प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 13 द्रव्य की सत्ता शाश्वत है
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द्रव्य की सत्ता शाश्वत होती है

‘ण हवदि जदि सद्दव्वं ’ यदि द्रव्य सत् रूप नहीं होता है, ‘असध्दु ्दुवं हवदि तं कधं दव्वं ’ फिर वह द्रव्य असत् रूप हो जाय ेगा और वह ध्रुव रूप कभी नहीं रहेगा या नि श्चि त ही वह द्रव्य असत् ही हो जाएगा। ऐसा असत् हुआ द्रव्य फिर द्रव्य ही कैसे रह जाय ेगा? क्या कहना चाह रहे हैं? कोई भी द्रव्य होता है, वह द्रव्य सत् रूप ही होता है। यह बहुत बड़ी बात होती है कि हम द्रव्य के सत् को स्वी कार करें, उसके अस्तित्व को स्वी कार करें। द्रव्य के existence को जब तक हम नहीं स्वी कारते हैं तब तक हम कभी भी यह बात नहीं मान पाएँगे कि वह द्रव्य स्थि र है या वह द्रव्य हमेशा बना रहता है। क्योंकि उस द्रव्य की existence ही एक ऐसी quality है जो उस द्रव्य के शाश्वतता को बताने वा ली है, उस द्रव्य की सत्ता को हमेशा बनाय े रखने वा ली है। आचार्य कहते हैं कि द्रव्य के अन्दर का सत् भाव , वह ी उसके अस्तित्व को बनाता है और वह सत्ता भी एक तरह से उस द्रव्य का गुण है। जैसे हम अन्य अनेक गुणों की व्याख्या सुनते हैं वैसे ही सत् रूप होना, अस्ति रूप होना, यह हर द्रव्य का अपना एक स्व भाव है, उसका अपना own nature है। अतः जो अस्तित्व है, उस अस्तित्व को उस स्व भाव के रूप में हम स्वी कार करें क्योंकि कोई भी पदार्थ है, अगर उसमें सत् पना हमें दिखाई देगा तो ही हम उस पदार्थ के साथ में कुछ भी लेन-देन कर पाएँगे। अगर उस पदार्थ में सत् रूप existence रूप में quality नहीं होगी तो हम उसके साथ में कुछ भी लेन-देन, कोई व्यवहा र नहीं कर पाएँगे। यह हमें देखने मे आता है कि हम अपने सारे व्यवहा र इसी भाव से करते हैं लेकि न फिर भी हम उस द्रव्य के अन्दर के इस गुण को स्वी कार नहीं कर पाते हैं, उसके अस्तित्व को या सत्ता को नहीं मान पाते हैं। उसी चीज को यहा ँ कहा जा रहा है कि अगर हम यह मान ले कि द्रव्य स्व रूप से माने nature से सत् रूप नहीं है, तो फिर वह
असत् रूप हो जाएगा। असत् माने जिसका कोई existence नहीं है। वह फिर द्रव्य ही कैसे कहलाय ेगा? यानि द्रव्य में सत् होना यह उसका अपना nature है और जो nature होता है, उसमें कोई argument नहीं होता है। argument कहा ँ तक चलता है? जो चीजें natural नहीं हैं। जो natural process से चल रही हैं, उनमें कोई argument नहीं होता। इसी बात को जैन आचार्यों ने कहा :- ‘स्वभावो अतर्कः र्कः र्कः गोचरः’ कि सी चीज का जो स्व भाव है, वह उसका अपना भाव है। क्योंकि कोई भी पदार्थ होगा, उसका अपना भाव तो होगा। बि ना भाव के कोई पदार्थ बनता ही नहीं। वह स्व भाव ही उसका यह nature है और जो nature है, वह कभी भी उसका change नहीं हो सकता। उसका कभी भी destruction नहीं हो सकता और उसका कोई भी construction भी नहीं हो सकता है।

अस्ति स्वभाव क्या है?
