09-25-2022, 02:59 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -85,86
तत्वोंका अयथार्थ समादर नर पशुओं पर निर्दयता
भोगोंमें आसक्तिभाव भी जहाँ मोहकी समर्थता
जिनशासन के पढ़ने से गुणपर्यययुत तत्वार्थमति
होकर मोहनाश हो ऐसे शास्त्र पठनकी सुसङ्गति ॥ ४३ ॥
सारांश:- जो वस्तु के स्वरूप को ठीक तरह से न समझकर और का और ही समझता हो, मनुष्य और तिर्यचों पर निर्दयता रखता हो, बिना मतलब ही उन्हें कष्ट देने में तत्पर रहता हो, कफमें फैसी हुई मक्खी की तरह विषय भोगों में अत्यन्त आसक्ति रखता हो, वह मोही जीव होता है, ऐसा समझना चाहिये। उक्त तीनों बातें मोह की पहिचान हैं। यदि इन तीनों में से एक भी हो तो वहाँ मोह (मिथ्यात्व) का होना अवश्यंभावी है और तीनों ही हों तब तो कहना ही क्या है? अतः मोह को दूर करने का उपाय करना चाहिए। इसके लिए निरन्तर जैनागम का अभ्यास करना चाहिए, यही एक उसका समुचित उपाय है।
(१) तत्व की अन्यथा प्रतिपत्ति तो मिथ्यात्व का, नर पशुओं पर करुणा का न होना, द्वेष का और विषयों में आसक्ति का होना, राग का चिह्न है। ये सब तीनों, मोह के चिह्न हैं। ऐसा अर्थ भी इस गाथा नं० ८५ का किया जा सकता है किन्तु करुणा का होना, मोह का चिह्न है ऐसा अर्थ तो किसी भी तरह समझमें नहीं आता है क्योंकि स्वयं कुन्दकुन्द स्वामी ने हो करुणा को 'धम्मो दयाविशुद्धो' आदि बोधपाहुडकी गाथा नं० २५ आदि में धर्म बताया है।
यहाँ पर मूल ग्रंथकार ने मोह होने का दूसरा चिह्न “करुणाभावो य तिरियमणुएसु" बताया। है इसका अर्थ अमृतचन्द्राचार्य कृत टोकामे 'तिर्यमनुधषु प्रेक्षाष्वपि कारुण्यबुद्धि' अर्थात् पशु और मनुष्यों पर भी दयाबुद्धि का होना, मोह (मिथ्यात्व) के सद्भावका दूसरा चिह्न है, ऐसा लिखा है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि मनुष्य एवं पशुओं पर दया करनेवाला जीव मोही मिथ्यादृष्टि घोर पापी बहिरात्मा होता है। यह ऐसा अर्थ सम्पूर्ण जैनागमके विरुद्ध पड़ता है।
श्री अमृतचन्द्राचार्य जैसे मान्य विद्वान्की हुई टीकामें यह अर्थ कैसे है? स्वयं टीकाकारके ही लेखन प्रमाद से ऐसा अर्थ हुआ है या उनके बाद के किसी लेखक महाशय की कृपासे ऐसा होगया है, यह हम नहीं कह सकते हैं। ऐसा अर्थ श्री अमृतचन्द्राचार्यके बहुत समयके बादमें होनेवाले तात्पर्यवृत्तिकार श्री जयसेनस्वामीजी को भी अवश्य खटका है। इसीलिए उन्होंने अपनी कलमसे 'करुणाभावों' का अर्थ शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरोक्षास दमाद्विपरीत करुणाभावोदयापरिणामोऽथवा व्यवहारेण करुणाया अभावश्च' इसप्रकार लिखा है।
जयसेनाचार्यजी कहते हैं कि निश्चयनय से तो दया करना ही उपेक्षा संयम से विपरीत होने के कारण मोह का चिह्न है। व्यवहारनयसे देखा जावे तो दया का न करना ही मोह का चिह्न है। इस प्रकार लिख कर सङ्गति बिठाने की चेष्टा की है, फिर भी इसमें सफल नहीं हो सके हैं क्योंकि यहाँ मोह शब्द से दर्शनमोह को ही लिया गया है। दयालुता दर्शनमोह का लक्षण कभी भी नहीं माना जा सकता है। आंशिक चारित्रमोह का लक्षण कहा जा सकता है।
