09-18-2022, 08:13 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -69,70
स्वार्थमयाशय से हटकर धर्मानुरागयुत जब होवे |
शुभोपयोगात्मकताको गुरुपूजादिकमें तब जोवे
शुभोपयोग सहित जो नर सुर तिर्यक् होता है भाई।
सांसारिक सुख वह पाता यह बात जिनागममें गाई ॥ ३५ ॥
सारांश :- जब यह आत्मा अनादिकालसे चली आई हुई शरीरके प्रति अहङ्कार वृत्तिरूप अशुभोपयोग परिणतिको छोड़कर शुभोपयोगी बनता है अर्थात् शरीरको ही आत्मा माननेरूप विचारधारासे दूर हटकर आत्माके यथार्थ स्वरूपको स्वीकार करता है। उस समय अपने विशिष्ट शक्तिशाली आत्मसंयमी लोगोंके प्रति आदर भाव प्राणिमात्रको लक्ष्यमें रखकर सेवाभाव, कुमार्गसे निरन्तर बचनेरूप सद्भाव और पर्वादिके समय पूजा, दान, शील और उपवास आदि शुभकार्यों में तत्परता जागृत होती है। इससे इस नश्वर शरीरके प्रति उदासीन होकर आत्मबल प्राप्त करता है ऐसे विचारको शुभोपयोग तथा उस विचारवालेको शुभोपयोगी कहा जाता है।
कभी कभी शरीर के प्रति दासता स्वीकार करने वाला जीव भी उक्त शुभकायों में प्रवृत्त होजाता है परन्तु वह इन सबको भी लौकिक लाभों की इच्छा से ही किया करता है अतः वह अशुभोपयोगी ही कहा जाता है। इसी बात को स्पष्ट करनेके लिए मूल ग्रन्थकार ने 'रत्तो' शब्द दिया है। ग्रन्थकारका कहना है कि सांसारिक विषय वासना के लिए नहीं किन्तु आत्मोत्थान के लिए बलदायक समझकर उपर्युक्त कार्यों को तात्कालिक कर्तव्य मानते हुए जो उनका सम्पादन करता है, ऐसा चतुर्थादि गुणस्थानवर्ती जीव ही शुभोपयोगी कहा जाता है। ऐसा ही टीकाकार श्री अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है
" यदायमात्मा दुःखस्य साधनीभूतां द्वेषरूपामिन्द्रियार्थानुरागरूपां चाशुभोपयोगभूमिकामतिक्रम्य देवगुरुयतिपूजादानशीलोपवासप्रीतिलक्षणं धर्मानुरागमङ्गीकरोति तदेन्द्रियसुखस्य साधनीभूत शुभोपयोगभूमिकामधिरूढोऽभिलप्येत"
यह शुभोपयोगी जीव जब शुभ दैवबलयुक्त एवं शुभ लेश्याबलयुक्त होता है उस समय इन्द्रिय सुखका अनुभव करनेवाला होता है। यदि शुभलेश्याका और शुभ कर्मोदयका अभाव हो तो ऐसी दशामें बद्धायुष्कतादिके कारण शुभोपयोगी ( सम्यकदृष्टि) जीव भी नारकी बनकर नरकमें मारण ताडनादिरूप घोर दुःखको ही भोगनेवाला हो जाता है।
अशुभोपयोगी (मिध्यादृष्टि) जीव बाह्य समुचित सामग्री होने पर भी उसके द्वारा सदा दुःखका ही अनुभव किया करता है। जैसे पित्तज्वरवाला मनुष्य दूधमें भी कड़वापन ही मानता है। इसप्रकार शुभोपयोगी और अशुभोपयोगी में परस्पर किंचित् विशेषता है। लौकिक दृष्टिमें शुभोपयोगी सुखी और अशुभोपयोगी दुःखी होता है किन्तु पारमार्थिक दृष्टिमें दोनों ही परतंत्रता जकड़े हुए होते हैं अतः दोनों ही दुखी हैं
गाथा -71,72
औरों की क्या बात शक्रको भी न सहज सुख होता है ।
शारीरिक वेदना वह विषयोंमें लेता गोता है ॥
नारककी तरह पशु मनुज सुरको भी दुःख तनुज है ।
तो फिर शुभ अशुभोपयोग में ज्ञानी कैसा भेदक है ॥ ३६ ॥
