10-29-2022, 02:28 PM
गुण द्रव्य के आश्रि त रहते हैं एक दूसरे में प्रवेश नहीं करते
'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' तत्वार्थ सूत्र के पाँचवे अध्याय में एक सूत्र आता है। गुणों की पहचान बताने के लि ए सूत्र दिया है। 'द्रव्याश्रया', द्रव्य के आश्रय से गुण रहते हैं। गुण कहाँ रहेंगे? एक आधार हो गया और उस एक आधार पर रहने वा ली चीज हो गई तो दोनों एक कैसे हो गई? द्रव्य आधार है, आश्रय है। कि नके लि ए? गुणों के लि ए वे आश्रय देने वा ला है और एक आश्रय लेने वा ला है। दोनों का nature अलग-अलग हो गया कि नहीं लेकि न ऐसा नहीं है। जैसे मान लो कि आपने यहा ँ दिल्ली में आश्रय ले लिया या इस रोहि णी के इस sector में आश्रय ले लिया । आपको कभी नि काल भी दिया जाए तो sector वह ी रहे, ऐसा आश्रय नहीं है। ये कैसा आश्रय है? यह स्व भाविक आश्रय है। अपने आप बना हुआ है। द्रव्य के ही आश्रय से गुण रहते हैं। गुण कभी भी द्रव्यों को छोड़ कर नहीं जाते। गुणों के बि ना द्रव्य की पहचान नहीं और द्रव्य के बि ना गुणों का अस्तित्व नहीं। समझ लो! थोड़ी सी चर्चा अभी सुन लो। ‘द्रव्यश्र या निर्गु णा गुणाः’ और गुणों की जो दूसरी characterstic है, वह क्या है? निर्गु णा गुणा: मतलब गुण निर्गु ण होते हैं माने उसमें कोई भी दूसरा गुण कभी भी प्रवेश नहीं करता। जैसे हम इसको पुद्गल द्रव्य में घटित करके बताते हैं ऐसा ही इसको अपने जीव द्रव्य में, आत्म द्रव्य में घटित करना चाहि ए। कैसे? आत्म द्रव्य में हर एक आत्मा का द्रव्य असंख्या त प्रदेश वा ला है। कि तने प्रदेश वा ला? असंख्या त प्रदेश वा ला। मतलब क्या हो गया ? कोई भी आत्मा कहीं पर भी इस लोक में रहेगी तो वह इस लोक के असंख्या त परमाणुओं के बराबर जो जगह है, उतनी घेरेगी। संख्या त नहीं, कि तनी? असंख्या त। मतलब हर आत्मा लोक के असंख्यात्वें भाग में है। असंख्या त points उसके लि ए घेरने में आएँगे। चाह े वह बिल्कु बिल्कु ल सुई की नोक के हजारवें भाग के बराबर भी जीव होगा तो भी वह लोक के असंख्या तवें भाग में कहलाएगा। वह भी उसका असंख्या त क्षेत्र घेर रहा है। मतलब लोक इतना बड़ा है कि उसका असंख्यतवा ँ भाग जो है, वह यह सुई की नोक के बराबर का क्षेत्र भी असंख्यतवा ँ भाग है और चींटी के बराबर जो क्षेत्र है वह भी असंख्यतवा ँ भाग है और जो मनुष्य के बराबर क्षेत्र है वह भी लोक के असंख्यात्वें भाग में है। हाथ ी, डाय नासोर कुछ भी बड़े ड़े से बड़ा जो आप जानते हो वह भी लोक के असंख्यात्वाँ भाग ही कहलाएगा। यह सब असंख्यात्वें भाग के ही सब proportion हैं और यह सब उसी में आ जाते हैं। तो क्या सि द्ध हुआ? द्रव्य हर आत्मा का कि तना क्षेत्र घेर रहा ह
