प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 14 जीवकी मनुष्यादि पर्यायो की क्रियाफलरूप
#4

आगम और सि द्धान्तों पर हमारी धारणा कठोर और स्पष्ट होनी चाहिए

मारी धारणा इतनी कठोर और स्पष्ट होनी चाहि ए कि कोई कुछ भी कहे, अगर हमें सही समझ में आ गया तो हमारे अन्दर पहले श्रद्धा न दृढ़ बनना चाहि ए और तब हम जा कर दूसरे को समझ पाएँगे। अपने आप मि थ्या जितनी भी चीजें हैं, सब छूटती चली जाती हैं, सही लाइन पर चलो। अब हमें एक-एक चीज को बताने की जरूरत नहीं है। आप सैंकड़ों प्रश्न लेकर आ जाओ क्या यह रत्नत्रय है? क्या यह हमारे लि ए पूज्य है? क्या हम इनकी पूजा करें? हम कैसे बताएँगे? हर चीज मान लो आगम में नहीं भी लि खी हो तो भी आगम में एक चीज तो लि खी है न, एक विधेयक बात को ग्रह ण करो बस। हजार नि षेधात् म क बातें हो सकती हैं। एक line है सही और हजार पथ उसके सामने गैलरिय ों के रूप में चल रहे हैं। उसकी अलग-अलग गैलरिया ँ नि कल रही हैं। हम हजारों को कहा ँ तक तोड़ ते फिरेंगे, एक सही लाइन पर चलो। हमें जब भी उत्त र देना होगा हम कि स परि पेक्ष में, कि स भाव से क्या context में सोच कर उत्त र देंगे। पूज्यता कि स में है? रत्नत्रय में है। समझ आ रहा है? और रत्नत्रय कहा ं होता है? सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र के साथ होता है। सम्यक् चारित्र कि से कहते हैं? जो सकल चारित्र रूप होता है। सकल चारित्र भी कहीं उपचार रूप होता है कि मुख्य रूप होता है। कौन-सा रत्नत्रय में आएगा? मुख्य रूप वा ला आएगा। मुख्य रूप होगा तो वह पुरुष में होगा कि स्त्री में होगा? पुरुष में होगा। बस इतना clarification आपके mind में होना चाहि ए फिर कुछ मतलब ही नहीं है कोई कुछ भी करे। सिद्धा न्त क्या बोलता है? आगम क्या बोलता है? हमें यह सीखना है। परम् प राएँ बाद में, पहले क्या चीज है? आगम। कम से कम आगम को ध्या न में तो रखो। सत्य को ध्या न में तो रखो कि आचार्यों ने क्या कहा है? हम जिस णमोकार की आराधना कर रहे हैं उस णमोकार में, क्यों णमोकार की आराधना कर रहे हैं? क्या है उस णमोकार में? वह पाँच परमेष्ठिय ों के अन्दर क्या है? वैसे ही लि खा है- णमो अरिह ंताणं, णमो सिद्धा णं, णमो लोए सव्व साहू णं। यूँ लि खा है, तो पढ़ लेता हूँ ऐसा। इससे क्या लेना-देना। पहले यह तो जानो कि णमो लोए सव्व साहू णं में क्या आ रहा है? णमो अरिह ंताणं में भी क्या है? सिद्धा णं में भी क्या है? आयरिया णं, उवज्झाया णं क्या है? कि सकी पूजा? ‘रत्नत्रयं च वंदे’ इस चीज को समझो। जब तक आप यह नहीं समझोगे आप को दुनिया कुछ न कुछ घूमाती रहेगी, अपने स्वार्थों के अनुसार, अपने परम् प राओं के अनुसार। हम कि सी का कोई विरोध नहीं कर रहे हैं लेकि न यह ध्या न में रखना चाहि ए सिद्धा न्त क्या है? समझ आ रहा है न? आप करो कुछ भी, हमें इससे कोई लेना-देना नहीं लेकि न यह मालूम आपको होना चाहि ए कि सिद्धा न्त वस्तु तः क्या है? और