10-29-2022, 12:14 PM
स्त्री पूज्य क्यों नहीं है? स्त्रि याँ उपचार से महाव्रती हैं
अब लोग कहते हैं स्त्री की तरह पुरुष के अन्दर भी योग्यता होती है और पुरुष की तरह स्त्री के अन्दर भी योग्यता होती है। पुरुष पूज्य हो जाता है, स्त्री पूज्य क्यों नहीं होती है? अब आप समझो क्यों नहीं होती है? पंच परमेष्ठी में स्त्रिया ँ है कि पुरुष हैं? स्त्रिया ँ भी दो प्रकार की होती हैं- एक द्रव्य स्त्री एक भाव स्त्री । समझ आ रहा है? द्रव्य स्त्री का मतलब जिसका शरीर स्त्री रूप पर्याय के साथ में हो तो वह द्रव्य स्त्री कहलाता है और जिसके अन्दर स्त्री वेद के उदय से जो भाव पैदा होते हैं, वह भाव स्त्री रूप कहलाता है। क्या सुन रहे हो? आचार्य कहते हैं- पाँचों ही परमेष्ठिय ों को द्रव्य स्त्री नहीं होना चाहि ए। कोई है पाँचों परमेष्ठिय ों में द्रव्य स्त्री ? द्रव्य स्त्री होने का मतलब स्त्री पर्याय पाँचो परमेष्ठिय ों में कि सी की भी नहीं है। क्यों नहीं है? क्योंकि उस स्त्री पर्याय में उनके अन्दर वह सकल चारित्र का भाव नहीं आ पाता है। कौन सा चारित्र ? सकल चारित्र । अब आप कहोगे स्त्रिया ँ भी सकल चारित्र का पालन करती हैं, महा व्रतों का पालन करती हैं। करती हैं लेकि न उनके वह महा व्रत उनके अन्दर के सकल चारित्र के भाव को प्रकट नहीं कर पाते। क्यों नहीं कर पाते हैं? क्योंकि सकल चारित्र जो उत्प न्न होता है वह शुरू की जो तीन कषाय हैं उनके अभाव से उत्प न्न होगा, जिसे हम कहते हैं अनन्ता नुबंधी, अप्रत्याख्या न और प्रत्याख्या न। समझ आ रहा है? इन तीनों कषाय ों का अभाव होना चाहि ए, केवल संज्जव लन कषाय मात्र का उदय रहेगा तो सकल चारित्र बनेगा। क्या समझ आया ? स्त्री के अन्दर इतनी योग्यता नहीं आ पाती कि वह अपने उस प्रत्याख्या न कषाय का अभाव कर सके, संज्जव लन कषाय मात्र का उदय रह जाए। जब उसके अन्दर के यह कषाय भाव जो उसके बाह री रूप के साथ भी जुड़े रहते हैं और उसकी बाह री पर्याय में इतनी शक्ति नहीं होती कि वह अपनी अन्तरंग की इन कषाय ों का अभाव कर सकें। अनन्ता नुबंधी का अभाव हो सकता है, अप्रत्याख्या न का अभाव हो सकता है, प्रत्याख्या न कषाय का उदय रहेगा तो पाँचवा गुणस्था न बन जाता है और उसका भी अभाव हो जाएगा तो छठवा ँ, सातवा ँ गुणस्था न बन जाता है। जब तक उसके लि ए ये संज्जव लन कषाय का मात्र उदय नहीं रह जाता तब तक भीतर से सकल चारित्र का भाव प्रकट नहीं होता। वह क्यों नहीं हो पाता? क्योंकि अन्तरंग में वह संज्जव लन कषाय के अलावा जो अप्रत्याख्या न कषाय है उसका भी सद्भाव बना रहता है क्योंकि स्त्री का गुणस्था न पाँचवें गुणस्था न से ज्या दा होता ही नहीं है चाह े वह कि तने ही महा व्रतों को धारण कर ले, कि तनी ही कठि न तपस्या कर ले। पाँचवा गुणस्था न कि सका होता है? जो व्रती होते हैं, जो घर में रहने वा ले देश व्रती होते हैं, उनका पाँचवा ँ गुणस्था न होता है। समझ आ रहा है? छठवा ँ, सातवा ँ गुणस्था न ही सकल चारित्र का गुणस्था न है। महा व्रत मुख्य रूप से जहा ँ होंगे वह ीं पर यह छठवा ँ-सातवा ँ गुणस्था न होगा और वह ीं पर यह सकल चारित्र की दशा बनती है। तो आचार्य कहते हैं:- अगर वहा ँ छठवा ँ, सातवा ँ गुणस्था न नहीं है, तो फिर वहा ँ पर महा व्रतों का पालन भी मुख्य नहीं हैं। उसे उपचार से कहा है। इसलि ए जो भी स्त्रिया ँ होंगी अगर वह महा व्रतों का पालन करेंगी तो कि ससे कहलाएँगी? उपचार से महा व्रती हैं, मुख्यता से नहीं और जहा ँ मुख्यता नहीं है, तो अन्तरंग में सकल चारित्र का भाव पूर्ण नहीं हो सकता। रत्नत्रय जिसे हम सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र कहते हैं, वह रत्नत्रय सम्यक् चारित्र , सकल चारित्र के साथ है, देश चारित्र के साथ नहीं हैं। सकल चारित्र के साथ जब होगा तो ही वह रत्नत्रय कहलाएगा, देश चारित्र के साथ उसको रत्नत्रय नहीं कहा गया है। क्या सुन रहे हो? तुम माताजी हो, चाह े कोई भी दीदी हो, कोई भी हो, सब की बात ही तो चल रही है, एक भाव में सब को समझ लो। जो कोई भी है, आर्यि र्यिका के रूप में समझो या माताजी के रूप में समझो, वे सब उपचार से ही महा व्रती होते हैं। समझ आ रहा है? उपचार का मतलब होता है- काम चलाने वा ला। मुख्यता से जो महा व्रतों का भाव होता है, मुख्यता से जो महा व्रतों का पालन करना होता है, वह केवल पुरुष पर्याय में ही सम्भव है। इसलि ए मैंने कहा कि द्रव्य स्त्री नहीं होना चाहि ए। द्रव्य स्त्री होने पर वह महा व्रतों का मुख्य रूप से पालन कर ही नहीं सकता।
पूज्य ता किससे आती है?