Nature को जानने पर हम उस द्रव्य को सत् रूप समझ सकते हैं कि सत् आखि र क्या चीज़ है? जो उस द्रव्य का अस्तित्व बना रहता है, वह अस्तित्व भाव ही उसका सत् भाव है और वह उसका स्व भाव है, उसका अपना nature है। इसको जानकर हम यह जान सकते हैं कि हर द्रव्य जो है वो अपने स्व भाव से है, उसको कि सी ने किया नहीं है। अस्ति स्व भाव इसी को बोलते हैं। अस्ति का मतलब हर द्रव्य अपने अन्दर एक अस्ति माने है, अपने existence, nature को रखने वा ला है। अतः यह जो उसका अस्ति स्व भाव है, यह ी उस द्रव्य को बनाय े रखता है। अगर अस्ति स्व भाव नहीं मानेंगे तो वह द्रव्य ही नहीं रहेगा और जब द्रव्य ही नहीं होगा तो फिर हम लेन-देन व्यवहा र कि ससे करेंगे? कुछ ऐसे भी लोग हैं दुनिया में, जो द्रव्य को नहीं मानते हैं। समझ आ रहा है? बस! जो कुछ भी है वह पर्याय की तरह ही सब कुछ है और सब क्ष णभंगुर है। ऐसा भी एक मत है, बहुत बड़ा मत फैला हुआ है दुनिया में, जो द्रव्य को मानता ही नहीं है। द्रव्य को सत् मानता ही नहीं कि द्रव्य सत् होता है। वह तो कहता है, जो कुछ भी है सब असत् होता है। यहा ँ कि सी चीज पर जोर डाला जा रहा है, तो आप समझो इसके पीछे बहुत बड़ी thinking रहती है और यह philosophy अगर अपनी thinking मे रहेगी तो ही हम दूसरी philosophy से अपने आपको या तो सही ढंग से बचा पाएँगे या सही ढंग से उसको समझकर हम गलत समझ पाएँगे क्योंकि जो logic है, वह यह ी कहता है कि अगर कोई चीज है, तो उसमें सत् स्व भाव तो होना ही चाहि ए। existence हमें अगर कि सी चीज का दिखाई दे रहा है, फिर भी हम कहे कि यह नहीं है। एक धर्म है ऐसा, पूरा ऐसा सम्प्रदाय है जो हर चीज़ को नकारता है। जैसे- उससे कहा जाए यह कि ताब है, तो वह कहेगा कि नहीं, यह कि ताब नहीं है। समझ आ रहा है न? वह यह यूँ नहीं कहेगा कि वह कि ताब है। वह क्या कहेगा? कि कपड़ा नहीं है, यह पि च्छी नहीं है, यह लोहा नहीं है, यह चटाई नहीं है। यूँ नहीं कहेगा कि यह क्या है? हा ँ! यह एक धर्म ही है और एक धर्म उसके हमेशा असत् स्व भाव को ही बताएगा। यह नहीं है, यह नहीं है, यह नहीं है। हर चीज में नकारता, हर चीज में असत् भाव , वह फैलाता है। इसलि ए यहा ँ जो आपसे बार-बार कहा जा रहा है, वह आपकी धारणा में है कि जो चीज द्रव्य के रूप में हम स्वी कार कर रहे हैं तो उसे हमें सत् रूप में ही स्वी कार करना होगा। अगर हम उसको सत् नहीं मानेंगे तो हमारा कोई भी व्यवहा र क्या बनेगा? आज आपसे कि सी ने कोई चीज़ उधार ले लिया और उनका कहना है कि हर समय पर हर क्ष ण पर नया द्रव्य बन जाता है। कल आपके पास फिर वह ी ग्राह क आया । आपने कहा , भाई! कल उधार ले गया था , आज लौटा दे। कल तू कह रहा था कि पैसा नहीं है। आज है, तो दे-दो। वह कहेगा- कल का मतलब?, कल कौन आया था तुम्हा रे पास? बोले, तू ही तो आया था । बोले, मैं तो वह हो ही नहीं सकता। मेरा तो द्रव्य बदल गया । जो मैं कल था आज वह हूँ ही नहीं और तुम भी हमसे जो माँग रहे हो, जो तुम कल थे वह हमें आज दिख ही नहीं रहे हो, सब बदल गया । कौन कि सको देगा? कौन कि ससे लेगा? कोई भी व्यवहा र चल रहा है, तो कि सी भी व्यवहा र को जैनाचार्यों ने कभी भी मि थ्या नहीं कहा । हर व्यवहा र को भी उन्हों ने कि सी न कि सी नय से सत्य घोषि त किया है।
