08-27-2022, 12:21 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -64 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -66 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सम्भावं /
जइ तं ण हि सम्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं // 64 //
आगे कहते हैं, कि जबतक इन्द्रियाँ हैं, तबतक स्वाभाविक दुःख ही है- [येषां] जिन जीवोंकी [विषयेषु ] इंद्रिय विषयोंमें [ रतिः] प्रीति है, [ तेषां] उनके [ दुःखं ] दुःख [स्वाभावं] स्वभावसे ही [विजानीहि ] जानो / क्योंकि [यदि ] जो [तत्] वह इन्द्रियजन्य दुःख [हि] निश्चयसे [ स्वभावं ] सहज ही से उत्पन्न हुआ [न] न होता, तो [विषयार्थ] विषयोंके सेवनेके लिये [व्यापारः] इन्द्रियों की प्रवृत्ति भी [नास्ति ] नहीं होती।
भावार्थ-जिन जीवोंके इंद्रियाँ जीवित हैं, उनके अन्य (दूसरी) उपाधियोंसे कोई दुःख नहीं है, सहजसे ये ही महान् दुःख हैं, क्योंकि इंद्रियाँ अपने विषयोंको चाहती हैं, और विषयोंकी चाहसे आत्माको दुःख उत्पन्न होता प्रत्यक्ष देखा जाता है / जैसे-हाथी स्पर्शन इंद्रियके विषयसे पीड़ित होकर कुट्टिनी (कपटिनी) हथिनीके वशमें पड़के पकड़ा जाता है / रसना इंद्रियके विषयसे पीड़ित होकर मछली बडिश (लोहेका काँटा) के मांसके चाखनेके लोभसे प्राण खो देती है / भौंरा प्राण इंद्रियके विषयसे सताया हुवा संकुचित (मुँदे ) हुए कमलमें गंधके लोभसे कैद होकर दुःखी होता है / पतङ्ग जीव नेत्र इंद्रियके विषयसे पीड़ित हुआ दीपकमें जल मरता है, और हरिन श्रोत्र इंद्रियके विषयवश वीणाकी आवाजके वशीभूत हो, व्याधाके हाथसे पकड़ा जाता है / यदि इंद्रियाँ दुःखरूप न होतीं, तो विषयकी इच्छा भी नहीं होती, क्योंकि शीतज्वरके दूर होनेपर अग्निके सेककी आवश्यकता नहीं रहती, दाहज्वरके न रहनेपर कांजी-सेवन व्यर्थ होता है, इसी प्रकार नेत्र-पीड़ाकी निवृत्ति होनेपर खपरियाके संग मिश्री आदि औषध, कर्णशूल रोगके नाश होनेपर बकरेका मूत्र आदि, व्रण (घाव) रोगके अच्छे होनेपर आलेपन (पट्टी) आदि औषधियाँ निष्प्रयोजन होती हैं, उसी प्रकार जो इंद्रियाँ दुःखरूप न होवें, तो विषयोंकी चाह भी न होवे / परंतु इच्छा देखी जाती है, जो कि रोगके समान है, और उसकी निवृत्तिके लिये विषय-भोग औषध तुल्य हैं। सारांश यह हुआ, कि परोक्षज्ञानी इंद्रियाधीन स्वभावसे ही दुःखी हैं |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 64
अन्वयार्थ - (जेसिं) जिन्हें (विसयेसु रदी) विषयों में रति है, (तेसिं) उन्हें (दुक्खं) दुःख (सब्भावं) स्वाभाविक (वियाण) जानो (हि) क्योंकि (जइ) यदि (तं) वह दुःख (सब्भावं ण) स्वभाव न हो तो (विसयत्थं) विषयार्थ में (वावारो) व्यापार (णत्थि) न हो।
श्री इस गाथा 64 के माध्यम से बतातें हैं कि
* पाँच इंद्रियों के विषयों में रति भाव रखना हमारा सबसे बड़ा दुःख है।
* यह दुःख हमारा स्वभाव बन चुका है ।
* जिस जीव को जितनी संतुष्टि होगी भीतर से वह उतना ही विषयों का व्यापार नहीं करेगा।
* हमारी बाहर की चेष्टाएँ हमारे अंदर के दुःख को बताती हैं।