सिद्धा न्त एक ही होता है, अपरिवर्त नीय होता है। उसमें हम परिवर्त न करके खि लवाड़ करेंगे तो यह अपने को बर्दाश्त होना नहीं चाहि ए। सिद्धा न्त के विरुद्ध कोई चले, सिद्धा न्त के विरुद्ध कोई बात करे तो आचार्य शुभचन्द्र जी महा राज ज्ञा नार्णव जैसे महा न ग्रन्थ में लि खते हैं कि ‘अपृष् टै ् टैरपि वक् तव् यं सुसि द्धान् तार ्थविप् ल वे’। अगर कहीं सिद्धा न्त का विप्लव हो रहा हो माने सिद्धा न्त नष्ट हो रहा हो तुमसे कोई नहीं भी पूछे तो भी तुम बोलना। ‘अपृष् टै ् टैरपि वक् तव् यं ’ माने बि ना कोई प्रश्न पूछे हुए भी तुम्हें बोलना जरूरी है। वहा ँ मौन साध लोगे तो तुम्हा रे लि ए तुम्हा रा सत्य महा व्रत नष्ट हो जाएगा। क्या समझ आ रहा है? इतना तक कहा गया है कि अगर सिद्धा न्त कहीं नष्ट हो रहा हो, तुम्हा रे सामने देखते-देखते तो बि ना कोई पूछे भी तुम्हें बोलना जरूरी है कि भाई यह चीज गलत है। यह रक्षा करना भी तुम्हा रा दायि त्व है। ऐसे बोलते हैं न कहीं-कहीं मौन भी बहुत खतरनाक होता है या मौन भी गलत का समर्थन करने वा ला हो जाता है। यह नहीं होना चाहि ए वह आचार्यों ने मना किया है। मतलब कहीं आपके सामने गलत हो रहा है, आप मौन बैठे हैं तो वह मौन भी जो है आपके लि ए गलत है क्योंकि आपके सामने-सामने सब सिद्धा न्त विरुद्ध बात हो गई और आप कुछ नहीं बोले। ऐसा क्यों ? तो आचार्य कहते हैं बि ना पूछे भी बोलना। ‘अपृष् टै ् टैरपि वक् तव् यं ’ सिद्धा न्त जब बि ना पूछे बोलने को कहा गया है, तो आपने तो कहा ही है कि महा राज हमें सुनाओ। नहीं समझ आ रहा है? हमें प्रवचनसार पढ़ ना है, सिद्धा न्त पढ़ ना है, तो सिद्धा न्त की व्याख्या एँ समझो। सिद्धा न्त को समझे बि ना आपके दिमाग में कभी सम्यक् ज्ञा न उतर नहीं सकता। एक line clear अपने अन्दर होनी चाहि ए। फिर जितनी भी चीजें हैं उनको सब उसी line के context में देखो कि यह सही है या गलत है। गलत भी हो मत कहो गलत है लेकि न अपने मन में तो समझो ऐसा क्यों ? और यदि है तो फिर ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? आप समझो, अपने मन में समझो, नहीं भी कह पाओ कोई बात नहीं लेकि न अपने को तो पता पहले पड़े ड़े। जब आपको ही सिद्धा न्त पता नहीं हैं तो आप दूसरों से क्या बताओगे? उत्त र कोई क्या दोगे? कोई प्रश्न करें तो क्या कहोगे? पहले अपने को अपना सिद्धा न्त दृढ़ करना चाहि ए। इसलि ए कहा जाता है, अगर कभी आचार्य परमेष्ठी के बराबर कोई आचार्या णी परमेष्ठि नी बन कर बैठ जाए तो क्या हो सकती है? यह समझने की बातें हैं। हि म्मत रखो, सब जैन श्राव क बुजदिल हो गए। सि द्धा न्त को भी स्वी कार करने की ताकत नहीं। कोई अगर जबरदस्ती कहे भी कि मैं पंच परमेष्ठी में हूँ तो क्या करोगे? स्वी कार करोगे, मान लोगे? अगर कि सी ने अपने title में आगे लगा दिया पंच परमेष्ठी में शामि ल होने के लि ए आचार्या णी तो क्या करोगे? समर्थन करोगे? आचार्यों ने तो कहा है ‘अपृष् टै ् टैरपि वक् तव् यं ’ बि ना पूछे भी आप उसको बोलो, यह गलत है। यह दिगम्बर परम्परा, यह रत्नत्रय की परम्परा के विरुद्ध है। स्त्री पर्याय में कभी भी वह आचार्या णी हो भी जाए तो पंच परमेष्ठी की तुलना में नहीं आ सकती। अपने मन में चाह े कुछ भी समझ ले वह लेकि न सुधि श्राव क के लि ए इतना ज्ञा न होना चाहि ए कि यह परम्परा कौन सी है, जिसमें कोई भी तीर्थं कर स्त्री पर्याय से मुक्त नहीं हुए हैं।


रत्नत्रय की परम्परा, दि गम्बरत्व की परम्परा अनादि निध न है
कोई भी आचार्य, उपाध्याय , साधु स्त्री रूप में नहीं होते हैं, यह वह ी परम्परा है। दिगम्बरत्व की परम्परा, दिगम्बरत्व की अवधारणा जिस चीज से चल रही है, वह णमोकार मंत्र है। जिस तरह से णमोकार मंत्र अनादि नि धन है वैसे ही यह रत्नत्रय की परम्परा, दिगम्बरत्व की परम्परा भी अनादि नि धन है। क्या समझ आ रहा है? कुछ आ रहा है कि नहीं आ रहा है? जब यह परम्परा अनादि नि धन है, तो फिर इस परम्परा के साथ खि लवाड़ करना अच्छी बात नहीं है, इतना तो ज्ञा न होना चाहि ए। यह शास्त्र को पढ़ ने का मतलब ही इसीलि ए है। पूज्य कहा ँ होगा? अब हमें कुछ भी कोई कि तना ही कहे, कोई तुम्हें पेड़ के सामने ले जाकर खड़ा कर दे, बोले इनकी आरती उतारो, इनकी पूजा करो, करो, करो। क्यों करो? इसी से तुम्हा रा कल्या ण होगा। यहा ँ पर जो देवता है, वह प्रसन्न होगा तब तुम्हा रे सब काम बनेंगे। अरे भाई! देवता के प्रसन्न हो जाने से, न हो जाने से क्या होगा? जब हमारे अन्दर का देवता, हमारी आत्मा का देवता ही हमसे रूठा रहेगा और जब तक हम रत्नत्रय की आराधना करके उसको नहीं मनाएँगे, बाह र के कि तने भी देवता प्रसन्न हो जाए उनसे हमारा कोई फाय दा होने वा ला नहीं है। आपके दिमाग में अगर एक सम्यक् चीज होगी तो सब चीजें आपको मि थ्या लगेंगी। जो चीजें मि थ्या लगेंगी उनमें आपको कोई कि तना भी प्रलोभन देगा, अगर आपके अन्दर श्रद्धा न सम्यक् का है, तो आपका मन प्रलोभन में जाएगा ही नहीं। इसलि ए सम्यग्दृष्टि जीव को प्रलोभन नहीं होता है। देव मूढ़ ता में वह ी पड़ ता है जिसके अन्दर प्रलोभन आ जाता है।
सम्यक् क्या है, मिथ्या क्या है? वि भाजन जरूरी है
जो आचार्य समंतभद्र महा राज ने कहा है
वरोपलिप् स याशावान् रागद्वेषमलीमसा:,
देवता यदुपासीत देवता मूढमुच् य ते ।।
वर की उपलि प्सा से यह सबसे पहली शर्त है। वर की उपलि प्सा से माने वरदान प्राप्त करने की इच्छा से अगर आप कोई भी देवता की आराधना कर रहे हैं तो आप देव मूढ़ हैं। समझ आ रहा है? जब आपके अन्दर सम्यग्दर्श न होगा तो आपके अन्दर यह वर की उपलि प्सा होगी ही नहीं। देवी-देवताओं की आराधना वर को प्राप्त करने की इच्छा से करना कि हमारे लि ए यह वरदान मि ल जाए, हमारी यह इच्छा पूरी हो जाए, यह स्पष्ट बताती है कि वह व्यक्ति अभी मि थ्या दृष्टि है। यह स्पष्ट लि खा हुआ है। इसी श्लो क की टीका में भी लि खा हुआ है। कि सी भी देवी-देवता की, चाह े अपना भी शासन