09-21-2022, 03:48 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -77,78
जो कि पाप दुःख पुण्पसे सुख ऐसे विचारयुत है।
तब तक मोह ममत्व सहित होनेसे संसारमें रहे ॥
वस्तुरूप अनुभावक तो परचीजों समतायुत हो ।
शुद्धोपयोगमय दहेज दुःखोंसे होकर दूर रहो ॥ ३९ ॥
सारांश:- चोरी व्यभिचार आदि पापकार्यों के करनेसे इस जीवको दुःख भोगना पड़ता है किन्तु यज्ञानुष्ठान दान आदि पुण्यकर्मों के करनेसे सुख मिलता है। इस प्रकार पाप और पुण्य में भेद स्वीकार करने वाला मानव यद्यपि पापकार्यों से बचकर रह सकता है किन्तु पुण्यकार्यो के प्रति रहनेवाले मोहसे मुक्त होने का उसके पास कोई मार्ग ही नहीं होता है। अतः वह संसार से कभी पार ही नहीं हो सकता है।
जो मनुष्य तत्त्वदृष्टि बन चुका है, जिसने यह समझ लिया है कि मेरी आत्मा वास्तव में सच्चिदानन्द स्वरूप और अमूर्तिक है, उसका इन बाह्य पदार्थोंसे कुछ भी हिताहित नहीं है। इसलिये इनको इष्ट और अनिष्ट मानकर व्यर्थकी उलझनमें वह नहीं फँसता है। वह पापकार्यों को बुरे मानकर उनसे द्वेष नहीं करता है और अपने आपके लिए निस्सार समझकर उन्हें स्वीकार भी नहीं करता है। उनसे सदा दूर ही रहता है। इसी तरह पुण्यकार्यों को भी अच्छे मानकर उनमें तल्लीन नहीं होता है अपितु उदास रहनेका प्रयास करता है। ऐसा जीव अपने उपयोग को निर्मल से निर्मल बनाता हुआ अन्त में किसी एक दिन जन्म मरणके दुःख से रहित हो जाता है।
गाथा -77,78
जो कि पाप दुःख पुण्पसे सुख ऐसे विचारयुत है।
तब तक मोह ममत्व सहित होनेसे संसारमें रहे ॥
वस्तुरूप अनुभावक तो परचीजों समतायुत हो ।
शुद्धोपयोगमय दहेज दुःखोंसे होकर दूर रहो ॥ ३९ ॥
सारांश:- चोरी व्यभिचार आदि पापकार्यों के करनेसे इस जीवको दुःख भोगना पड़ता है किन्तु यज्ञानुष्ठान दान आदि पुण्यकर्मों के करनेसे सुख मिलता है। इस प्रकार पाप और पुण्य में भेद स्वीकार करने वाला मानव यद्यपि पापकार्यों से बचकर रह सकता है किन्तु पुण्यकार्यो के प्रति रहनेवाले मोहसे मुक्त होने का उसके पास कोई मार्ग ही नहीं होता है। अतः वह संसार से कभी पार ही नहीं हो सकता है।
जो मनुष्य तत्त्वदृष्टि बन चुका है, जिसने यह समझ लिया है कि मेरी आत्मा वास्तव में सच्चिदानन्द स्वरूप और अमूर्तिक है, उसका इन बाह्य पदार्थोंसे कुछ भी हिताहित नहीं है। इसलिये इनको इष्ट और अनिष्ट मानकर व्यर्थकी उलझनमें वह नहीं फँसता है। वह पापकार्यों को बुरे मानकर उनसे द्वेष नहीं करता है और अपने आपके लिए निस्सार समझकर उन्हें स्वीकार भी नहीं करता है। उनसे सदा दूर ही रहता है। इसी तरह पुण्यकार्यों को भी अच्छे मानकर उनमें तल्लीन नहीं होता है अपितु उदास रहनेका प्रयास करता है। ऐसा जीव अपने उपयोग को निर्मल से निर्मल बनाता हुआ अन्त में किसी एक दिन जन्म मरणके दुःख से रहित हो जाता है।