सारांश: - लौकिक दृष्टिसे नारकियोंको दुख और देवोंको सुख होता है। देवोंमें भी प्रधानता इन्द्रोंकी है जो निश्चितरूपसे शुभोपयोगी होते हैं। जब हम इनके विषयमें भी विचार करते 1 हैं तो बात कुछ और ही पाते हैं। भूख प्यास आदिकी वेदना जैसी नारकियोंके होती है वैसी ही इन्द्रोंके भी होती है। अन्तर केवल इतना ही है कि नारकियोंके पास उसे मिटानेका
कोई बाह्य साधन नहीं होता है और इन्द्रोंके पास होता है।
यह बात तो ऐसी ही हुई कि जैसे दो मनुष्योंको शीतज्वरका वेग आया। इनमेंसे एकको तो रजाई और कम्बल मिल गये, उन्हें ओढ़कर वह सो गया परन्तु दूसरेके पास कुछ भी न होनेसे वह बिना ओढे ही अपने स्थान पर पड़ा रहा। ऊपरसे देखनेमें तो उन दोनोंमें अन्तर दीख रहा है। एक ओढ़े हुए हैं और दूसरेके पास ओढनेको कुछ भी नहीं है परन्तु भीतरसे दोनोंको जाड़ा (सर्दी) सता रहा है। दोनों ही भीतरी ठण्डकसे काँप रहे हैं। दोनों ही शीतज्वरके रोगी हैं। रोगके वेगसे पीड़ित हैं।
इसीप्रकार देव और नारकी दोनों ही दुखी होते हैं। बाह्य में एकके पास भोग सामग्री है और दूसरेके पास नहीं है फिर भी उनके दुःखमें कोई मौलिक अन्तर नहीं होता है। नीरोगपन की तरह जो मनुष्य अपने अंतरंगमें सहज स्वभाव के मूल्यको आँक रहा है उसके लिए दोनों एक समान हैं। दोनों ही अपनेपनसे दूर होकर विकारग्रस्त हो रहे हैं। वस्तुतः दोनों ही दुःखी हैं। नारकी जीवको जिस शरीरमें रहकर दुःख का अनुभव करना पड़ता है वह उस शरीरका शोषण करना चाहता है और इन्द्र उसीका पोषण करना चाहता है। विवेकशील महात्माकी दृष्टिमें नारकीय जीवन तो उपवासकी तरह और स्वर्गीय जीवन भोजन की तरह प्रतीत होता है,
गाथा -69,70
स्वार्थमयाशय से हटकर धर्मानुरागयुत जब होवे |
शुभोपयोगात्मकताको गुरुपूजादिकमें तब जोवे
शुभोपयोग सहित जो नर सुर तिर्यक् होता है भाई।
सांसारिक सुख वह पाता यह बात जिनागममें गाई ॥ ३५ ॥
सारांश :- जब यह आत्मा अनादिकालसे चली आई हुई शरीरके प्रति अहङ्कार वृत्तिरूप अशुभोपयोग परिणतिको छोड़कर शुभोपयोगी बनता है अर्थात् शरीरको ही आत्मा माननेरूप विचारधारासे दूर हटकर आत्माके यथार्थ स्वरूपको स्वीकार करता है। उस समय अपने विशिष्ट शक्तिशाली आत्मसंयमी लोगोंके प्रति आदर भाव प्राणिमात्रको लक्ष्यमें रखकर सेवाभाव, कुमार्गसे निरन्तर बचनेरूप सद्भाव और पर्वादिके समय पूजा, दान, शील और उपवास आदि शुभकार्यों में तत्परता जागृत होती है। इससे इस नश्वर शरीरके प्रति उदासीन होकर आत्मबल प्राप्त करता है ऐसे विचारको शुभोपयोग तथा उस विचारवालेको शुभोपयोगी कहा जाता है।
कभी कभी शरीर के प्रति दासता स्वीकार करने वाला जीव भी उक्त शुभकायों में प्रवृत्त होजाता है परन्तु वह इन सबको भी लौकिक लाभों की इच्छा से ही किया करता है अतः वह अशुभोपयोगी ही कहा जाता है। इसी बात को स्पष्ट करनेके लिए मूल ग्रन्थकार ने 'रत्तो' शब्द दिया है। ग्रन्थकारका कहना है कि सांसारिक विषय वासना के लिए नहीं किन्तु आत्मोत्थान के लिए बलदायक समझकर उपर्युक्त कार्यों को तात्कालिक कर्तव्य मानते हुए जो उनका सम्पादन करता है, ऐसा चतुर्थादि गुणस्थानवर्ती जीव ही शुभोपयोगी कहा जाता है। ऐसा ही टीकाकार श्री अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है
