10-28-2022, 10:42 AM
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचन
गाथा - 12
अन्वयार्थ-
(सदविसिट्ठं विसिट्ठं) स्व रुपास्तित्व से अभिन्न (दव्वं सयं) द्रव्य स्वयं ही (गुणदो गुणतरं) गुण से गुणान्तर रूप (परिणमदि ) परि णामि त होता है, (तम्या य पुण) इस कारण से ही तब (गुणपज्जाया) गुणपर्यायें (दव्वं एव त् ति भणिदा) द्रव्य ही हैं इस प्रकार कहे गए है।
द्रव्य का गुण से गुणान्तर रूप में परिणमन
थोड़ा -थोड़ा सा अन्तर आ जाता है, भावों में। पिछली वाली गाथा में जो बताया था उसमें पर्याय उत्पन्न हो रही है, पर्याय नष्ट हो रही है। द्रव्य वही रहता है। वहाँ पर द्रव्य की, पर्याय की मुख्यता से वर्ण न था । अब यहाँ क्या कहते हैं? द्रव्य अपने गुण से, गुणान्तर हो जाता है। मतलब गुण से गुणान्तर रूप में परि णमन कर जाता है। गुण की एक पर्याय बदलकर दूसरी पर्याय बन जाती है। लेकिन फिर भी वह सत्पने से ‘विसिट्ठं विसिट्ठं’ बना रहता है माने अपने स्वरूप से वह बिल्कुल वैसा का वैसा ही बना रहा था । सत्, उसका स्व भाव वैसा ही बना रहता है। इस तरह से जो द्रव्य परि णमन करता है, वह भी क्या कर रहा है? वह भी गुणों की पर्यायों को उत्प न्न कर रहा है लेकि न है, तो वह द्रव्य में ही। मतलब यहा ँ पर गुणों की, पर्याय ों की मुख्यता से गाथा आई हैं। कैसा? गुणों की पर्याय - एक तो द्रव्य की पर्याय हो गयी और एक गुणों की पर्याय हो गई। जैसे पुद्गल द्रव्य में ही हैं। वृक्ष है, फल है, तो फल तो उसका एक हो गया , द्रव्य। अब उस फल द्रव्य में उसके गुणों की पर्याय । क्या ? जब पहले हमने देखा था तो वह हरा था । बाद में कैसा दिख गया ? पीला हो गया । जो वर्ण गुण है, colour पुद्गल के अन्दर होना उसका गुण हैं। वर्ण गुण कहते हैं इसको तो उस वर्ण गुण की पर्याय बदल गई। पहले क्या था ? हरापन था । अब क्या आ गया ? पीलापन आ गया । ये उसके गुणों की पर्याय बदल गई लेकिन द्रव्य तो वही रहा । आम द्रव्य तो वह ी है, जो पहले था । वह ी अब हमें पीलेपन के साथ दिखाई दे रहा है। इसलि ए द्रव्य वही रहता है। गुण से गुणान्तर होकर उसकी पर्याय भर बदलती है। कभी-कभी कोई आपसे कहता होगा, पहले तो आपका colour बड़ा अच्छा था । अब आपका colour थोड़ा सा कैसा हो रहा है? वह colour थोड़ा सा हल्का सा fade हो रहा है, down हो रहा है, तो क्या है? भाई पर्याय है, एक जैसी कैसी बनी रहेगी? गुण की पर्याय , वर्ण गुण की पर्याय हमेशा एक जैसी बनी रहेगी क्या ? अब वो वर्ण गुण की पर्याय पहले उसी तरह की थी, अब वह उसी तरह की हो गई। बस वर्ण गुण तो नहीं चला गया कहीं। हाँ! लोगों को बालों में सबसे ज्यादा tension होती है। पहले तो आपके बाल काले थे, अब क्यों ये लाल-लाल हो रहे हैं। सफेद नहीं होते, अब सीधे लाल हो जाते हैं। एक जमाना था जब पहले बाल काले से सफेद होते थे अब काले से लाल हो जाते हैं। सफेद कब पड़ जाते है पता ही नही पड़ता है। ये भी क्या है? हा ँ! सब समझ रहे हैं, मेहंदी लगी है। क्या लगी है?