देवी-देवता हो, उसके लि ए भी अगर आप वर की उपलि प्सा से पूजा कर रहे हैं तो भी वह मि थ्या दृष्टि है, ऐसा लि खा हुआ है। सम्यग्दृष्टि जीव को संसार की इन क्रिया ओं की और संसार के भोगों की इच्छा अगर बनी रहेगी तो वह कभी भी सम्यग्दर्श न की सुरक्षा कर ही नहीं सकता। इसलि ए यह ध्या न रखने की बात है कि अगर हमारे लि ए कोई मि थ्या पथ पर भटकाना भी चाह े तो हमें पता होना चाहि ए कि सम्यक् क्या है? मि थ्या क्या है? यह प्रविभक्त करना है, विभाजन जरूरी है हर जगह पर।

व्यवहार में पूज्य -पूजक का भाव आता ही है
सबकी सत्ता भि न्न है, सत्ता ही भि न्न नहीं है उनके अन्दर के गुण हैं, पर्याय हैं, द्रव्य हैं, वह सब भि न्न हो रहा है। इस प्रसंग को इसके साथ जोड़ ने का प्रयोजन यह है कि केवल द्रव्य, गुण और पर्याय एक जैसे हो जाने पर सभी सत् द्रव्य एक जैसे नहीं हो गए। अगर सब एक जैसे हो जाएँगे फिर तो कोई आराध्य रहेगा ही नहीं, आराधक कोई करेगा ही नहीं और पूज्य कोई बचेगा ही नहीं, पूजक कोई होगा ही नहीं, सब बराबर है। एकेन्द्रिय में भी उतना ही सत् है पंचेन्द्रिय में भी वह ी सत् है, तो चाह े एकेन्द्रिय की पूजा करो, चाह े पंचेन्द्रिय की करो या कि सी की मत करो या सब की करो, भेदभाव क्यों करते हो फिर? समझ आ रहा है न? सत्-सत् सुनते-सुनते कहीं आपके दिमाग में भेदभाव बिल्कु बिल्कु ल ही नि कल गया हो और कहीं आपके दिमाग में यह आ गया हो कि भाई सब कुछ बराबर ही बराबर है, एक ही एक है। आचार्य यहा ँ तुरन्त लि खते हैं कि भाई अनेकान्त दर्श न को ध्या न में रखना, विभाजन भी करने की बुद्धि रखना, सत् अलग-अलग भी होता है क्योंकि अलग-अलग द्रव्य का अलग-अलग अस्तित्व है और इसी अस्तित्व के कारण से हमारा व्यवहा र चलता है और व्यवहा र में पूज्य-पूजक का भाव आता ही है। ठीक है! अब आप एक-एक प्रश्न हमसे करो कि महा राज यह भी मि थ्या है, क्या ? महा राज यह भी गलत है, क्या ? महा राज यह भी गलत है, हम कि स-कि स का उत्त र दें? आपको एक line बता दी, एक track पर तो चलो। उसमें जो चीजें belong करती हो तो ठीक है, नहीं करती हो तो गलत है। अब एक-एक का कहा ँ तक उत्त र दे? नहीं समझ आ रहा ? मान लो अलग-अलग दस लोग, दस पक्ष के बना कर बैठे हैं और दस लोग हमारे विरोधी हो जाए, हमारे विरुद्ध हो जाएँ तो हम कि स-कि स का उत्त र देते फिरेंगे, हमें क्या लेना-देना। हमें तो एक सही बात बताना है न और इसमें कहीं से कहीं तक बाल बराबर भी अन्तर हो तो हमें बता देना। बाल बराबर भी कहीं अन्तर मि ले हमारे कथन में तो बता देना। रत्नत्रय की पूज्यता के अलावा कोई पूज्यता नहींहै। इसलि ए जो नमोस्तु शब्द का प्रयोग रत्नत्रय के साथ होता है, वह अन्य कपड़े ड़े वा लों के साथ नहीं होता। यह पहले से ही सब लोगों ने, पूर्व आचार्यों ने विभाजन इसलि ए कर रखा है कि आप इसको अलग तरीके से देखें, मि ला कर न देखें। जिनके साथ नमोस्तु हो रही है, बस वह ी हमारे लि ए दिगम्बर हैं। वह ी