08-25-2022, 12:40 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -61,62
नहीं अनिष्ट रहा कोई भी इष्ट प्राप्त हो गया जहाँ
सकल चराचर जान लिया तब बोलो कौन अचंभ वहाँ
फिर भी अरहन्तोंको सुख कैसा? ऐसे कहने वाले ।
भव्य नहीं, अभव्य ही होते, कहते श्रुत कहनेवाले ॥ ३१ ॥
गाथा -61,62
सारांश:- सुखकी परिभाषा लौकिक और पारमार्थिक दो प्रकारसे की जाती है। परमार्थदृष्टिमें किसी भी तरह की आकुलता (अड़चन, बाधा) न रहकर पूर्ण निराकुल अवस्थाका नाम सुख होता है। लौकिक दृष्टिमें अनिष्टके परिहार पूर्वक इष्टप्राप्तिका नाम सुख है। सर्वज्ञ भगवान् अरहंतदेवके जब ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय कर्मके साथ २ अन्तराय कर्मका भी पूर्णरूपसे क्षय होजाता है तब वे भगवान् सम्पूर्ण विश्वके पदार्थोंको एकसाथ जानते हैं। वहाँ जानने योग्य कोई अवकाश ही नहीं रहता है। अतः पारमार्थिक परिभाषाके अनुसार भगवान् पूर्णरूपसे सुखी ही होते हैं।
अब लौकिक परिभाषाके अनुसार विचार करते हैं। घातिकर्मप्रणाशक श्री अरहंत भगवान्के लिए अनिष्ट तो कोई पदार्थ रहता ही नहीं है और परमेष्ट सर्वज्ञपन प्राप्त हो ही जाता है। अतः वे परम सुखी हो जाते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है। खाने पीने और सोने आदिको ही यदि सुख समझा जावे तो ऐसा सुख तो काल्पनिक एवं दुःखमय तथा कर्म परवश होता है और वह भगवान् अरहंतके नहीं होता है। ऐसा सुख तो संसार दशामें ही पाया है जो समस्त संसारी जीवों के पाया जाता है। इसीको सच्चा सुख माननेवाला मनुष्य, संसारसे मुळ होनेकी चेष्टा ही क्यों करेगा? क्योंकि सुखीसे दुखी होना तो कोई भी नहीं चाहता है। वास्तवमें खाने, पीने और सोने आदि क्रियाओंमें सुख कभी होता ही नहीं है। इनमें तो इन्द्रियोंके परितापको नहीं सह सकनेवाला यह मोही मानव विवश होकर झंपापात लेता है,
गाथा -61,62
नहीं अनिष्ट रहा कोई भी इष्ट प्राप्त हो गया जहाँ
सकल चराचर जान लिया तब बोलो कौन अचंभ वहाँ
फिर भी अरहन्तोंको सुख कैसा? ऐसे कहने वाले ।
भव्य नहीं, अभव्य ही होते, कहते श्रुत कहनेवाले ॥ ३१ ॥
गाथा -61,62
सारांश:- सुखकी परिभाषा लौकिक और पारमार्थिक दो प्रकारसे की जाती है। परमार्थदृष्टिमें किसी भी तरह की आकुलता (अड़चन, बाधा) न रहकर पूर्ण निराकुल अवस्थाका नाम सुख होता है। लौकिक दृष्टिमें अनिष्टके परिहार पूर्वक इष्टप्राप्तिका नाम सुख है। सर्वज्ञ भगवान् अरहंतदेवके जब ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय कर्मके साथ २ अन्तराय कर्मका भी पूर्णरूपसे क्षय होजाता है तब वे भगवान् सम्पूर्ण विश्वके पदार्थोंको एकसाथ जानते हैं। वहाँ जानने योग्य कोई अवकाश ही नहीं रहता है। अतः पारमार्थिक परिभाषाके अनुसार भगवान् पूर्णरूपसे सुखी ही होते हैं।
अब लौकिक परिभाषाके अनुसार विचार करते हैं। घातिकर्मप्रणाशक श्री अरहंत भगवान्के लिए अनिष्ट तो कोई पदार्थ रहता ही नहीं है और परमेष्ट सर्वज्ञपन प्राप्त हो ही जाता है। अतः वे परम सुखी हो जाते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है। खाने पीने और सोने आदिको ही यदि सुख समझा जावे तो ऐसा सुख तो काल्पनिक एवं दुःखमय तथा कर्म परवश होता है और वह भगवान् अरहंतके नहीं होता है। ऐसा सुख तो संसार दशामें ही पाया है जो समस्त संसारी जीवों के पाया जाता है। इसीको सच्चा सुख माननेवाला मनुष्य, संसारसे मुळ होनेकी चेष्टा ही क्यों करेगा? क्योंकि सुखीसे दुखी होना तो कोई भी नहीं चाहता है। वास्तवमें खाने, पीने और सोने आदि क्रियाओंमें सुख कभी होता ही नहीं है। इनमें तो इन्द्रियोंके परितापको नहीं सह सकनेवाला यह मोही मानव विवश होकर झंपापात लेता है,