पर्या य को देख कर भी दृष्टि कहाँ जानी चाहिए? द्रव्य पर
कहने का मतलब यह है कि आखि र ये सब क्या है? वर्ण तो कोई न कोई है ही है। अगर आपकी दृष्टि केवल उसके गुण पर रहे, देखो अभी दृष्टि पि छली गाथा में कि स में ले जा रहे थे हम आपकी? द्रव्य पर। पर्याय को देख कर दृष्टि कहा ँ जाए? द्रव्य पर तो ही आपको शान्ति मि लेगी। उद्वेग नहीं उत्प न्न होगा। अगर द्रव्य पर न जाए तो चलो गुण पर ले आओ। पर्याय से हटाओ दृष्टि । अब इस गाथा में क्या कह रहे हैं? गुण से गुणान्तर हो गया , गुण तो वह ी था । वर्ण गुण है, उसी की पर्याय है। जैसे- एक लहर के बाद दूसरी लहर उत्प न्न हो जाती है, ऐसी ही काले बाल की जगह सफेद बाल हो गए। अब हो गए तो हो गए। नहीं! सफेद अच्छे नहीं लगते, लाल कर लो। ये क्या हो गया ? ये हमने उसके गुण के परि णमन को स्वी कार नहीं किया । हमारी दृष्टि कि स पर रही? पर्याय पर रही, गुण पर नहीं रही। गुण पर होगी तो क्या कहोगे? ठीक है भाई! सफेद हो गए। क्यों हो गए? हो गए तो हो गए, बालों से पूछो मुझे क्या पता। शरीर का परि णमन है, हो गए तो हो गए। अब कि सी के होते नही है क्या ? सबके होते हैं। हमारे भी हो गए तो क्या बात हो गई? अगर आपकी दृष्टि , दिमाग गुण पर रहेगी कि यह तो वर्ण गुण का परिणमन है, तो आपके लिए कोई क्लेश नहीं होगा। अगर आपकी दृष्टि केवल उसके परिणमन पर रहेगी तो क्ले श होगा। कि सी-कि सी के तो होते ही नहीं है, कि तने ही लोग ऐसे मिलते हैं। एक बार एक व्यक्ति ने नमोस्तु किया । कहने लगा महा राज! आशीर्वाद दे दो तो मैने उसको ऐसे उसको हाथ लगाया तो एकदम से उसका सि र दिखने लगा। फिर उसने उसे सम्भा ला तो मैने कहा यह क्या हो गया ? ये क्या कर रहा है? अरे! महाराज! वो wig लगाया है। देख कर भी नहीं लगता है कि इतनी सी उम्र का लड़का है, 25 साल का या 26 साल का और देख कर नहीं लगता है कि उसके बाल ही नहीं है इसीलि ए तो वह विग लगा कर अपना काम चलाता था । कब तक? वह खुद तो जान रहा है कि हमारी स्थिति क्या है? कभी भी हमारे लि ए ये जो विकल्प आते हैं, अनेक तरह की यह सिर्फ सिर्फ हमें पर्यायों को ही लेकर आते हैं। गुणों की ओर देखोगे, द्रव्य की ओर देखोगे तो कोई विकल्प नहीं है। द्रव्य है, पुद्गल द्रव्य है, पुद्गल द्रव्य के गुण हैं, गुणों का परिणमन चल रहा है। चलता है, कभी लाल हो जाएगा, पीला हो जाएगा, सफेद हो जाएगा, काला हो जाएगा। हो जाएगा, हो जाने दो। अब लोग तो इतने होशिया र हो जाते हैं कि अगर मान लो ये गुण से गुणान्तर हो जाना, गुण की पर्याय नि कल जाना, ये सीख लिया है। उसने अपने बाल सफेद से लाल कर लि ए हैं। अब उनसे कहो तो कहेंगे महा राज क्या फर्क र्क पड़ रहा है? आप क्यों विकल्प कर रहे हो। वो भी पर्याय है सफेद और ये हमने जो ऊपर से मेहंदी लगा ली हैं लाल, ये भी पर्याय है। पर्याय तो हैं लेकि न आप उस पर्याय को छुपाने का भाव क्यों कर रहे हो? समझ आ रहा है? उस पर्याय को आप स्वी कार क्यों नहीं कर रहे हो? जो पर्याय जैसी आ रही है, उसको वैसा ही स्वी कार करो। वह स्वी कारता भी इसलि ए नहीं हो पाती क्योंकि हमारे अन्दर द्रव्य का कोई मूल्य होता ही नहीं है। हम हमेशा पर्याय का ही मूल्यां कन करते हैं, आकलन करते हैं। देखने में सुन्दर लगना चाहि ए, जैसा होता है आकर्ष क वैसा ही होना चाहिए। यह सब चीजें कहाँ होती हैं? सब पर्यायों में ही होती है।
संसार दशा में पर्याय dependent ही मोह होता है