ै? लोक का असंख्या तवा ँ भाग मतलब असंख्या त। एक संख्या है वह भी, असंख्या त भी एक गि नती है। समझ आ रहा है न? वो अनन्त नहीं है। वह असंख्या त माने असंख्या त। बस इतना ही है कि उसको हम गि न नहीं सकते। इसलि ए जो गि नती है, जो वह अपने आप में अलग है। उसका विवेचन फिर कभी करेंगें। असंख्यात्वें भाग माने असंख्या त points को घेरने वा ला हर आत्मा हैं एक द्रव्य के रूप में और हर आत्मा में अनन्त गुण हैं।
द्रव्य में ही गुण है लेकिन उन्हें भी अतद्भा व रूप में जानो
एक गुण का नाम जैसे ज्ञा न गुण। वह पूरी आत्मा के हर एक point पर पूरा फैला हुआ है जैसे कि वस्त्र में सफेदी फैली हुई है। ऐसे ही आत्मा का दूसरा गुण दर्श न गुण, जिससे वह देखता है। वह भी पूरी आत्मा में फैला हुआ है जैसे कि वस्त्र में सफ़े फ़े दी फैली हुई है। ऐसे ही आत्मा का सुख गुण, आत्मा में फैला हुआ है जैसे कि वस्त्र में सफ़े फ़े दी फैली हुई है। ऐसे एक नहीं अनेक, अनन्त गुण हैं और वे पूरे आत्म द्रव्य में फैले हुये हैं इसलि ए द्रव्य के अन्दर तो अनन्त गुण रहेंगे लेकि न गुण के अन्दर कोई गुण नहीं रहेगा। यह सीखने की कोशि श करो। भीतर जा रहा है कुछ? ‘द्रव्याश्र या निर्गु णा गुणा:’, गुण जो होते हैं वे द्रव्य के आश्रि त होते हैं पहली बात और दूसरी वे निर्गु ण होते हैं, माने गुणों को अपने अन्दर नहीं धारण करते। अकेले ही गुण के रूप में रहेंगे। यह द्रव्य अलग, गुण अलग। द्रव्य और गुणों के बीच में कि तना बड़ा अन्तर आ गया । लक्ष ण, भेद कि तना अलग-अलग हो गया । उनके लक्ष ण अलग और उनके लक्ष ण अलग लेकि न एक ही साथ रहते हैं तो इसलि ए कथंचित एक हैं लेकि न एक होते हुए भी हम उन्हें भि न्न कैसे जानें? उसके लि ए आचार्य कहते हैं- उन्हें अतद्भाव रूप में जानना। कैसे रूप में जानना? अतद्भाव रूप में जानना। तद्भाव का मतलब क्या हो गया ? जो द्रव्य है, वह ी गुण हो गया । जो substance है, वह ी उसकी quality हो गयी, वह ी उसका mode हो गया । ऐसा नहीं है। ऐसा हो जाएगा तो तद्भाव हो जाएगा। तो आचार्य कहते है- यह तद्भाव नहीं है, यह क्या है? अतद्भाव । सब एक रूप नहीं हो रहे हैं, सब अलग-अलग हैं लेकि न फिर भी एक ही साथ में हैं। माने जिस space point पर द्रव्य है, वह ीं पर गुण है, वह ीं पर पर्याय है। लेकि न फिर भी द्रव्य अलग है, गुण अलग है, पर्याय अलग है। नाम अलग है, लक्ष ण अलग है, प्रयोजन अलग है, पहचान अलग है। आ रहा है समझ में? इसको क्या बोलेंगे? इसको कहेंगे अन्यत्व रूप difference मतलब difference of identity। ये कि सका difference हो गया ? अतद्भाव रूप, difference of identity मतलब अपनी-अपनी identity का difference है और दो आत्मा एँ एक ही स्था न पर भी रहेंगी तो भी वे दो आत्म द्रव्य अलग-अलग कहलाएँगे और वे दोनों separate-separate कहलाएँगे। तब वह कहलाएगा difference of seperateness. समझ आ रहा है दोनो में अन्तर? एक पृथक्त्व में और एक अन्यत्व में।