शरीर द्रव्य से स्त्री रूप होगा तो वह कभी भी महा व्रतों के पालन के योग्य नहीं हो पाता और जब नहीं होगा तो सकल चारित्र भीतर से नहीं होगा। सकल चारित्र नहीं होगा तो उसका गुणस्था न कभी भी छठवा ँ, सातवा ँ नहीं होगा। क्या समझ में आया ? सम्यक् दर्श न, सम्यक् ज्ञा न और सम्यक् चारित्र को ही रत्नत्रय कहा जाता है। रत्नत्रय ही पूज्य होता है और उस रत्नत्रय में हम सम्यक् चारित्र को सकल चारित्र के रूप में ही ग्रह ण करते हैं, देश चारित्र के रूप में नहीं। अगर हम देश चारित्र के रूप में ग्रह ण करेंगे तब तो फिर घर में रहने वा ले जितने भी प्रति माधारी हैं, व्रती हैं, सभी पूज्य हो जाएँगे। समझ आ रहा है? सभी के लि ए वह पूज्यता का भाव आ जाएगा लेकि न पूज्यता सबके अन्दर नहीं होती है। पूज्य का मतलब होता है जिसकी हम पूजा करें। पूजा करने के योग्य जो होगा, वह पूज्य होगा। अतः पूज्यता का जो भाव आएगा वह रत्नत्रय के साथ आएगा, सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र के साथ आएगा और वह रत्नत्रय पंच परमेष्ठी में ही है, अन्य कहीं पर भी नहीं है। इसलि ए आचार्य वीर सेन जी महा राज कहते हैं कि ये पंच परमेष्ठी रत्नत्रय की अपेक्षा से एक समान है इसीलि ए यह पूज्य हैं। सुन रहे हो कि नहीं? समझ भी आ रहा है कि नहीं? यह सिद्धा न्त है। हम सिद्धा न्त की अपेक्षा से ही चले, सिद्धा न्त को ही समझे। पूज्यता कि ससे आ रही है? हम पूजा कि सकी करें? हम कि सी के भी आगे पूज्य शब्द लगा देते हैं। यह हमारी नासमझी होती है। पूज्य-पूजक भाव , उपास्य-उपासक भाव , यह रत्नत्रय की आराधना करने वा लों के साथ ही बनता है, अन्य कि सी के साथ नहीं बनता। अगर हम अन्य कि सी के साथ जोड़ देते हैं तो हमारी जो पंच परमेष्ठी की परम्परा है, पंच परमेष्ठी का जो हमारा बहुमान है, उससे हम अलग हट जाते हैं। जब पंच परमेष्ठी के अलावा भी हम कि सी की पूजा करने लगे माने हम दिगम्बरत्व के अलावा भी कि सी की पूजा करने लगे तो फिर आप दिगम्बर नहीं कहलाओगे। हम क्या कह रहे हैं? पहले सिद्धा न्त समझो। बीच में इधर-उधर के प्रश्न करने से कुछ समाधान नहीं होता। जो सिद्धा न्त है, वह सिद्धा न्त है। दिगम्बरों की पूजा करने वा ला ही दिगम्बर कहलाएगा, पाँच परमेष्ठी की पूजा करने वा ला ही दिगम्बर कहलाएगा, णमोकार मंत्र की आराधना करने वा ला ही दिगम्बर कहलाय ेगा और वह णमोकार मंत्र में पाँच परमेष्ठी हैं। पाँचों ही कैसे हैं? द्रव्य से कोई भी स्त्री नहीं हैं। बस हर एक चीज को बिल्कु बिल्कु ल स्पष्ट कहना पड़ ता है क्या ? समझदारी से काम लो। क्या कोई भी द्रव्य से स्त्री है, पाँचों परमेष्ठी में? अरिह न्त, सि द्ध, आचार्य, उपाध्याय , साधु, होता ही नहीं। क्योंकि जिसके अन्दर अरिह न्त बनने की योग्यता होती है, वह ी हमारे लि ए पूज्य होता है और वह योग्यता पुरुष पर्याय में ही आती है। इसलि ए हमेशा इस बात का ध्या न रखना कि पुरुष पर्याय में ही, द्रव्य से पुरुष होने पर ही वह पाँच परमेष्ठी की श्रेणी में आने योग्य होता है, इसके अलावा नहीं। यह बात आपके लि ए सही ढंग से समझ में आ जानी चाहि ए। सही ढंग से मतलब सिद्धान्तः । समझ आ रहा है न? ऐसा नहीं कि ऐसा होता है, वहा ँ ऐसा होता है, ये ऐसा करते है, वे ऐसा करते है। कोई कुछ भी करे हमें इससे कोई लेना-देना नहीं है लेकि न हमें सही बात को समझना जरूरी है।
जहाँ दि गम्बर रूप नहीं है, तो वह पूज्य कैसे हो गए?
ह म जिस की पूजा कर रहे हैं, उनके पास रत्नत्रय कहा जाएगा क्या ? अगर रत्नत्रय नहीं है, तो उनके लि ए हमें पूजा नहीं करना। रत्नत्रय उसी को कहते हैं- जहा ँ पर सम्यक् दर्श न के साथ में सकल चारित्र हो, महा व्रत हो। इसलि ए पंच परमेष्ठी पूज्य हैं और उनकी पूज्यता को अगर हम बनाए रखेंगे तो तभी बनाए रख सकते हैं जब उसके साथ में हम कि सी दूसरी चीज को न जोड़े ड़े। कि सी अन्य कपड़े ड़े वा लों को उसके साथ add न करे। तभी दिगम्बरत्व सुरक्षि त रहेगा, तभी दिगम्बर धर्म सुरक्षि त रहेगा, दिगम्बर परम्परा सुरक्षि त रहेगी। कपड़े ड़े वा ले जहा ँ जुड़ गए तो सब गड़ बड़ हो जाएगा। दिगम्बरत्व धर्म का मतलब ही है कि दिगम्बर रूप में ही वे हमारे लि ए पूज्य हैं। जहा ँ दिगम्बर रूप नहीं हैं तो पूज्य कैसे हो गए? उनके लि ए अलग title दिए जाते हैं। इसलि ए नमोस्तु शब्द जो है, यह पाँचो परमेष्ठिय ों में एक साथ चलेगा। पाँचो परमेष्ठिय ों को आप नमोस्तु कह सकते हैं। लेकि न कभी भी भूल से, कि सी भी कपड़े ड़े वा ले को नमोस्तु मत कह देना। कह देते हो क्या ? जब कपड़े ड़े वा ले को नमोस्तु नहीं कहते हो क्योंकि वे पंच परमेष्ठी में नहीं आते हैं, सकल महा व्रत उनके पास में नहीं होते हैं तो