10-29-2022, 12:12 PM
एक स्थान पर होते हुए भी सबके अपने-अपने, भिन्न-भिन्न प्रदेश हैं
आचार्य कुन्द-कुन्द देव के द्वा रा जो हम अभी तक सत्ता , द्रव्य, गुण और उनकी पर्यायों के बारे में पढ़ ते हुए आ रहे हैं उसी में यह बताने का प्रया स किया जा रहा है कि सब द्रव्य अपने आप में भिन्न होते हैं। कि स रूप से भि न्न होते हैं? भि न्नता कई रूपों में बताई जाती है। द्रव्यों की भि न्नता भी होती है और जब एक ही द्रव्य में उनके गुण, उनकी पर्याय ों का वर्ण न करते हैं तो उसमें भी भि न्नता होती है। वह हम कैसे व्याख्यायि त करें कि वह भि न्नता कि स रूप है? यहाँ पर कहते हैं- ‘पवि भत्त पदेसत्तं पुधत्त ’, पुधत्त का मतलब होता है- पृथकत्व। पृथकत्व का मतलब होता है- अलग-अलग होना। वह चीज अलग-अलग कहलाएगी जिसके प्रदेशपना ‘पवि भत्त ’ हो माने अलग-अलग हो। जिसके प्रदेश भि न्न-भि न्न हो, वह चीज, वह द्रव्य ‘पुधत्त ’ यानि पृथकत्व के रूप में कहा जाता है। मतलब संसार में अनेक द्रव्य हैं, कल जैसे चर्चा की थी कि छह द्रव्य हैं और उन छह द्रव्यों में भी अगर एक जीव द्रव्य के बारे में विचार किया जाए तो अनन्त जीव द्रव्य हैं। अनन्त जीव द्रव्य एक समान होते हुए भी अलग-अलग हैं कि एक ही है। अनन्त जीव द्रव्य अलग हैं तो कि स sense में अलग हैं? वह यहा ँ बताया जा रहा है। वह इसलि ए अलग हैं क्योंकि उनके प्रदेश भि न्न-भि न्न हैं। प्रदेश का मतलब वह द्रव्य जो स्था न घेरता है, वह उसका प्रदेश कहलाता है। मतलब जो उसका क्षेत्र है, वह उसका प्रदेश है। उन सबके प्रदेश भि न्न-भि न्न होते हैं। इसलि ए वह द्रव्य भि न्न कहलाएगा जिसके प्रदेश भि न्न-भि न्न हो। जिसका स्था न भि न्न-भि न्न हो उसे तो हम कहेंगे पृथकत्व। जैसे- हम आज तक कहते हैं कि भाई! तुम अलग हो, मैं अलग हूँ, यह अलग है, तुम अलग हो। यह अलग कि स base पर कहा जाता है? आचार्य कहते हैं- जिसके प्रदेश अलग-अलग हैं, वह द्रव्य भि न्न कहलाता है, वह द्रव्य पृथकत्व रूप कहलाता है। मतलब पृथक शब्द का जो हम प्रयोग करेंगे वो उसी द्रव्य में करेंगे जिसके प्रदेश अलग-अलग हो। अब जैसे- एक ही स्था न पर अनेक द्रव्य हैं। एक ही आकाश के प्रदेश पर अनेक द्रव्य रहते हैं। यूँ समझे कि जैसे एक ही सि द्ध भगवा न के स्था न पर अनन्त सि द्ध भगवा न स्थि त हैं और वह ीं पर अनन्त नि गोदिया जीव भी स्थि त हैं। क्या समझ आ रहा है? जहा ँ एक सि द्ध भगवा न सिद्धा लय में विराजमान है वहा ँ अनेक सि द्ध भी विराजमान है उसी स्था न पर और उसी स्था न पर अनेक अनन्त संसारी जीव कहो, नि गोदिया जीव कहो, वह भी हैं। वह एक स्था न पर होते हुए भी उन सबके अपने-अपने जो प्रदेश हैं, वह सब भि न्न-भि न्न हैं। हर आत्मा जो असंख्या त प्रदेश वा ला है, उस असंख्या त प्रदेशी आत्मा का