हमारे लि ए पूजा के योग्य हैं, वह ी हमारे लि ए आरती उतारने योग्य हैं, वह ी हमारे लि ए आराध्य हैं, वह ी हमारे लि ए उपासना के योग्य है। बाकी सब अपनी-अपनी category के अनुसार आदरणीय है, पूज्य नहीं है। जो जिस के योग्य है, उसका आदर करो, सम्मा न करो लेकि न बराबर का सम्मा न नहीं करना। नमोस्तु जिसके लि ए उसके लि ए भी वह ी बराबर का सम्मा न और जिसके लि ए नमोस्तु नहीं हो रही उसके लि ए भी बराबर का सम्मा न तो फिर आपके अन्दर सम्यग्ज्ञा न नहीं है? समझ आ रहा है न? आप कि तने ही दस प्रश्न ला कर खड़े ड़े कर दो अगर आपकी बुद्धि में एक बात सही आ गई तो सब का समाधान मि ल जाएगा। एक बात सही नहीं आई तो कोई कुछ पूछेगा, कोई कुछ पूछेगा, कोई कुछ पूछेगा और हम यह ही बताते रहेंगे कि यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। अतः मि थ्या , मि थ्या , मि थ्या सौ बार कहने की अपेक्षा से सत्य क्या , सम्यक् क्या ? वह एक चीज को समझ लो तो कल्या ण हो जाएगा।
रत्नत्रय ही हमारी आत्मा का श्रृं गार है
सत्य क्या है? रत् नत्रय । ‘रत्नत्रयं च वंदे रत् न त्रय सिद्ध येभक् त् या ‘ हमें रत्नत्रय की सिद्धि करना है, तो कि स की वन्दना करना? रत्नत्रय की ही वन्दना करना। जो सि द्धभक्ति पूर्व क, श्रुतभक्ति पूर्व क, आचार्य भक्ति पूर्व क यह जो हम वन्दना करते हैं सुबह, दोपहर, शाम, त्रि काल जो वन्दना की जाती है, यह वन्दना भी कि सकी होती है? पंच परमेष्ठी की ही होती है। सि द्ध भक्ति में सिद्धों की वन्दना हो गई, श्रुत भक्ति की अरिहन्तों की वन्दना हो गई और आचार्य भक्ति में आचार्य, उपाध्याय , साधु सब आ जाते हैं। रत्नत्रय सबके साथ जुड़ा हुआ है। रत्नत्रय की पूर्ण ता अपने आप में बताती है कि यह रत्नत्रय ही हमारी आत्मा का श्रृं गार है और इसी रत्नत्रय से यह पूर्ण ता होने पर यह आत्मा पूज्य हो जाती है इसीलि ए रत्नत्रय की महि मा समझो। कहते तो रहते हो, रत्नत्रय की आराधना के लि ए महा राज आहा र ग्रह ण करो। कई श्राव क पूछ लेते हैं महा राज रत्नत्रय अच्छा चल रहा है कि नहीं। तुम्हें पता भी है कि रत्नत्रय क्या होता है? श्राव क को भी पता नहीं रहता है लेकि न उसके लि ए पूछने में आ जाता है। रत्नत्रय क्या होता है, पहले हम तो समझ ले। अब समझ में आ गया तो पूछने का मतलब क्या है? क्या रत्नत्रय कभी महा राज का खराब हो सकता है? जो साधु होगा वह अपने सम्यग्दर्श न, ज्ञा न, चारित्र को शुद्ध बना करके ही रखता है। यह पूछने की भी क्या जरूरत पड़ ती है, हमारी यह समझ में नहीं आता और आपके पूछने से क्या कोई रत्नत्रय उनका सुधर जाएगा? क्या आपके पूछने से वह रत्नत्रय कोई और अच्छा हो जाएगा? आपके पूछने से कोई उनके रत्नत्रय का कोई और ज्या दा विकास हो जाएगा? कुछ समझ में नहीं आता। “व्यवहा र से पूछ लेते हैं”, यह भी व्यवहा र थोड़ा कुछ समझ में तो आना चाहि ए। रत्नत्रय कैसा है? अगर मान लो वह रत्नत्रय खराब हो गया तो साधु ही नहीं हुआ तो फिर