09-18-2022, 09:27 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -71,72
औरों की क्या बात शक्रको भी न सहज सुख होता है ।
शारीरिक वेदना वह विषयोंमें लेता गोता है ॥
नारककी तरह पशु मनुज सुरको भी दुःख तनुज है ।
तो फिर शुभ अशुभोपयोग में ज्ञानी कैसा भेदक है ॥ ३६ ॥
सारांश: - लौकिक दृष्टिसे नारकियोंको दुख और देवोंको सुख होता है। देवोंमें भी प्रधानता इन्द्रोंकी है जो निश्चितरूपसे शुभोपयोगी होते हैं। जब हम इनके विषयमें भी विचार करते 1 हैं तो बात कुछ और ही पाते हैं। भूख प्यास आदिकी वेदना जैसी नारकियोंके होती है वैसी ही इन्द्रोंके भी होती है। अन्तर केवल इतना ही है कि नारकियोंके पास उसे मिटानेका
कोई बाह्य साधन नहीं होता है और इन्द्रोंके पास होता है।
यह बात तो ऐसी ही हुई कि जैसे दो मनुष्योंको शीतज्वरका वेग आया। इनमेंसे एकको तो रजाई और कम्बल मिल गये, उन्हें ओढ़कर वह सो गया परन्तु दूसरेके पास कुछ भी न होनेसे वह बिना ओढे ही अपने स्थान पर पड़ा रहा। ऊपरसे देखनेमें तो उन दोनोंमें अन्तर दीख रहा है। एक ओढ़े हुए हैं और दूसरेके पास ओढनेको कुछ भी नहीं है परन्तु भीतरसे दोनोंको जाड़ा (सर्दी) सता रहा है। दोनों ही भीतरी ठण्डकसे काँप रहे हैं। दोनों ही शीतज्वरके रोगी हैं। रोगके वेगसे पीड़ित हैं।
इसीप्रकार देव और नारकी दोनों ही दुखी होते हैं। बाह्य में एकके पास भोग सामग्री है और दूसरेके पास नहीं है फिर भी उनके दुःखमें कोई मौलिक अन्तर नहीं होता है। नीरोगपन की तरह जो मनुष्य अपने अंतरंगमें सहज स्वभाव के मूल्यको आँक रहा है उसके लिए दोनों एक समान हैं। दोनों ही अपनेपनसे दूर होकर विकारग्रस्त हो रहे हैं। वस्तुतः दोनों ही दुःखी हैं। नारकी जीवको जिस शरीरमें रहकर दुःख का अनुभव करना पड़ता है वह उस शरीरका शोषण करना चाहता है और इन्द्र उसीका पोषण करना चाहता है। विवेकशील महात्माकी दृष्टिमें नारकीय जीवन तो उपवासकी तरह और स्वर्गीय जीवन भोजन की तरह प्रतीत होता है,
गाथा -73,74
शक्रचक्रधरके पथेष्ट भोगों से भी तनुपोषण ही
होकर होता है दुनियामें जीवभावका शोषण ही
देवादिकका पुण्योदय भी परिणमनात्मक होता है ।
इसीलिये विषयाभिलाय पैदा करके सुख खोता है ॥ ३७
सारांश:-जोंक किसीके भी दूषित रक्तको पिया करती है और उससे वह पुष्ट हुई ही प्रतीत होती है परन्तु परिणाम यह होता है कि यदि वह अल्प समय तक भी उसे पिये हुए रह जाय तो प्राणान्तकारक कष्ट उठाती है। ऐसे ही शक्र चक्रधरादिक विशिष्ट पुण्यशाली पुरुष भी अपने प्राप्त भोगों द्वारा शरीर और इन्द्रियों को संतुष्ट करते हैं और अपने आपको सुखी मानते हैं परन्तु फल उनको विपरीत ही मिलता है। अन्त में पश्चाताप ही उनके लिए शेष रह जाता है क्योंकि बड़े से बड़े पुण्य का भी अन्त अवश्य होता है। वह सदा बना रहनेवाला नहीं होता है, नाशमान होता है एवं उसमें बीच बीच में भी अनेक तरह के उतार चढ़ाव आते रहते हैं जिससे वह अपने साथ शोक सन्तापको लिये हुए तृष्णाभिवृद्धिका ही कारण हुआ करता है। इस पर ऐसा कहा जा सकता है कि परिणाम में भले ही दुःख हो परन्तु तत्काल तो विषय भोग में सुख होता है या नहीं?
