10-07-2022, 02:47 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -93,94
उसे देखते ही उठकर श्रद्धायुत हो सत्कार करे ।
स्तवन वन्दनादिकके द्वारा धर्मार्जनमें प्रेम धरे
देवाधिप राजेन्द्र सरीखे एक दोय भव लेकरके ।
जन्म जलधिके पार जाय वह संयमपूत धरके ४७
सारांश:- उपर्युक्त परमात्मा या महात्माको देखते ही जिसके चित्तमें उस उत्पन्न होजाता है वह प्रसन्नता पूर्वक आसन परसे उठकर खड़ा होकर उसका स्वागत करना, उसे उच्चासन देना, नमस्कार वन्दना स्तवनादि करना एवं गुणानुवाद करके सत्कार करनेवाला जीव भी धर्मोपार्जन कर लेता है। आंशिक रूपमें धर्मात्मा बन जाता है। वह उस धर्मके द्वारा इन्द्र, महेन्द्र चक्रवर्ती आदिकी विभूतिको प्राप्त करके दो चार भवमें ही संसारसे पार हो जाता है।
यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि यह जीव भी यदि सत्य श्रद्धानाला है वो ठीक है परन्तु वह श्रद्धावान न होकर केवल गतानुगतिकतादिसे (अंधानुकरणसे) उपर्युक्त कार्य करता हो तो फिर धर्मात्मा न होकर शुभयोगजन्य पुण्यबंध मात्र करनेवाला होता है। इससे सांसारिक सुख सम्पत्ति तो प्राप्त हो जाती है परन्तु निकट संसारितासे वह संचित रहता है।
-धर्मात्मा और अधर्मात्माका स्पष्टीकरण
आत्मा के दर्शन ज्ञान और चारित्र इन गुणोंका नाम धर्म है। इनकी अवस्था गलत, सही और विच्छिन्नके भेदसे तीनप्रकारकी होती है। सही दशाका नाम सद्धर्म या धर्म होता है। गलत दशाका नाम अधर्म और विच्छिन्न अवस्थाका नाम कुधर्म होता है। जैसे किसी भी प्रकारके एक विश्वास पर न जमकर बिना पैंदेके लोटेकी तरह लुढ़कते रहनेका नाम अदर्शन है। वस्तुका यथार्थ श्रद्धान करनेका नाम सद्दर्शन है और यद्वातद्वा मनमाना स्वीकार कर लेनेको कुदर्शन कहते हैं। वस्तु स्वरूप का ज्ञान न होकर केवल खाने पीने और सोने आदि जीवन निर्वाहकी बातोंका ही स्मरण रहना, अज्ञान है।
कर्तव्याकर्तव्यका उपयुक्त विचार आना सच्चा ज्ञान है और अपनी तरफसे कुयुक्तियाँ बनाकर उनका समर्थन करना कुज्ञान कहलाता है। विषय कषायोंमें ही लगे रहनेका नाम अचारित्र हैं किन्तु इनका त्याग करके निष्कषाय बननेका नाम सच्चारित्र है। व्यर्थके कायक्लेशादिमें तत्पर होनेको कुचारित्र कहते हैं। इनमेंसे कुदर्शन कुजान और कुचारित्र कुधर्म है। यह भी एक तो तटस्थतारूप और दूसरा उच्छृङ्खलता रूपके भेदसे दो प्रकारका होता है।
जैसे ऊपरसे जैनमतानुयायी होकर भी अंतरंगसे जैनमतके प्रति श्रद्धानका न होना, जैनमतके शास्त्रोंको पढ़कर उन्हें स्वीकार करते हुए भी, उनका आम्नाय विरुद्ध और ही अर्थ लगाना, जैनमत विहित सदाचारको ही स्वर्गादिककी इच्छा रखते हुए पालन करना, तटस्थ कुत्सित धर्म कहलाता है और जैनमतके सिवाय किसी अन्य मतका अनुयायी होना, कुयुक्तियों द्वारा समर्थन करते हुए उसीका प्रचार करना एवं तत्कथित अनुष्ठानका ही आचरण करना, उत्सन्न कुत्सित धर्म कहलाता है।
इनमेंसे अधर्म (पाप) का फलं नरक निगोदादि में जाकर दुःख ही दुःख भोगना है। कुत्सित धर्मधारी बनकर यह जीव भवनत्रिक देवयोनिको प्राप्त करता है। अपूर्ण सद्धर्म के द्वारा लौकान्तिकादि सदेव बनता है किन्तु परिपूर्ण सद्धर्म में साक्षात् मोक्षको प्राप्त कर लेता है। ऐसे धर्म की जय हो ।
