10-16-2022, 09:44 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -3.4
जनि नाश स्थिति युक्त अनन्यभावसे जो संबद्ध रहे ।।
द्रव्य वही गुण और पर्यायोंसे परिपूर्ण विचार सहे ॥
अपने नाना गुण पर्यायोंमें होकर जो नियत रहे ।
समुत्पत्ति हानि स्थितिसे यह वस्तुका सदा स्वभाव है ॥ २ ॥
सारांश: – पहिचानने के उपायका नाम लक्षण है। इसके द्वारा पहिचानने योग्यका नाम लक्ष्य है। यहाँ द्रव्य तो लक्ष्य है और उत्पाद, व्यय, धौव्य या गुण पर्याय उसका लक्षण है। द्रव्यका अर्थ द्रवित होने वाला, अपने आपके रूपमें बहता रहनेवाला होता है। यह होना अथवा रहना भी दो तरहसे होता है। एक तो अपनेपनको लिये हुए रहना है जिसे स्वरूपास्तित्व कहते हैं। दूसरा, औरोंका भी साथी कहलाना, इसे सामान्यास्तित्व कहते हैं।
सामान्यास्तित्वको दृष्टिमें रखकर द्रव्यका लक्षण उत्पाद व्यय धौव्ययुक्तता कहा जाता है और स्वरूपास्तित्वकी अपेक्षा गुणपर्ययवत्ता द्रव्यका लक्षण कहा जाता है। प्रत्येक द्रव्यके गुण और पर्यायें उसो द्रव्यमें रहते हैं और उत्पाद व्यय तथा धौव्य हर द्रव्यमें पाये जाते हैं। नवीनता आजानेका नाम उत्पाद है और प्राचीनता न रहनेका नाम व्यय है किन्तु ऐसा होते हुए भी तत्पन बने रहनेका नाम धौव्य है। जैसे एक वस्त्र मलिन था, उसे साबुन से धोया। गया जिससे वह स्वच्छ होगया फिर भी वस्त्र वही है।
द्रव्यमें सदा बनी रहने वाली शक्तिको गुण कहते हैं। उसके परिवर्तनको (यथासंभव बदलनेको) पर्याय कहते हैं। गुण दो प्रकार के होते हैं, १. सामान्य गुण २. विशेष गुण सामान्य गुण उन्हें कहते हैं जो सब ही द्रव्योंमें समानरूपमें पाये जावें, जैसे अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व। विशेष गुण उन्हें कहते हैं जो दूसरे द्रव्योंमें न पाये जायें जैसे खेलना गुण जीवमें ही पाया जाता है, पुद्गल आदिमें नहीं अतः यह जीवद्रव्यका विशेष गुण है, मूर्तिमत्त्व पुद्गलमें ही पाया जाता है औरोंमें नहीं, अतः यह पुद्गल का ही विशेष गुण हैं, इत्यादि ।
पर्याय भी दो तरह की होती है। एक व्यंजन पर्याय और दूसरी अर्थ पर्याय । प्रधानतया प्रदेशत्वगुणके परिणमनका नाम व्यंजन पर्याय है और अन्य सब गुणोंके परिणमनका नाम अर्थपर्याय है। ऐसा जैन सिद्धान्त प्रवेशिकामें लिखा है। गुणकी प्रधानतासे वस्तु का ध्रुवत्व माना गया है। पर्यायकी प्रधानतासे उत्पाद और व्यय माने गये हैं। द्रव्यका यह लक्षण आचार्य महाराजने आत्मभूत कहा है। दण्डीके लक्षण दण्ड की तरह भिन्न न होकर अग्निके लक्षण उष्णपनेकी तरह द्रव्यसे अभिन्न है।
द्रव्य स्वयं ही अपने पूर्वपर्यायके रूपमें नष्ट और तदुत्तर पर्यायके रूपमें उत्पन्न होता हुआ अपने गुणोंमें रूपमें ध्रुव रहता है। ये तीनों बातें द्रव्यमें सदा एक साथ होती हैं, अतः ये स्वभाव और द्रव्य इनके द्वारा स्वभाववान है। अपने अपने गुण पर्यायों के द्वारा प्रत्येक द्रव्य भिन्न होकर भी सत्ता सामान्य द्वारा सब आपसमें एकता रखते हैं