उनकी पूज्यता पंच परमेष्ठी की तरह हो कैसे सकती है। अगर आपने उनको भी उसी तरीके से पूज्य बना दिया तो अब यह आपकी कमी कहलाएगी, आपके सम्यक् ज्ञा न की कमी कहलाएगी। सिद्धा न्त तो जो कहता है, वह आपको बताया जा रहा है। इसलि ए कहा गया है कि रत्नत्रय ही पूज्य है और रत्नत्रय की आराधना करोगे तो ही रत्नत्रय आपको प्राप्त होगा। ‘रत् न त्रयं च वंदे रत् न त्रय सिद्ध ये भक् त् या ’ पंच महा गुरु भक्ति आती है, उसमें पंच परमेष्ठी का ग्रह ण किया जाता है, पंच परमेष्ठी की पूजा की जाती है, तो वह सब पंच परमेष्ठी रत्नत्रय स्व रूप हैं। बड़े ड़े-बड़े ड़े आचार्य भी उसमें कोई भेद नहीं रखते हैं कि ये मुनि महा राज है, कि ये उपाध्याय हैं, सबके पास में रत्नत्रय है। फिर आचार्य भी मुनि महा राज को क्यों नमस्का र करते हैं? उपाध्याय भी मुनि महा राज को क्यों नमस्का र करते हैं? वह मुनि महा राज को नमस्का र नहीं कर रहे हैं, वे उनके अन्तरंग के रत्नत्रय को नमस्का र कर रहे हैं क्योंकि जो जिस line का होगा वह उसी लाइन की व्यक्ति के साथ में अपना समानता का व्यवहा र रखेगा। समझ आ रहा है? आचार्य पूज्यपाद महा राज पंच परमेष्ठिय ों की भक्ति करते हुए एक लाइन में कह देते हैं ‘रत् न त्रयं च वंदे रत् न त्रय सिद्ध ये भक् त् या ’- मैं भक्ति से रत्नत्रय की वन्दना करता हूँ। कि सके लि ए? रत्नत्रय की सिद्धि के लि ए। समझ आ रहा है? सिद्धि का मतलब पूर्ण ता। अब वह रत्नत्रय भी परि पूर्ण रत्नत्रय कब होगा? जब वह बिल्कु बिल्कु ल सि द्ध भगवा न बन जाएँगे तो परि पूर्ण रत्नत्रय होगा। लेकि न रत्नत्रय की शुरुआत कहा ँ से होती है? वह छठवें-सातवें गुणस्था न के साथ सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र को ग्रह ण करने पर ही होती है। यहा ँ से वह रत्नत्रय प्रा रम्भ होता है, तो रत्नत्रय की अपेक्षा से पंच परमेष्ठिय ों में कुछ भी अन्तर नहीं है।
सत् की अपेक्षा से किसी में कोई अन्तर नहीं है
अब देखो! कैसे-कैसे पृथक् होता चला जाता है। सत् की अपेक्षा से पंच परमेष्ठी भी सत् हैं, हम भी सत् हैं, नि गोदिया जीव भी सत् हैं। सि द्ध भी सत् हैं और उन्हीं के पास में उन्हीं के शरीर, उन् ह ीं के जो आत्म प्रदेश हैं, उसी स्था न पर बैठा हुआ नि गोदिया जीव है, वह भी सत् स्व रूप है। सत् की अपेक्षा से कि सी में कोई अन्तर नहीं है। हर द्रव्य सत्ता स्व रूप है, सत् स्व रूप है। सत् की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं रहा । अब अन्तर कि स अपेक्षा से आया ? एक तो रत्नत्रय को धारण करने वा ली आत्मा है, जिसके अन्दर दर्श न गुण, ज्ञा न गुण और चारित्र गुण की पर्याय नि कल रही हैं और वह समीचीन पर्याय नि कल रही हैं। एक तरफ यह रत्नत्रय से रहि त, मि थ्या दर्श न, मि थ्या ज्ञा न, मि थ्या चारित्र को धारण करने वा ली आत्मा एँ हैं, जिनके अन्दर हर दर्श न, ज्ञा न, चारित्र गुण की मिथ्या पर्याय नि कल रही हैं माने वह मि थ्या परि णमन उनका चल रहा है। यह अंतर हो जाता है। सत्ता एक होते हुए भी प्रदेश भि न्नता होती है, तो द्रव्य की भि न्नता हुई और द्रव्य की भि न्नता होने पर जब उन गुण और पर्याय ों का परि णमन अलग होता है, तो फिर उसमें पूज्यता और पूजक का भाव अन्तर में आ जाता है। नहीं तो फिर सब एक समान पूज्य हो जाएँगे। क्या समझ आया ? अब आपको कुछ समझने की जरूरत नहीं है। अगर हमने एक बार भीतरी सिद्धा न्त समझ लिया तो अब आप हर चीज को हटा सकते हो। इसी को बोलते हैं कि अगर हमने एक बार सम्यक् दर्श न की बात समझ ली, सम्यकत्व की बात अगर हमारी धारणा में पड़ गई तो मि थ्या त्व को छोड़ ने के लि ए अलग-अलग कहने की जरूरत नहीं कि अब आप यह मि थ्या त्व छोड़ो , यह मि थ्या त्व छोड़ो , यह मि थ्या त्व छोड़ो । पहले सही चीज तो पकड़ लो। सही औषधि मि ल जाएगी फिर कि तने भी तरह के रोग होंगे सब अपने आप दूर होते चले जाएँगे, सब कटते चले जाएँगे। सही मार ्ग पर चलने लग जाओगे, कि तनी भी मि थ्या मार ्ग पर ले जाने वा ली पगडण्डिया ँ होंगी, सब अपने आप छूटती चली जाएँगी। सही चीज पकड़ लो बस। पहले सही सिद्धा न्त पकड़ लो। आज आपको बताया जा रहा है कि पूज्यता कि ससे आती है? रत्नत्रय से आती है। अब जितना भी दुनिया में हमारे लि ए दिखाई दे रहा है, जो कुछ भी मि थ्या त्व का कारण है, आप सबको इसी एक सूत्र पर चलकर सबको अलग कर सकते हो। बाबा बैठे हैं- आसन पर, गद्दिय ों पर। बाबा से मतलब समझ रहे हो न? अच्छा काजू, पिस्ता , बादाम खाय े जा रहे हैं और प्रवचन दिए जा रहे हैं। क्या है यह ? रत्नत्रय है यहा ँ पर? आप खुद अपनी बुद्धि से हर चीज का निर्णय लगाते चले जाओ, कहीं पर भी आग्रह नहीं करना।
सि द्धा न्त कभी भी बदलता नहीं है
