09-23-2022, 04:29 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -81,82
आत्मभावमें रुचि लेता है मोहरहित जो होता है।
फिर रागद्वेष रहित होकर समरसमें लेता गोता है
नमस्कार उन अरहन्तोंको यो जिनने रागादि हरे ।
दे उपदेश भव्यजयोंको भवसमुद्रसे आप तरे
सारांश:- वस्तुतत्व को अन्यथा मानने रूप मोहभाव जब इस आत्मा का दूर होजाता है तब अपने पुरातन संस्कारानुसार भले ही वह वर्तमान में अपने लिये अपने कर्तव्य कार्य किसी को साधक और किसी को बाधक मानकर उन पर राग द्वेष करता हो तथापि वह ऐसे करने को यथार्थमें अनुचित मानकर, उस पर भी विजय प्राप्त करके वीतराग बनना चाहता है। अतः वह अन्तरात्मा तथा शुभोपयोगी कहलाता है।
यही अन्तरात्मा जब पूर्ण वीतराग बनकर शुद्धोपयोगी होता हुआ केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है तब परमात्मा बन जाता है। जो पहिले संसारावस्था में आत्मा को शरीररूप ही माननेके कारण बहिरात्मा तथा अशुभोपयोगी बना हुआ था। मतलब यह है कि अवस्थाभेदसे आत्मा अशुभ, शुभ तथा शुद्ध अर्थात् बुरी, अच्छी और इन दोनोंसे भी भिन्न (न अच्छी और न चुरी) स्वभावमय ऐसे तीन तरहका होता है। शङ्काः—जैन शास्त्रोंमें स्थान स्थान पर वर्णन है कि संसारके पदार्थ न अच्छे हैं और न बुरे हैं और शास्त्रकारोंका ही यह विधान है कि न कोई आत्मा अच्छा है और न कोई बुरा?
उत्तर: – शास्त्रकारों का कहना है कि संसारका कोई भी पदार्थ न तो आत्मा का निश्चित रूपसे हित ही करनेवाला है और न अहित करने वाला है। अतः न तो कोई पदार्थ वास्तव में इसके लिए अच्छा ही है और न बुरा ही किन्तु आत्मा स्वयं ही अपने लिए अच्छा और बुरा होता है।
जो आत्मा सत्ता (सज्जनता) सत्प्रवृत्ति, समता एकता को स्वीकार करता है वह शुभ कहलाता है और जो असत्ता (दुर्जनता) असद्वृत्ति ममता या भेदभाव से ग्रस्त है वह अशुभ कहा जाता है।
शङ्काः- ग्राह्य तो शुद्धको कहना चाहिये। शुभ भी अशुभकी तरह त्याज्य ही हैं क्योंकि
आत्मा जैसे अशुभ का त्याग करके शुभ को स्वीकार करता है वैसे ही शुभ का भी त्याग करके अन्तमें शुद्ध बन जाता है।
उत्तर: -अशुभका प्रध्वंसाभाव शुभ है। शुभका प्रध्वंसाभाव शुद्ध है। यह बात तो ठीक - है। "चारित्रमोह के साथ दर्शनमोह का भी होना अशुभोपयोग है किन्तु दर्शनमोह दूर होकर चारित्रमोहका रहना शुभोपयोग है और चारित्रमोह का भी अभाव हो जाना शुद्धोपयोग है।" अशुभ और शुभ ये दोनों तो, कृत्य तत्परतामय होते हैं किन्तु शुद्ध कृत्याभावरूप, कृतकृत्यतामयं होता है, इतना इनमें भेद है।
अशुभोपयोग दशा में यह जीव चोरी करना, झूठ बोलना आदि हानिकर कार्योंको ही लाभदायक समझकर उन्होंके करनेमें लगा रहता है परन्तु शुभोपयोग होने पर उन्हें हानिकर समझकर छोड़ देता है और सम्मान, दान, सत्यसम्भाषण आदिको प्रयत्नपूर्वक करने लगता है। इन सबको पूर्णरूपसे कर चुकना ही शुद्धोपयोग कहलाता है।