द्रव्य तो सदा सुन्दर है। द्रव्य की ओर देखो तो फिर ये पर्याय से मोह छूटता है। लोग पूछते हैं- मोह कैसे कम करे? करते कुछ नहीं हैं, बस पूछते हैं। द्रव्य-गुण-पर्याय सीख भी ली, पढा भी लेते हैं, पढ़ते भी रहते हैं, रटते भी रहते हैं, प्रवचनसार भी तीन-तीन बार, दस-दस बार स्वा ध्याय वा चन हो चुका होगा लेकि न कभी भी मोह में कुछ कमी दिखाई कहीं देती हो, ऐसा मुझे बहुत कम महसूस होता है। होती हो कि सी-कि सी के अन्दर तो बात अलग है लेकि न मोह में कमी यदि आती है, तो इस ज्ञा न को गहराई से उतारने से ही आती है। अब इसमें तो कि तना सा लि खा रहता है। गाथा एँ होती हैं, एक तथ्य भूत चीजें होती हैं लेकि न उसको हमें अपने लि ए apply कैसे करना? यह तो सीखने के लि ए एक अलग ही सूझ-भूझ होनी चाहि ए कि ये सब गुणों का परि णमन है, गुण की पर्याय हैं और इन गुण की पर्याय ों में हम क्ले श कर जाते हैं। ये हमारे लि ए उचित नहीं है। दूसरा करे तो करे। कई बार क्या होता है? मान लो हमारे बाल सफेद हो रहे हैं या हमारा रंग fade हो रहा है या हमारे लि ए मोटापा आ रहा है, तो हमें कोई दिक्कत नहीं है। कि सको दिक्कत है? सामने वा ले को दिक्कत है। भई! तुझे क्या परेशानी हो रही है? मैं मोटा हो रहा हूँ तो ठीक है, मैं हो रहा हूँ। पतले हो जाओ तो भी सामने वा ले को दिक्कत। कि सी भी तरह का परिवर्त न आता है, तो हर चीज सामने वा ला भी अपने तरीके से चाह ता है। समझ आ रहा है? मतलब हम जैसा चाह रहे हैं, वैसा ही आपको हमें दिखना चाहि ए। अब यह कि तनी बड़ी एक विडम्बना, एक उलटी धारणा है कि हम जैसा चाहे वैसा आपको दिखना चाहिए। ये पति -पत्नी के बीच में बहुत बड़े ड़े-बड़े ड़े लड़ा ई-झगड़े ड़े के कारण हो जाते हैं। ये सब सम्बन्ध टूटने के कारण बन जाते हैं। आप इनको हल्के हल्के में नहीं लेना। यही होता है। कुछ भी मान लो figure change होने लग जाती है, समय के according तो दूसरे वा ले का जो मोह भी भंग होने लग जाता है। उससे मोह बनाए रखने के लि ए उसे अपनी figure को as it is बनाए रखने के लिय े, बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है और आज दुनिया में बहुत सारे बाजार इसी से चल रहे है। In short में बहुत बड़े-बड़े बाज़ार चल रहे हैं सिर्फ सिर्फ इसलि ए। पर्याय से depended मोह इसलि ए है क्योंकि जब तक हमने यह सीखा नहीं कि पर्याय के बि ना भी हमारा कोई अस्तित्व है तब तक हमारा मोह उस पर्याय पर ही attach होता है और उस पर्याय को ही देख कर उससे मोह करता है। अतः संसार दशा में, अज्ञा न दशा में, पर्याय dependent ही मोह होता है। मतलब जब तक आपके लि ए यह ज्ञान दशा अच्छी नहीं जाग्रत होती है तब तक ये पर्याय dependent मोह हमेशा चलता रहेगा। यह कैसे कम होगा? अब आदमी सोचता है कि सब अच्छा भी रहे और हमारा मोह भी कम हो जाए तो कैसे होगा? जब तुम्हारे सामने कुछ विसंगति आए और उसी में तुम अपना मोह न करो तभी तो मोह कम कहना माना जाएगा। हमारे according चीजें नहीं हो रही हैं, हमारा मोह उसमें लग रहा है और उसी समय पर अगर हम अपने मोह को उससे बचाएँगे तभी तो मोह का पर्याय से हटना कहलाएगा। नहीं तो पर्याय के साथ मोह तो हमेशा लगा ही रहता है। कि सी के साथ मोह कहाँ लगता है? द्रव्य के साथ मोह होता है। पर्याय के साथ तो मोह हमेशा लगा रहता हैं। यह चीज हमेशा चलती रहती है।
जो कुछ हो रहा है पर्यायों के लिए ही हो रहा है, धर्म भी