अपना जो स्था न घेरता है, वह ी उसका क्षेत्र हुआ और वह ी उसके प्रदेश हुए। यह प्रदेशों का भि न्नपना ही वस्तु तः हमें बताता है कि सभी द्रव्य भि न्न-भि न्न है। जब तक हम भि न्नता की अपेक्षा, एकता की अपेक्षा को समझ नहीं पाते तो हम एक-दूसरे में चीजों को जोड़ ते रहते हैं। अगर हमने कहा कि यह सब द्रव्य भि न्न-भि न्न हैं तो इसका मतलब है इनके प्रदेश भि न्न हो गए, इनका अपना क्षेत्र भि न्न हो गया । इनका अपना जो स्व भाव है, वह स्व भाव भी एक दूसरे से अलग-अलग हो गया ।
सत् एक होते हुए भी द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं
इस भि न्नता को बताने के लि ए गाथा आयी है क्योंकि अभी तक जो चर्चा थी, वह सत् की थी। कि सकी थी? सत् की। सब में सत्प ना है, तो सत् की चर्चा करते-करते हम सब में एकपना देखने लग गए। सभी द्रव्य सत् हैं, सत् हैं, सत् हैं तो हम सब में एकपना देखने लग गए। अब जब एकता देखने में आने लगी तो यह भी बताना पड़े ड़ेगा कि वह एक होते हुए भी यह नहीं समझ लेना कि सब जीव द्रव्य एक ही हैं। सभी जीव द्रव्य भि न्न-भि न्न हैं, अलग-अलग हैं तो वो अलग क्यों हैं? क्योंकि उनका अपना प्रदेश, अपनी सत्ता , उनकी भि न् न है। हर द्रव्य की अपनी सत्ता भी भि न्न है, अपना द्रव्य भि न्न है और उस द्रव्य के जो गुण हैं और उसकी पर्याय है वह उसकी अपनी अलग है। इस बात से ही आपको यह समझ आएगा कि जो लोग यह शंका करते हैं कि सि द्ध भगवा न जहा ँ रहते हैं वहा ँ पर ही अनेक नि गोद जीव रहते हैं तो उन नि गोद जीवों पर सि द्ध भगवा न का प्रभाव पड़ ता है कि नहीं पड़ ता? उन नि गोद जीवों को भी कुछ सिद्धों का सुख मि लता है कि नहीं मि लता? क्या समझ आ रहा है? कई लोगों के मन में यह विचार आ जाता है, तो उसी का समाधान इस गाथा से होता है कि जो ‘पवि भत्त पदेसतं’ जो प्रदेश का भि न्नपना है वह प्रदेशों का ‘पवि भत्त पदेसतं’ या नी जो प्रदेश का प्रकृष्ट रूप से भि न्नपना है, वह ी उनका ‘पुधत्तं ’ माने पृथकत्व लक्ष ण वा ला भि न्नपना कहलाता है। नि गोद जीव अलग हैं, सि द्ध भगवा न की आत्मा अलग हैं और उसमें भी और दूसरे सि द्ध आ जाएँगे तो उनकी आत्मा , उनका जीव द्रव्य अपना अलग है। एक जीव द्रव्य के अन्दर कि तने जीव द्रव्य बैठ जाएँ लेकि न कभी भी एक जीव द्रव्य दूसरे जीव द्रव्य की सत्ता को belong नहीं करता। दोनों की सत्ता अलग-अलग रहेगी, दोनों का अस्तित्व अलग-अलग रहेगा। सत् एक होते हुए भी द्रव्य भि न्न-भि न्न हो जाता है और द्रव्य की भि न्नता होने पर ही यह कहा जाता है कि इसकी सत्ता अलग है और इसकी सत्ता अलग है। समझ आ रहा है? हम कभी एक रूप भी देखें और कभी अनेक रूप भी देखें। यह देखने और जानने का जो हमारा अनेकान्त दर्श न के अनुसार भाव है, यह भाव अगर बना रहता है, तो हमारे लि ए भ्रम पैदा नहीं होता है।