संसार असत्य नहीं सत्य है
कोई भी व्यवहा र, चाह े हम कोई लेन-देन करते है, खान-पीन करते है, आपस में रोटी-बेटी का व्यवहा र करते हैं, कि सी भी तरह का हम कोई भी व्यवहा र करते हैं, हर व्यवहा र जैनाचार्यों की दृष्टि में सत्य कहा गया है। समझ आ रहा है? संसार भी माया नहीं कही गयी है। दूसरे लोगो ने संसार को क्या बोला? यह माया है, यह झूठ है, माया का मतलब क्या हो गया ? झूठ है। जैन आचार्यों ने कभी संसार को माया नहीं कहा । यह बहुत बड़ा अन्तर समझ कर चलना। कोई कहता है संसार मे हर चीज क्षणि क है, असत्य है, कुछ टिकता ही नहीं है, तो वो सत् को नहीं मान रहे हैं। एक कह रहा है- संसार मे सब कुछ माया है, झूठ है, कहीं कुछ नहीं है, सत्यता कुछ नहीं है। लेकि न जैनाचार्यों ने हर एक चीज को जो जिस रूप में है, जो जिस नय के हि साब से है, उसको उस नय के साथ सत्य माना है। संसार भी है, झूठ नहीं है। अगर संसार झूठ हो जाय ेगा तो फिर संसार से मुक्ति पाने के लि ए हमें झूठ के साथ में क्या उपाय करना? जब संसार झूठ ही है, तो फिर हमें मुक्ति कि ससे प्राप्त करना? जो चीज standing की position में नहीं है, कही stand नहीं कर रही है, तो हम उससे हटे कैसे? नहीं है, तो नहीं है। जब है तभी तो हटना पड़ेगा। संसार भी अपने आप में सत्य है, यह समझने की बात है। शरीर भी मि ला है, तो वह भी सत्य है। हमारा संसार, शरीर के साथ जो सम्बन्ध बन रहा है, वह भी सत्य है। हमारे अन्दर कषाय भाव आता है, अहंकार, ममकार का भाव आता है, वह भी सत्य है। अगर ये सब हम सत्य नहीं मानेंगे तो फिर हम अलग कि ससे होंगे? जिस चीज का अस्तित्व ही नहीं है, झूठ है, तो उससे हम अलग कैसे हो सकते हैं, अगर उसकी कोई स्थिति ही नहीं हैं। कि सी चीज की स्थिति है तभी हम वहा ँ से हटकर एक दूसरी स्थिति मे पहुँ च सकते हैं। जिस तरह से मोक्ष की स्थिति सत् रूप है, सत्य है वैसे ही संसार की स्थिति भी सत् रूप है, सत्य है। समझ आ रहा है? सत् का मतलब सत्य से भी समझ सकते हो। क्योंकि जिसका अस्तित्व है, हर पदार्थ का अस्तित्व स्वी कार किया जैन आचार्यों ने। पुद्गल को पुद्गल के रूप मे स्वी कार किया है, चेतन को चेतन के रूप में स्वी कार किया । पदार्थ के अस्तित्व के बि ना हम कभी भी, कोई भी या त्रा शुरू कर ही नहीं सकते है। अगर एकान्त रूप से हम पदार्थ के अस्तित्व को नकारते रहेगें तो कभी भी हम पदार्थ के साथ में कोई भी व्यवहा र कर ही नहीं पाएँगे। कि सी भी पदार्थ का कोई धर्म ही नहीं होगा। हर कि सी पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं है, तो कि सको छोड़ना? कि सको ग्रह ण करना? कि ससे उपकार करना? कि ससे अपकार होना? कुछ भी नहीं होगा। हर चीज का अस्तित्व पहले स्वी कार करो। जैन दर्श न में जितने भी पदार्थ हैं, दुनिया के अन्दर हमें हर चीज का अस्तित्व पहले स्वी कार करना सि खाते हैं। जब तुम्हें सबका अस्तित्व स्वी कार होगा तब तुम्हें तुम्हा रा अस्तित्व स्वी कार करने में आएगा। हम कि सी भी चीज का बाह र से अस्तित्व स्वी कार ही नहीं कर रहे हैं। संसार एक