख होता |
गाथा -59,60
सहज समस्त अनन्त अर्थगत विमल क्रमार्जित जो है |
ऐसा केवल बोध विश्वमें वहाँ वास्तविक सुख सो है ॥
विपरिणमनसे रहित केवल ज्ञान सदा सुख करता है।
घातिनाश करनेके कारण वे कदापि न धरता है ॥ ३० ॥
गाथा -59,60
सारांश :- ज्ञानावरणादि आठकों ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय घातिया कर्म हैं। ये आत्माके अनुजीवी गुणोंका घात करते हैं। ज्ञानावरण ज्ञान को नहीं होने देता है, २. दर्शनावरण देखने नहीं देता है, ३. मोहनीय कर्म मुख नहीं होने देता है। और ४. अन्तराय कर्म आत्मबल नहीं होने देता है।
शेष चार कर्म अघाति हैं। ये आत्माके मुख्य गुणोंका घात न करके, उन्हीं घातिया कर्मोकी सहायताके लिए परिकर के रूपमें होते हैं। जैसे १. वेदनीय कर्म और इष्ट व अनिष्ट वस्तुओं का संयोग कराता है, २. आयुकर्म मनुष्यादिरूप किसी भी एक शरीरमें रोककर रखता है, ३. नामकर्म काणा, खोड़ा आदि अनेक प्रकारकी शरीरकी अवस्थायें बना देता है और ४. गोत्र कर्म इस जीव को कभी उच्च और कभी नीच बना देता है। इसप्रकार इन आठ कर्मोका यह संक्षिप्त कार्य है। इनमेंसे श्री अरहंत देवके चार घातिया कर्मों का नाश हो जाता है। इसलिये वे भगवान् अपने पूर्ण आत्मबलसे सम्पूर्ण पदार्थोंके ज्ञाता, द्रष्टा और सदा के लिए सुखी होजाते हैं। इनके सुखके साथमें अब खेदका नाम लेश भी नहीं रहता है।
शङ्काः – अरहंत भगवान्के भी खेद का सर्वथा अभाव तो नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इनके भी साता और असाता नामके दोनों प्रकारके वेदनीय कर्मका सद्भाव रहता है। इनका कार्य सुख और दुख देना है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जो कर्म जिस कारणसे बनता है, वह कर्म अपने फलकाल में उसी को उत्पन्न भी करता है। जैसे कषायें करनेसे मोहनीय कर्म बनता है तो वह कषायोंको ही उत्पन्न कराता है।
तत्वार्थसूत्रके कथनानुसार भी दुःख शोक आदि से असातावेदनीय कर्मका बंध होता है और वह दुःख शोकादिको ही उत्पन्न करता है। इसीका समर्थन आगे नवमें अध्यायमें परिषहोंके वर्णनमें मिलता है। यहाँ पर भी यह बताया है कि- बाईस परिषहोंमें से प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परिषह ज्ञानावरणीय कर्मसे होते हैं। अदर्शन परिषह और अलाभ परिषह दर्शनमोह तथा अंतराय कर्मके कारणसे होते हैं। नग्न, अरति, स्वी, आसन, दुर्वचन, याचना और सत्कारपुरस्कार परिषह चारित्रमोह के उदयसे होते हैं। शेष क्षुधा, तृषा, शोत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ग्यारह परिषह वेदनीय कर्मके उदयसे होते हैं। ये जिन भगवान के भी होते हैं ऐसा स्पष्ट वर्णन है।
उत्तर:- सभी कर्मोंका बंध मोह राग द्वेष से अर्थात् कषाय भावोंसे होता है। कषाय रहित जीवके किसी भी कर्मका बंध नहीं होता है। ऐसा भी तत्वार्थसूत्रही में लिखा हुआ है। वहाँ बंधकारक साम्परायिकाश्रव और अबंधकारक ईर्यापथाश्रव है, इसप्रकार आश्रवके दो भेद बतलाये हैं। साम्परायिक आश्रव कषाय सहित जीवोंके होता है और कषाय रहित संसारी जीवोंके ईर्यापथ आश्रव होता है, यह एक अनपवाद नियम है। यहाँ पर विशेष विशेष कमौ के विशेष विशेष कारण बताये हैं, वे सब तो तादृश कषायोंके विशेष हैं। उन उन जातिके कषायविशेषों से उनजातिके कर्मोंका विशेष बंध होता है।