एकत्वपने के भ्रम का निवारण
एक रुप देखते-देखते भ्रम आ जाता है कि सब एक ही हैं। नहीं भैया ! सब एक नहीं है, कुछ अपेक्षा से अलग भी हैं। अगर सब एक हो गया तो फिर कौन पूज्य और कौन पूजक? क्या कहा ? सब सत् हैं, सभी आत्म द्रव्य एक समान हैं। जब आप ने कह दिया सब एक समान हैं तो फिर एक पूज्य है, एक पूजक है। जो पूजा कर रहा है, वह पूजक कहलाता है और जिसकी पूजा की जा रही है, वह पूज्य कहलाता है। फिर ऐसा क्यों ? हम आपको पूज्य क्यों माने? आपको उच्चा सन हम क्यों दें? क्या समझ आ रहा है? आपकी पूजा हम बैठकर क्यों करें? यह सब प्रश्न कब होंगे? जब हमने एकत्व को ही मान रखा हो, उनके अन्दर भि न्नत्व को न माना हो। भि न्नत्व भी कहा गया है, एकत्व भी कहा गया है, एकपना भी है, अनेकपना भी है। एक ही वस्तु धर्म को मानोगे तो एकान्ति हो जाओगे और व्यवहा र जब भी चलता है, तो अनेकान्त के अनुसार ही चलता है। एकान्त से कभी व्यवहा र बनता ही नहीं। जिन्हों ने कभी भी व्यवहा र चलाया है और अगर उन्हों ने एक रूप मान लिया कि सब एकरूप हैं तो व्यवहा र चल ही नहीं सकता। फिर कौन मालि क, कौन नौकर, कौन गुरु, कौन शि ष्य, कौन कि ससे क्या ग्रह ण करे? कौन कि सको क्या दे? कौन कि सका उपकार माने? कौन कि सका अपकार माने? यह व्यवहा र चल रहा है, यह भि न्नता के आधार पर चल रहा है, एकता के आधार पर व्यवहा र नहीं चल पाता इसलि ए सत् की अपेक्षा से सब में एकपना जानना और उनके प्रदेश भि न्न हैं, उनके गुण भि न्न हैं, उनकी पर्याय भि न्न हैं इसलि ए उस द्रव्य की भि न्नता को जानकर उस द्रव्य से अपने आप को भि न्न मान कर एक को पूज्य-पूजक का भाव बन जाता है, गुरु-शि ष्य का भाव बन जाता है, स्वा मी-दास का भाव बन जाता है। यह सब कब बनता है? जब हमारे अन्दर अनेकत्व का भी ज्ञा न होता है और इसी ज्ञा न से सारा का सारा व्यवहा र चलता है। इसलि ए पूज्य-पूजक भाव भी जब आ जाता है, तो उस समय पर हमारी दृष्टि में यह द्रव्य हमसे भि न्न है और इस द्रव्य के जो गुण हैं, इस द्रव्य की जो पर्याय हैं, वह भी हमसे भि न्न प्रकार की है। ऐसा जब हमारे ज्ञा न में आएगा तभी हम उसके प्रति पूज्यता का भाव लाएँगे और हम उसके पूजक कहलाय ेंगे। पूज्य-पूजक का मतलब एक बड़ा हो गया और एक छोटा हो गया । एक की पूजा की जा रही है और एक पूजा करने वा ला है और यह भाव आता ही है। जब तक हम बिल्कु बिल्कु ल एक नहीं हो जाते हैं तब तक यह भाव बना रहता है। एक होने का मतलब जब तक हम पूज्य की तरह नहीं हो जाएँगे तब तक हमारे अन्दर यह भाव बना ही रहेगा।
पूज्य -पूजक का भाव