तुम्हा रे लि ए वन्दन करने योग्य नहीं रहा । यह पूछने की क्या जरूरत है? रत्नत्रय होगा तो वह खुद भी भाव ों में, उसके लि ए कब उसके लि ए क्या हो जाए, उसे खुद भी नहीं पता होता। तुम्हा रे पूछने से वह क्या बता देगा? यह भी व्यवहा र उस रूप में होना चाहि ए कि जिस रूप में हमारे उस व्यवहा र से कोई प्रतिक्रिया कुछ फलि त दिखाई दे। नहीं समझ आ रहा ? व्यवहा र भी उस रूप में कि कुछ प्रतिक्रिया रूप में, कुछ फलि त रूप में, कुछ दिखाई दे और उसका कोई प्रयोजन समझ में नहीं आता, कोई प्रतिक्रिया समझ में नहीं आती। अब यह बड़ी बात हो गई। अब कुछ लोगों के लि ए यह ी परेशानी कि महा राज के पास जाएँ तो महा राज बोलते नहीं तो क्या पूछे, क्या बोले? कोई कहता है कि महा राज रत्नत्रय ठीक है कि नहीं। कोई कह रहा महा राज स्वा स्थ्य ठीक है कि नहीं। कोई पूछता है महा राज सुख-साता है कि नहीं।

गुरु के समीप जाकर क्या भावना रखें?
क्या पूछे फिर? बि ना पूछे काम नहीं चलता क्या ? अब स्वा स्थ्य तो स्वा स्थ्य है और स्वा स्थ्य में भी आपकी दृष्टि अगर शारीरि क स्वा स्थ्य पर जा रही है, तो वह भी व्यवहा र ठीक नहीं है क्योंकि शारीरि क स्वा स्थ्य पर भी कि तना ध्या न रखेंगे महा राज। वह तो जो है सो है, जो चल रहा है वो चल रहा है। ठीक है, सो ठीक है, नहीं ठीक है, तो भी ठीक है। मान लो कि सी साधु को कोई रोग हो गया और मान लो उसका स्वा स्थ्य ठीक भी नहीं हो तो भी आप उससे पूछो कि महा राज स्वा स्थ्य ठीक है कि नहीं तो क्या कहेगा? नहीं-नहीं आज बीमार पड़ा हूँ, ऐसे बोलेगा क्या ? यह भी नहीं बोल सकता वह । फिर आपके पूछने का मतलब ही क्या रहा ? यह पूछना जरूरी कहा ँ लि खा है, यह समझ नहीं आता मेरे को। अच्छा एक बात बताओ आप अरिह न्त, सि द्ध के सामने पहुँ चते हो तो कुछ नहीं पूछते। साधु के सामने ही पहुँ च कर क्यों पूछते हो? मान लो समवशरण में भी कभी आप पहुँ च जाओ साक्षात् भगवा न के सामने और बहुत दिनों बाद भगवा न के दर्श न करने जाओ और पूछो कि भगवा न जी कैसे हो? आहा र नहीं भी ले रहे हो तो भी आपके मन में यह पूछने का भाव इसलि ए आता है क्योंकि आप बहुत दिनों बाद दर्श न करते हो। रोजाना आने वा ला तो नहीं पूछता। जो कोई बहुत दिनों बाद आता है, तो वह पूछता है। इसका मतलब यह हुआ कि आप बहुत दिनों के बाद दर्श न करने आते हो तो आपके मन में यह पूछने का भाव आता है कि आप कैसे हो। वह भाव क्यों आया ? क्योंकि आप अपने रि श्तेदारों के साथ जाते हो या रि श्तेदारों के पास जाते हो तो आपको यह भाव आता है कि हम उनसे पूछे कि भाई ठीक-ठाक चल रहा है न। How are you, All is fine. नहीं समझ आ रहा ? यह आपका भाव जो है, जो राग के साथ चल रहा था . हमें ऐसा लगता है कि आपने उसी को इधर वीतरागता के साथ भी जोड़ दिया । यह कहीं शास्त्रों में तो ऐसा नहीं लि खा है कि आपको ऐसा पूछना चाहि ए। सेवा भाव के लि ए! तब तो यह पूछना चाहि ए कि महा राज