माया है, माया माने एक भ्रम है। समझ आया न? कि सको भ्रम कह रहे हैं? अन्य जो वेदान्ती लोग होते है, वे कि सको बोलते हैं? संसार को ही भ्रम बोलते हैं। अरे! भ्रम संसार में है कि भ्रम हमारे भीतर है। अगर संसार में भ्रम है, तो क्या संसार को हटाते फिरेंगे। माया यहा ँ फैली है, तो हम माया को हटाएँगे क्या ? अंधकार यहा ँ फैला है, तो फिर हम अंधकार को हटाएँगे क्या ? संसार माया है, संसार झूठा है, संसार भ्रम है। एक जैनी भी कह सकता है, एक non-जैन भी कह सकता है लेकि न दोनों के कहने में अन्तर बहुत बड़ा रहता है। जैन भी कहेगा हा ँ! संसार, भाई कुछ नहीं रखा, संसार असार है, संसार झूठ है, संसार एक भ्रम है लेकि न उसके लि ए भ्रम वैसा नहीं होगा जैसा दूसरे लोग कह रहे हैं। दूसरे लोग क्या कहते हैं? संसार एक भ्रम है, संसार एक माया जाल है, संसार सिर्फ सिर्फ एक माया का ही रूप है, बस माया है संसार में और कुछ नहीं है। माने जैसे आप बैठे हो तो आप जीव द्रव्य नहीं हो, आपके साथ जुड़े हुए कोई भी अजीव द्रव्य कुछ नहीं है, सब माया है। हमारे लि ए आप माया है, आपके लि ए हम माया है क्योंकि आपको हमें हटाना है, हमारी माया से बचना है, हमें आपकी माया से बचना है। अतः संसार में सब माया हो गयी और जब सब माया हो गयी माने सब भ्रम हो गया । सब भ्रम हो गया तो सब झूठ हो गया । सब झूठ हो गया तो अब कि स पर विश्वा स किया जाए? जब सब झूठ ही है, तो फिर हम यूँ कहेंगे कि यहा ँ पर कोई तुमको शि क्षा देने वा ला गुरु हैं, तो वह भी तो संसार में है। तुम्हा रा जो शास्त्र है, वह भी तो संसार में है। जब संसार ही पूरी माया हो गयी तो फिर शास्त्र भी माया में ही आ गए, गुरु भी माया में ही आ गए। तुम्हा री जो साधना की प्रक्रिया है, वह भी माया में आ गयी। तुम्हा रा जो भगवा न है, वह भी माया में ही आ गया । सब माया ही माया है, तो फिर अब माया से बचोगे कैसे? जब सब भ्रम ही भ्रम है चारों तरफ तो भ्रम रहि त रहोगे कैसे? एक चीज समझने की है। बातें वह ी रहती हैं लेकि न logically इतना बड़ा difference रहता है कि अगर हम कि सी के उस perspective को न समझें कि वह क्या बोलने जा रहा है, क्यों बोल रहा है तो आप कभी भी कि सी की बात को सही ढंग से स्वी कार कर ही नहीं सकते। एक जैन भी कहेगा कि हा ँ! संसार एक माया है। भाई! संसार में कुछ नहीं रखा, नि स्सा र है, असार है, झूठ है। सब देख लिया , रि श्ते-नाते सब स्वा र्थ के हैं। जैन भी बोलता है कि नहीं बोलता है। एक अजैन भी बोलेगा ब्रह्मवा दी जिसको बोलते हैं, जो ब्रह्मा को मानने वा ला होगा, वह भी कहेगा कि संसार एक माया है। लेकि न दोनों की धारणा में बहुत बड़ा अन्तर है। वह संसार को झूठ कह रहा है, मायाव ी कह रहा है, तो वह संसार को केवल माया रूप ही देख रहा है, उसमें कुछ भी सत्य नहीं देख रहा है। लेकि न जो जैन होगा वो अनेकान्तवा दी होगा, वह संसार को सत्य रूप भी जानता है, असत्य रूप भी जानता है।
संसार के अस्तित्व के बि ना मोक्ष सम्भव नहीं हो सकता