बाजार इसी के चल रहे हैं, दुनिया में और कुछ नहीं है। समझ आ रहा है? द्रव्य की पर्याय सम्भालो और गुण की पर्याय सम्भालो। बस! पूरा management, दुकानें, यहा ँ तक की बच्चों की पढ़ाई के course भी अब यह ी हो गए। क्या colour managment, size management, figure management, body management, design management। यही सब management के अब course कर रहे हो। बस इसी को सम्भालो। इसी के लि ए सबको सलाह दो। कैसे? आप जैसे थे, वैसे हो सकते हो, रह सकते हो। जैसा चाहे वैसा बन सकते हो। बस पर्यायों को सुधारने की ही ये पूरी कला सिखाई जाती है। द्रव्य को ध्या न में रख कर, द्रव्य की ओर ध्या न रखने की यह दृष्टि रखने की कला कोई नहीं सि खा सकता। अगर उसने सीख लिया तो वह अध्यात्मि क हो जाएगा। इसलि ए सारा संसार इसी भाव में चल रहा है और कुछ भी संसार में नही है। एक दृष्टि में आप संसार देखोगे तो सिर्फ सिर्फ पर्यायों में बह रहा है और पर्यायों में मोहि त हो रहा है। पर्यायों को सँवा रने के लि ए सारी दुकानें, सारे manegment खुली हुई हैं। कुछ नहीं है। कुछ भी होगा सब कुछ पर्यायों के लिए है। यहाँ तक कि धर्म भी पर्यायों के लि ए होने लगा है। कैसे? धर्म भी जो कुछ भी किया जाता है, वह भी उस पर्याय की सम्भा ल के लि ए ही किया जा रहा है, न। नहीं समझ आ रहा है? मान लो- मनुष्य पर्याय है। अब मनुष्य पर्याय हमारी बनी रहे। कम से कम हम मनुष्य ही बने रहे। मनुष्य की पर्याय हमारी ज्यो का त्यों बनी रहे। बस इसीलिए धर्म करते रहो या देव पर्याय मिल जाए तो वो भी पर्याय ही है। धर्म से भी पर्याय का ही फल प्राप्त करना चाह ता है। यहाँ तक कि धर्म -ध्यान में भी पर्याय आने लग जाती हैं। ध्यान से भी केवल पर्याय को ही देखता है। ध्यान में भी द्रव्य की ओर दृष्टि नहीं जाती है। ध्या न में भी उसके लि ए कोई न कोई पर्याय ही दिखाई जाती है और उसी पर वो ध्यान रखता है, तो उसका ध्यान हो पाता है। यह सब चीजें तब तक हमारे लि ए पर्याय के साथ घूमती रहती हैं जब तक हमें उस पर्याय की उत्पत्ति का जो साधन है, चाहे वो गुण हो, चाह े द्रव्य हो, ये हमें जब तक ज्ञान में नहीं आता तब तक हम हमेशा पर्याय को ही सर्वस्व मानते हैं। सर्वस्व शब्द समझना। यह ी हमारा सर्वस्व हो जाता है। परिणमन चाह ना और परिणमन हमारे ही अनुरूप होना, यही हमारी हमेशा इच्छा में रहता है। हम कभी भी जैसा परिणमन सहज हो रहा है, उसको स्वीकार करने के लि ए भी अपना मन नहीं बना पाते हैं। सहज जैसा हो जाए, परिणमन को हम अपने अनुसार बनाते हैं न। सहज बाल होंगे तो अपने आप वैसे ही होंगे, जैसे होंगे। लेकिन हम उसका परि णमन अपने ढंग से करते हैं। एक चेहरा सहज होता है, तो सहज होता है, अलग होता है। और जब हम उसका परि णमन अपने ढंग से करते हैं तो अलग हो जाता है। हर चीज हर परि णमन को हम अपने ढंग से बनाने की कोशि श में लगे हैं। दुनिया में इसी का नाम technology है, science है। आप जैसी इच्छा करोगे वैसा ही होगा। ऐसी दवाइयाँ आ रही हैं, ऐसे treatment दिए जा रहे हैं, ऐसी पेथियाँ चल रही है आप जैसा चाह ोगे, वैसा ही बने रहोगे। ये सब चीजें कहा ँ घूम रही हैं? सिर्फ सिर्फ पर्यायों की दृष्टि में लेकर चल रही है। सबको पर्याय ही दिख रही है और कुछ नहीं दिख रहा है। इस अंधकार में, इस कलि काल में द्रव्य की बात करना भी एक तरह से कभी-कभी ऐसा लगता है कि कहीं लोगों के लिए बात पचे न पचे, कहीं हास्या स्पद न हो जाये और वो भी दिल्ली जैसी जगह में मतलब जहाँ सब कुछ पर्याय के लिए ही होता है। वहाँ पर द्रव्य की कोई बात की जाए, गुणों की कोई बात की जाए तो लोगों को वह चीज समझ में भी आए, इसका मतलब है कि थोड़ी सी वहाँ पर कुछ मोह की कमी होगी तो ही समझ आएगा। नहीं तो समझ नहीं आएगा। ये द्रव्य-गुण-पर्यायों का वर्ण न भी अगर मोह तीव्रता में होता है, तो समझ नहीं पड़ता। कि क्या लेना-देना है इन चीजों से। जबकि तत्त्व दृष्टि इसी से बनती है। यही मुख्य दृष्टि है। यही तत्त्व ज्ञान है। समझ आ रहा है? द्रव्य का ज्ञा न, गुणों का ज्ञान, पर्यायों का ज्ञान, ये आपको और कहीं नहीं मिलेगा, सिर्फ सिर्फ जैन दर्शन में मिलेगा। इसलिए