09-18-2022, 09:50 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -73,74
शक्रचक्रधरके पथेष्ट भोगों से भी तनुपोषण ही
होकर होता है दुनियामें जीवभावका शोषण ही
देवादिकका पुण्योदय भी परिणमनात्मक होता है ।
इसीलिये विषयाभिलाय पैदा करके सुख खोता है ॥ ३७
सारांश:-जोंक किसीके भी दूषित रक्तको पिया करती है और उससे वह पुष्ट हुई ही प्रतीत होती है परन्तु परिणाम यह होता है कि यदि वह अल्प समय तक भी उसे पिये हुए रह जाय तो प्राणान्तकारक कष्ट उठाती है। ऐसे ही शक्र चक्रधरादिक विशिष्ट पुण्यशाली पुरुष भी अपने प्राप्त भोगों द्वारा शरीर और इन्द्रियों को संतुष्ट करते हैं और अपने आपको सुखी मानते हैं परन्तु फल उनको विपरीत ही मिलता है। अन्त में पश्चाताप ही उनके लिए शेष रह जाता है क्योंकि बड़े से बड़े पुण्य का भी अन्त अवश्य होता है। वह सदा बना रहनेवाला नहीं होता है, नाशमान होता है एवं उसमें बीच बीच में भी अनेक तरह के उतार चढ़ाव आते रहते हैं जिससे वह अपने साथ शोक सन्तापको लिये हुए तृष्णाभिवृद्धिका ही कारण हुआ करता है। इस पर ऐसा कहा जा सकता है कि परिणाम में भले ही दुःख हो परन्तु तत्काल तो विषय भोग में सुख होता है या नहीं?
गाथा -75,76
तृष्णाके वश दुःखी होकर ही तो विषयों को सेवे
संसारी जन जैसे आतुर होवे वह औषध लेवे ॥
पराधीन विच्छेदपूर्ण बाधायुत पापबीज भी है।
अतः विषम इन्द्रियसुख ऐसी चर्चा ऋषियोने को है ॥ ३८ ॥
सारांश :- आचार्य कहते हैं कि इन्द्रियजन्य सुख परपदार्थके संयोगसे होनेवाला है और पुण्यकर्मके उदयकी अपेक्षा रखता है अतः बाधा सहित भी है। परपदार्थ (समुचित विषय) अनुकूल हो और पुण्यका उदय भी हो परन्तु उचित व्यवस्थाका अभाव हो तो भी सांसारिक सुखमें बाधा उत्पन्न हो जाती है। जैसे एक स्वस्थ मनुष्य को स्त्रीप्रसंगको वासना है। स्त्री भी पासमें खड़ी है और वह भी प्रसंग करना चाहती है परन्तु वहीं पर गुरुजन या सखियाँ खड़ी हुई देख रही हों तो अभीप्सित कार्य नहीं हो सकता है, वहाँ बाधा उत्पन्न हो जाती है।
इसीप्रकार विषय सुख विच्छेदयुक्त भी होता है तथा विषय सुख को यदि तत्परता से भोगा जाय तो आगामी कालके लिये वह पापबंधका भी कारण होता है और विषम होता है। अपने कालमें भी निरन्तर एकरूपमें नहीं रहता है। जैसे एक मनुष्य भोजन कर रहा है। उसको दालका कुछ और ही स्वाद आता है और भातका कुछ और ही आता है तथा उनके साथमें खाये जानेवाले शाकपातका कुछ और ही स्वाद आता है। इन सब बातोंसे विषय सुख उत्तरोत्तर तृष्णाको बढ़ानेवाला होता है अतः विषमिश्रित मिन्न भक्षणको तरह हेय ही है।
विषमिश्रित मिष्टान्न खानेमें मीठा अवश्य लगता है परन्तु वह साथमें दाह भी उत्पन्न करता है। ऐसे ही विषय सेवनमें इस जीवको आनन्दका अनुभव होता है परन्तु साथ ही वह तृष्णाको बढ़ानेवाला भी होता है। अतः विषय सेवन तत्कालमें भी आचार्योंके कथनमें दुःखरूप ही होता है। दुःख तो दुःख है ही किन्तु विषयसुख भी दुःख ही है। जब ऐसा सिद्धांत सिद्ध हो गया तब पुण्य और पापमें भी क्या भेद रहा? ऐसा समझकर पापकी तरह पुण्यसे भी जब तक पार नहीं हो जाता है तबतक संसार बना ही रहता है।