एकान्त रूप से अगर संसार उसके लि ए असत्य हो गया , असत् हो गया तो संसार का ही अस्तित्व नहीं रहा । जब संसार का ही अस्तित्व नहीं है, तो मोक्ष का अस्तित्व कहा ँ से सि द्ध होगा। क्या समझ आया ? जब संसार का ही अस्तित्व नहीं है, तो मोक्ष कहा ँ से आएगा। जब बंध ही नहीं है, तो मोक्ष कहा ँ होगा। कोई चीज बंधी है तभी तो हम उसको अलग करेंगे। बंधन वा ली चीज को हम कहें कि यह भ्रम है, यह बंधी नहीं है। हम उसको एकान्त रूप से भ्रम ही मान ले, माया ही मान ले तो फिर अलग क्या करना है? भ्रम था हमने जान लिया , अलग हो गया । इतना ही कहना था कि आपको पता नहीं था , यह भ्रम है। ठीक है! हमने जान लिया , हो गए हम मुक्त अगर इतने ही भ्रम से मुक्त हो जाना है। ऐसा कभी होता नहीं। कोई भी चीज को जब तक हम गहराई से नहीं समझते तब तक हम मि थ्या मान्यताओं में पड़े ही रहते हैं। हमारे पास आज न इतनी बुद्धि है, न इतना समय है कि हम सब मि थ्या मान्यताओं को पढ़ सके और समझ सके। आपको थोड़ा-थोड़ा बताते हैं, उसी में घूम जाते हैं और ये सब मि थ्या मान्यता अपने आस-पास घूमती रहती है। हर कोई आपसे कहेगा। अगर कोई अजैन भी आपसे कहेगा कि देखो भाई संसार तो माया है, सब स्वा र्थ का है, कुछ भी सत्य नहीं है। आप एकदम बोलेंगे हा ँ! बात तो एकदम सही है, हमारे महा राज जी भी यह ी समझाते हैं। समझ आ रहा है न? लेकि न दोनों की माया में बहुत बड़ा अन्तर है। यह कि सी को नहीं मालूम होगा। एक जो माया कह रहा है, माया ही कह रहा है माने माया ही उसका स्व रूप मान कर रखा है। इसका स्व रूप क्या है? माया है। माने यहा ँ पर कुछ सत् है ही नहीं, existence कि सी चीज का है ही नहीं। सब कुछ माया है, सब भ्रम ही भ्रम है। ऐसा मानेंगे तब तो फिर संसार में जो कुछ भी देख रहे हो, वह भी सत् नहीं हुआ। जो हमारे लिय े कुछ भी भोग-उपभोग की सामग्री है, वह भी सत् नहीं। कोई भी सम्बन्ध हमारा सत्त नहीं। फिर हम कि सी भी तरीके से अपने आप को उस सत् के रूप में कैसे स्वी कार करेंगे। जब संसार में कुछ भी सत् नहीं तो हम भी कहा ँ से सत् हो गए? क्योंकि हम भी इसी संसार में ही हैं न। जब सब माया है, तो हम भी उसी माया में ही हो गए तो भी माया हो गए। अब कौन, कि सकी माया को छोड़े? समझ आ रहा है? इसलि ए जैनाचार्यों की भाषा समझना अनेकान्त दर्श न के माध्य म से ही सम्भव है। वे अगर माया भी कहेंगे तो उनके लि ए सही होगा। क्योंकि माया का मतलब यह है कि जैसे माया में हमें कुछ दिखाई नहीं देता, ऐसे ही छल-कपट के कारण से व्यक्ति के अन्दर का सत्य हमें नहीं दिखाई देता, इसलि ए माया है। जब कोई आपको ठग लेता है, आपको धोखा देता है उस समय आपके लि ए यह भाव ज़रूर आता है कि भाई यह संसार ऐसा ही है। सब संसार में ऐसे ही लोग हैं, देख लिया मैंने। दुनिया के हर एक चेहरे को देख चुका हूँ, सब जानता हूँ, हर आदमी से पूछो यह ी बोलेगा। ये बाल ऐसे ही नहीं पक गए, ये बाल धूप में नहीं पक गए हैं, क्या बोलता है आदमी? मतलब सब दुनिया देखी है, सब मालूम है कौन चिड़िया कि स दिशा में उड़ रही है? यह तब होता है जब आदमी के दिमाग में कि सी ने यह बैठा दिया हो या उसके दिमाग में यह आ गया हो कि भाई दुनिया में सब कोई धोखा ही देने वा ले हैं, सब कोई छल-कपट करने वा ले हैं। कि सी के ऊपर विश्वा स नहीं किया जा सकता। तब वह आदमी इस तरह की अपनी धारणा बना