पंच परमेष्ठी में पाँचों ही परमेष्ठी क्या हैं? पूज्य हैं और हम क्या हैं? पूजक हैं। अब उस पूजक के भाव में जब हम बैठेंगे तो हम पाँचों परमेष्ठिय ों में अपनी कुछ भि न्नता देखेंगे कि नहीं देखेंगे? कैसे भि न्न है? इनकी आत्म द्रव्य में और हमारी आत्म द्रव्य में सत् की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं है। इनके अन्दर भी सत्ता गुण है, हमारे अन्दर भी सत्ता का गुण है। इनके द्रव्य का भी अस्तित्व है, हमारे द्रव्य का भी अस्तित्व है लेकि न उसी सत्ता गुण के साथ -साथ जब हम अन्य गुणों की अपेक्षा से देखते हैं तो हमें उसमें भि न्नता और उस द्रव्य के गुणों की पर्याय ों में भि न्नता नजर आती है। एक द्रव्य की पर्याय बिल्कु बिल्कु ल अलग जा रही है, वीतरागता की ओर जा रही है और एक द्रव्य की पर्याय राग की ओर जा रही है। एक द्रव्य के सब गुण अशुद्ध होते चले जा रहे हैं और एक द्रव्य के सभी गुण शुद्ध होते चले जा रहे हैं। एक द्रव्य के गुणों में समीचीनपना आ गया , एक द्रव्य के गुणों में मि थ्या पना ही चल रहा है। द्रव्य के जो यह गुण और उनकी जो पर्याय हैं, जो हमें अलग-अलग रूप से प्रति भासि त होती हैं, इसी के आधार पर पूज्य और पूजक का भाव depend हो जाता है। इसलि ए एक स्था न पर आचार्य वीरसेन जी महा राज श्री धवला नाम की जो टीका है, षटखंडागम सूत्रों की, उसमें लि खते हैं कि पाँचों परमेष्ठिय ों में रत्नत्रय की अपेक्षा से एकरूपता है। क्या लि खते हैं? पाँचों परमेष्ठिय ों में कोई भी अन्तर नहीं हैं, रत्नत्रय की अपेक्षा से एकरूपता है। अब यह क्या हो गई? हमारी अपेक्षा हो गई और वो अपेक्षा कि सकी हो गई? आत्मा के अन्दर जो सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र इन तीनों गुणों का जो परि णमन है, वह सम्यक् दर्श न, ज्ञा न, चारित्र ही आत्मा के तीन गुणों का परि णमन उस आत्मा की पूज्यता के लि ए कारण होता है। कोई भी आत्मा पूज्य कब होगी? जब उसमें सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र का परि णमन होने लगेगा और वह होना चाहि ए उसी रूप में सम्यक् दर्श न, सम्यक् ज्ञा न और सम्यक् चारित्र । समझ आ रहा है? अब वह सम्यक् चारित्र में अब आप कहोगे कि एक देश चारित्र हो जाता है, एक सकल चारित्र हो जाता है, तो क्या देश चारित्र वा लों को भी इसी में शामि ल कर लें? समझ आ रहा है? देश का मतलब जो गृहस्थों का एक देश विकल चारित्र होता है, अणुव्रत रूप चारित्र होता है, तो आचार्य कहते हैं:- नहीं! यह पूर्ण चारित्र नहीं माना जाएगा। सकल व्रतों को धारण करने वा ला होना चाहि ए, महा व्रती होना चाहि ए। क्या समझ आ रहा है? वह सम्यक् चारित्र की पूर्ण ता वा ला महा व्रती होना चाहि ए, पूर्ण सकल चारित्र को धारण करने वा ला होना चाहि ए। जहा ँ पर सम्यक् दर्श न, सम्यक् ज्ञा न और सम्यक् चारित्र यह तीनों परि णाम आत्मा के अन्दर परि णमन को प्राप्त हो गए, उस आत्मा के अन्दर इन तीनों का ग्रह ण हो गया तो वही आत्मा पूज्य हो गई।
