10-28-2022, 10:33 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -11 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -113 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
पाडुब्भवदि या अण्णो पजाओ पज्जओ वयदि अण्णो ।
दव्वस्स तं पि दव्वं णैव पणट्ठं ण उप्पण्णं // 11 //
आगे अनेक द्रव्योंके संयोगसे जो पर्याय होते हैं, उनके द्वारा उत्पादव्यय-ध्रौव्यका निरूपण करते हैं-द्रव्यस्य समान जातिवाले द्रव्यका [अन्यः पर्यायः] अन्य पर्याय [प्रादुर्भवति] उत्पन्न होता है, [च] और [अन्यः पर्यायः] दूसरा पर्याय [व्येति] विनष्ट होता है, [तदपि] तो भी [द्रव्यं] समान तथा असमानजातीय द्रव्य [नैव प्रणष्टं] न तो नष्ट ही हुआ है, और [न उत्पन्नं] और न उत्पन्न हुआ है, द्रव्यपनेसे ध्रुव है।
भावार्थ
संयोगवाले द्रव्यपर्याय दो प्रकारके हैं, एक समानजातीय और दूसरे असमानजातीय / जैसे तीन परमाणुओका समानजातीय स्कंध (पिंड) पर्याय नष्ट होता है, और चार परमाणुओंका स्कन्ध उत्पन्न होता है, परंतु परमाणुओंसे न उत्पन्न होता है, और न नष्ट होता है, ध्रुव है। इसी प्रकार सब जातिके द्रव्यपर्याय उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप जानना चाहिये / और जैसे जीव पुद्गलके संयोगसे असमान जातिका मनुष्यरूप द्रव्यपर्याय नष्ट होता है, और देवरूप द्रव्यपर्याय उत्पन्न होता है, परंतु द्रव्यत्वकी अपेक्षासे जीव-पुद्गल न उत्पन्न होते हैं, और न नष्ट होते हैं, और ध्रुव हैं, इसी प्रकार और भी असमानजातीय द्रव्यपर्यायोंको उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप जानना चाहिये / 'द्रव्य' पर्यायकी अपेक्षा उत्पाद-व्ययस्वरूप है, और द्रव्यपनेकी अपेक्षा ध्रुवरूप है / उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, ये तीनों द्रव्यसे अभेदरूप हैं, इसलिये द्रव्य ही हैं, अन्य वस्तुरूप नहीं हैं // 11 //
गाथा -12 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -114 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
परिणमदि सयं दव्वं गुणदो य गुणंतरं सदविसिट्ठं /
तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुण दव्वमेव त्ति // 12 //
आगे एक द्रव्यपर्याय-द्वारसे उत्पादव्यय और ध्रौव्य दिखलाते हैं-[सदविशिष्टं] अपने स्वरूपास्तित्वसे अभिन्न [द्रव्यं सत्तारूप वस्तु [स्वयं] आप ही [गुणतः] एक गुणसे [गुणान्तरं] अन्यगुणरूप [परिणमति] परिणमन करती है / [तस्मात् ] इस कारण [च पुनः] फिर [गुणपर्यायाः] गुणोंके पर्याय [द्रव्यमेव] द्रव्य ही हैं [इति भणिताः] ऐसा भगवान्ने कहा है।
भावार्थ-
एक द्रव्यके जो पर्याय हैं, वे गुणपर्याय हैं / जैसे आमका जो फल हरे गुणरूप परिणमन करता है, वही अन्यकालमें पीतभावरूपमें परिणम जाता है, परंतु वह आम अन्य द्रव्य नहीं हो जाता, गुणरूप परिणमनसे भेद युक्त होता है। इसी प्रकार द्रव्य पूर्व अवस्थामें रहनेवाले गुणसे अन्य अवस्थाके गुणरूप परिणमन करता है, परंतु उक्त पूर्व-उत्तर अवस्थासे द्रव्य अन्यरूप नहीं होता, गुणके परिणमनसे भेद होता है, द्रव्य तो दोनों अवस्थाओंमें एक ही है। और जैसे आम पीलेपनेसे उत्पन्न होता है, हरेपनेसे नष्ट होता है, तथा आम्रपनेसे ध्रुव है, परंतु ये उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य एक द्रव्यपर्यायरूप आमसे जुदे नहीं है, आम ही हैं / इसी प्रकार द्रव्य उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता है, पूर्व अवस्थासे नष्ट होता है, तथा द्रव्यपनेसे ध्रुव है, परंतु ये उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य एक द्रव्यपर्यायके द्वारा द्रव्यसे जुदे नहीं हैं, द्रव्य ही हैं। ये गुणपर्यायमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य जानने चाहिये
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
इस वीडियो के माध्यम से हम जानेगे जिसका उत्पाद हो रहा है, उसी का विनाश हो रहा है औऱ वह नित्य स्वरूप भी है, ये तीनो बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं? इस शंका का निराकरण इस गाथा के माध्यम से किया जा रहा है।
इस गाथा को सुनकर आप जानेंगे मेरे आत्म द्रव्य को न कोई बनाने वाला है और न नष्ट करने वाला है जब यह बात आपके भीतर आ जायेगी तो आपके भीतर दीक्षा लेने की हिम्मत भी आ जायेगी।