जी! गुरुदेव! हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं? अगर सेवा भाव है, तो हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं? समझ आ रहा है न? फिर भी वह बताने वा ले नहीं कि क्या सेवा कर सकते हो। फिर भी अपना भाव तो दे ही सकते हो क्योंकि आपके लि ए भी अतिथि -संविभाग, वैय्याव ृत्ति करने को कहा गया है। आप यह पूछ सकते हो कि महा राज हम आपकी क्या वैय्याव ृत्ति कर सकते हैं? आपकी क्या सेवा कर सकते हैं? स्त्रिया ँ भी कर लेती हैं। जो स्त्रिया ँ सुबह आहा र की तैयारिया ँ करती हैं, वह पूरी की पूरी मुनि महा राज की वैय्याव ृत्ति करती हैं। समझ आ रहा है न? उसी वैय्याव ृत्ति के फल से उनको मुनि महा राज की सेवा का, रत्नत्रय का फल प्राप्त होता है। वह सेवा ही तो होती है, direct indirect भी होती है। अब आप क्या पूछे, यह आप को सोचना पड़े ड़ेगा थोड़ा सा। “कल्या ण हो” यह तो मेरे लि ए हो गया । आपको पूछना है महा राज से कि महा राज आप कैसे हो? आपका स्वा स्थ्य ठीक है, आपका रत्नत्रय ठीक है। यह जो आपके अन्दर पूछने की भाव ना आ रही है, यह समाचार में आपके आता है कि नहीं आता है, यह आपको सोचना है। मुनिय ों का मुनिय ों के साथ समाचार होगा तो मुनि तो पूछ लेंगे हा ँ! कैसा है? सुख साता है। रास्ते में आए हो तो कोई कष्ट तो नहीं हुआ? विहा र करते हुए आए, कि तना विहा र कर लिया ? कब से चले थे? आज आहा र नि रन्तराय हुआ कि नहीं हुआ? समझ आ रहा है न? यह तो ठीक है, मुनि महा राज का मुनि महा राज से। लेकि न श्राव क का मुनि महा राज से क्या होना चाहि ए? यह थोड़ी सी एक खोज का विषय है। क्या कहें? देखो! अगर बोलने की इच्छा होती है, तो आप यह पूछ सकते हो जो शास्त्रों में लि खा है। कोई भी आसन्न भव्य होता है, आसन्न भव्य माने नि कट भव्य होता है, वह कभी भी गुरुजनों के पास जाता है, तो कहता है- महा राज! हमें अपने आत्म कल्या ण का कुछ उपदेश दीजिए। यह तो पूछा जा सकता है, मेरा आत्म कल्या ण कैसे होगा महा राज। यह पूछने की बात हो सकती है। जब कोई बहुत दिनों बाद आता है तभी तो पूछता है न। रोज-रोज कौन, कहा ँ पूछता है? इसका मतलब यह हुआ कि जैसे आप अपने रि श्तेदारों के साथ कभी मि लते हैं तभी आप पूछते हैं न । रि श्तेदार में भी रोजाना रहने लगे मान लो आप अपने मामा, नाना के घर गए तो रोजाना पूछते हो क्या या वो आपसे पूछते हैं? 4 दिन रहना, 6 दिन रहना, पहले दिन तो सब पूछेंगे बाद में 4 दिन कौन पूछता है। इसका मतलब यह हुआ कि वह ी लोग पूछ रहे हैं जो दूर से आते हैं, कई दिनों बाद आते हैं, कई महीनों बाद आते हैं तो उन्हें भी क्या पूछना चाहि ए? महा राज मेरा आत्म कल्या ण कैसे हो और अगर आपके लि ए कुछ करना है, तो मैं महा राज आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? इतना तो चलो ठीक लगता है। बाकी रत्नत्रय कैसा है? कि स्वा स्थ्य कैसा है? यह सब आप के अधि कार की बातें समझ में आती नहीं। फिर भी प्रया स करना सीखने का, समझने का। यह भाव रखना कि हमारे दिमाग में एकता और अनेकता दोनों का बराबर ज्ञा न रहे। सत् की अपेक्षा से एकत्व होते हुए भी हर द्रव्य अपने आप में पृथक है, भि न्न है और भि न्न द्रव्य, गुण, पर्याय ों के कारण से उसके अन्दर की भि न्नता का व्यवहा र हम करते हैं तो वह व्यवहा र भी हम समीचीन करते हैं। क्योंकि वह सिद्धान्तः जैसे व्यवहा र करने को कहा है, तो वह ी व्यवहा र हमारे लि ए करने योग्य है।