आचार्य कुन्द-कुन्द देव के द्वा रा जो हम अभी तक सत्ता , द्रव्य, गुण और उनकी पर्यायों के बारे में पढ़ ते हुए आ रहे हैं उसी में यह बताने का प्रया स किया जा रहा है कि सब द्रव्य अपने आप में भिन्न होते हैं। कि स रूप से भि न्न होते हैं? भि न्नता कई रूपों में बताई जाती है। द्रव्यों की भि न्नता भी होती है और जब एक ही द्रव्य में उनके गुण, उनकी पर्याय ों का वर्ण न करते हैं तो उसमें भी भि न्नता होती है। वह हम कैसे व्याख्यायि त करें कि वह भि न्नता कि स रूप है? यहाँ पर कहते हैं- ‘पवि भत्त पदेसत्तं पुधत्त ’, पुधत्त का मतलब होता है- पृथकत्व। पृथकत्व का मतलब होता है- अलग-अलग होना। वह चीज अलग-अलग कहलाएगी जिसके प्रदेशपना ‘पवि भत्त ’ हो माने अलग-अलग हो। जिसके प्रदेश भि न्न-भि न्न हो, वह चीज, वह द्रव्य ‘पुधत्त ’ यानि पृथकत्व के रूप में कहा जाता है। मतलब संसार में अनेक द्रव्य हैं, कल जैसे चर्चा की थी कि छह द्रव्य हैं और उन छह द्रव्यों में भी अगर एक जीव द्रव्य के बारे में विचार किया जाए तो अनन्त जीव द्रव्य हैं। अनन्त जीव द्रव्य एक समान होते हुए भी अलग-अलग हैं कि एक ही है। अनन्त जीव द्रव्य अलग हैं तो कि स sense में अलग हैं? वह यहा ँ बताया जा रहा है। वह इसलि ए अलग हैं क्योंकि उनके प्रदेश भि न्न-भि न्न हैं। प्रदेश का मतलब वह द्रव्य जो स्था न घेरता है, वह उसका प्रदेश कहलाता है। मतलब जो उसका क्षेत्र है, वह उसका प्रदेश है। उन सबके प्रदेश भि न्न-भि न्न होते हैं। इसलि ए वह द्रव्य भि न्न कहलाएगा जिसके प्रदेश भि न्न-भि न्न हो। जिसका स्था न भि न्न-भि न्न हो उसे तो हम कहेंगे पृथकत्व। जैसे- हम आज तक कहते हैं कि भाई! तुम अलग हो, मैं अलग हूँ, यह अलग है, तुम अलग हो। यह अलग कि स base पर कहा जाता है? आचार्य कहते हैं- जिसके प्रदेश अलग-अलग हैं, वह द्रव्य भि न्न कहलाता है, वह द्रव्य पृथकत्व रूप कहलाता है। मतलब पृथक शब्द का जो हम प्रयोग करेंगे वो उसी द्रव्य में करेंगे जिसके प्रदेश अलग-अलग हो। अब जैसे- एक ही स्था न पर अनेक द्रव्य हैं। एक ही आकाश के प्रदेश पर अनेक द्रव्य रहते हैं। यूँ समझे कि जैसे एक ही सि द्ध भगवा न के स्था न पर अनन्त सि द्ध भगवा न स्थि त हैं और वह ीं पर अनन्त नि गोदिया जीव भी स्थि त हैं। क्या समझ आ रहा है? जहा ँ एक सि द्ध भगवा न सिद्धा लय में विराजमान है वहा ँ अनेक सि द्ध भी विराजमान है उसी स्था न पर और उसी स्था न पर अनेक अनन्त संसारी जीव कहो, नि गोदिया जीव कहो, वह भी हैं। वह एक स्था न पर होते हुए भी उन सबके अपने-अपने जो प्रदेश हैं, वह सब भि न्न-भि न्न हैं। हर आत्मा जो असंख्या त प्रदेश वा ला है, उस असंख्या त प्रदेशी आत्मा का अपना जो स्था न घेरता है, वह ी उसका क्षेत्र