पृथक्त्व दो द्रव्यों में घटि त होता है और अन्यत्व एक ही द्रव्य के गुण और पर्या य में घटि त होता है
पृथक्त्व दो द्रव्यों में घटित हो रहा है और अन्यत्व एक ही द्रव्य के गुण और पर्याय में घटित हो रहा है। हो रहा है कि नहीं हो रहा है? अब तो हो गया या और भी कि सी उदाह रण की जरूरत है। एक और जरूरत है। कोई भी उदाह रण ले लो आप। जैसे सोना है, स्वर्ण है और स्वर्ण में उसका पीलापन, उसकी yellowness है। उसी स्वर्ण में उसकी जो पर्याय है- कुण्ड ल रूप में। कुण्ड ल उसकी क्या हो गई? पर्याय हो गयी। पीलापन उसका गुण हो गया और सोना उसका द्रव्य हो गया । द्रव्य गुणों को धारण कि ए हुए है। अब सोचो! द्रव्य, गुणों का आश्रय है। सोचो! स्वर्ण , पीलेपन आदि अनेक गुणों का आश्रय भूत द्रव्य है। ठीक! उसकी पर्याय कुण्ड ल रूप है, द्रव्य भी अलग जानो, गुण भी अलग जानो, पर्याय भी अलग जानो। लेकि न जैसे हम कहेंगे- कुण्ड ल ले आओ तो सोना भी आ जाएगा, पीलापन भी आ जाएगा, उसकी जितनी कीमत होगी सब साथ में आ जाय ेगी। अलग-अलग तो नहीं है। अब आप अलग-अलग भी कह रहे हो यह पीला है, यह भारी है, यह कुण्ड ल है, यह हा र है। समझ आ रहा है? अब उसी कुण्ड ल का हम हा र बना देंगे तो क्या हो गया ? पर्याय बदल गयी। द्रव्य वह ी रहा , गुण वह ी रहे।
द्रव्य-गुण-पर्या य एक साथ रहते हुए भी भिन्न हैं--अतद्भा व है
द्रव्य कभी भी गुणों के साथ अलग नहीं है लेकि न द्रव्य और गुण को भी हम भि न्न-भि न्न जाने इसलि ए यहा ँ कहा जा रहा है- अतद्भाव है। द्रव्यों में, गुणों में, पर्याय ों में क्या है? अतद्भाव । तद्भाव नहीं है। वह उसी रूप नहीं है। जो वह है, वह ी वह है ऐसा नहीं है। जो आँख है, वह ी कान है ऐसा नहीं है। आँख का काम अलग है और कान का काम अलग है लेकि न जब एक शरीर को बुलाएँगे एक शरीर आएगा तो उसमें कान भी आ जाएगा, आँख भी आ जाएगी। समझ आ गया ? आ जाय ेगा और धीरे-धीरे। इतना कठि न तो कुछ नहीं है, शब्दाव ली है। यह भाव बताने के लि ए जो कल नही बता पाए थे, उसी को यहा ँ इसलि ए बताना जरुरी है क्योंकि हम जो कोई ग्रन्थ पढ़ रहे हैं तो उसका पूरा मर्म भी हमें आना चाहि ए। ‘अण् णत्त मतब्भा वो ण तब् भ वो होदि कथमेक्को ’ वह तद्भाव नहीं है, तो फिर एक कैसे हो गये। आचार्य महा राज ने खुद ही गाथा में प्रश्न उठा दिया कि द्रव्य, गुण, पर्याय सब एक नहीं हो गए जो तुम एक मान रहे हो। वे क्यों बता रहे हैं? अभी तक चर्चा चल रही थी सत् की। कि स की चर्चा चल रही थी? सत्!, सत्!, सत्! हर द्रव्य में क्या है? सत् है। सत् माने सत्ता गुण है। हर द्रव्य का existence है, तो सत्ता भी उसका एक गुण है और वह गुण कि स रूप में है? आप यह नहीं समझ लेना जो सत्ता है, वह ी द्रव्य है, जो द्रव्य है, वही सत्ता है। रहेंगी तो दोनो चीजें एक साथ । जहाँ द्रव्य आयेगा वहाँ सत्ता आ जाएगी। जहाँ सत्ता आएगी वहाँ द्रव्य होगा क्योंकि द्रव्य बि ना सत्ता के नहीं होता और सत्ता कि सी भी चीज की हो, वह द्रव्य रूप ज़ रूर होगा ही।
