09-30-2022, 03:41 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -91,92
जो सामान्य विशेषरूप इन चीजोंको नहिं पहिचाने ।
परिव्रजित होकरके भी वह नहीं धर्म मनमें आने
समश्वासयुक्त आगमवेत्ता वीतराग चारित्र धरे ।
अपितु वास्तविक धर्मयुत महात्मा समर्थ वह मुक्ति वरे ॥ ४६
सारांश:- जो किसी कारण विशेष (सन्मानादि प्राप्त करनेकी इच्छा वगैरह से गृहस्थाश्रमका त्याग करके यदि साधु भी बन गया हो परन्तु जिसके मनमें कथञ्चित अस्तिनास्ति स्वरूप सामान्य विशेषात्मक पदार्थोके यथार्थ स्वरूपका विश्वास (श्रद्धान) न होसका हो तो यह धर्मात्मा कहलानेका अधिकारी नहीं है। उसका वह देश तो बहुरूपिया के स्वाङ्गके समान है। इस दशामें भी यदि वह काललब्धिके योगसे तत्वार्थ श्रद्धान प्राप्त करले तो फिर उससे शत्रु मित्र, तृण कंचन एवं सांसारिक सुख दुःखमें समताभावरूप वास्तविक वैराग्य पर आ सकता है एवं चितकी स्थिरताके द्वारा आगमका पारगामी बनकर वह बाहर की सब बातोंसे विमुख होते हुए आत्मतल्लीनता प्राप्त करले तो तत्क्षण धर्मात्माकी परिपूर्ण सम्पत्तिको प्राप्त कर सकता है, जिससे उसे आगे दूसरा जन्म ही धारण न करना पड़े। इसतरह वह आराधकसे आराध्य बन सकता है उसकी आराधना करनेवाले कैसे होते हैं,
गाथा -91,92
जो सामान्य विशेषरूप इन चीजोंको नहिं पहिचाने ।
परिव्रजित होकरके भी वह नहीं धर्म मनमें आने
समश्वासयुक्त आगमवेत्ता वीतराग चारित्र धरे ।
अपितु वास्तविक धर्मयुत महात्मा समर्थ वह मुक्ति वरे ॥ ४६
सारांश:- जो किसी कारण विशेष (सन्मानादि प्राप्त करनेकी इच्छा वगैरह से गृहस्थाश्रमका त्याग करके यदि साधु भी बन गया हो परन्तु जिसके मनमें कथञ्चित अस्तिनास्ति स्वरूप सामान्य विशेषात्मक पदार्थोके यथार्थ स्वरूपका विश्वास (श्रद्धान) न होसका हो तो यह धर्मात्मा कहलानेका अधिकारी नहीं है। उसका वह देश तो बहुरूपिया के स्वाङ्गके समान है। इस दशामें भी यदि वह काललब्धिके योगसे तत्वार्थ श्रद्धान प्राप्त करले तो फिर उससे शत्रु मित्र, तृण कंचन एवं सांसारिक सुख दुःखमें समताभावरूप वास्तविक वैराग्य पर आ सकता है एवं चितकी स्थिरताके द्वारा आगमका पारगामी बनकर वह बाहर की सब बातोंसे विमुख होते हुए आत्मतल्लीनता प्राप्त करले तो तत्क्षण धर्मात्माकी परिपूर्ण सम्पत्तिको प्राप्त कर सकता है, जिससे उसे आगे दूसरा जन्म ही धारण न करना पड़े। इसतरह वह आराधकसे आराध्य बन सकता है उसकी आराधना करनेवाले कैसे होते हैं,