सिद्धान्त चतुर्थ काल में जैसा था पंचम काल में भी वैसा ही है। आगे भी आने वा ले कालों में जब नए तीर्थं कर होंगे तब भी यह ी रहेगा। सिद्धा न्त कभी भी बदलता नहीं है। यह जो सिद्धा न्त होते हैं अपरिवर्त नीय होते हैं, त्रैकालि क होते हैं। ये कभी भी नहीं बदलते। हमेशा जो गुणी व्यक्ति होगा पूजा करेगा तो कि सकी करेगा? पू्ज्य की करेगा। पूज्यता कहा ँ से आती है? रत्नत्रय को पूज्य माना गया है यह सिद्धा न्त है। अब आपकी दृष्टि में जो कुछ भी हो, आपको जो करना पड़ ता हो, आपको जो करना है वह करो। समझ आ रहा है न? इसके लि ए काेई आपके ऊपर जबरदस्ती नहीं है कि आपको कि सकी पूजा करनी पड़ ती है? अपनी माता जी की या पि ताजी की, यह सब आप जानो, इससे कोई लेना-देना नहीं। सिद्धा न्त क्या है, पहले यह ध्या न में रखो। सिद्धा न्त को जानने वा ला व्यक्ति सिद्धा न्त के अनुसार चलेगा तो उसके अन्दर यह रत्नत्रय को ग्रह ण करने का भाव रहेगा। पूज्यता के भाव को अगर समझेगा तो वह भी पूजक बनते-बनते एक दिन पूज्य बन जाएगा क्योंकि उसको मालूम है पूज्य वास्तव में क्या होता है। फिर क्या हुआ? अब दुनिया का जितना मि थ्या त्व फैला हुआ है, आप बस एक सिद्धा न्त अपने दिमाग में रखो, हमें कि स की पूजा करनी है? रत्नत्रय की। रत्नत्रय का मतलब सम्यक् दर्श न, सम्यक् ज्ञा न और सम्यक् चारित्र का मतलब सकल चारित्र । सकल चारित्र का मतलब पाँच महा व्रतों का मुख्यता से पालन करने वा ला। पाँच महा व्रतों का मुख्यता से पालन कब होगा? जब ऊपर क्या होगा? कपड़ा नहीं होगा। तो कौन होगा? दिगम्बर ही होगा। दिगम्बर स्त्री होगी कि नहीं होगी? हो गई तो, मान लो भविष्य में, काल बदल रहा है पंचम काल में कुछ भी हो सकता है। स्त्री पुरुष के समान होने की चेष्टा कर रही है। सब कुछ चल रहा है, कुछ भी हो सकता है। यह प्रश्न आते हैं, अपने सामने इसलि ए आपको बता रहा हूँ। आप यह ध्या न में रखो कि अगर स्त्री कहीं इस पंचम काल में, कि सी भी आगे के काल में कभी मान लो दिगम्बर भी हो गई तो क्या करोगे? पहले से सिद्धा न्त अपने दिमाग में रख लो। वह पंच परमेष्ठी में आएगी कि नहीं आएगी? नहीं आएगी। यह समझ लेना स्त्रिय ों से ही कहलवा रहा हूँ। सिद्धा न्त, सिद्धा न्त है।
स्त्री और पुरुष के बीच का भेद समझो
तब भी वह पंच परमेष्ठी में नहीं आएगी क्योंकि उस स्त्री के अन्दर उस स्त्री पर्याय के कारण से उसके जो भाव हैं, वह भाव इतने सुदृढ़ नहीं होते हैं कि वह अपने लि ए सकल चारित्र का पालन करने का भाव कर सके। आचार्यों ने कहा है:- स्त्री पर्याय में, स्त्री के शरीर में, पुरुष के शरीर की अपेक्षा से अधि क सम्मुर्च्छ म्मुर्च्छनम् जीवों की उत्पत्ति होती है। यह बातें इसलि ए बताना जरूरी हो रहा है कि आज की बेटिया ँ पूछने लगी हैं। कहने लगी हैं कि हम क्यों नहीं दिगम्बर बन सकते हैं। इतना समानता का भाव आ रहा है, उनके अन्दर इसलि ए बताना जरूरी हो रहा है। स्त्री को कभी भी वो संहनन नहीं मि लता जिस संहनन के साथ में वह केवलज्ञा न प्राप्त कर सके, उत्कृ ष्ट शुक्ल ध्या न प्राप्त कर सके। स्त्री का शरीर ऐसा होता है कि वह कभी भी ध्या न की स्थि रता में आ ही नहीं सकती और अगर वह दिगम्बर हो गई तो और ज्या दा नहीं आ सकती। यह उसका एक स्व भाव है, पर्याय है उसकी। भीतर से डर बना रहना, भीतर से भयशील रहना और भीतर से संकुचित रहना, यह उसके स्व भाव में है। इसी कारण से उसकी इस पर्याय में ध्या न की इतनी स्थि रता नहीं होती कि वह कभी भी शुक्ल ध्या न कर सके और शुक्ल ध्या न नहीं कर पाने के कारण से उसे कभी केवलज्ञा न नहीं होता। स्त्री के शरीर और पुरुष के शरीर की विशेषता के कारण से यह होता है। यह चीजें ज्ञा न में होनी चाहि ए। क्यों नहीं है बराबर? स्व भाव ही है ऐसा। बराबर इसीलि ए नहीं है क्योंकि हमारे लि ए इस तरह की पर्याय में वह बराबर का भाव आता ही नहीं है। अब कोई एक स्त्री कहीं मान लो मैराथ न दौड़ में first आ गई कि कोई एक स्त्री मान लो एवरेस्ट चोटी पर चढ़ गई, कोई एक स्त्री मान लो अन्तरिक्ष में चली गई, इतना हो गया तो आप कैसे कह सकते हो कि स्त्री में भय होता है। कि सी स्त्री में अगर कोई ऐसी चेष्टा एँ हो गई हैं तो भी इसका मतलब यह नहीं हैं कि भय नहीं है। वह उसकी अपनी एक क्रिया शीलता हो सकती है कि वह इतना काम कर सकती है, तो कर लिया उसने। उसका भय से क्या लेना-देना, उसकी योग्यता है। लेकि न जो उसके अन्दर ध्या न करने की योग्यता होती है, वह ध्या न करने की योग्यता उसको शुक्ल ध्या न के लि ए नहीं मि लती है। धर्म ध्या न करने में कोई बाधा नहीं, धर्म ध्या न करो। यह स्त्री और पुरुष के बीच का भेद समझो। इसीलि ए अगर कभी स्त्री नग्न भी हो गई तो भी वह दिगम्बर नहीं कहलाएगी क्योंकि वह तब भी अहि ंसा महा व्रत का पालन करने लाय क उसका शरीर नहीं है। ऐसा आचार्य कुन्द-कुन्द देव ने इसी प्रवचनसार में कहा है, जो आगे आएगा।