वस्तु व्यवस्था केवल ज्ञान का वि षय है
‘सद्-द्रव्यस्य-लक्ष णम्’ यह तत्वा र्थ सूत्र के सूत्र हैं। यहाँ पढ़ ने में अच्छे काम आ रहे हैं। द्रव्य का लक्ष ण क्या है? सत् है। माने द्रव्य की पहचान कि ससे होती है? सत् से होती है। यह नहीं समझ लेना जो द्रव्य है, वह ी सत् है, जो सत् है वह ी द्रव्य है। समझ आ रहा है? अन्तर कि समें है? उनके नाम में है, उनकी पहचान में है। एक द्रव्य है, एक गुण है, यह उनमें अन्तर है लेकि न ऐसा अन्तर नहीं समझ लेना कि जैसे एक द्रव्य यह रखा है, दूसरा द्रव्य यह रखा है, इन दोनों द्रव्यों में जो पृथकत्व रूप अन्तर है वैसा अन्तर नहीं समझ लेना। अलग-अलग कहते हुए भी कैसे अलग-अलग हैं, यह विचार बनाए रखना। जैसे आपके शरीर के अंग अलग-अलग हैं फिर भी कैसे अलग-अलग हैं? जैसे दो टमाटर अलग-अलग रखे हैं ऐसे। ऐसे तो नहीं है न! अपने ही शरीर के अंग कि स रूप में अलग हैं? अन्यत्व रूप में और अपने से दूसरा शरीर जो अलग है, वह कि स रूप में है? पृथक्त्व रूप में। बस यह इसलि ए बताने की ज़ रूरत पड़ गयी कि सत्! सत्! सत्! कहते-कहते आप यह नहीं समझ लेना की सत् ही द्रव्य हो गया और द्रव्य ही सत् हो गया । इतनी गहरी बारीकिया ँ केवल ज्ञा नी के अलावा और कोई न जान सकता और न ही बता सकता। समझ आ रहा है न? आपको इसलि ए कहा गया है कि यह वीर भगवा न का शासन है। यह बातें आपको कहीं नहीं मि लेंगी। क्यों नही मि लेंगी? क्योंकि केवलज्ञा नी कोई होता ही नहीं। अब कि सी से कहो कि केवलज्ञा नी वह ी कैसे हैं? कैसे पहचान हो गयी कि आपके तीर्थं कर ही केवल ज्ञा नी हैं और आप दूसरों को मना कर देते हो और कोई केवलज्ञा नी नहीं है, कोई सर्वज्ञ नहीं है। अपने ही तीर्थं कर को सर्वज्ञ मान लेते हो आप। हमें बताओ तो, यदि सर्वज्ञ है। कोई सर्वज्ञ ता की कुछ बातें तो बताओ कि जिसके ज्ञा न में कौन सी ऐसी चीजें आ रही हैं, जिसको देख कर, जानकर हम यह अनुमान लगा ले कि हा ँ! ये सर्वज्ञ ता की चीजें हैं। बता दो आप! कोई भी कि तने भी सम्प्रदाय वा ले हो, कोई भी दर्श न हो, कोई भी मत हो, ऐसी कौन सी चीजें हैं जिससे उसकी सर्वज्ञ ता का अनुमान लगाया जा सके। यह चीजें हैं जिससे सर्वज्ञ ता का अनुमान लगता है। ये वे शब्दावलिया ँ है, वह तत्त्व ज्ञा न है जिससे सर्वज्ञ ता का अनुमान लगता है। बताओ! नहीं तो काैन देखने वा ला है? सत् कहा ँ होता है? सत् द्रव्य होता है, सत् गुण होता है। काैन जानता है? हम कि तने ही कपड़े ड़े पहनते रहते हैं, कि तने शरीर बदलते रहते हैं, कि तने शरीर जल चुके, मर चुके, कि तने कपड़े ड़े फट चुके, कट चुके और बदल चुके लेकि न द्रव्य, गुण और पर्याय के रूप में कुछ समझ आया है? नहीं समझ आया ? कैसे पता चले? होने को तो सब कुछ हो सकता है लेकि न यह सब कि सके आश्रि त हो रहा है? यह वस्तु की व्यवस्था क्या है? यह सारी की सारी बारीकिया ँ, गहराइया ँ जो केवल ज्ञा न में देखने में आती है, वह हमें इस तरह से बताई गयी है। इससे सर्वज्ञ ता की पहचान होती है।