शुभकार्य तो प्रयत्नपूर्वक छोड़े जाते हैं परन्तु शुभकार्य छोड़े नहीं जाते हैं, वे तो शुद्धोपयोग होनेपर स्वयं ही छूट जाते हैं। जैसे एक हृदयकी कमजोरी वाले रोगी के सम्मुख शोक सन्ताप की बातें छेड़दी गई, उनमें उलझ जानेसे रोगीको रातमें भी नींद न आकर व्याकुलता होने लगी। तब वैद्यने कहा कि इसके आगे ऐसी बुरी बातें करना छोड़ दो और कुछ ऐसी अच्छी बातें करो जिससे इसे आनन्द मिले। तब हास्य विनोदकी बातें की जाने लगीं, जिन्हें वह ध्यानपूर्वक सुनने लगा। उनसे मन प्रसन्न होजानेके कारण उसे नींद आ गई जिससे उसकी हास्यविनोदकी बातें भी छूट गई।
इसीप्रकार अशुभोपयोग तो संक्लेशरूप होनेसे त्याज्य होता है और प्रसक्तिकारक होनेसे शुभोपयोग ग्राह्य होता है किन्तु शुद्धोपयोग स्वयं प्रसादरूप होनेसे निर्वर्त्य माना गया है। यही बात मूल ग्रंथकारके कथनसे भी स्पष्ट है क्योंकि ग्रंथकार अपनी ८२वीं गाथामें शुद्धोपयोग सम्पत्तिवाले अरहंतोंको गौरवके साथ नमस्कार करनेमें प्रवृत्त हैं, जिससे वे अपने अंतरंगमें प्रस्फुट होनेवाले शुभोपयोगका परिचय दे रहे हैं। एवं हम लोगोंको भी प्रेरणा दे रहे हैं कि तुम भी श्री अरहंत भगवानके उपदेशको स्वीकार करो जिससे अपने मोहभावको मिटाकर शुभोपयोगी बन सको क्योंकि मोही जीव एकान्तरूपसे परपदार्थोंको ही इष्ट और अनिष्ट मानकर क्षुब्ध बना रहता है। रागद्वेषको दूर नहीं कर सकता अतः वह कर्मबंधसे बच नहीं सकता।
गाथा -81,82
आत्मभावमें रुचि लेता है मोहरहित जो होता है।
फिर रागद्वेष रहित होकर समरसमें लेता गोता है
नमस्कार उन अरहन्तोंको यो जिनने रागादि हरे ।
दे उपदेश भव्यजयोंको भवसमुद्रसे आप तरे
सारांश:- वस्तुतत्व को अन्यथा मानने रूप मोहभाव जब इस आत्मा का दूर होजाता है तब अपने पुरातन संस्कारानुसार भले ही वह वर्तमान में अपने लिये अपने कर्तव्य कार्य किसी को साधक और किसी को बाधक मानकर उन पर राग द्वेष करता हो तथापि वह ऐसे करने को यथार्थमें अनुचित मानकर, उस पर भी विजय प्राप्त करके वीतराग बनना चाहता है। अतः वह अन्तरात्मा तथा शुभोपयोगी कहलाता है।
यही अन्तरात्मा जब पूर्ण वीतराग बनकर शुद्धोपयोगी होता हुआ केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है तब परमात्मा बन जाता है। जो पहिले संसारावस्था में आत्मा को शरीररूप ही माननेके कारण बहिरात्मा तथा अशुभोपयोगी बना हुआ था। मतलब यह है कि अवस्थाभेदसे आत्मा अशुभ, शुभ तथा शुद्ध अर्थात् बुरी, अच्छी और इन दोनोंसे भी भिन्न (न अच्छी और न चुरी) स्वभावमय ऐसे तीन तरहका होता है। शङ्काः—जैन शास्त्रोंमें स्थान स्थान पर वर्णन है कि संसारके पदार्थ न अच्छे हैं और न बुरे हैं और शास्त्रकारोंका ही यह विधान है कि न कोई आत्मा अच्छा है और न कोई बुरा?