अब लोग कहते हैं स्त्री की तरह पुरुष के अन्दर भी योग्यता होती है और पुरुष की तरह स्त्री के अन्दर भी योग्यता होती है। पुरुष पूज्य हो जाता है, स्त्री पूज्य क्यों नहीं होती है? अब आप समझो क्यों नहीं होती है? पंच परमेष्ठी में स्त्रिया ँ है कि पुरुष हैं? स्त्रिया ँ भी दो प्रकार की होती हैं- एक द्रव्य स्त्री एक भाव स्त्री । समझ आ रहा है? द्रव्य स्त्री का मतलब जिसका शरीर स्त्री रूप पर्याय के साथ में हो तो वह द्रव्य स्त्री कहलाता है और जिसके अन्दर स्त्री वेद के उदय से जो भाव पैदा होते हैं, वह भाव स्त्री रूप कहलाता है। क्या सुन रहे हो? आचार्य कहते हैं- पाँचों ही परमेष्ठिय ों को द्रव्य स्त्री नहीं होना चाहि ए। कोई है पाँचों परमेष्ठिय ों में द्रव्य स्त्री ? द्रव्य स्त्री होने का मतलब स्त्री पर्याय पाँचो परमेष्ठिय ों में कि सी की भी नहीं है। क्यों नहीं है? क्योंकि उस स्त्री पर्याय में उनके अन्दर वह सकल चारित्र का भाव नहीं आ पाता है। कौन सा चारित्र ? सकल चारित्र । अब आप कहोगे स्त्रिया ँ भी सकल चारित्र का पालन करती हैं, महा व्रतों का पालन करती हैं। करती हैं लेकि न उनके वह महा व्रत उनके अन्दर के सकल चारित्र के भाव को प्रकट नहीं कर पाते। क्यों नहीं कर पाते हैं? क्योंकि सकल चारित्र जो उत्प न्न होता है वह शुरू की जो तीन कषाय हैं उनके अभाव से उत्प न्न होगा, जिसे हम कहते हैं अनन्ता नुबंधी, अप्रत्याख्या न और प्रत्याख्या न। समझ आ रहा है? इन तीनों कषाय ों का अभाव होना चाहि ए, केवल संज्जव लन कषाय मात्र का उदय रहेगा तो सकल चारित्र बनेगा। क्या समझ आया ? स्त्री के अन्दर इतनी योग्यता नहीं आ पाती कि वह अपने उस प्रत्याख्या न कषाय का अभाव कर सके, संज्जव लन कषाय मात्र का उदय रह जाए। जब उसके अन्दर के यह कषाय भाव जो उसके बाह री रूप के साथ भी जुड़े रहते हैं और उसकी बाह री पर्याय में इतनी शक्ति नहीं होती कि वह अपनी अन्तरंग की इन कषाय ों का अभाव कर सकें। अनन्ता नुबंधी का अभाव हो सकता है, अप्रत्याख्या न का अभाव हो सकता है, प्रत्याख्या न कषाय का उदय रहेगा तो पाँचवा गुणस्था न बन जाता है और उसका भी अभाव हो जाएगा तो छठवा ँ, सातवा ँ गुणस्था न बन जाता है। जब तक उसके लि ए ये संज्जव लन कषाय का मात्र उदय नहीं रह जाता तब तक भीतर से सकल चारित्र का भाव प्रकट नहीं होता। वह क्यों नहीं हो पाता? क्योंकि अन्तरंग में वह संज्जव लन कषाय के अलावा जो अप्रत्याख्या न कषाय है उसका भी सद्भाव बना रहता है क्योंकि स्त्री का गुणस्था न पाँचवें गुणस्था न से ज्या दा होता ही नहीं है चाह े वह कि तने ही महा व्रतों को धारण कर ले, कि तनी ही कठि न तपस्या कर ले। पाँचवा गुणस्था न कि सका होता है? जो व्रती होते हैं, जो घर में रहने वा ले देश व्रती होते हैं, उनका पाँचवा ँ गुणस्था न होता है। समझ आ रहा है? छठवा ँ, सातवा ँ गुणस्था न ही सकल चारित्र का गुणस्था न है। महा व्रत मुख्य रूप से जहा ँ होंगे वह ीं पर यह छठवा ँ-सातवा ँ गुणस्था न होगा और वह ीं पर यह सकल चारित्र की दशा बनती है। तो आचार्य कहते हैं:- अगर वहा ँ छठवा ँ, सातवा ँ गुणस्था न नहीं है, तो फिर वहा ँ पर महा व्रतों का पालन भी मुख्य नहीं हैं। उसे उपचार से कहा है। इसलि ए जो भी स्त्रिया ँ होंगी अगर वह महा व्रतों का पालन करेंगी तो कि ससे कहलाएँगी? उपचार से महा व्रती हैं, मुख्यता से नहीं और जहा ँ मुख्यता नहीं है, तो अन्तरंग में सकल चारित्र का भाव पूर्ण नहीं हो सकता। रत्नत्रय जिसे हम सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र कहते हैं, वह रत्नत्रय सम्यक् चारित्र , सकल चारित्र के साथ है, देश चारित्र के साथ नहीं हैं। सकल चारित्र के साथ जब होगा तो ही वह रत्नत्रय कहलाएगा, देश चारित्र के साथ उसको रत्नत्रय नहीं कहा गया है। क्या सुन रहे हो? तुम माताजी हो, चाह े कोई भी दीदी हो, कोई भी हो, सब की बात ही तो चल रही है, एक भाव में सब को समझ लो। जो कोई भी है, आर्यि र्यिका के रूप में समझो या माताजी के रूप में समझो, वे सब उपचार से ही महा व्रती होते हैं। समझ आ रहा है? उपचार का मतलब होता है- काम चलाने वा ला। मुख्यता से जो महा व्रतों का भाव होता है, मुख्यता से जो महा व्रतों का पालन करना होता है, वह केवल पुरुष पर्याय में ही सम्भव है। इसलि ए मैंने कहा कि द्रव्य स्त्री नहीं होना चाहि ए। द्रव्य स्त्री होने पर वह महा व्रतों का मुख्य रूप से पालन कर ही नहीं सकता।
पूज्य ता किससे आती है?
