08-28-2022, 03:18 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -65,66
समुचित विषयों को पाकर भी देह नहीं सुख देता है।
उनके निमित्त से संसारी सुख विकाश कर लेता है ॥
देवोंका शरीर भी उनको सुखका कारण कभी नहीं
इष्टानिष्टतया विषयोंमें सुख दुख आत्मा मान रही ॥
गाथा -65,66
सारांश:- वास्तवमें आत्मा अखण्ड ज्ञानका एक अमूर्तिक पिण्ड है। बाह्य पदार्थों से आत्मा का किसी भी तरह का हित या अहित नहीं हो सकता है। ऐसी अवस्था में इन बाह्य पदार्थों को आत्मा के लिए लाभप्रद या हानिकारक कैसे कहा जा सकता है? जब यह आत्मा अपने स्वरूप में न रहकर, शरीर के साथ अहंकार ममकार में फँसा रहता है तब शरीर के पोषक पदार्थोंको इष्ट और शरीर के लिए हानिकारक पदार्थों को अनिष्ट मानकर, इष्ट पदार्थों के संयोग में अपने को सुखी तथा अनिष्ट पदार्थों के संयोग में अपने को दुखी मानता है। इस प्रकार इष्टानिष्ट के विकल्प में पड़कर यह आत्मा हर समय व्याकुल बना रहता है। इस व्याकुलता का मूलाधार यह शरीर ही है। अतः इसके साथ सम्पर्क बना रहना ही इस आत्मा के लिये दुःखका कारण है।
शङ्काः नारकीय शरीर तो अवश्य दुःख का कारण है यह तो ठीक है परन्तु शरीर मात्र ही दुःखका कारण है, यह बात तो कुछ समझ में नहीं आई क्योंकि देव शरीर के प्राप्त होनेसे तो सुख ही होता है?
उत्तरः- देवों का शरीर भी दुःखका ही कारण है क्योंकि वह भी नारकीय शरीरको तरह आवश्यकताओंको उत्पन्न करने वाला है। यह बात दूसरी है कि नारकीय शरीरकी उत्पन्न हुई आवश्यकताओं के प्रतिकारका साधन वहाँ पर दुर्लभ ही नहीं किन्तु असंभव ही है। देव शरीर की उत्पन्न हुई आवश्यकताओं के निराकरण के लिए साधन सामग्री सुलभ हुआ करती है। इसका कारण यह है कि नरकों में अशुभकी तथा देवों में (देवालयोंमें) शुभ की प्रधानता होती है।
कषायोंकी तीव्रतारूप संक्लेश परिणामका नाम अशुभ और कपायोंकी मन्दतारूप विशुद्ध परिणामका नाम शुभ है तथा निष्कपाय होने का नाम शुद्ध दशा है। शुद्धदशा वास्तविक इन्द्रियातीत सुख होता है और शुभदशामें इन्द्रियजन्य सांसारिक सुख होता है तथा अशुभदशामें यह आत्मा एकान्त घोर दुःखका ही अनुभव किया करता है। मतलब यह है कि बाह्य विषयों मुख दुख न होकर केवल आत्म परिणामोंसे ही होते हैं
गाथा -65,66
समुचित विषयों को पाकर भी देह नहीं सुख देता है।
उनके निमित्त से संसारी सुख विकाश कर लेता है ॥
देवोंका शरीर भी उनको सुखका कारण कभी नहीं
इष्टानिष्टतया विषयोंमें सुख दुख आत्मा मान रही ॥
गाथा -65,66
सारांश:- वास्तवमें आत्मा अखण्ड ज्ञानका एक अमूर्तिक पिण्ड है। बाह्य पदार्थों से आत्मा का किसी भी तरह का हित या अहित नहीं हो सकता है। ऐसी अवस्था में इन बाह्य पदार्थों को आत्मा के लिए लाभप्रद या हानिकारक कैसे कहा जा सकता है? जब यह आत्मा अपने स्वरूप में न रहकर, शरीर के साथ अहंकार ममकार में फँसा रहता है तब शरीर के पोषक पदार्थोंको इष्ट और शरीर के लिए हानिकारक पदार्थों को अनिष्ट मानकर, इष्ट पदार्थों के संयोग में अपने को सुखी तथा अनिष्ट पदार्थों के संयोग में अपने को दुखी मानता है। इस प्रकार इष्टानिष्ट के विकल्प में पड़कर यह आत्मा हर समय व्याकुल बना रहता है। इस व्याकुलता का मूलाधार यह शरीर ही है। अतः इसके साथ सम्पर्क बना रहना ही इस आत्मा के लिये दुःखका कारण है।
शङ्काः नारकीय शरीर तो अवश्य दुःख का कारण है यह तो ठीक है परन्तु शरीर मात्र ही दुःखका कारण है, यह बात तो कुछ समझ में नहीं आई क्योंकि देव शरीर के प्राप्त होनेसे तो सुख ही होता है?
उत्तरः- देवों का शरीर भी दुःखका ही कारण है क्योंकि वह भी नारकीय शरीरको तरह आवश्यकताओंको उत्पन्न करने वाला है। यह बात दूसरी है कि नारकीय शरीरकी उत्पन्न हुई आवश्यकताओं के प्रतिकारका साधन वहाँ पर दुर्लभ ही नहीं किन्तु असंभव ही है। देव शरीर की उत्पन्न हुई आवश्यकताओं के निराकरण के लिए साधन सामग्री सुलभ हुआ करती है। इसका कारण यह है कि नरकों में अशुभकी तथा देवों में (देवालयोंमें) शुभ की प्रधानता होती है।
कषायोंकी तीव्रतारूप संक्लेश परिणामका नाम अशुभ और कपायोंकी मन्दतारूप विशुद्ध परिणामका नाम शुभ है तथा निष्कपाय होने का नाम शुद्ध दशा है। शुद्धदशा वास्तविक इन्द्रियातीत सुख होता है और शुभदशामें इन्द्रियजन्य सांसारिक सुख होता है तथा अशुभदशामें यह आत्मा एकान्त घोर दुःखका ही अनुभव किया करता है। मतलब यह है कि बाह्य विषयों मुख दुख न होकर केवल आत्म परिणामोंसे ही होते हैं