हुआ और वह ी उसके प्रदेश हुए। यह प्रदेशों का भि न्नपना ही वस्तु तः हमें बताता है कि सभी द्रव्य भि न्न-भि न्न है। जब तक हम भि न्नता की अपेक्षा, एकता की अपेक्षा को समझ नहीं पाते तो हम एक-दूसरे में चीजों को जोड़ ते रहते हैं। अगर हमने कहा कि यह सब द्रव्य भि न्न-भि न्न हैं तो इसका मतलब है इनके प्रदेश भि न्न हो गए, इनका अपना क्षेत्र भि न्न हो गया । इनका अपना जो स्व भाव है, वह स्व भाव भी एक दूसरे से अलग-अलग हो गया ।
सत् एक होते हुए भी द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं
इस भि न्नता को बताने के लि ए गाथा आयी है क्योंकि अभी तक जो चर्चा थी, वह सत् की थी। कि सकी थी? सत् की। सब में सत्प ना है, तो सत् की चर्चा करते-करते हम सब में एकपना देखने लग गए। सभी द्रव्य सत् हैं, सत् हैं, सत् हैं तो हम सब में एकपना देखने लग गए। अब जब एकता देखने में आने लगी तो यह भी बताना पड़े ड़ेगा कि वह एक होते हुए भी यह नहीं समझ लेना कि सब जीव द्रव्य एक ही हैं। सभी जीव द्रव्य भि न्न-भि न्न हैं, अलग-अलग हैं तो वो अलग क्यों हैं? क्योंकि उनका अपना प्रदेश, अपनी सत्ता , उनकी भि न् न है। हर द्रव्य की अपनी सत्ता भी भि न्न है, अपना द्रव्य भि न्न है और उस द्रव्य के जो गुण हैं और उसकी पर्याय है वह उसकी अपनी अलग है। इस बात से ही आपको यह समझ आएगा कि जो लोग यह शंका करते हैं कि सि द्ध भगवा न जहा ँ रहते हैं वहा ँ पर ही अनेक नि गोद जीव रहते हैं तो उन नि गोद जीवों पर सि द्ध भगवा न का प्रभाव पड़ ता है कि नहीं पड़ ता? उन नि गोद जीवों को भी कुछ सिद्धों का सुख मि लता है कि नहीं मि लता? क्या समझ आ रहा है? कई लोगों के मन में यह विचार आ जाता है, तो उसी का समाधान इस गाथा से होता है कि जो ‘पवि भत्त पदेसतं’ जो प्रदेश का भि न्नपना है वह प्रदेशों का ‘पवि भत्त पदेसतं’ या नी जो प्रदेश का प्रकृष्ट रूप से भि न्नपना है, वह ी उनका ‘पुधत्तं ’ माने पृथकत्व लक्ष ण वा ला भि न्नपना कहलाता है। नि गोद जीव अलग हैं, सि द्ध भगवा न की आत्मा अलग हैं और उसमें भी और दूसरे सि द्ध आ जाएँगे तो उनकी आत्मा , उनका जीव द्रव्य अपना अलग है। एक जीव द्रव्य के अन्दर कि तने जीव द्रव्य बैठ जाएँ लेकि न कभी भी एक जीव द्रव्य दूसरे जीव द्रव्य की सत्ता को belong नहीं करता। दोनों की सत्ता अलग-अलग रहेगी, दोनों का अस्तित्व अलग-अलग रहेगा। सत् एक होते हुए भी द्रव्य भि न्न-भि न्न हो जाता है और द्रव्य की भि न्नता होने पर ही यह कहा जाता है कि इसकी सत्ता अलग है और इसकी सत्ता अलग है। समझ आ रहा है? हम कभी एक रूप भी देखें और कभी अनेक रूप भी देखें। यह देखने और जानने का जो हमारा अनेकान्त दर्श न के अनुसार भाव है, यह भाव अगर बना रहता है, तो हमारे लि ए भ्रम पैदा नहीं होता है।