शरीर द्रव्य से स्त्री रूप होगा तो वह कभी भी महा व्रतों के पालन के योग्य नहीं हो पाता और जब नहीं होगा तो सकल चारित्र भीतर से नहीं होगा। सकल चारित्र नहीं होगा तो उसका गुणस्था न कभी भी छठवा ँ, सातवा ँ नहीं होगा। क्या समझ में आया ? सम्यक् दर्श न, सम्यक् ज्ञा न और सम्यक् चारित्र को ही रत्नत्रय कहा जाता है। रत्नत्रय ही पूज्य होता है और उस रत्नत्रय में हम सम्यक् चारित्र को सकल चारित्र के रूप में ही ग्रह ण करते हैं, देश चारित्र के रूप में नहीं। अगर हम देश चारित्र के रूप में ग्रह ण करेंगे तब तो फिर घर में रहने वा ले जितने भी प्रति माधारी हैं, व्रती हैं, सभी पूज्य हो जाएँगे। समझ आ रहा है? सभी के लि ए वह पूज्यता का भाव आ जाएगा लेकि न पूज्यता सबके अन्दर नहीं होती है। पूज्य का मतलब होता है जिसकी हम पूजा करें। पूजा करने के योग्य जो होगा, वह पूज्य होगा। अतः पूज्यता का जो भाव आएगा वह रत्नत्रय के साथ आएगा, सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र के साथ आएगा और वह रत्नत्रय पंच परमेष्ठी में ही है, अन्य कहीं पर भी नहीं है। इसलि ए आचार्य वीर सेन जी महा राज कहते हैं कि ये पंच परमेष्ठी रत्नत्रय की अपेक्षा से एक समान है इसीलि ए यह पूज्य हैं। सुन रहे हो कि नहीं? समझ भी आ रहा है कि नहीं? यह सिद्धा न्त है। हम सिद्धा न्त की अपेक्षा से ही चले, सिद्धा न्त को ही समझे। पूज्यता कि ससे आ रही है? हम पूजा कि सकी करें? हम कि सी के भी आगे पूज्य शब्द लगा देते हैं। यह हमारी नासमझी होती है। पूज्य-पूजक भाव , उपास्य-उपासक भाव , यह रत्नत्रय की आराधना करने वा लों के साथ ही बनता है, अन्य कि सी के साथ नहीं बनता। अगर हम अन्य कि सी के साथ जोड़ देते हैं तो हमारी जो पंच परमेष्ठी की परम्परा है, पंच परमेष्ठी का जो हमारा बहुमान है, उससे हम अलग हट जाते हैं। जब पंच परमेष्ठी के अलावा भी हम कि सी की पूजा करने लगे माने हम दिगम्बरत्व के अलावा भी कि सी की पूजा करने लगे तो फिर आप दिगम्बर नहीं कहलाओगे। हम क्या कह रहे हैं? पहले सिद्धा न्त समझो। बीच में इधर-उधर के प्रश्न करने से कुछ समाधान नहीं होता। जो सिद्धा न्त है, वह सिद्धा न्त है। दिगम्बरों की पूजा करने वा ला ही दिगम्बर कहलाएगा, पाँच परमेष्ठी की पूजा करने वा ला ही दिगम्बर कहलाएगा, णमोकार मंत्र की आराधना करने वा ला ही दिगम्बर कहलाय ेगा और वह णमोकार मंत्र में पाँच परमेष्ठी हैं। पाँचों ही कैसे हैं? द्रव्य से कोई भी स्त्री नहीं हैं। बस हर एक चीज को बिल्कु बिल्कु ल स्पष्ट कहना पड़ ता है क्या ? समझदारी से काम लो। क्या कोई भी द्रव्य से स्त्री है, पाँचों परमेष्ठी में? अरिह न्त, सि द्ध, आचार्य, उपाध्याय , साधु, होता ही नहीं। क्योंकि जिसके अन्दर अरिह न्त बनने की योग्यता होती है, वह ी हमारे लि ए पूज्य होता है और वह योग्यता पुरुष पर्याय में ही आती है। इसलि ए हमेशा इस बात का ध्या न रखना कि पुरुष पर्याय में ही, द्रव्य से पुरुष होने पर ही वह पाँच परमेष्ठी की श्रेणी में आने योग्य होता है, इसके अलावा नहीं। यह बात आपके लि ए सही ढंग से समझ में आ जानी चाहि ए। सही ढंग से मतलब सिद्धान्तः । समझ आ रहा है न? ऐसा नहीं कि ऐसा होता है, वहा ँ ऐसा होता है, ये ऐसा करते है, वे ऐसा करते है। कोई कुछ भी करे हमें इससे कोई लेना-देना नहीं है लेकि न हमें सही बात को समझना जरूरी है।
जहाँ दि गम्बर रूप नहीं है, तो वह पूज्य कैसे हो गए?
ह म जिस की पूजा कर रहे हैं, उनके पास रत्नत्रय कहा जाएगा क्या ? अगर रत्नत्रय नहीं है, तो उनके लि ए हमें पूजा नहीं करना। रत्नत्रय उसी को कहते हैं- जहा ँ पर सम्यक् दर्श न के साथ में सकल चारित्र हो, महा व्रत हो। इसलि ए पंच परमेष्ठी पूज्य हैं और उनकी पूज्यता को अगर हम बनाए रखेंगे तो तभी बनाए रख सकते हैं जब उसके साथ में हम कि सी दूसरी चीज को न जोड़े ड़े। कि सी अन्य कपड़े ड़े वा लों को उसके साथ add न करे। तभी दिगम्बरत्व सुरक्षि त रहेगा, तभी दिगम्बर धर्म सुरक्षि त रहेगा, दिगम्बर परम्परा सुरक्षि त रहेगी। कपड़े ड़े वा ले जहा ँ जुड़ गए तो सब गड़ बड़ हो जाएगा। दिगम्बरत्व धर्म का मतलब ही है कि दिगम्बर रूप में ही वे हमारे लि ए पूज्य हैं। जहा ँ दिगम्बर रूप नहीं हैं तो पूज्य कैसे हो गए? उनके लि ए अलग title दिए जाते हैं। इसलि ए नमोस्तु शब्द जो है, यह पाँचो परमेष्ठिय ों में एक साथ चलेगा। पाँचो परमेष्ठिय ों को आप नमोस्तु कह सकते हैं। लेकि न कभी भी भूल से, कि सी भी कपड़े ड़े वा ले को नमोस्तु मत कह देना। कह देते हो क्या ? जब कपड़े ड़े वा ले को नमोस्तु नहीं कहते हो क्योंकि वे पंच परमेष्ठी में नहीं आते हैं, सकल महा व्रत उनके पास में नहीं होते हैं तो उनकी पूज्यता पंच परमेष्ठी की तरह हो कैसे सकती है। अगर आपने उनको