गाथा -71,72
औरों की क्या बात शक्रको भी न सहज सुख होता है ।
शारीरिक वेदना वह विषयोंमें लेता गोता है ॥
नारककी तरह पशु मनुज सुरको भी दुःख तनुज है ।
तो फिर शुभ अशुभोपयोग में ज्ञानी कैसा भेदक है ॥ ३६ ॥
सारांश: - लौकिक दृष्टिसे नारकियोंको दुख और देवोंको सुख होता है। देवोंमें भी प्रधानता इन्द्रोंकी है जो निश्चितरूपसे शुभोपयोगी होते हैं। जब हम इनके विषयमें भी विचार करते 1 हैं तो बात कुछ और ही पाते हैं। भूख प्यास आदिकी वेदना जैसी नारकियोंके होती है वैसी ही इन्द्रोंके भी होती है। अन्तर केवल इतना ही है कि नारकियोंके पास उसे मिटानेका
कोई बाह्य साधन नहीं होता है और इन्द्रोंके पास होता है।
यह बात तो ऐसी ही हुई कि जैसे दो मनुष्योंको शीतज्वरका वेग आया। इनमेंसे एकको तो रजाई और कम्बल मिल गये, उन्हें ओढ़कर वह सो गया परन्तु दूसरेके पास कुछ भी न होनेसे वह बिना ओढे ही अपने स्थान पर पड़ा रहा। ऊपरसे देखनेमें तो उन दोनोंमें अन्तर दीख रहा है। एक ओढ़े हुए हैं और दूसरेके पास ओढनेको कुछ भी नहीं है परन्तु भीतरसे दोनोंको जाड़ा (सर्दी) सता रहा है। दोनों ही भीतरी ठण्डकसे काँप रहे हैं। दोनों ही शीतज्वरके रोगी हैं। रोगके वेगसे पीड़ित हैं।
इसीप्रकार देव और नारकी दोनों ही दुखी होते हैं। बाह्य में एकके पास भोग सामग्री है और दूसरेके पास नहीं है फिर भी उनके दुःखमें कोई मौलिक अन्तर नहीं होता है। नीरोगपन की तरह जो मनुष्य अपने अंतरंगमें सहज स्वभाव के मूल्यको आँक रहा है उसके लिए दोनों एक समान हैं। दोनों ही अपनेपनसे दूर होकर विकारग्रस्त हो रहे हैं। वस्तुतः दोनों ही दुःखी हैं। नारकी जीवको जिस शरीरमें रहकर दुःख का अनुभव करना पड़ता है वह उस शरीरका शोषण करना चाहता है और इन्द्र उसीका पोषण करना चाहता है। विवेकशील महात्माकी दृष्टिमें नारकीय जीवन तो उपवासकी तरह और स्वर्गीय जीवन भोजन की तरह प्रतीत होता है,
गाथा -73,74
शक्रचक्रधरके पथेष्ट भोगों से भी तनुपोषण ही
होकर होता है दुनियामें जीवभावका शोषण ही
देवादिकका पुण्योदय भी परिणमनात्मक होता है ।
इसीलिये विषयाभिलाय पैदा करके सुख खोता है ॥ ३७
सारांश:-जोंक किसीके भी दूषित रक्तको पिया करती है और उससे वह पुष्ट हुई ही प्रतीत होती है परन्तु परिणाम यह होता है कि यदि वह अल्प समय तक भी उसे पिये हुए रह जाय तो प्राणान्तकारक कष्ट उठाती है। ऐसे ही शक्र चक्रधरादिक विशिष्ट पुण्यशाली पुरुष भी अपने प्राप्त भोगों द्वारा शरीर और इन्द्रियों को संतुष्ट करते हैं और अपने आपको सुखी मानते हैं परन्तु फल उनको विपरीत ही मिलता है। अन्त में पश्चाताप ही उनके लिए शेष रह जाता है क्योंकि बड़े से बड़े पुण्य का भी अन्त अवश्य होता है। वह सदा बना रहनेवाला नहीं होता है, नाशमान होता है एवं उसमें बीच बीच में भी अनेक तरह के उतार चढ़ाव आते रहते हैं जिससे वह अपने साथ शोक सन्तापको लिये हुए तृष्णाभिवृद्धिका ही कारण हुआ करता है। इस पर ऐसा कहा जा सकता है कि परिणाम में भले ही दुःख हो परन्तु तत्काल तो विषय भोग में सुख होता है या नहीं?