लेता है लेकि न उसकी धारणा बनाने के बाद भी आखि र सत् तो सत् ही रहता है न। जो जीव है, वह तो जीव ही रहेगा। जो अजीव है, वह तो अजीव ही रहेगा। हम सब कुछ माया के अंधकार में नहीं डाल सकते और अगर सबको हम एक माया के अंधकार में पटक देंगे तो सभी जीव उसमें आ गए। सभी जीव माया हो गए। फिर वे जीव उस माया में से कैसे नि कलेंगे? हम भी तो उसी माया में हैं। हम उसमें से कैसे नि कलेंगे? संसार एक माया है, ऐसा कहना भी एक बहुत बड़ी माया है। हा ँ! अगर हम सत् नहीं मानेंगे, कि सी भी substance का existence जब तक हम स्वी कार नहीं करेंगे तब तक हम कभी भी संसार के भी सही स्व रूप को समझ नहीं पाएँगे। इसलि ए आचार्य कहते हैं कि संसार को भी समझो, मोक्ष जाने की जल्दी मत करो।
संसार को यथार्थ समझने से ही सम्यग्दर्श न होगा
संसार को समझो पहले। अभी तक हमने संसार को भी यथा र्थ नहीं समझा है। अगर संसार को यथा र्थ समझा होता तब तो हमें ये द्रव्य, गुण, पर्याय की सब व्यवस्था पहले से ही मालूम होती। हम मोह में पड़ते ही नहीं। संसार को यथा र्थ समझने से ही पहले सम्यग्दर्श न होता है। क्या सुन रहे हो? सबसे पहले सम्यग्दर्श न होगा तो उसकी शुरूआत यथा र्थ रूप से संसार को समझने से ही होगी। मोक्ष को बाद में समझना। पहले क्या समझना? संसार में क्या -क्या है, पहले ये तो समझ लो। संसार में क्या -क्या है और हम संसार में क्या हैं और कहा ँ हैं? इसलि ए आचार्य कहते हैं- ‘त्रै काल्यं द्रव्य-षट्कं ्कं नव-पद-सहितं-जीव षट्का य-लेश्याः ’। इन्द्रभूति से प्रश्न पूछा गया था तो यह ी पूछा था देव ने- बताओ? तीन काल कौन से और छह द्रव्य कौन से हैं? छह द्रव्य का मतलब क्या हो गया ? त्रै काल्यं माने तीन काल कौन से हैं? षटद्रव्य- छह द्रव्य कौन से हैं? तो सब कुछ मालूम है उसको। अब उसको क्या मालूम है? मैं ब्रह्म का अंश हूँ, बाकी सब संसार माया है, तो अब ये छः द्रव्य कहा ँ से आ गए। ये तो हमने कहीं पढ़ा ही नहीं है। हम सब ब्रह्म के अंश हैं और जो संसार हमें दिखाई दे रहा है, वह सब भ्रम है। एक भ्रम में है, एक ब्रह्म है, बस और कुछ तीसरी चीज नहीं है। एक ब्रह्म हो गया , एक भ्रम हो गया । एक ब्रह्म और एक भ्रम। pronounciation समझ में आ रहा है न? देखो कि तना सा अन्तर है, एक ब्रह्म और भ्रम। बस ‘ब’ की जगह ‘भ’ ही तो हुआ और क्या हुआ? बस जो ब्रह्म है, वह मैं हूँ और जो भ्रम है वह संसार है और कुछ नहीं है। दुनिया में जो मेरे पास है, वह ब्रह्म का अंश है। अगर मैंने अपने आप को ब्रह्म स्व रूप मान लिया तो बस यह ीं हमारे लि ए सब कुछ मि ल गया और यह ी मान लेना ईश्वर को मान लेना है और ईश्वर की सत्ता को स्वी कार कर लेना है। बाकी सब क्या है? भ्रम है, भ्रम। जब हमारे अन्दर केवल यह भ्रम और ब्रह्म के बीच का ही ज्ञा न रहा तो उसमें छः द्रव्य आए कहा ँ से? कि तुम जीव हो, ये अजीव है, कोई आकाश है, कोई काल है, धर्म है, अधर्म है, कुछ भी नहीं है। बस एक भ्रम है और एक ब्रह्म है। अगर इसी दृष्टि से देखो तो यह सारा संसार छः द्रव्यों से भरा हुआ है। ये सब क्या हो गया ? भ्रम हो गया । समझ आ रहा है?
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