" यदायमात्मा दुःखस्य साधनीभूतां द्वेषरूपामिन्द्रियार्थानुरागरूपां चाशुभोपयोगभूमिकामतिक्रम्य देवगुरुयतिपूजादानशीलोपवासप्रीतिलक्षणं धर्मानुरागमङ्गीकरोति तदेन्द्रियसुखस्य साधनीभूत शुभोपयोगभूमिकामधिरूढोऽभिलप्येत"
यह शुभोपयोगी जीव जब शुभ दैवबलयुक्त एवं शुभ लेश्याबलयुक्त होता है उस समय इन्द्रिय सुखका अनुभव करनेवाला होता है। यदि शुभलेश्याका और शुभ कर्मोदयका अभाव हो तो ऐसी दशामें बद्धायुष्कतादिके कारण शुभोपयोगी ( सम्यकदृष्टि) जीव भी नारकी बनकर नरकमें मारण ताडनादिरूप घोर दुःखको ही भोगनेवाला हो जाता है।
अशुभोपयोगी (मिध्यादृष्टि) जीव बाह्य समुचित सामग्री होने पर भी उसके द्वारा सदा दुःखका ही अनुभव किया करता है। जैसे पित्तज्वरवाला मनुष्य दूधमें भी कड़वापन ही मानता है। इसप्रकार शुभोपयोगी और अशुभोपयोगी में परस्पर किंचित् विशेषता है। लौकिक दृष्टिमें शुभोपयोगी सुखी और अशुभोपयोगी दुःखी होता है किन्तु पारमार्थिक दृष्टिमें दोनों ही परतंत्रता जकड़े हुए होते हैं अतः दोनों ही दुखी हैं
गाथा -71,72
औरों की क्या बात शक्रको भी न सहज सुख होता है ।
शारीरिक वेदना वह विषयोंमें लेता गोता है ॥
नारककी तरह पशु मनुज सुरको भी दुःख तनुज है ।
तो फिर शुभ अशुभोपयोग में ज्ञानी कैसा भेदक है ॥ ३६ ॥
सारांश: - लौकिक दृष्टिसे नारकियोंको दुख और देवोंको सुख होता है। देवोंमें भी प्रधानता इन्द्रोंकी है जो निश्चितरूपसे शुभोपयोगी होते हैं। जब हम इनके विषयमें भी विचार करते 1 हैं तो बात कुछ और ही पाते हैं। भूख प्यास आदिकी वेदना जैसी नारकियोंके होती है वैसी ही इन्द्रोंके भी होती है। अन्तर केवल इतना ही है कि नारकियोंके पास उसे मिटानेका
कोई बाह्य साधन नहीं होता है और इन्द्रोंके पास होता है।
यह बात तो ऐसी ही हुई कि जैसे दो मनुष्योंको शीतज्वरका वेग आया। इनमेंसे एकको तो रजाई और कम्बल मिल गये, उन्हें ओढ़कर वह सो गया परन्तु दूसरेके पास कुछ भी न होनेसे वह बिना ओढे ही अपने स्थान पर पड़ा रहा। ऊपरसे देखनेमें तो उन दोनोंमें अन्तर दीख रहा है। एक ओढ़े हुए हैं और दूसरेके पास ओढनेको कुछ भी नहीं है परन्तु भीतरसे दोनोंको जाड़ा (सर्दी) सता रहा है। दोनों ही भीतरी ठण्डकसे काँप रहे हैं। दोनों ही शीतज्वरके रोगी हैं। रोगके वेगसे पीड़ित हैं।
इसीप्रकार देव और नारकी दोनों ही दुखी होते हैं। बाह्य में एकके पास भोग सामग्री है और दूसरेके पास नहीं है फिर भी उनके दुःखमें कोई मौलिक अन्तर नहीं होता है। नीरोगपन की तरह जो मनुष्य अपने अंतरंगमें सहज स्वभाव के मूल्यको आँक रहा है उसके लिए दोनों एक समान हैं। दोनों ही अपनेपनसे दूर होकर विकारग्रस्त हो रहे हैं। वस्तुतः दोनों ही दुःखी हैं। नारकी जीवको जिस शरीरमें रहकर दुःख का अनुभव करना पड़ता है वह उस शरीरका शोषण करना चाहता है और इन्द्र उसीका पोषण करना चाहता है। विवेकशील महात्माकी दृष्टिमें नारकीय जीवन तो उपवासकी तरह और स्वर्गीय जीवन भोजन की तरह प्रतीत होता है,