10-29-2022, 12:08 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -14 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -116 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि सासणं हि वीरस्स ।
अण्णत्तमतभावो ण तब्भवो होदि कथमेक्को
सिद्धान्तमें भेद दो प्रकारके हैं, एक पृथक्त्व दूसरा अन्यत्व / आगे इन दोनोंका लक्षण कहते हैं-[हि] निश्चयसे [वीरस्य] महावीर भगवान्का [इति] ऐसा [शासनं] उपदेश है, कि [प्रविभक्तप्रदेशत्वं] जिसमें द्रव्यके प्रदेश अत्यन्त भिन्न हों, वह [पृथक्त्वं] पृथक्त्व नामका भेद है / और [अतद्भावः] प्रदेशभेदके विना संज्ञा, संख्या, लक्षणादिसे जो गुण-गुणी-भेद है, सो [अन्यत्वं] अन्यत्व है। परंतु सत्ता और द्रव्य [तद्भवं] उसी भाव अर्थात् एक ही स्वरूप [न भवति] नहीं है, फिर [कथं एकं] दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते / भावार्थजिस प्रकार दंड और दंडीमें प्रदेश-भेद है, उस प्रकारके प्रदेश-भेदको पृथक्त्व कहते हैं। यह 'पृथक्त्व' सत्तामें नहीं हैं, क्योंकि सत्ता और द्रव्यमें प्रदेश-भेद नहीं है / जैसे वस्त्र और उसके शुक्ल गुणमें प्रदेश-भेद नहीं है, अभेद है। उसी प्रकार सत्ता और द्रव्यमें अभेद है, परंतु संज्ञा, संख्या, लक्षणादिके भेदसे जो द्रव्यका स्वरूप है, वह सत्ताका स्वरूप नहीं है, और जो सत्ताका स्वरूप है, वह द्रव्यका स्वरूप नहीं है / इस प्रकारके गुण-गुणी भेदको अन्यत्व कहते हैं। यह अन्यत्व भेद सत्ता और द्रव्यमें रहता है / यहाँ प्रश्न होता है कि, जैसे सत्ता और द्रव्यसे प्रदेश-भेद नहीं है, वैसे ही सत्ता-द्रव्यमें स्वरूप भेद भी नहीं है, फिर अन्यत्व-भेदके कहनेकी क्या आवश्यकता है ? सो इसका समाधान यह है, कि 'सत्ता और द्रव्यमें स्वरूप-भेद नहीं है, एक ही भाव है', ऐसा कहना बन नहीं सकता, क्योंकि सत्ता और द्रव्यमें संज्ञा, संख्या, लक्षणादिसे स्वरूप-भेद अवश्य ही है, फिर दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? अन्यत्व-भेद मानना ही पड़ेगा / जैसे वस्त्र और शुक्ल गुणमें अन्यत्व-भेद है, उसी प्रकार सत्ता और द्रव्यमें है, क्योंकि वस्त्रमें जो शुक्ल गुण है, सो एक नेत्र इंद्रियके द्वारा ग्रहण होता है, अन्य नासिकादि इंद्रियोंके द्वारा नहीं होता, इस कारण वह शुक्ल गुण वस्त्र नहीं हैं / और जो वस्त्र है, 'सो नेत्र इंद्रियके सिवाय अन्य नासिकादि इंद्रियोंसे भी जाना जाता है, इस कारण वह वस्त्र शुक्ल गुण नहीं है / शुक्ल गुणको एक नेत्र इंद्रियसे जानते हैं, और वस्त्रको नासिकादि अन्य सब इंद्रियोंसे जानते हैं। इसलिये यह सिद्ध है, कि वस्त्र और शुक्ल गुणमें अन्यत्व अवश्य ही है। जो भेद न होता, तो जैसे नेत्र इंद्रियसे शुक्ल गुणका ज्ञान हुआ था, वैसे ही स्पर्श रस गंधरूप वस्त्रका भी ज्ञान होता, परंतु ऐसा नहीं है / इस कारण इंद्रिय-भेदसे भेद अवश्य ही है / इसी प्रकार सत्ता और द्रव्यमें अन्यत्व-भेद है / सत्ता द्रव्यके आश्रय रहती है, अन्य गुण रहित एक गुणरूप है, और द्रव्यके अनंत विशेषणोंमें एक अपने भेदको दिखाती है, तथा एक पर्यायरूप है, और द्रव्य है, सो किसीके आधार नहीं रहता है, अनंत गुण सहित है, अनेक विशेषणोंसे विशेष्य है, और अनेक पर्यायोंवाला है। इसी कारण सत्ता और द्रव्यमें संज्ञा, संख्या, लक्षणादि भेदसे अवश्य अन्यत्व-भेद है / जो सत्ता का स्वरूप है, वह द्रव्य का नहीं है, और जो द्रव्यका स्वरूप है, वह सत्ताका नहीं है। इस प्रकार गुण-गुणी-भेद है, परंतु प्रदेश-भेद नहीं है |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
होते प्रदेश अपने - अपने निरे हैं , पै वस्तु में , न बिखरे बिखरे पड़े हैं ।
पर्याय - द्रव्य - गुण लक्षण से निरे हैं , पै वस्तु में , जिन कहे जग से परे हैं ।।
अन्वयार्थ - ( पविभत्तपदेसतं ) भिन्न भिन्न प्रदेशपना ( पुधत्तं ) पृथक्त्व है , ( इदि हि ) ऐसा ही ( वीरस्स सासणं ) वीर का उपदेश है । ( अतब्भावो ) उस रूप न होना ( अण्णत्तं ) अन्यत्व है । ( ण तब्भवो ) जो उस रूप न हो वह ( कधमेक्को होदि ) एक कैसे हो सकता है ?