द्रव्य व्यवस्था का ज्ञान सर्वज्ञ द्वा रा कहा गया है
इतनी सी बात को बताने के लि ए ही यह शब्द आया ‘शासन’ यह वीर भगवा न का है, दूसरी जगह यह बातें नही मि लेंगी। दूसरी जगह तो सब जानते है कि यह अलग है, यह अलग है लेकि न अलग-अलग भी कि स तरीके का अलग है। आप बता दो! कहीं पर भी इतनी बारीकिय ों से कोई। एक भी है, अनेक भी है। एक साथ भी है फिर भी अलग है। यह एक साथ रह कर अलग है, वो अपना एक साथ रह कर अलग है फिर भी दोनों आपस में अलग-अलग हैं। इन सबकी क्या -क्या व्याख्या न की जाएँ? इन सब की परि भाषाएँ क्या बनाई जाएँ? तो वह परभाषाएँ बनायी हैं। समझ आ रहा है? यह द्रव्य व्यवस्था है। मेरा आत्म द्रव्य और आपका आत्म द्रव्य, अभी तक हम क्या बोल रहे थे?
एक है! एक है! लेकि न ध्या न रखना सब पृथकत्व है! पृथकत्व है! पृथकत्व है! है कि नहीं पृथकत्व? अलग-अलग हैं, सब separate-separate है। एक नहीं मान लेना। जब आप एक मान लोगे तो सब कैसा हो जाएगा? सब उसी का एक ब्रह्मा जैसा हो जाएगा। समझ आ रहा है? जब आप अलग-अलग कहोगे पृथकत्व है! पृथकत्व है! पृथक्त्व है! तब आपके लि ए आएगा, क्यों पृथक्त्व है? उनका प्रदेशपना अलग है, उनका क्षेत्र अलग है और आपका आत्मा का क्षेत्र अलग है। एक ही स्था न पर रहते हुए भी दोनों द्रव्यों का क्षेत्र अलग-अलग होगा क्योंकि उनके प्रदेश अलग हैं और उस द्रव्य के प्रदेश अलग हैं। इस अलग-अलग विज्ञा न को कोई भी दुनिया में नहीं बताता। सब एक ही ब्रह्मा हैं, एक ही ब्रह्मा के सब कट-कट कर सब में अंश समाहि त हो गए हैं और जैसे एक चन्द्रमा की परछाइया ँ अलग-अलग तालाबों में एक ही दिखाई देती हैं वैसे ही सब घट में, घट माने सब शरीरों में एक ही वह ब्रह्मा की परछाइया ँ आ रही हैं। ऐसा समझाया जाता है। पहले भी सुना होगा और वह ी दिमाग में बैठा रहता है। उसको समझने के लि ए कि जो हमने बि ठा रखा है, दिमाग में कि वह सही है या गलत है और अगर आपके दिमाग में यह सब समझ में आएगा तो अपने आप समझ में आ जाएगा कि जो हमने अभी तक सोच रखा था , वह सही था या गलत था । यह ी अपने आप में सबसे बड़ा द्रव्य व्यवस्था का ज्ञा न है, तत्त्व का ज्ञा न है। इसी को हमने कहा था कि सबसे पहले द्रव्य पर विश्वा स करो। द्रव्य, गुण, पर्याय ों को जानने से सम्यग्दर्श न होता है। कैसे होगा? ऐसे द्रव्य, गुण, पर्याय ों को जानने से होगा। सत्! सत्! कहते हुए उस ब्रह्मा के अंश की तरह सबको एक मत मान लेना, ये सब भि न्न-भि न्न हैं लेकि न एक में भी अलग-अलग गुण हैं, अनेक गुण हैं और वे सब अपना अस्तित्व, अपना-अपना स्व भाव से अलग-अलग बनाए हुए हैं।