गाथा -73,74
शक्रचक्रधरके पथेष्ट भोगों से भी तनुपोषण ही
होकर होता है दुनियामें जीवभावका शोषण ही
देवादिकका पुण्योदय भी परिणमनात्मक होता है ।
इसीलिये विषयाभिलाय पैदा करके सुख खोता है ॥ ३७
सारांश:-जोंक किसीके भी दूषित रक्तको पिया करती है और उससे वह पुष्ट हुई ही प्रतीत होती है परन्तु परिणाम यह होता है कि यदि वह अल्प समय तक भी उसे पिये हुए रह जाय तो प्राणान्तकारक कष्ट उठाती है। ऐसे ही शक्र चक्रधरादिक विशिष्ट पुण्यशाली पुरुष भी अपने प्राप्त भोगों द्वारा शरीर और इन्द्रियों को संतुष्ट करते हैं और अपने आपको सुखी मानते हैं परन्तु फल उनको विपरीत ही मिलता है। अन्त में पश्चाताप ही उनके लिए शेष रह जाता है क्योंकि बड़े से बड़े पुण्य का भी अन्त अवश्य होता है। वह सदा बना रहनेवाला नहीं होता है, नाशमान होता है एवं उसमें बीच बीच में भी अनेक तरह के उतार चढ़ाव आते रहते हैं जिससे वह अपने साथ शोक सन्तापको लिये हुए तृष्णाभिवृद्धिका ही कारण हुआ करता है। इस पर ऐसा कहा जा सकता है कि परिणाम में भले ही दुःख हो परन्तु तत्काल तो विषय भोग में सुख होता है या नहीं?
गाथा -75,76
तृष्णाके वश दुःखी होकर ही तो विषयों को सेवे
संसारी जन जैसे आतुर होवे वह औषध लेवे ॥
पराधीन विच्छेदपूर्ण बाधायुत पापबीज भी है।
अतः विषम इन्द्रियसुख ऐसी चर्चा ऋषियोने को है ॥ ३८ ॥
सारांश :- आचार्य कहते हैं कि इन्द्रियजन्य सुख परपदार्थके संयोगसे होनेवाला है और पुण्यकर्मके उदयकी अपेक्षा रखता है अतः बाधा सहित भी है। परपदार्थ (समुचित विषय) अनुकूल हो और पुण्यका उदय भी हो परन्तु उचित व्यवस्थाका अभाव हो तो भी सांसारिक सुखमें बाधा उत्पन्न हो जाती है। जैसे एक स्वस्थ मनुष्य को स्त्रीप्रसंगको वासना है। स्त्री भी पासमें खड़ी है और वह भी प्रसंग करना चाहती है परन्तु वहीं पर गुरुजन या सखियाँ खड़ी हुई देख रही हों तो अभीप्सित कार्य नहीं हो सकता है, वहाँ बाधा उत्पन्न हो जाती है।
इसीप्रकार विषय सुख विच्छेदयुक्त भी होता है तथा विषय सुख को यदि तत्परता से भोगा जाय तो आगामी कालके लिये वह पापबंधका भी कारण होता है और विषम होता है। अपने कालमें भी निरन्तर एकरूपमें नहीं रहता है। जैसे एक मनुष्य भोजन कर रहा है। उसको दालका कुछ और ही स्वाद आता है और भातका कुछ और ही आता है तथा उनके साथमें खाये जानेवाले शाकपातका कुछ और ही स्वाद आता है। इन सब बातोंसे विषय सुख उत्तरोत्तर तृष्णाको बढ़ानेवाला होता है अतः विषमिश्रित मिन्न भक्षणको तरह हेय ही है।
विषमिश्रित मिष्टान्न खानेमें मीठा अवश्य लगता है परन्तु वह साथमें दाह भी उत्पन्न करता है। ऐसे ही विषय सेवनमें इस जीवको आनन्दका अनुभव होता है परन्तु साथ ही वह तृष्णाको बढ़ानेवाला भी होता है। अतः विषय सेवन तत्कालमें भी आचार्योंके कथनमें दुःखरूप ही होता है। दुःख तो दुःख है ही किन्तु विषयसुख भी दुःख ही है। जब ऐसा सिद्धांत सिद्ध हो गया तब पुण्य और पापमें भी क्या भेद रहा? ऐसा समझकर पापकी तरह पुण्यसे भी जब तक पार नहीं हो जाता है तबतक संसार बना ही रहता है।