उत्तर: – शास्त्रकारों का कहना है कि संसारका कोई भी पदार्थ न तो आत्मा का निश्चित रूपसे हित ही करनेवाला है और न अहित करने वाला है। अतः न तो कोई पदार्थ वास्तव में इसके लिए अच्छा ही है और न बुरा ही किन्तु आत्मा स्वयं ही अपने लिए अच्छा और बुरा होता है।
जो आत्मा सत्ता (सज्जनता) सत्प्रवृत्ति, समता एकता को स्वीकार करता है वह शुभ कहलाता है और जो असत्ता (दुर्जनता) असद्वृत्ति ममता या भेदभाव से ग्रस्त है वह अशुभ कहा जाता है।
शङ्काः- ग्राह्य तो शुद्धको कहना चाहिये। शुभ भी अशुभकी तरह त्याज्य ही हैं क्योंकि
आत्मा जैसे अशुभ का त्याग करके शुभ को स्वीकार करता है वैसे ही शुभ का भी त्याग करके अन्तमें शुद्ध बन जाता है।
उत्तर: -अशुभका प्रध्वंसाभाव शुभ है। शुभका प्रध्वंसाभाव शुद्ध है। यह बात तो ठीक - है। "चारित्रमोह के साथ दर्शनमोह का भी होना अशुभोपयोग है किन्तु दर्शनमोह दूर होकर चारित्रमोहका रहना शुभोपयोग है और चारित्रमोह का भी अभाव हो जाना शुद्धोपयोग है।" अशुभ और शुभ ये दोनों तो, कृत्य तत्परतामय होते हैं किन्तु शुद्ध कृत्याभावरूप, कृतकृत्यतामयं होता है, इतना इनमें भेद है।
अशुभोपयोग दशा में यह जीव चोरी करना, झूठ बोलना आदि हानिकर कार्योंको ही लाभदायक समझकर उन्होंके करनेमें लगा रहता है परन्तु शुभोपयोग होने पर उन्हें हानिकर समझकर छोड़ देता है और सम्मान, दान, सत्यसम्भाषण आदिको प्रयत्नपूर्वक करने लगता है। इन सबको पूर्णरूपसे कर चुकना ही शुद्धोपयोग कहलाता है।
शुभकार्य तो प्रयत्नपूर्वक छोड़े जाते हैं परन्तु शुभकार्य छोड़े नहीं जाते हैं, वे तो शुद्धोपयोग होनेपर स्वयं ही छूट जाते हैं। जैसे एक हृदयकी कमजोरी वाले रोगी के सम्मुख शोक सन्ताप की बातें छेड़दी गई, उनमें उलझ जानेसे रोगीको रातमें भी नींद न आकर व्याकुलता होने लगी। तब वैद्यने कहा कि इसके आगे ऐसी बुरी बातें करना छोड़ दो और कुछ ऐसी अच्छी बातें करो जिससे इसे आनन्द मिले। तब हास्य विनोदकी बातें की जाने लगीं, जिन्हें वह ध्यानपूर्वक सुनने लगा। उनसे मन प्रसन्न होजानेके कारण उसे नींद आ गई जिससे उसकी हास्यविनोदकी बातें भी छूट गई।
इसीप्रकार अशुभोपयोग तो संक्लेशरूप होनेसे त्याज्य होता है और प्रसक्तिकारक होनेसे शुभोपयोग ग्राह्य होता है किन्तु शुद्धोपयोग स्वयं प्रसादरूप होनेसे निर्वर्त्य माना गया है। यही बात मूल ग्रंथकारके कथनसे भी स्पष्ट है क्योंकि ग्रंथकार अपनी ८२वीं गाथामें शुद्धोपयोग सम्पत्तिवाले अरहंतोंको गौरवके साथ नमस्कार करनेमें प्रवृत्त हैं, जिससे वे अपने अंतरंगमें प्रस्फुट होनेवाले शुभोपयोगका परिचय दे रहे हैं। एवं हम लोगोंको भी प्रेरणा दे रहे हैं कि तुम भी श्री अरहंत भगवानके उपदेशको स्वीकार करो जिससे अपने मोहभावको मिटाकर शुभोपयोगी बन सको क्योंकि मोही जीव एकान्तरूपसे परपदार्थोंको ही इष्ट और अनिष्ट मानकर क्षुब्ध बना रहता है। रागद्वेषको दूर नहीं कर सकता अतः वह कर्मबंधसे बच नहीं सकता।