आचार्य कहते हैं कि ये सब द्रव्य ही है। जब यह कह रहे हैं कि यह द्रव्य ही है, तो वह द्रव्य कैसा है? द्रव्य शाश्वत होता है। द्रव्य कभी नष्ट नहीं होता है। द्रव्य कभी उत्प न्न नहीं होता, तुम अपने शाश्वत की ओर अपनी दृष्टि ले जाओ तो शाश्वत सुख मि लेगा। जो चीज शाश्वत है ही नहीं, जो चीज विनष्ट स्व भाव वा ली है, उसकी ओर ही अपनी दृष्टि रखोगे तो वह चीज जब तक है तब तक सुख है। और विनाश को प्राप्त हो गई तो सुख भी गया । दुःख तो होना ही है, वह तो नि श्चि त ही है क्योंकि उसका वह स्व भाव ही है, विनशने का।
तादात्म्य रूप गुण से गुण अन्य पाता, सो आप ही परिणमें वह द्रव्य भाता।
भाई अतः स्वगुण पर्या य रूप स्वा मी है द्रव्य, शाश्वत कहें जग भूप नामी।।
गाथा - 12
अन्वयार्थ-
(सदविसिट्ठं विसिट्ठं) स्व रुपास्तित्व से अभिन्न (दव्वं सयं) द्रव्य स्वयं ही (गुणदो गुणतरं) गुण से गुणान्तर रूप (परिणमदि ) परि णामि त होता है, (तम्या य पुण) इस कारण से ही तब (गुणपज्जाया) गुणपर्यायें (दव्वं एव त् ति भणिदा) द्रव्य ही हैं इस प्रकार कहे गए है।
द्रव्य का गुण से गुणान्तर रूप में परिणमन
थोड़ा -थोड़ा सा अन्तर आ जाता है, भावों में। पिछली वाली गाथा में जो बताया था उसमें पर्याय उत्पन्न हो रही है, पर्याय नष्ट हो रही है। द्रव्य वही रहता है। वहाँ पर द्रव्य की, पर्याय की मुख्यता से वर्ण न था । अब यहाँ क्या कहते हैं? द्रव्य अपने गुण से, गुणान्तर हो जाता है। मतलब गुण से गुणान्तर रूप में परि णमन कर जाता है। गुण की एक पर्याय बदलकर दूसरी पर्याय बन जाती है। लेकिन फिर भी वह सत्पने से ‘विसिट्ठं विसिट्ठं’ बना रहता है माने अपने स्वरूप से वह बिल्कुल वैसा का वैसा ही बना रहा था । सत्, उसका स्व भाव वैसा ही बना रहता है। इस तरह से जो द्रव्य परि णमन करता है, वह भी क्या कर रहा है? वह भी गुणों की पर्यायों को उत्प न्न कर रहा है लेकि न है, तो वह द्रव्य में ही। मतलब यहा ँ पर गुणों की, पर्याय ों की मुख्यता से गाथा आई हैं। कैसा? गुणों की पर्याय - एक तो द्रव्य की पर्याय हो गयी और एक गुणों की पर्याय हो गई। जैसे पुद्गल द्रव्य में ही हैं। वृक्ष है, फल है, तो फल तो उसका एक हो गया , द्रव्य। अब उस फल द्रव्य में उसके गुणों की पर्याय । क्या ? जब पहले हमने देखा था तो वह हरा था । बाद में कैसा दिख गया ? पीला हो गया । जो वर्ण गुण है, colour पुद्गल के अन्दर होना उसका गुण हैं। वर्ण गुण कहते हैं इसको तो उस वर्ण गुण की पर्याय बदल गई। पहले क्या था ? हरापन था । अब क्या आ गया ? पीलापन आ गया । ये उसके गुणों की पर्याय बदल गई लेकिन द्रव्य तो वही रहा । आम द्रव्य तो वह ी है, जो पहले था । वह ी अब हमें पीलेपन के साथ दिखाई दे रहा है। इसलि ए द्रव्य वही रहता है। गुण से गुणान्तर होकर उसकी पर्याय भर बदलती है। कभी-कभी कोई आपसे कहता होगा, पहले तो आपका colour बड़ा अच्छा था । अब आपका colour थोड़ा सा कैसा हो रहा है? वह colour थोड़ा सा हल्का सा fade हो रहा है, down हो रहा है, तो क्या है? भाई पर्याय है, एक जैसी कैसी बनी रहेगी? गुण की पर्याय , वर्ण गुण की पर्याय हमेशा एक जैसी बनी रहेगी क्या ? अब वो वर्ण गुण की पर्याय पहले उसी तरह की थी, अब वह उसी तरह की हो गई। बस वर्ण गुण तो नहीं चला गया कहीं। हाँ! लोगों को बालों में सबसे ज्यादा tension होती है। पहले तो आपके बाल काले थे, अब क्यों ये लाल-लाल हो रहे हैं। सफेद नहीं होते, अब सीधे लाल हो जाते हैं। एक जमाना था जब पहले बाल काले से सफेद होते थे अब काले से लाल हो जाते हैं। सफेद कब पड़ जाते है पता ही नही पड़ता है। ये भी क्या है? हा ँ! सब समझ रहे हैं, मेहंदी लगी है। क्या लगी है?