एकत्वपने के भ्रम का निवारण
एक रुप देखते-देखते भ्रम आ जाता है कि सब एक ही हैं। नहीं भैया ! सब एक नहीं है, कुछ अपेक्षा से अलग भी हैं। अगर सब एक हो गया तो फिर कौन पूज्य और कौन पूजक? क्या कहा ? सब सत् हैं, सभी आत्म द्रव्य एक समान हैं। जब आप ने कह दिया सब एक समान हैं तो फिर एक पूज्य है, एक पूजक है। जो पूजा कर रहा है, वह पूजक कहलाता है और जिसकी पूजा की जा रही है, वह पूज्य कहलाता है। फिर ऐसा क्यों ? हम आपको पूज्य क्यों माने? आपको उच्चा सन हम क्यों दें? क्या समझ आ रहा है? आपकी पूजा हम बैठकर क्यों करें? यह सब प्रश्न कब होंगे? जब हमने एकत्व को ही मान रखा हो, उनके अन्दर भि न्नत्व को न माना हो। भि न्नत्व भी कहा गया है, एकत्व भी कहा गया है, एकपना भी है, अनेकपना भी है। एक ही वस्तु धर्म को मानोगे तो एकान्ति हो जाओगे और व्यवहा र जब भी चलता है, तो अनेकान्त के अनुसार ही चलता है। एकान्त से कभी व्यवहा र बनता ही नहीं। जिन्हों ने कभी भी व्यवहा र चलाया है और अगर उन्हों ने एक रूप मान लिया कि सब एकरूप हैं तो व्यवहा र चल ही नहीं सकता। फिर कौन मालि क, कौन नौकर, कौन गुरु, कौन शि ष्य, कौन कि ससे क्या ग्रह ण करे? कौन कि सको क्या दे? कौन कि सका उपकार माने? कौन कि सका अपकार माने? यह व्यवहा र चल रहा है, यह भि न्नता के आधार पर चल रहा है, एकता के आधार पर व्यवहा र नहीं चल पाता इसलि ए सत् की अपेक्षा से सब में एकपना जानना और उनके प्रदेश भि न्न हैं, उनके गुण भि न्न हैं, उनकी पर्याय भि न्न हैं इसलि ए उस द्रव्य की भि न्नता को जानकर उस द्रव्य से अपने आप को भि न्न मान कर एक को पूज्य-पूजक का भाव बन जाता है, गुरु-शि ष्य का भाव बन जाता है, स्वा मी-दास का भाव बन जाता है। यह सब कब बनता है? जब हमारे अन्दर अनेकत्व का भी ज्ञा न होता है और इसी ज्ञा न से सारा का सारा व्यवहा र चलता है। इसलि ए पूज्य-पूजक भाव भी जब आ जाता है, तो उस समय पर हमारी दृष्टि में यह द्रव्य हमसे भि न्न है और इस द्रव्य के जो गुण हैं, इस द्रव्य की जो पर्याय हैं, वह भी हमसे भि न्न प्रकार की है। ऐसा जब हमारे ज्ञा न में आएगा तभी हम उसके प्रति पूज्यता का भाव लाएँगे और हम उसके पूजक कहलाय ेंगे। पूज्य-पूजक का मतलब एक बड़ा हो गया और एक छोटा हो गया । एक की पूजा की जा रही है और एक पूजा करने वा ला है और यह भाव आता ही है। जब तक हम बिल्कु बिल्कु ल एक नहीं हो जाते हैं तब तक यह भाव बना रहता है। एक होने का मतलब जब तक हम पूज्य की तरह नहीं हो जाएँगे तब तक हमारे अन्दर यह भाव बना ही रहेगा।
पूज्य -पूजक का भाव