भी उसी तरीके से पूज्य बना दिया तो अब यह आपकी कमी कहलाएगी, आपके सम्यक् ज्ञा न की कमी कहलाएगी। सिद्धा न्त तो जो कहता है, वह आपको बताया जा रहा है। इसलि ए कहा गया है कि रत्नत्रय ही पूज्य है और रत्नत्रय की आराधना करोगे तो ही रत्नत्रय आपको प्राप्त होगा। ‘रत् न त्रयं च वंदे रत् न त्रय सिद्ध ये भक् त् या ’ पंच महा गुरु भक्ति आती है, उसमें पंच परमेष्ठी का ग्रह ण किया जाता है, पंच परमेष्ठी की पूजा की जाती है, तो वह सब पंच परमेष्ठी रत्नत्रय स्व रूप हैं। बड़े ड़े-बड़े ड़े आचार्य भी उसमें कोई भेद नहीं रखते हैं कि ये मुनि महा राज है, कि ये उपाध्याय हैं, सबके पास में रत्नत्रय है। फिर आचार्य भी मुनि महा राज को क्यों नमस्का र करते हैं? उपाध्याय भी मुनि महा राज को क्यों नमस्का र करते हैं? वह मुनि महा राज को नमस्का र नहीं कर रहे हैं, वे उनके अन्तरंग के रत्नत्रय को नमस्का र कर रहे हैं क्योंकि जो जिस line का होगा वह उसी लाइन की व्यक्ति के साथ में अपना समानता का व्यवहा र रखेगा। समझ आ रहा है? आचार्य पूज्यपाद महा राज पंच परमेष्ठिय ों की भक्ति करते हुए एक लाइन में कह देते हैं ‘रत् न त्रयं च वंदे रत् न त्रय सिद्ध ये भक् त् या ’- मैं भक्ति से रत्नत्रय की वन्दना करता हूँ। कि सके लि ए? रत्नत्रय की सिद्धि के लि ए। समझ आ रहा है? सिद्धि का मतलब पूर्ण ता। अब वह रत्नत्रय भी परि पूर्ण रत्नत्रय कब होगा? जब वह बिल्कु बिल्कु ल सि द्ध भगवा न बन जाएँगे तो परि पूर्ण रत्नत्रय होगा। लेकि न रत्नत्रय की शुरुआत कहा ँ से होती है? वह छठवें-सातवें गुणस्था न के साथ सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र को ग्रह ण करने पर ही होती है। यहा ँ से वह रत्नत्रय प्रा रम्भ होता है, तो रत्नत्रय की अपेक्षा से पंच परमेष्ठिय ों में कुछ भी अन्तर नहीं है।
सत् की अपेक्षा से किसी में कोई अन्तर नहीं है
अब देखो! कैसे-कैसे पृथक् होता चला जाता है। सत् की अपेक्षा से पंच परमेष्ठी भी सत् हैं, हम भी सत् हैं, नि गोदिया जीव भी सत् हैं। सि द्ध भी सत् हैं और उन्हीं के पास में उन्हीं के शरीर, उन् ह ीं के जो आत्म प्रदेश हैं, उसी स्था न पर बैठा हुआ नि गोदिया जीव है, वह भी सत् स्व रूप है। सत् की अपेक्षा से कि सी में कोई अन्तर नहीं है। हर द्रव्य सत्ता स्व रूप है, सत् स्व रूप है। सत् की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं रहा । अब अन्तर कि स अपेक्षा से आया ? एक तो रत्नत्रय को धारण करने वा ली आत्मा है, जिसके अन्दर दर्श न गुण, ज्ञा न गुण और चारित्र गुण की पर्याय नि कल रही हैं और वह समीचीन पर्याय नि कल रही हैं। एक तरफ यह रत्नत्रय से रहि त, मि थ्या दर्श न, मि थ्या ज्ञा न, मि थ्या चारित्र को धारण करने वा ली आत्मा एँ हैं, जिनके अन्दर हर दर्श न, ज्ञा न, चारित्र गुण की मिथ्या पर्याय नि कल रही हैं माने वह मि थ्या परि णमन उनका चल रहा है। यह अंतर हो जाता है। सत्ता एक होते हुए भी प्रदेश भि न्नता होती है, तो द्रव्य की भि न्नता हुई और द्रव्य की भि न्नता होने पर जब उन गुण और पर्याय ों का परि णमन अलग होता है, तो फिर उसमें पूज्यता और पूजक का भाव अन्तर में आ जाता है। नहीं तो फिर सब एक समान पूज्य हो जाएँगे। क्या समझ आया ? अब आपको कुछ समझने की जरूरत नहीं है। अगर हमने एक बार भीतरी सिद्धा न्त समझ लिया तो अब आप हर चीज को हटा सकते हो। इसी को बोलते हैं कि अगर हमने एक बार सम्यक् दर्श न की बात समझ ली, सम्यकत्व की बात अगर हमारी धारणा में पड़ गई तो मि थ्या त्व को छोड़ ने के लि ए अलग-अलग कहने की जरूरत नहीं कि अब आप यह मि थ्या त्व छोड़ो , यह मि थ्या त्व छोड़ो , यह मि थ्या त्व छोड़ो । पहले सही चीज तो पकड़ लो। सही औषधि मि ल जाएगी फिर कि तने भी तरह के रोग होंगे सब अपने आप दूर होते चले जाएँगे, सब कटते चले जाएँगे। सही मार ्ग पर चलने लग जाओगे, कि तनी भी मि थ्या मार ्ग पर ले जाने वा ली पगडण्डिया ँ होंगी, सब अपने आप छूटती चली जाएँगी। सही चीज पकड़ लो बस। पहले सही सिद्धा न्त पकड़ लो। आज आपको बताया जा रहा है कि पूज्यता कि ससे आती है? रत्नत्रय से आती है। अब जितना भी दुनिया में हमारे लि ए दिखाई दे रहा है, जो कुछ भी मि थ्या त्व का कारण है, आप सबको इसी एक सूत्र पर चलकर सबको अलग कर सकते हो। बाबा बैठे हैं- आसन पर, गद्दिय ों पर। बाबा से मतलब समझ रहे हो न? अच्छा काजू, पिस्ता , बादाम खाय े जा रहे हैं और प्रवचन दिए जा रहे हैं। क्या है यह ? रत्नत्रय है यहा ँ पर? आप खुद अपनी बुद्धि से हर चीज का निर्णय लगाते चले जाओ, कहीं पर भी आग्रह नहीं करना।
सि द्धा न्त कभी भी बदलता नहीं है
