08-27-2022, 12:29 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -63,64
अमरासुर मनुजादिक सारे इन्द्रियवश होकर हारे
अभीष्ट विषयोंमें फँस करके फिरते हैं मारे मारे
जो विषयोंमें रति लेते हैं उन्हें दुःख नैसर्गिक है।
वरना तो विषयोंमें वे क्यों लगते हैं यों जैन कहै ॥ ३२ ॥
गाथा -63,64
सारांश:- मृग, शलभ, भरा, झष और हस्तीकी तरह प्रत्येक इन्द्रियके वशीभूत होने से मृत्यु जैसे कष्टको भी स्वीकार करते हुए यह शरीरधारी प्राणी अपने अभीष्ट विषयोंमें परिश्रम पूर्वक प्रवृत्त होता है और मोह वश उनमें सुख मानता है। जैसे कुत्ता सूखी हड्डीको चवाता है जिससे उसकी गलाफ फट जाती है और उसमेंसे रक्त निकलने लगता है। उस रक्तके स्वादको वह कुत्ता हड्डीका स्वाद मानता है और उससे अपने आपको सुखी भी समझता है। यही दशा सम्पूर्ण संसारी जीवों की है।
संसारी जीव सुखको विषय सेवनसे उत्पन्न हुआ मानता है। यह इसका भ्रम है क्योंकि सुख तो आत्माका गुण है जो ज्ञानका सहचर है। मोहके द्वारा संसारी जीवका ज्ञान अब अज्ञानरूप परिणत होजाता है। तब उसके साथमें अभिलाषाके द्वारा सुख भी दुख के रूपमें परिणत होजाता है। इससे अधीर होकर अज्ञानी जीव उस अभिलाषाको अभीष्ट विषयके सेवन द्वारा मिटानेका प्रयास करता है किन्तु विषय सेवनसे अभिलाषाका विनाश न होकर प्रत्युत उसका अधिकाधिक विकाश होता रहता है।
जैसे अग्निमें ईंधन डालनेसे अग्नि शान्त न होकर वृद्धिको ही प्राप्त होती है। जो मनुष्य अग्निको शांत करना चाहता है उसका यह कर्तव्य है कि वह आगेके लिए उसमें ईंधन डालना बन्द करदे और उसके निकटवर्ती तृणादिकके समूहको भी वहाँसे दूर हटा दे तो धीरे धीरे अपने आप ही शांत हो जाती है। इसी प्रकार अभिलाषा अर्थात् विषयवासनारूप पीड़ाको मिटानेके लिए त्याग और संतोषकी आवश्यकता होती है।
शङ्काः – माना कि हानिकर चीजके त्यागमें और अनुपलब्ध वस्तुके विषयमें तो संतोष धारण करनेसे ही शांति प्राप्त होती है परन्तु समुचित आवश्यक वस्तुका तो उपयोग करने पर सुखका अनुभव होता है जैसे भूख लगने पर उचित भोजन करना पड़ता है। इसप्रकार के प्रश्नका उत्तर आगे आचार्यदेव देते हैं
गाथा -63,64
अमरासुर मनुजादिक सारे इन्द्रियवश होकर हारे
अभीष्ट विषयोंमें फँस करके फिरते हैं मारे मारे
जो विषयोंमें रति लेते हैं उन्हें दुःख नैसर्गिक है।
वरना तो विषयोंमें वे क्यों लगते हैं यों जैन कहै ॥ ३२ ॥
गाथा -63,64
सारांश:- मृग, शलभ, भरा, झष और हस्तीकी तरह प्रत्येक इन्द्रियके वशीभूत होने से मृत्यु जैसे कष्टको भी स्वीकार करते हुए यह शरीरधारी प्राणी अपने अभीष्ट विषयोंमें परिश्रम पूर्वक प्रवृत्त होता है और मोह वश उनमें सुख मानता है। जैसे कुत्ता सूखी हड्डीको चवाता है जिससे उसकी गलाफ फट जाती है और उसमेंसे रक्त निकलने लगता है। उस रक्तके स्वादको वह कुत्ता हड्डीका स्वाद मानता है और उससे अपने आपको सुखी भी समझता है। यही दशा सम्पूर्ण संसारी जीवों की है।
संसारी जीव सुखको विषय सेवनसे उत्पन्न हुआ मानता है। यह इसका भ्रम है क्योंकि सुख तो आत्माका गुण है जो ज्ञानका सहचर है। मोहके द्वारा संसारी जीवका ज्ञान अब अज्ञानरूप परिणत होजाता है। तब उसके साथमें अभिलाषाके द्वारा सुख भी दुख के रूपमें परिणत होजाता है। इससे अधीर होकर अज्ञानी जीव उस अभिलाषाको अभीष्ट विषयके सेवन द्वारा मिटानेका प्रयास करता है किन्तु विषय सेवनसे अभिलाषाका विनाश न होकर प्रत्युत उसका अधिकाधिक विकाश होता रहता है।
जैसे अग्निमें ईंधन डालनेसे अग्नि शान्त न होकर वृद्धिको ही प्राप्त होती है। जो मनुष्य अग्निको शांत करना चाहता है उसका यह कर्तव्य है कि वह आगेके लिए उसमें ईंधन डालना बन्द करदे और उसके निकटवर्ती तृणादिकके समूहको भी वहाँसे दूर हटा दे तो धीरे धीरे अपने आप ही शांत हो जाती है। इसी प्रकार अभिलाषा अर्थात् विषयवासनारूप पीड़ाको मिटानेके लिए त्याग और संतोषकी आवश्यकता होती है।
शङ्काः – माना कि हानिकर चीजके त्यागमें और अनुपलब्ध वस्तुके विषयमें तो संतोष धारण करनेसे ही शांति प्राप्त होती है परन्तु समुचित आवश्यक वस्तुका तो उपयोग करने पर सुखका अनुभव होता है जैसे भूख लगने पर उचित भोजन करना पड़ता है। इसप्रकार के प्रश्नका उत्तर आगे आचार्यदेव देते हैं