पंच परमेष्ठी में पाँचों ही परमेष्ठी क्या हैं? पूज्य हैं और हम क्या हैं? पूजक हैं। अब उस पूजक के भाव में जब हम बैठेंगे तो हम पाँचों परमेष्ठिय ों में अपनी कुछ भि न्नता देखेंगे कि नहीं देखेंगे? कैसे भि न्न है? इनकी आत्म द्रव्य में और हमारी आत्म द्रव्य में सत् की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं है। इनके अन्दर भी सत्ता गुण है, हमारे अन्दर भी सत्ता का गुण है। इनके द्रव्य का भी अस्तित्व है, हमारे द्रव्य का भी अस्तित्व है लेकि न उसी सत्ता गुण के साथ -साथ जब हम अन्य गुणों की अपेक्षा से देखते हैं तो हमें उसमें भि न्नता और उस द्रव्य के गुणों की पर्याय ों में भि न्नता नजर आती है। एक द्रव्य की पर्याय बिल्कु बिल्कु ल अलग जा रही है, वीतरागता की ओर जा रही है और एक द्रव्य की पर्याय राग की ओर जा रही है। एक द्रव्य के सब गुण अशुद्ध होते चले जा रहे हैं और एक द्रव्य के सभी गुण शुद्ध होते चले जा रहे हैं। एक द्रव्य के गुणों में समीचीनपना आ गया , एक द्रव्य के गुणों में मि थ्या पना ही चल रहा है। द्रव्य के जो यह गुण और उनकी जो पर्याय हैं, जो हमें अलग-अलग रूप से प्रति भासि त होती हैं, इसी के आधार पर पूज्य और पूजक का भाव depend हो जाता है। इसलि ए एक स्था न पर आचार्य वीरसेन जी महा राज श्री धवला नाम की जो टीका है, षटखंडागम सूत्रों की, उसमें लि खते हैं कि पाँचों परमेष्ठिय ों में रत्नत्रय की अपेक्षा से एकरूपता है। क्या लि खते हैं? पाँचों परमेष्ठिय ों में कोई भी अन्तर नहीं हैं, रत्नत्रय की अपेक्षा से एकरूपता है। अब यह क्या हो गई? हमारी अपेक्षा हो गई और वो अपेक्षा कि सकी हो गई? आत्मा के अन्दर जो सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र इन तीनों गुणों का जो परि णमन है, वह सम्यक् दर्श न, ज्ञा न, चारित्र ही आत्मा के तीन गुणों का परि णमन उस आत्मा की पूज्यता के लि ए कारण होता है। कोई भी आत्मा पूज्य कब होगी? जब उसमें सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र का परि णमन होने लगेगा और वह होना चाहि ए उसी रूप में सम्यक् दर्श न, सम्यक् ज्ञा न और सम्यक् चारित्र । समझ आ रहा है? अब वह सम्यक् चारित्र में अब आप कहोगे कि एक देश चारित्र हो जाता है, एक सकल चारित्र हो जाता है, तो क्या देश चारित्र वा लों को भी इसी में शामि ल कर लें? समझ आ रहा है? देश का मतलब जो गृहस्थों का एक देश विकल चारित्र होता है, अणुव्रत रूप चारित्र होता है, तो आचार्य कहते हैं:- नहीं! यह पूर्ण चारित्र नहीं माना जाएगा। सकल व्रतों को धारण करने वा ला होना चाहि ए, महा व्रती होना चाहि ए। क्या समझ आ रहा है? वह सम्यक् चारित्र की पूर्ण ता वा ला महा व्रती होना चाहि ए, पूर्ण सकल चारित्र को धारण करने वा ला होना चाहि ए। जहा ँ पर सम्यक् दर्श न, सम्यक् ज्ञा न और सम्यक् चारित्र यह तीनों परि णाम आत्मा के अन्दर परि णमन को प्राप्त हो गए, उस आत्मा के अन्दर इन तीनों का ग्रह ण हो गया तो वही आत्मा पूज्य हो गई।