गाथा -3.4
जनि नाश स्थिति युक्त अनन्यभावसे जो संबद्ध रहे ।।
द्रव्य वही गुण और पर्यायोंसे परिपूर्ण विचार सहे ॥
अपने नाना गुण पर्यायोंमें होकर जो नियत रहे ।
समुत्पत्ति हानि स्थितिसे यह वस्तुका सदा स्वभाव है ॥ २ ॥
सारांश: – पहिचानने के उपायका नाम लक्षण है। इसके द्वारा पहिचानने योग्यका नाम लक्ष्य है। यहाँ द्रव्य तो लक्ष्य है और उत्पाद, व्यय, धौव्य या गुण पर्याय उसका लक्षण है। द्रव्यका अर्थ द्रवित होने वाला, अपने आपके रूपमें बहता रहनेवाला होता है। यह होना अथवा रहना भी दो तरहसे होता है। एक तो अपनेपनको लिये हुए रहना है जिसे स्वरूपास्तित्व कहते हैं। दूसरा, औरोंका भी साथी कहलाना, इसे सामान्यास्तित्व कहते हैं।
सामान्यास्तित्वको दृष्टिमें रखकर द्रव्यका लक्षण उत्पाद व्यय धौव्ययुक्तता कहा जाता है और स्वरूपास्तित्वकी अपेक्षा गुणपर्ययवत्ता द्रव्यका लक्षण कहा जाता है। प्रत्येक द्रव्यके गुण और पर्यायें उसो द्रव्यमें रहते हैं और उत्पाद व्यय तथा धौव्य हर द्रव्यमें पाये जाते हैं। नवीनता आजानेका नाम उत्पाद है और प्राचीनता न रहनेका नाम व्यय है किन्तु ऐसा होते हुए भी तत्पन बने रहनेका नाम धौव्य है। जैसे एक वस्त्र मलिन था, उसे साबुन से धोया। गया जिससे वह स्वच्छ होगया फिर भी वस्त्र वही है।
द्रव्यमें सदा बनी रहने वाली शक्तिको गुण कहते हैं। उसके परिवर्तनको (यथासंभव बदलनेको) पर्याय कहते हैं। गुण दो प्रकार के होते हैं, १. सामान्य गुण २. विशेष गुण सामान्य गुण उन्हें कहते हैं जो सब ही द्रव्योंमें समानरूपमें पाये जावें, जैसे अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व। विशेष गुण उन्हें कहते हैं जो दूसरे द्रव्योंमें न पाये जायें जैसे खेलना गुण जीवमें ही पाया जाता है, पुद्गल आदिमें नहीं अतः यह जीवद्रव्यका विशेष गुण है, मूर्तिमत्त्व पुद्गलमें ही पाया जाता है औरोंमें नहीं, अतः यह पुद्गल का ही विशेष गुण हैं, इत्यादि ।
पर्याय भी दो तरह की होती है। एक व्यंजन पर्याय और दूसरी अर्थ पर्याय । प्रधानतया प्रदेशत्वगुणके परिणमनका नाम व्यंजन पर्याय है और अन्य सब गुणोंके परिणमनका नाम अर्थपर्याय है। ऐसा जैन सिद्धान्त प्रवेशिकामें लिखा है। गुणकी प्रधानतासे वस्तु का ध्रुवत्व माना गया है। पर्यायकी प्रधानतासे उत्पाद और व्यय माने गये हैं। द्रव्यका यह लक्षण आचार्य महाराजने आत्मभूत कहा है। दण्डीके लक्षण दण्ड की तरह भिन्न न होकर अग्निके लक्षण उष्णपनेकी तरह द्रव्यसे अभिन्न है।
द्रव्य स्वयं ही अपने पूर्वपर्यायके रूपमें नष्ट और तदुत्तर पर्यायके रूपमें उत्पन्न होता हुआ अपने गुणोंमें रूपमें ध्रुव रहता है। ये तीनों बातें द्रव्यमें सदा एक साथ होती हैं, अतः ये स्वभाव और द्रव्य इनके द्वारा स्वभाववान है। अपने अपने गुण पर्यायों के द्वारा प्रत्येक द्रव्य भिन्न होकर भी सत्ता सामान्य द्वारा सब आपसमें एकता रखते हैं