जैसे दुःखादिरूप कषाय भाव होनेसे असाता वेदनीयका और दयादिरूप सरल कपाय भाव होनेसे साता वेदनीयका बंध होता है। साता वेदनीयका उदय नियमसे अनुकम्पादिकको उत्पन्न करे ऐसी बात नहीं है। सरागसंयमादिरूप भावसे देवायुका बंध होता है किन्तु देवायुका उदय सरागसंयमादिभावोंको कभी भी उत्पन्न नहीं करता है, वह तो सरागसंयमादिरूप भावोंका विरोधी है।
अपने कारण कलापसे बना हुआ वेदनीय कर्म भी अपने उदयकालमें संसारी रागी द्वेषी जीवको इष्ट और अनिष्ट पदार्थोंका संयोग कराता है। जिनको अपने कषायांशके अनुसार इष्ट और अनिष्ट मानकर यह मोही जीव सुखी और दुखी होता है। वेदनीय कर्म इस जीवको सुखी और दुखी नहीं बनाता है। जैसे एक नगरमें रहने वालोंको निश्चित समाचार मिला कि कल यहाँ बड़े जोरसे भूकम्प होगा जिससे सब मकान नष्ट हो जावेंगे, लोगों को सावधान हो जाना चाहिये। इससे नगरके सब लोग नगरको छोड़कर जंगलमे जाने लगे। सभी नगर निवासियोंके अकस्मात् अशुभका (असातावेदनीयका ) उदय आया जिससे उनका स्थान छूट गया. अब चलते-चलते सामनेसे आता हुआ एक डाकू दिखाई दिया। जो मनुष्य अपने साथ सामान लेकर निकला था, वह सोचने लगा कि कैसा घोर पाप कर्मका उदय आया है। घर तो छूट ही गया परन्तु जो कुछ पासमें है उसे भी यह छीन लेगा। अब क्या किया जावे? ऐसा विचार करके वह घोर दुखी होता है।
दूसरा मनुष्य जो गरीब मजदूर था, जिसके पास कुछ भी नहीं था, वह सोचता है। कि यद्यपि सामने से डाकू आ रहा है परन्तु मेरे पास क्या है? घर तो छूट ही गया अब तो मजदूरी करके पेट भरना है अतः यह डाकू मेरा क्या करेगा? मेरे पास है ही क्या जिसे छीनेगा। ज्यादा करेगा तो मुझे अपने साथ रख लेगा, इसका काम करूंगा और पेट भरूंगा। इसप्रकार वह अत्यन्त विह्वल न होकर कुछ अर्द्ध सुखी सा बनकर तटस्थ होजाता है।
दूसरी ओरसे जानेवाले लोगों की एक साहूकारसे भेंट हो गई। तब जो कुछ काम करने लायक वह विचार है कि घर तो छूटा सो छूटा परन्तु इन सेठ साहबसे भेट होगई अच्छा हुआ, इनकी सहायता कुछ कार्य करूंगा जिससे सब ठीक हो जावेगा | एक मनुष्य वृद्ध है और भी काम धन्धा करनेके योग्य नही है, वह यह सोचता है कि, क्योंकि सेठ है इसलिये कुछ भी काम धन्धा बता सकता है, फिर भी इससे क्या जबकि मै स्वयं भी करनेके योग्य नही हूँ। ऐसा विचार करके वह मध्यस्थ होजाता है।
इन सब उदाहरणोंसे स्पष्ट है कि जिसको जितना मोह है उसको इष्ट और अनिष्ट पदार्थोंके संयोगसे उतना हर्ष और विषाद है। पदार्थोंके प्रति इष्ट अनिष्टकी कल्पना मोहभावसे हुआ करती है इनका संयोग वेदनीय कर्मके उदयसे होता है जिससे यह अज्ञानी संसारी अपनेको सुखी दुखी माना करता है भगवान् केवली के मोहका सर्वथा अभाव होता अत: उन्हें उनके द्वारा सुख दुख न होकर उनकी सदा आनन्दरूप अवस्था बनी रहती है।
शङ्काः- जब भगवान् केवलीके पदार्थ और अनिष्टरूप नही होता है तब उनके लिए वेदनीय कर्मका फल ही क्या रह जाता है?
उत्तरः- आयु कर्म शरीरकी रखता है |नाम तीर्थङ्करत्त्व या अरहन्त करता है | गोत्र कर्मके उदयसे परम परिमेष्टित्व होता और वेदनीय कर्म तत् समयोचित बाह्य पदार्थों संयोग कराता रहता है |जब भगवान् चलते हैं तब उनके चरणोंके नीचे स्वर्ण कमलों की रचना होती रहती परन्तु भगवान् वीतराग होनेके कारण स्पर्श न करके उनके ऊपर अधर चलते अरहन्तोंको प्रकारका खेद न होकर सदा अखण्ड सुख होता |