पर्या य को देख कर भी दृष्टि कहाँ जानी चाहिए? द्रव्य पर
कहने का मतलब यह है कि आखि र ये सब क्या है? वर्ण तो कोई न कोई है ही है। अगर आपकी दृष्टि केवल उसके गुण पर रहे, देखो अभी दृष्टि पि छली गाथा में कि स में ले जा रहे थे हम आपकी? द्रव्य पर। पर्याय को देख कर दृष्टि कहा ँ जाए? द्रव्य पर तो ही आपको शान्ति मि लेगी। उद्वेग नहीं उत्प न्न होगा। अगर द्रव्य पर न जाए तो चलो गुण पर ले आओ। पर्याय से हटाओ दृष्टि । अब इस गाथा में क्या कह रहे हैं? गुण से गुणान्तर हो गया , गुण तो वह ी था । वर्ण गुण है, उसी की पर्याय है। जैसे- एक लहर के बाद दूसरी लहर उत्प न्न हो जाती है, ऐसी ही काले बाल की जगह सफेद बाल हो गए। अब हो गए तो हो गए। नहीं! सफेद अच्छे नहीं लगते, लाल कर लो। ये क्या हो गया ? ये हमने उसके गुण के परि णमन को स्वी कार नहीं किया । हमारी दृष्टि कि स पर रही? पर्याय पर रही, गुण पर नहीं रही। गुण पर होगी तो क्या कहोगे? ठीक है भाई! सफेद हो गए। क्यों हो गए? हो गए तो हो गए, बालों से पूछो मुझे क्या पता। शरीर का परि णमन है, हो गए तो हो गए। अब कि सी के होते नही है क्या ? सबके होते हैं। हमारे भी हो गए तो क्या बात हो गई? अगर आपकी दृष्टि , दिमाग गुण पर रहेगी कि यह तो वर्ण गुण का परिणमन है, तो आपके लिए कोई क्लेश नहीं होगा। अगर आपकी दृष्टि केवल उसके परिणमन पर रहेगी तो क्ले श होगा। कि सी-कि सी के तो होते ही नहीं है, कि तने ही लोग ऐसे मिलते हैं। एक बार एक व्यक्ति ने नमोस्तु किया । कहने लगा महा राज! आशीर्वाद दे दो तो मैने उसको ऐसे उसको हाथ लगाया तो एकदम से उसका सि र दिखने लगा। फिर उसने उसे सम्भा ला तो मैने कहा यह क्या हो गया ? ये क्या कर रहा है? अरे! महाराज! वो wig लगाया है। देख कर भी नहीं लगता है कि इतनी सी उम्र का लड़का है, 25 साल का या 26 साल का और देख कर नहीं लगता है कि उसके बाल ही नहीं है इसीलि ए तो वह विग लगा कर अपना काम चलाता था । कब तक? वह खुद तो जान रहा है कि हमारी स्थिति क्या है? कभी भी हमारे लि ए ये जो विकल्प आते हैं, अनेक तरह की यह सिर्फ सिर्फ हमें पर्यायों को ही लेकर आते हैं। गुणों की ओर देखोगे, द्रव्य की ओर देखोगे तो कोई विकल्प नहीं है। द्रव्य है, पुद्गल द्रव्य है, पुद्गल द्रव्य के गुण हैं, गुणों का परिणमन चल रहा है। चलता है, कभी लाल हो जाएगा, पीला हो जाएगा, सफेद हो जाएगा, काला हो जाएगा। हो जाएगा, हो जाने दो। अब लोग तो इतने होशिया र हो जाते हैं कि अगर मान लो ये गुण से गुणान्तर हो जाना, गुण की पर्याय नि कल जाना, ये सीख लिया है। उसने अपने बाल सफेद से लाल कर लि ए हैं। अब उनसे कहो तो कहेंगे महा राज क्या फर्क र्क पड़ रहा है? आप क्यों विकल्प कर रहे हो। वो भी पर्याय है सफेद और ये हमने जो ऊपर से मेहंदी लगा ली हैं लाल, ये भी पर्याय है। पर्याय तो हैं लेकि न आप उस पर्याय को छुपाने का भाव क्यों कर रहे हो? समझ आ रहा है? उस पर्याय को आप स्वी कार क्यों नहीं कर रहे हो? जो पर्याय जैसी आ रही है, उसको वैसा ही स्वी कार करो। वह स्वी कारता भी इसलि ए नहीं हो पाती क्योंकि हमारे अन्दर द्रव्य का कोई मूल्य होता ही नहीं है। हम हमेशा पर्याय का ही मूल्यां कन करते हैं, आकलन करते हैं। देखने में सुन्दर लगना चाहि ए, जैसा होता है आकर्ष क वैसा ही होना चाहिए। यह सब चीजें कहाँ होती हैं? सब पर्यायों में ही होती है।
संसार दशा में पर्याय dependent ही मोह होता है