यदि यह कहा जावे कि निश्चयनय में चारित्रमोह और दर्शनमोह भिन्न भिन्न कहाँ हैं? जब भिन्न भिन्न नहीं हैं तो चारित्रमोहका लक्षण ही दर्शनमोहका लक्षण है इसलिये ऐसा कहना भी नहीं बन सकता है क्योंकि यहाँ ग्रन्थकार ने दर्शनमोह (मिथ्यात्व) और चारित्रमोह (राग द्वेष) को स्पष्टरूपसे भिन्न भिन्न बताया है। अतः यह मानना चाहिए कि ग्रंथकर्ता का यह सब वर्णन व्यवहारनयको लेकर ही है। इसीका समर्थन ग्रंथकार को आगेवाली ८६ वीं गाथासे और भी स्पष्टरूपमें मिल रहा है। अतः करुणाभाव का अर्थ निर्दयता (क्रूरता) लेना हो ठीक है। ग्रंथकार कहते हैं कि जिसप्र कार विपरीताभिनिवेश, मिथ्यादर्शनके सद्भावको बतलाता है वैसे ही क्रूरता (संकल्पी हिंसा, शिकार खेलना, मांस खाना आदि) भी मिथ्यादर्शनके बिना नहीं हो सकती है।
शङ्काः – करुणा के अभाव को मिध्यादर्शनका चिह्न (लक्षण) कहने पर वीतरागियों के मिथ्यादर्शन – होने का प्रसंग आ जाता है क्योंकि वहाँ करुणा (दयारूप परिणाम) का अभाव है।
उत्तर:- 'दुःख प्रतिकरण लक्षणं कारुण्यं' अर्थात् होते हुए दुःखको न होने देना, उसे हटा देना ही कारुण्य हैं। ऐसी दशा में वीतरागियों की आत्मा में कारुण्य का सद्भाव नहीं है, यह बात ही गलत है क्योंकि वीतरागियों ने अपनी आत्मा में होनेवाले दुःख का तो मूलोच्छेद ही कर दिया है एवं औरों के भी दुःख को हटाने के लिए भी वे परमादर्श बने हुए हैं, ऐसा समझना चाहिये।
गाथा -85,86
तत्वोंका अयथार्थ समादर नर पशुओं पर निर्दयता
भोगोंमें आसक्तिभाव भी जहाँ मोहकी समर्थता
जिनशासन के पढ़ने से गुणपर्यययुत तत्वार्थमति
होकर मोहनाश हो ऐसे शास्त्र पठनकी सुसङ्गति ॥ ४३ ॥
सारांश:- जो वस्तु के स्वरूप को ठीक तरह से न समझकर और का और ही समझता हो, मनुष्य और तिर्यचों पर निर्दयता रखता हो, बिना मतलब ही उन्हें कष्ट देने में तत्पर रहता हो, कफमें फैसी हुई मक्खी की तरह विषय भोगों में अत्यन्त आसक्ति रखता हो, वह मोही जीव होता है, ऐसा समझना चाहिये। उक्त तीनों बातें मोह की पहिचान हैं। यदि इन तीनों में से एक भी हो तो वहाँ मोह (मिथ्यात्व) का होना अवश्यंभावी है और तीनों ही हों तब तो कहना ही क्या है? अतः मोह को दूर करने का उपाय करना चाहिए। इसके लिए निरन्तर जैनागम का अभ्यास करना चाहिए, यही एक उसका समुचित उपाय है।
(१) तत्व की अन्यथा प्रतिपत्ति तो मिथ्यात्व का, नर पशुओं पर करुणा का न होना, द्वेष का और विषयों में आसक्ति का होना, राग का चिह्न है। ये सब तीनों, मोह के चिह्न हैं। ऐसा अर्थ भी इस गाथा नं० ८५ का किया जा सकता है किन्तु करुणा का होना, मोह का चिह्न है ऐसा अर्थ तो किसी भी तरह समझमें नहीं आता है क्योंकि स्वयं कुन्दकुन्द स्वामी ने हो करुणा को 'धम्मो दयाविशुद्धो' आदि बोधपाहुडकी गाथा नं० २५ आदि में धर्म बताया है।