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -14 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -116 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि सासणं हि वीरस्स ।
अण्णत्तमतभावो ण तब्भवो होदि कथमेक्को
सिद्धान्तमें भेद दो प्रकारके हैं, एक पृथक्त्व दूसरा अन्यत्व / आगे इन दोनोंका लक्षण कहते हैं-[हि] निश्चयसे [वीरस्य] महावीर भगवान्का [इति] ऐसा [शासनं] उपदेश है, कि [प्रविभक्तप्रदेशत्वं] जिसमें द्रव्यके प्रदेश अत्यन्त भिन्न हों, वह [पृथक्त्वं] पृथक्त्व नामका भेद है / और [अतद्भावः] प्रदेशभेदके विना संज्ञा, संख्या, लक्षणादिसे जो गुण-गुणी-भेद है, सो [अन्यत्वं] अन्यत्व है। परंतु सत्ता और द्रव्य [तद्भवं] उसी भाव अर्थात् एक ही स्वरूप [न भवति] नहीं है, फिर [कथं एकं] दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते / भावार्थजिस प्रकार दंड और दंडीमें प्रदेश-भेद है, उस प्रकारके प्रदेश-भेदको पृथक्त्व कहते हैं। यह 'पृथक्त्व' सत्तामें नहीं हैं, क्योंकि सत्ता और द्रव्यमें प्रदेश-भेद नहीं है / जैसे वस्त्र और उसके शुक्ल गुणमें प्रदेश-भेद नहीं है, अभेद है। उसी प्रकार सत्ता और द्रव्यमें अभेद है, परंतु संज्ञा, संख्या, लक्षणादिके भेदसे जो द्रव्यका स्वरूप है, वह सत्ताका स्वरूप नहीं है, और जो सत्ताका स्वरूप है, वह द्रव्यका स्वरूप नहीं है / इस प्रकारके गुण-गुणी भेदको अन्यत्व कहते हैं। यह अन्यत्व भेद सत्ता और द्रव्यमें रहता है / यहाँ प्रश्न होता है कि, जैसे सत्ता और द्रव्यसे प्रदेश-भेद नहीं है, वैसे ही सत्ता-द्रव्यमें स्वरूप भेद भी नहीं है, फिर अन्यत्व-भेदके कहनेकी क्या आवश्यकता है ? सो इसका समाधान यह है, कि 'सत्ता और द्रव्यमें स्वरूप-भेद नहीं है, एक ही भाव है', ऐसा कहना बन नहीं सकता, क्योंकि सत्ता और द्रव्यमें संज्ञा, संख्या, लक्षणादिसे स्वरूप-भेद अवश्य ही है, फिर दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? अन्यत्व-भेद मानना ही पड़ेगा / जैसे वस्त्र और शुक्ल गुणमें अन्यत्व-भेद है, उसी प्रकार सत्ता और द्रव्यमें है, क्योंकि वस्त्रमें जो शुक्ल गुण है, सो एक नेत्र इंद्रियके द्वारा ग्रहण होता है, अन्य नासिकादि इंद्रियोंके द्वारा नहीं होता, इस कारण वह शुक्ल गुण वस्त्र नहीं हैं / और जो वस्त्र है, 'सो नेत्र इंद्रियके सिवाय अन्य नासिकादि इंद्रियोंसे भी जाना जाता है, इस कारण वह वस्त्र शुक्ल गुण नहीं है / शुक्ल गुणको एक नेत्र इंद्रियसे जानते हैं, और वस्त्रको नासिकादि अन्य सब इंद्रियोंसे जानते हैं। इसलिये यह सिद्ध है, कि वस्त्र और शुक्ल गुणमें अन्यत्व अवश्य ही है। जो भेद न होता, तो जैसे नेत्र इंद्रियसे शुक्ल गुणका ज्ञान हुआ था, वैसे ही स्पर्श रस गंधरूप वस्त्रका भी ज्ञान होता, परंतु ऐसा नहीं है / इस कारण इंद्रिय-भेदसे भेद अवश्य ही है / इसी प्रकार सत्ता और द्रव्यमें अन्यत्व-भेद है / सत्ता द्रव्यके आश्रय रहती है, अन्य गुण रहित एक गुणरूप है, और द्रव्यके अनंत विशेषणोंमें एक अपने भेदको दिखाती है, तथा एक पर्यायरूप है, और द्रव्य है, सो किसीके आधार नहीं रहता है, अनंत गुण सहित है, अनेक विशेषणोंसे विशेष्य है, और अनेक पर्यायोंवाला है। इसी कारण सत्ता और द्रव्यमें संज्ञा, संख्या, लक्षणादि भेदसे अवश्य अन्यत्व-भेद है / जो सत्ता का स्वरूप है, वह द्रव्य का नहीं है, और जो द्रव्यका स्वरूप है, वह सत्ताका नहीं है। इस प्रकार गुण-गुणी-भेद है, परंतु प्रदेश-भेद नहीं है |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
होते प्रदेश अपने - अपने निरे हैं , पै वस्तु में , न बिखरे बिखरे पड़े हैं ।
पर्याय - द्रव्य - गुण लक्षण से निरे हैं , पै वस्तु में , जिन कहे जग से परे हैं ।।
अन्वयार्थ - ( पविभत्तपदेसतं ) भिन्न भिन्न प्रदेशपना ( पुधत्तं ) पृथक्त्व है , ( इदि हि ) ऐसा ही ( वीरस्स सासणं ) वीर का उपदेश है । ( अतब्भावो ) उस रूप न होना ( अण्णत्तं ) अन्यत्व है । ( ण तब्भवो ) जो उस रूप न हो वह ( कधमेक्को होदि ) एक कैसे हो सकता है ?