हमारे भीतर मोह राग तभी उतपन्न होता है जब हम स्वयं को अधूरा ,अपूर्ण एवम असन्तुष्ट महसूस करते हैं। यदि हमारी दृष्टि आत्म तत्व की ओर होगी तो हमें पूर्णता दिखेगी।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -11 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -113 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
पाडुब्भवदि या अण्णो पजाओ पज्जओ वयदि अण्णो ।
दव्वस्स तं पि दव्वं णैव पणट्ठं ण उप्पण्णं // 11 //
आगे अनेक द्रव्योंके संयोगसे जो पर्याय होते हैं, उनके द्वारा उत्पादव्यय-ध्रौव्यका निरूपण करते हैं-द्रव्यस्य समान जातिवाले द्रव्यका [अन्यः पर्यायः] अन्य पर्याय [प्रादुर्भवति] उत्पन्न होता है, [च] और [अन्यः पर्यायः] दूसरा पर्याय [व्येति] विनष्ट होता है, [तदपि] तो भी [द्रव्यं] समान तथा असमानजातीय द्रव्य [नैव प्रणष्टं] न तो नष्ट ही हुआ है, और [न उत्पन्नं] और न उत्पन्न हुआ है, द्रव्यपनेसे ध्रुव है।
भावार्थ
संयोगवाले द्रव्यपर्याय दो प्रकारके हैं, एक समानजातीय और दूसरे असमानजातीय / जैसे तीन परमाणुओका समानजातीय स्कंध (पिंड) पर्याय नष्ट होता है, और चार परमाणुओंका स्कन्ध उत्पन्न होता है, परंतु परमाणुओंसे न उत्पन्न होता है, और न नष्ट होता है, ध्रुव है। इसी प्रकार सब जातिके द्रव्यपर्याय उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप जानना चाहिये / और जैसे जीव पुद्गलके संयोगसे असमान जातिका मनुष्यरूप द्रव्यपर्याय नष्ट होता है, और देवरूप द्रव्यपर्याय उत्पन्न होता है, परंतु द्रव्यत्वकी अपेक्षासे जीव-पुद्गल न उत्पन्न होते हैं, और न नष्ट होते हैं, और ध्रुव हैं, इसी प्रकार और भी असमानजातीय द्रव्यपर्यायोंको उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप जानना चाहिये / 'द्रव्य' पर्यायकी अपेक्षा उत्पाद-व्ययस्वरूप है, और द्रव्यपनेकी अपेक्षा ध्रुवरूप है / उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, ये तीनों द्रव्यसे अभेदरूप हैं, इसलिये द्रव्य ही हैं, अन्य वस्तुरूप नहीं हैं // 11 //
गाथा -12 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -114 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
परिणमदि सयं दव्वं गुणदो य गुणंतरं सदविसिट्ठं /
तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुण दव्वमेव त्ति // 12 //
आगे एक द्रव्यपर्याय-द्वारसे उत्पादव्यय और ध्रौव्य दिखलाते हैं-[सदविशिष्टं] अपने स्वरूपास्तित्वसे अभिन्न [द्रव्यं सत्तारूप वस्तु [स्वयं] आप ही [गुणतः] एक गुणसे [गुणान्तरं] अन्यगुणरूप [परिणमति] परिणमन करती है / [तस्मात् ] इस कारण [च पुनः] फिर [गुणपर्यायाः] गुणोंके पर्याय [द्रव्यमेव] द्रव्य ही हैं [इति भणिताः] ऐसा भगवान्ने कहा है।
भावार्थ-
एक द्रव्यके जो पर्याय हैं, वे गुणपर्याय हैं / जैसे आमका जो फल हरे गुणरूप परिणमन करता है, वही अन्यकालमें पीतभावरूपमें परिणम जाता है, परंतु वह आम अन्य द्रव्य नहीं हो जाता, गुणरूप परिणमनसे भेद युक्त होता है। इसी प्रकार द्रव्य पूर्व अवस्थामें रहनेवाले गुणसे अन्य अवस्थाके गुणरूप परिणमन करता है, परंतु उक्त पूर्व-उत्तर अवस्थासे द्रव्य अन्यरूप नहीं होता, गुणके परिणमनसे भेद होता है, द्रव्य तो दोनों अवस्थाओंमें एक ही है। और जैसे आम पीलेपनेसे उत्पन्न होता है, हरेपनेसे नष्ट होता है, तथा आम्रपनेसे ध्रुव है, परंतु ये उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य एक द्रव्यपर्यायरूप आमसे जुदे नहीं है, आम ही हैं / इसी प्रकार द्रव्य उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता है, पूर्व अवस्थासे नष्ट होता है, तथा द्रव्यपनेसे ध्रुव है, परंतु ये उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य एक द्रव्यपर्यायके द्वारा द्रव्यसे जुदे नहीं हैं, द्रव्य ही हैं। ये गुणपर्यायमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य जानने चाहिये
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
इस वीडियो के माध्यम से हम जानेगे जिसका उत्पाद हो रहा है, उसी का विनाश हो रहा है औऱ वह नित्य स्वरूप भी है, ये तीनो बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं? इस शंका का निराकरण इस गाथा के माध्यम से किया जा रहा है।
इस गाथा को सुनकर आप जानेंगे मेरे आत्म द्रव्य को न कोई बनाने वाला है और न नष्ट करने वाला है जब यह बात आपके भीतर आ जायेगी तो आपके भीतर दीक्षा लेने की हिम्मत भी आ जायेगी।
हमारे भीतर मोह राग तभी उतपन्न होता है जब हम स्वयं को अधूरा ,अपूर्ण एवम असन्तुष्ट महसूस करते हैं। यदि हमारी दृष्टि आत्म तत्व की ओर होगी तो हमें पूर्णता दिखेगी।