यहाँ पर मूल ग्रंथकार ने मोह होने का दूसरा चिह्न “करुणाभावो य तिरियमणुएसु" बताया। है इसका अर्थ अमृतचन्द्राचार्य कृत टोकामे 'तिर्यमनुधषु प्रेक्षाष्वपि कारुण्यबुद्धि' अर्थात् पशु और मनुष्यों पर भी दयाबुद्धि का होना, मोह (मिथ्यात्व) के सद्भावका दूसरा चिह्न है, ऐसा लिखा है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि मनुष्य एवं पशुओं पर दया करनेवाला जीव मोही मिथ्यादृष्टि घोर पापी बहिरात्मा होता है। यह ऐसा अर्थ सम्पूर्ण जैनागमके विरुद्ध पड़ता है।
श्री अमृतचन्द्राचार्य जैसे मान्य विद्वान्की हुई टीकामें यह अर्थ कैसे है? स्वयं टीकाकारके ही लेखन प्रमाद से ऐसा अर्थ हुआ है या उनके बाद के किसी लेखक महाशय की कृपासे ऐसा होगया है, यह हम नहीं कह सकते हैं। ऐसा अर्थ श्री अमृतचन्द्राचार्यके बहुत समयके बादमें होनेवाले तात्पर्यवृत्तिकार श्री जयसेनस्वामीजी को भी अवश्य खटका है। इसीलिए उन्होंने अपनी कलमसे 'करुणाभावों' का अर्थ शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरोक्षास दमाद्विपरीत करुणाभावोदयापरिणामोऽथवा व्यवहारेण करुणाया अभावश्च' इसप्रकार लिखा है।
जयसेनाचार्यजी कहते हैं कि निश्चयनय से तो दया करना ही उपेक्षा संयम से विपरीत होने के कारण मोह का चिह्न है। व्यवहारनयसे देखा जावे तो दया का न करना ही मोह का चिह्न है। इस प्रकार लिख कर सङ्गति बिठाने की चेष्टा की है, फिर भी इसमें सफल नहीं हो सके हैं क्योंकि यहाँ मोह शब्द से दर्शनमोह को ही लिया गया है। दयालुता दर्शनमोह का लक्षण कभी भी नहीं माना जा सकता है। आंशिक चारित्रमोह का लक्षण कहा जा सकता है।
यदि यह कहा जावे कि निश्चयनय में चारित्रमोह और दर्शनमोह भिन्न भिन्न कहाँ हैं? जब भिन्न भिन्न नहीं हैं तो चारित्रमोहका लक्षण ही दर्शनमोहका लक्षण है इसलिये ऐसा कहना भी नहीं बन सकता है क्योंकि यहाँ ग्रन्थकार ने दर्शनमोह (मिथ्यात्व) और चारित्रमोह (राग द्वेष) को स्पष्टरूपसे भिन्न भिन्न बताया है। अतः यह मानना चाहिए कि ग्रंथकर्ता का यह सब वर्णन व्यवहारनयको लेकर ही है। इसीका समर्थन ग्रंथकार को आगेवाली ८६ वीं गाथासे और भी स्पष्टरूपमें मिल रहा है। अतः करुणाभाव का अर्थ निर्दयता (क्रूरता) लेना हो ठीक है। ग्रंथकार कहते हैं कि जिसप्र कार विपरीताभिनिवेश, मिथ्यादर्शनके सद्भावको बतलाता है वैसे ही क्रूरता (संकल्पी हिंसा, शिकार खेलना, मांस खाना आदि) भी मिथ्यादर्शनके बिना नहीं हो सकती है।
शङ्काः – करुणा के अभाव को मिध्यादर्शनका चिह्न (लक्षण) कहने पर वीतरागियों के मिथ्यादर्शन – होने का प्रसंग आ जाता है क्योंकि वहाँ करुणा (दयारूप परिणाम) का अभाव है।
उत्तर:- 'दुःख प्रतिकरण लक्षणं कारुण्यं' अर्थात् होते हुए दुःखको न होने देना, उसे हटा देना ही कारुण्य हैं। ऐसी दशा में वीतरागियों की आत्मा में कारुण्य का सद्भाव नहीं है, यह बात ही गलत है क्योंकि वीतरागियों ने अपनी आत्मा में होनेवाले दुःख का तो मूलोच्छेद ही कर दिया है एवं औरों के भी दुःख को हटाने के लिए भी वे परमादर्श बने हुए हैं, ऐसा समझना चाहिये।