द्रव्य तो सदा सुन्दर है। द्रव्य की ओर देखो तो फिर ये पर्याय से मोह छूटता है। लोग पूछते हैं- मोह कैसे कम करे? करते कुछ नहीं हैं, बस पूछते हैं। द्रव्य-गुण-पर्याय सीख भी ली, पढा भी लेते हैं, पढ़ते भी रहते हैं, रटते भी रहते हैं, प्रवचनसार भी तीन-तीन बार, दस-दस बार स्वा ध्याय वा चन हो चुका होगा लेकि न कभी भी मोह में कुछ कमी दिखाई कहीं देती हो, ऐसा मुझे बहुत कम महसूस होता है। होती हो कि सी-कि सी के अन्दर तो बात अलग है लेकि न मोह में कमी यदि आती है, तो इस ज्ञा न को गहराई से उतारने से ही आती है। अब इसमें तो कि तना सा लि खा रहता है। गाथा एँ होती हैं, एक तथ्य भूत चीजें होती हैं लेकि न उसको हमें अपने लि ए apply कैसे करना? यह तो सीखने के लि ए एक अलग ही सूझ-भूझ होनी चाहि ए कि ये सब गुणों का परि णमन है, गुण की पर्याय हैं और इन गुण की पर्याय ों में हम क्ले श कर जाते हैं। ये हमारे लि ए उचित नहीं है। दूसरा करे तो करे। कई बार क्या होता है? मान लो हमारे बाल सफेद हो रहे हैं या हमारा रंग fade हो रहा है या हमारे लि ए मोटापा आ रहा है, तो हमें कोई दिक्कत नहीं है। कि सको दिक्कत है? सामने वा ले को दिक्कत है। भई! तुझे क्या परेशानी हो रही है? मैं मोटा हो रहा हूँ तो ठीक है, मैं हो रहा हूँ। पतले हो जाओ तो भी सामने वा ले को दिक्कत। कि सी भी तरह का परिवर्त न आता है, तो हर चीज सामने वा ला भी अपने तरीके से चाह ता है। समझ आ रहा है? मतलब हम जैसा चाह रहे हैं, वैसा ही आपको हमें दिखना चाहि ए। अब यह कि तनी बड़ी एक विडम्बना, एक उलटी धारणा है कि हम जैसा चाहे वैसा आपको दिखना चाहिए। ये पति -पत्नी के बीच में बहुत बड़े ड़े-बड़े ड़े लड़ा ई-झगड़े ड़े के कारण हो जाते हैं। ये सब सम्बन्ध टूटने के कारण बन जाते हैं। आप इनको हल्के हल्के में नहीं लेना। यही होता है। कुछ भी मान लो figure change होने लग जाती है, समय के according तो दूसरे वा ले का जो मोह भी भंग होने लग जाता है। उससे मोह बनाए रखने के लि ए उसे अपनी figure को as it is बनाए रखने के लिय े, बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है और आज दुनिया में बहुत सारे बाजार इसी से चल रहे है। In short में बहुत बड़े-बड़े बाज़ार चल रहे हैं सिर्फ सिर्फ इसलि ए। पर्याय से depended मोह इसलि ए है क्योंकि जब तक हमने यह सीखा नहीं कि पर्याय के बि ना भी हमारा कोई अस्तित्व है तब तक हमारा मोह उस पर्याय पर ही attach होता है और उस पर्याय को ही देख कर उससे मोह करता है। अतः संसार दशा में, अज्ञा न दशा में, पर्याय dependent ही मोह होता है। मतलब जब तक आपके लि ए यह ज्ञान दशा अच्छी नहीं जाग्रत होती है तब तक ये पर्याय dependent मोह हमेशा चलता रहेगा। यह कैसे कम होगा? अब आदमी सोचता है कि सब अच्छा भी रहे और हमारा मोह भी कम हो जाए तो कैसे होगा? जब तुम्हारे सामने कुछ विसंगति आए और उसी में तुम अपना मोह न करो तभी तो मोह कम कहना माना जाएगा। हमारे according चीजें नहीं हो रही हैं, हमारा मोह उसमें लग रहा है और उसी समय पर अगर हम अपने मोह को उससे बचाएँगे तभी तो मोह का पर्याय से हटना कहलाएगा। नहीं तो पर्याय के साथ मोह तो हमेशा लगा ही रहता है। कि सी के साथ मोह कहाँ लगता है? द्रव्य के साथ मोह होता है। पर्याय के साथ तो मोह हमेशा लगा रहता हैं। यह चीज हमेशा चलती रहती है।
जो कुछ हो रहा है पर्यायों के लिए ही हो रहा है, धर्म भी
बाजार इसी के चल रहे हैं, दुनिया में और कुछ नहीं है। समझ आ रहा है? द्रव्य की पर्याय सम्भालो और गुण की पर्याय सम्भालो। बस! पूरा management, दुकानें, यहा ँ तक की बच्चों की पढ़ाई के course भी अब यह ी हो गए। क्या colour managment, size management, figure management, body management, design management। यही सब management के अब course कर रहे हो। बस इसी को सम्भालो। इसी के लि ए सबको सलाह दो। कैसे? आप जैसे थे, वैसे हो सकते हो, रह सकते हो। जैसा चाहे वैसा बन सकते हो। बस पर्यायों को सुधारने की ही ये पूरी कला सिखाई जाती है। द्रव्य को ध्या न में रख कर, द्रव्य की ओर ध्या न रखने की यह दृष्टि रखने की कला कोई नहीं सि खा सकता। अगर उसने सीख लिया तो वह अध्यात्मि क हो जाएगा। इसलि ए सारा संसार इसी भाव में चल रहा है और कुछ भी संसार में नही है। एक दृष्टि में आप संसार देखोगे तो सिर्फ सिर्फ पर्यायों में बह रहा है और पर्यायों में मोहि त हो रहा