सिद्धान्त चतुर्थ काल में जैसा था पंचम काल में भी वैसा ही है। आगे भी आने वा ले कालों में जब नए तीर्थं कर होंगे तब भी यह ी रहेगा। सिद्धा न्त कभी भी बदलता नहीं है। यह जो सिद्धा न्त होते हैं अपरिवर्त नीय होते हैं, त्रैकालि क होते हैं। ये कभी भी नहीं बदलते। हमेशा जो गुणी व्यक्ति होगा पूजा करेगा तो कि सकी करेगा? पू्ज्य की करेगा। पूज्यता कहा ँ से आती है? रत्नत्रय को पूज्य माना गया है यह सिद्धा न्त है। अब आपकी दृष्टि में जो कुछ भी हो, आपको जो करना पड़ ता हो, आपको जो करना है वह करो। समझ आ रहा है न? इसके लि ए काेई आपके ऊपर जबरदस्ती नहीं है कि आपको कि सकी पूजा करनी पड़ ती है? अपनी माता जी की या पि ताजी की, यह सब आप जानो, इससे कोई लेना-देना नहीं। सिद्धा न्त क्या है, पहले यह ध्या न में रखो। सिद्धा न्त को जानने वा ला व्यक्ति सिद्धा न्त के अनुसार चलेगा तो उसके अन्दर यह रत्नत्रय को ग्रह ण करने का भाव रहेगा। पूज्यता के भाव को अगर समझेगा तो वह भी पूजक बनते-बनते एक दिन पूज्य बन जाएगा क्योंकि उसको मालूम है पूज्य वास्तव में क्या होता है। फिर क्या हुआ? अब दुनिया का जितना मि थ्या त्व फैला हुआ है, आप बस एक सिद्धा न्त अपने दिमाग में रखो, हमें कि स की पूजा करनी है? रत्नत्रय की। रत्नत्रय का मतलब सम्यक् दर्श न, सम्यक् ज्ञा न और सम्यक् चारित्र का मतलब सकल चारित्र । सकल चारित्र का मतलब पाँच महा व्रतों का मुख्यता से पालन करने वा ला। पाँच महा व्रतों का मुख्यता से पालन कब होगा? जब ऊपर क्या होगा? कपड़ा नहीं होगा। तो कौन होगा? दिगम्बर ही होगा। दिगम्बर स्त्री होगी कि नहीं होगी? हो गई तो, मान लो भविष्य में, काल बदल रहा है पंचम काल में कुछ भी हो सकता है। स्त्री पुरुष के समान होने की चेष्टा कर रही है। सब कुछ चल रहा है, कुछ भी हो सकता है। यह प्रश्न आते हैं, अपने सामने इसलि ए आपको बता रहा हूँ। आप यह ध्या न में रखो कि अगर स्त्री कहीं इस पंचम काल में, कि सी भी आगे के काल में कभी मान लो दिगम्बर भी हो गई तो क्या करोगे? पहले से सिद्धा न्त अपने दिमाग में रख लो। वह पंच परमेष्ठी में आएगी कि नहीं आएगी? नहीं आएगी। यह समझ लेना स्त्रिय ों से ही कहलवा रहा हूँ। सिद्धा न्त, सिद्धा न्त है।
स्त्री और पुरुष के बीच का भेद समझो
तब भी वह पंच परमेष्ठी में नहीं आएगी क्योंकि उस स्त्री के अन्दर उस स्त्री पर्याय के कारण से उसके जो भाव हैं, वह भाव इतने सुदृढ़ नहीं होते हैं कि वह अपने लि ए सकल चारित्र का पालन करने का भाव कर सके। आचार्यों ने कहा है:- स्त्री पर्याय में, स्त्री के शरीर में, पुरुष के शरीर की अपेक्षा से अधि क सम्मुर्च्छ म्मुर्च्छनम् जीवों की उत्पत्ति होती है। यह बातें इसलि ए बताना जरूरी हो रहा है कि आज की बेटिया ँ पूछने लगी हैं। कहने लगी हैं कि हम क्यों नहीं दिगम्बर बन सकते हैं। इतना समानता का भाव आ रहा है, उनके अन्दर इसलि ए बताना जरूरी हो रहा है। स्त्री को कभी भी वो संहनन नहीं मि लता जिस संहनन के साथ में वह केवलज्ञा न प्राप्त कर सके, उत्कृ ष्ट शुक्ल ध्या न प्राप्त कर सके। स्त्री का शरीर ऐसा होता है कि वह कभी भी ध्या न की स्थि रता में आ ही नहीं सकती और अगर वह दिगम्बर हो गई तो और ज्या दा नहीं आ सकती। यह उसका एक स्व भाव है, पर्याय है उसकी। भीतर से डर बना रहना, भीतर से भयशील रहना और भीतर से संकुचित रहना, यह उसके स्व भाव में है। इसी कारण से उसकी इस पर्याय में ध्या न की इतनी स्थि रता नहीं होती कि वह कभी भी शुक्ल ध्या न कर सके और शुक्ल ध्या न नहीं कर पाने के कारण से उसे कभी केवलज्ञा न नहीं होता। स्त्री के शरीर और पुरुष के शरीर की विशेषता के कारण से यह होता है। यह चीजें ज्ञा न में होनी चाहि ए। क्यों नहीं है बराबर? स्व भाव ही है ऐसा। बराबर इसीलि ए नहीं है क्योंकि हमारे लि ए इस तरह की पर्याय में वह बराबर का भाव आता ही नहीं है। अब कोई एक स्त्री कहीं मान लो मैराथ न दौड़ में first आ गई कि कोई एक स्त्री मान लो एवरेस्ट चोटी पर चढ़ गई, कोई एक स्त्री मान लो अन्तरिक्ष में चली गई, इतना हो गया तो आप कैसे कह सकते हो कि स्त्री में भय होता है। कि सी स्त्री में अगर कोई ऐसी चेष्टा एँ हो गई हैं तो भी इसका मतलब यह नहीं हैं कि भय नहीं है। वह उसकी अपनी एक क्रिया शीलता हो सकती है कि वह इतना काम कर सकती है, तो कर लिया उसने। उसका भय से क्या लेना-देना, उसकी योग्यता है। लेकि न जो उसके अन्दर ध्या न करने की योग्यता होती है, वह ध्या न करने की योग्यता उसको शुक्ल ध्या न के लि ए नहीं मि लती है। धर्म ध्या न करने में कोई बाधा नहीं, धर्म ध्या न करो। यह स्त्री और पुरुष के बीच का भेद समझो। इसीलि ए अगर कभी स्त्री नग्न भी हो गई तो भी वह दिगम्बर नहीं कहलाएगी क्योंकि वह तब भी अहि ंसा महा व्रत का पालन करने लाय क उसका शरीर नहीं है। ऐसा आचार्य कुन्द-कुन्द देव ने इसी प्रवचनसार में कहा है, जो आगे आएगा।