* जो मोह,राग,द्वेष को नष्ट करेगा उसे ही वैराग्य का भाव आएगा। रती भाव की तीव्रता से वीतरागता अच्छी नहीं लगती।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -64 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -66 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सम्भावं /
जइ तं ण हि सम्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं // 64 //
आगे कहते हैं, कि जबतक इन्द्रियाँ हैं, तबतक स्वाभाविक दुःख ही है- [येषां] जिन जीवोंकी [विषयेषु ] इंद्रिय विषयोंमें [ रतिः] प्रीति है, [ तेषां] उनके [ दुःखं ] दुःख [स्वाभावं] स्वभावसे ही [विजानीहि ] जानो / क्योंकि [यदि ] जो [तत्] वह इन्द्रियजन्य दुःख [हि] निश्चयसे [ स्वभावं ] सहज ही से उत्पन्न हुआ [न] न होता, तो [विषयार्थ] विषयोंके सेवनेके लिये [व्यापारः] इन्द्रियों की प्रवृत्ति भी [नास्ति ] नहीं होती।
भावार्थ-जिन जीवोंके इंद्रियाँ जीवित हैं, उनके अन्य (दूसरी) उपाधियोंसे कोई दुःख नहीं है, सहजसे ये ही महान् दुःख हैं, क्योंकि इंद्रियाँ अपने विषयोंको चाहती हैं, और विषयोंकी चाहसे आत्माको दुःख उत्पन्न होता प्रत्यक्ष देखा जाता है / जैसे-हाथी स्पर्शन इंद्रियके विषयसे पीड़ित होकर कुट्टिनी (कपटिनी) हथिनीके वशमें पड़के पकड़ा जाता है / रसना इंद्रियके विषयसे पीड़ित होकर मछली बडिश (लोहेका काँटा) के मांसके चाखनेके लोभसे प्राण खो देती है / भौंरा प्राण इंद्रियके विषयसे सताया हुवा संकुचित (मुँदे ) हुए कमलमें गंधके लोभसे कैद होकर दुःखी होता है / पतङ्ग जीव नेत्र इंद्रियके विषयसे पीड़ित हुआ दीपकमें जल मरता है, और हरिन श्रोत्र इंद्रियके विषयवश वीणाकी आवाजके वशीभूत हो, व्याधाके हाथसे पकड़ा जाता है / यदि इंद्रियाँ दुःखरूप न होतीं, तो विषयकी इच्छा भी नहीं होती, क्योंकि शीतज्वरके दूर होनेपर अग्निके सेककी आवश्यकता नहीं रहती, दाहज्वरके न रहनेपर कांजी-सेवन व्यर्थ होता है, इसी प्रकार नेत्र-पीड़ाकी निवृत्ति होनेपर खपरियाके संग मिश्री आदि औषध, कर्णशूल रोगके नाश होनेपर बकरेका मूत्र आदि, व्रण (घाव) रोगके अच्छे होनेपर आलेपन (पट्टी) आदि औषधियाँ निष्प्रयोजन होती हैं, उसी प्रकार जो इंद्रियाँ दुःखरूप न होवें, तो विषयोंकी चाह भी न होवे / परंतु इच्छा देखी जाती है, जो कि रोगके समान है, और उसकी निवृत्तिके लिये विषय-भोग औषध तुल्य हैं। सारांश यह हुआ, कि परोक्षज्ञानी इंद्रियाधीन स्वभावसे ही दुःखी हैं |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 64
अन्वयार्थ - (जेसिं) जिन्हें (विसयेसु रदी) विषयों में रति है, (तेसिं) उन्हें (दुक्खं) दुःख (सब्भावं) स्वाभाविक (वियाण) जानो (हि) क्योंकि (जइ) यदि (तं) वह दुःख (सब्भावं ण) स्वभाव न हो तो (विसयत्थं) विषयार्थ में (वावारो) व्यापार (णत्थि) न हो।
श्री इस गाथा 64 के माध्यम से बतातें हैं कि
* पाँच इंद्रियों के विषयों में रति भाव रखना हमारा सबसे बड़ा दुःख है।
* यह दुःख हमारा स्वभाव बन चुका है ।
* जिस जीव को जितनी संतुष्टि होगी भीतर से वह उतना ही विषयों का व्यापार नहीं करेगा।
* हमारी बाहर की चेष्टाएँ हमारे अंदर के दुःख को बताती हैं।
* जो मोह,राग,द्वेष को नष्ट करेगा उसे ही वैराग्य का भाव आएगा। रती भाव की तीव्रता से वीतरागता अच्छी नहीं लगती।