है। पर्यायों को सँवा रने के लि ए सारी दुकानें, सारे manegment खुली हुई हैं। कुछ नहीं है। कुछ भी होगा सब कुछ पर्यायों के लिए है। यहाँ तक कि धर्म भी पर्यायों के लि ए होने लगा है। कैसे? धर्म भी जो कुछ भी किया जाता है, वह भी उस पर्याय की सम्भा ल के लि ए ही किया जा रहा है, न। नहीं समझ आ रहा है? मान लो- मनुष्य पर्याय है। अब मनुष्य पर्याय हमारी बनी रहे। कम से कम हम मनुष्य ही बने रहे। मनुष्य की पर्याय हमारी ज्यो का त्यों बनी रहे। बस इसीलिए धर्म करते रहो या देव पर्याय मिल जाए तो वो भी पर्याय ही है। धर्म से भी पर्याय का ही फल प्राप्त करना चाह ता है। यहाँ तक कि धर्म -ध्यान में भी पर्याय आने लग जाती हैं। ध्यान से भी केवल पर्याय को ही देखता है। ध्यान में भी द्रव्य की ओर दृष्टि नहीं जाती है। ध्या न में भी उसके लि ए कोई न कोई पर्याय ही दिखाई जाती है और उसी पर वो ध्यान रखता है, तो उसका ध्यान हो पाता है। यह सब चीजें तब तक हमारे लि ए पर्याय के साथ घूमती रहती हैं जब तक हमें उस पर्याय की उत्पत्ति का जो साधन है, चाहे वो गुण हो, चाह े द्रव्य हो, ये हमें जब तक ज्ञान में नहीं आता तब तक हम हमेशा पर्याय को ही सर्वस्व मानते हैं। सर्वस्व शब्द समझना। यह ी हमारा सर्वस्व हो जाता है। परिणमन चाह ना और परिणमन हमारे ही अनुरूप होना, यही हमारी हमेशा इच्छा में रहता है। हम कभी भी जैसा परिणमन सहज हो रहा है, उसको स्वीकार करने के लि ए भी अपना मन नहीं बना पाते हैं। सहज जैसा हो जाए, परिणमन को हम अपने अनुसार बनाते हैं न। सहज बाल होंगे तो अपने आप वैसे ही होंगे, जैसे होंगे। लेकिन हम उसका परि णमन अपने ढंग से करते हैं। एक चेहरा सहज होता है, तो सहज होता है, अलग होता है। और जब हम उसका परि णमन अपने ढंग से करते हैं तो अलग हो जाता है। हर चीज हर परि णमन को हम अपने ढंग से बनाने की कोशि श में लगे हैं। दुनिया में इसी का नाम technology है, science है। आप जैसी इच्छा करोगे वैसा ही होगा। ऐसी दवाइयाँ आ रही हैं, ऐसे treatment दिए जा रहे हैं, ऐसी पेथियाँ चल रही है आप जैसा चाह ोगे, वैसा ही बने रहोगे। ये सब चीजें कहा ँ घूम रही हैं? सिर्फ सिर्फ पर्यायों की दृष्टि में लेकर चल रही है। सबको पर्याय ही दिख रही है और कुछ नहीं दिख रहा है। इस अंधकार में, इस कलि काल में द्रव्य की बात करना भी एक तरह से कभी-कभी ऐसा लगता है कि कहीं लोगों के लिए बात पचे न पचे, कहीं हास्या स्पद न हो जाये और वो भी दिल्ली जैसी जगह में मतलब जहाँ सब कुछ पर्याय के लिए ही होता है। वहाँ पर द्रव्य की कोई बात की जाए, गुणों की कोई बात की जाए तो लोगों को वह चीज समझ में भी आए, इसका मतलब है कि थोड़ी सी वहाँ पर कुछ मोह की कमी होगी तो ही समझ आएगा। नहीं तो समझ नहीं आएगा। ये द्रव्य-गुण-पर्यायों का वर्ण न भी अगर मोह तीव्रता में होता है, तो समझ नहीं पड़ता। कि क्या लेना-देना है इन चीजों से। जबकि तत्त्व दृष्टि इसी से बनती है। यही मुख्य दृष्टि है। यही तत्त्व ज्ञान है। समझ आ रहा है? द्रव्य का ज्ञा न, गुणों का ज्ञान, पर्यायों का ज्ञान, ये आपको और कहीं नहीं मिलेगा, सिर्फ सिर्फ जैन दर्शन में मिलेगा। इसलिए आचार्य कहते हैं कि ये सब द्रव्य ही है। जब यह कह रहे हैं कि यह द्रव्य ही है, तो वह द्रव्य कैसा है? द्रव्य शाश्वत होता है। द्रव्य कभी नष्ट नहीं होता है। द्रव्य कभी उत्प न्न नहीं होता, तुम अपने शाश्वत की ओर अपनी दृष्टि ले जाओ तो शाश्वत सुख मि लेगा। जो चीज शाश्वत है ही नहीं, जो चीज विनष्ट स्व भाव वा ली है, उसकी ओर ही अपनी दृष्टि रखोगे तो वह चीज जब तक है तब तक सुख है। और विनाश को प्राप्त हो गई तो सुख भी गया । दुःख तो होना ही है, वह तो नि श्चि त ही है क्योंकि उसका वह स्व भाव ही है, विनशने का।
तादात्म्य रूप गुण से गुण अन्य पाता, सो आप ही परिणमें वह द्रव्य भाता।
भाई अतः स्वगुण पर्या य रूप स्वा मी है द्रव्य, शाश्वत कहें जग भूप नामी।।