10-26-2022, 03:30 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -7,8
क्योंकि जनि स्थिति नाशयुक्त ही होता सदा वस्तु परिणाम
अतः वस्तुका स्वभाव सत्ता माना गया हुआ अभिराम ॥
समुत्पत्तिके बिना नाश या नाश बिना उत्पत्ति नहीं ।
नाश और उत्पत्ति संघटित होती है हो र्धौव्य वही ॥
सारांशः–वस्तु सदा परिणमनशील होती हैं। परिणाम नाम बदलनेका है, यह वस्तुका स्वभाव है। जैसे एक बेंत है जो सीधी थी वह मुड़ गई, तिरछी होगई या पहले तिरछी थी सो अब सीधी होगई, कहना चाहिए कि वह बदल गई, उसमें परिवर्तन होगया। ऐसा परिवर्तन स्पष्टरूपसे या अस्पष्टरूपमें वस्तु का निरन्तर होता ही रहता है। यह उत्पाद, विनाश और अवस्थानरूप होता है। इनमेंसे यदि एक भी न हो तो वह नहीं बन सकता है। जब अकेला नाश होता है तब उसको बदलना नहीं किन्तु मिटना या रहना कहते हैं। इसीप्रकार अकेले उत्पादको होना और अकेले भ्रौव्यको बना रहना कहते हैं। यह वस्तु का न होकर उसकी एक किसी अवस्थाका होता है। जो अपने प्रतियोगी नाशादिकके बिना कभी नहीं होसकता है, उन्हें साथमें लिये हुए ही रहता है। यही बात आगे स्पष्टरूपसे बताते हैं
गाथा -7,8
क्योंकि जनि स्थिति नाशयुक्त ही होता सदा वस्तु परिणाम
अतः वस्तुका स्वभाव सत्ता माना गया हुआ अभिराम ॥
समुत्पत्तिके बिना नाश या नाश बिना उत्पत्ति नहीं ।
नाश और उत्पत्ति संघटित होती है हो र्धौव्य वही ॥
सारांशः–वस्तु सदा परिणमनशील होती हैं। परिणाम नाम बदलनेका है, यह वस्तुका स्वभाव है। जैसे एक बेंत है जो सीधी थी वह मुड़ गई, तिरछी होगई या पहले तिरछी थी सो अब सीधी होगई, कहना चाहिए कि वह बदल गई, उसमें परिवर्तन होगया। ऐसा परिवर्तन स्पष्टरूपसे या अस्पष्टरूपमें वस्तु का निरन्तर होता ही रहता है। यह उत्पाद, विनाश और अवस्थानरूप होता है। इनमेंसे यदि एक भी न हो तो वह नहीं बन सकता है। जब अकेला नाश होता है तब उसको बदलना नहीं किन्तु मिटना या रहना कहते हैं। इसीप्रकार अकेले उत्पादको होना और अकेले भ्रौव्यको बना रहना कहते हैं। यह वस्तु का न होकर उसकी एक किसी अवस्थाका होता है। जो अपने प्रतियोगी नाशादिकके बिना कभी नहीं होसकता है, उन्हें साथमें लिये हुए ही रहता है। यही बात आगे स्पष्टरूपसे बताते हैं