इसप्रकार प्रवचनसारका यह ज्ञान प्ररूपक प्रथम खण्ड सम्पूर्ण हुआ।
गाथा -93,94
उसे देखते ही उठकर श्रद्धायुत हो सत्कार करे ।
स्तवन वन्दनादिकके द्वारा धर्मार्जनमें प्रेम धरे
देवाधिप राजेन्द्र सरीखे एक दोय भव लेकरके ।
जन्म जलधिके पार जाय वह संयमपूत धरके ४७
सारांश:- उपर्युक्त परमात्मा या महात्माको देखते ही जिसके चित्तमें उस उत्पन्न होजाता है वह प्रसन्नता पूर्वक आसन परसे उठकर खड़ा होकर उसका स्वागत करना, उसे उच्चासन देना, नमस्कार वन्दना स्तवनादि करना एवं गुणानुवाद करके सत्कार करनेवाला जीव भी धर्मोपार्जन कर लेता है। आंशिक रूपमें धर्मात्मा बन जाता है। वह उस धर्मके द्वारा इन्द्र, महेन्द्र चक्रवर्ती आदिकी विभूतिको प्राप्त करके दो चार भवमें ही संसारसे पार हो जाता है।
यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि यह जीव भी यदि सत्य श्रद्धानाला है वो ठीक है परन्तु वह श्रद्धावान न होकर केवल गतानुगतिकतादिसे (अंधानुकरणसे) उपर्युक्त कार्य करता हो तो फिर धर्मात्मा न होकर शुभयोगजन्य पुण्यबंध मात्र करनेवाला होता है। इससे सांसारिक सुख सम्पत्ति तो प्राप्त हो जाती है परन्तु निकट संसारितासे वह संचित रहता है।
-धर्मात्मा और अधर्मात्माका स्पष्टीकरण
आत्मा के दर्शन ज्ञान और चारित्र इन गुणोंका नाम धर्म है। इनकी अवस्था गलत, सही और विच्छिन्नके भेदसे तीनप्रकारकी होती है। सही दशाका नाम सद्धर्म या धर्म होता है। गलत दशाका नाम अधर्म और विच्छिन्न अवस्थाका नाम कुधर्म होता है। जैसे किसी भी प्रकारके एक विश्वास पर न जमकर बिना पैंदेके लोटेकी तरह लुढ़कते रहनेका नाम अदर्शन है। वस्तुका यथार्थ श्रद्धान करनेका नाम सद्दर्शन है और यद्वातद्वा मनमाना स्वीकार कर लेनेको कुदर्शन कहते हैं। वस्तु स्वरूप का ज्ञान न होकर केवल खाने पीने और सोने आदि जीवन निर्वाहकी बातोंका ही स्मरण रहना, अज्ञान है।
कर्तव्याकर्तव्यका उपयुक्त विचार आना सच्चा ज्ञान है और अपनी तरफसे कुयुक्तियाँ बनाकर उनका समर्थन करना कुज्ञान कहलाता है। विषय कषायोंमें ही लगे रहनेका नाम अचारित्र हैं किन्तु इनका त्याग करके निष्कषाय बननेका नाम सच्चारित्र है। व्यर्थके कायक्लेशादिमें तत्पर होनेको कुचारित्र कहते हैं। इनमेंसे कुदर्शन कुजान और कुचारित्र कुधर्म है। यह भी एक तो तटस्थतारूप और दूसरा उच्छृङ्खलता रूपके भेदसे दो प्रकारका होता है।
जैसे ऊपरसे जैनमतानुयायी होकर भी अंतरंगसे जैनमतके प्रति श्रद्धानका न होना, जैनमतके शास्त्रोंको पढ़कर उन्हें स्वीकार करते हुए भी, उनका आम्नाय विरुद्ध और ही अर्थ लगाना, जैनमत विहित सदाचारको ही स्वर्गादिककी इच्छा रखते हुए पालन करना, तटस्थ कुत्सित धर्म कहलाता है और जैनमतके सिवाय किसी अन्य मतका अनुयायी होना, कुयुक्तियों द्वारा समर्थन करते हुए उसीका प्रचार करना एवं तत्कथित अनुष्ठानका ही आचरण करना, उत्सन्न कुत्सित धर्म कहलाता है।
इनमेंसे अधर्म (पाप) का फलं नरक निगोदादि में जाकर दुःख ही दुःख भोगना है। कुत्सित धर्मधारी बनकर यह जीव भवनत्रिक देवयोनिको प्राप्त करता है। अपूर्ण सद्धर्म के द्वारा लौकान्तिकादि सदेव बनता है किन्तु परिपूर्ण सद्धर्म में साक्षात् मोक्षको प्राप्त कर लेता है। ऐसे धर्म की जय हो ।
इसप्रकार प्रवचनसारका यह ज्ञान प्ररूपक प्रथम खण्ड सम्पूर्ण हुआ।