ोते प्रदेश अपने-अपने निरे हैं, पै वस् तु में, न बि खरे बि खरे पड़े ड़े हैं।
पर्या य-द्रव् य -गुण लक्ष ण से निरे हैं, पै वस् तु में, जि न कहे हे जग से परे हैं।।
(to be contd.)

द्यपि इस गाथा के बारे में कल विवेचना हुई है, फिर भी कुछ गाथा के पद हैं वे पुनः ध्या न में लाने योग्य और समझने के योग्य हैं। कल इतना तो बताया था कि ‘पवि भत्त पदेसत्तं पुधत्तं ’, यह जो पृथकत्व भाव है, जिसे हम कहते हैं- अलग-अलग होना, यह पृथकपना उनमें घटित होता है जिनके प्रदेश भि न्न-भि न्न होते हैं। प्रदेश मतलब स्था न, द्रव्य के रहने का जो क्षेत्र है। वह जिनका भि न्न-भि न्न होता है, उनको जो हम पृथकत्व के रूप में जानते हैं माने भि न्न अलग-अलग रूप में जानते हैं। जैसे हम कहते हैं कि कोई भी दो चीजें जो seperate हैं तो उस seperateness को हम कैसे define करें। उसके लि ए आचार्य यहा ँ पर एक लक्ष ण बता रहे हैं।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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Tel: +91 141 6693948
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प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 14 जीवकी मनुष्यादि पर्यायो की क्रियाफलरूप - by Manish Jain - 10-29-2022, 12:08 PM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 14 जीवकी मनुष्यादि पर्यायो की क्रियाफलरूप - by Manish Jain - 10-29-2022, 12:12 PM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 14 जीवकी मनुष्यादि पर्यायो की क्रियाफलरूप - by Manish Jain - 10-29-2022, 12:14 PM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 14 जीवकी मनुष्यादि पर्यायो की क्रियाफलरूप - by Manish Jain - 10-29-2022, 12:17 PM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 14 जीवकी मनुष्यादि पर्यायो की क्रियाफलरूप - by Manish Jain - 10-29-2022, 02:26 PM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 14 जीवकी मनुष्यादि पर्यायो की क्रियाफलरूप - by Manish Jain - 10-29-2022, 02:28 PM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 14 जीवकी मनुष्यादि पर्यायो की क्रियाफलरूप - by sumit patni - 10-29-2022, 02:44 PM
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 14 जीवकी मनुष्यादि पर्यायो की क्रियाफलरूप - by sandeep jain - 10-29-2022, 03:26 PM

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