द्रव्य के एक भी गुण कोई अलग नहीं कर सकता
एक गुण भी द्रव्य से कोई अलग नहीं कर सकता, नष्ट नहीं कर सकता है। क्या समझ में आ रहा है? कभी आत्मा के अन्दर से ज्ञा न नि काल दिया जाए। मान लो असंख्या त प्रदेशी आत्मा है, एक point से बस ज्ञा न अलग कर दिया जाए। possible है? नहीं, यह बि ठा लो दिमाग में। तभी आपको आत्मा का ध्या न करते हुए आत्मा कुछ समझ में आएगी नहीं तो कुछ समझ में नहीं आयेगा। चेतना, आत्मा कहते हुए हमें ऐसा तो लगे मेरा आत्म द्रव्य, द्रव्य माने एक अलग पदार्थ है। जो हमें आँख बन्द करके भीतर से महसूस होता है। उस एक अलग पदार्थ को पहले हम पदार्थ के रूप में जान लेंगे और तब आँख बंद करोगे तो पूरा पदार्थ, पूरी चेतना, पूरा आत्म द्रव्य आपको शरीर के अन्दर महसूस होगा। कि ससे भरा हुआ? ज्ञा न शक्ति से, दर्श न शक्ति से, सुख से, अस्तित्व से, वस्तु त्व से, अनेक अनन्त गुणों से भरा हुआ, वह आत्म द्रव्य। उसी की पहचान करने के लि ए यहा ँ यह शब्द डालना पड़ा । ऐसा नहीं समझना कि गाथा पूरी नहीं हो रही थी तो लि ख दिया 'सासणं हि वीरस्स'। कई बार ऐसे भी कह देते है लोग गाथा पूर्ति र्ति करने के लि ए ऐसे शब्द डाल दिए जाते हैं। यह गाथा पूर्ति र्ति नहीं है। यह बताने के लि ए कि वीर भगवा न के शासन में ही ये चीजें हैं, ये इतना बारीकी का ज्ञा न है, अन्यत्र कहीं पर भी ये ज्ञा न आपको मि लने वा ला नहीं है। सबके पास जितना ज्ञा न मि लेगा बस वह उतना ही मि लेगा कि मनुष्य है, दुनिया में बहुत पशु हैं। जैसे कर्म करोगे वैसा फल मि लेगा। इसलि ए दया भाव रखो, क्ष मा भाव रखो और मानवता के अनुसार जीयो। इसके लि ए आप कहीं पर भी दूसरे धर्म में देख लो कोई दूसरी theory हो। बस इतनी सी theory है, सबके पास। द्रव्य, गुण, पर्याय तो कुछ है ही नहीं। आत्मा , परमात्मा तो कुछ है ही नहीं। तीन लोक की कोई व्यवस्था कुछ भी नहीं कही। फिर भी लोग पूछते हैं कि आप अपने भगवा न को ही तीर्थं कर कहते हो, सबको क्यों नहीं कहते हो? सबको तीर्थं कर क्यों नहीं मानते हो? तुम्हा रे पास बुद्धि तो हो कि हम क्यों नहीं मानते? और तुम क्यों मानते हो? तुम्हा रे पास तो बुद्धि की शून्यता है। तुम्हा रे पास तो परखने की, जानने की इतनी बुद्धि ही नहीं है कि हम क्यों नहीं मान रहे हैं और जब बुद्धि है, तो आप अपनी बुद्धि से उसको परखो, देखो। सर्वज्ञ ता की पहचान करने के कोई तरीके है या नहीं? यह तरीके हैं जो मैं आपको बता रहा हूँ। इसलि ए सब भगवा न एक जैसे, सब मन्दि र एक जैसे, सब तीर्थं कर एक जैसे। यहा ँ तीर्थं कर कहने से मतलब सबने अपने-अपने तीर्थं कर मान रखे हैं। सब तीर्थ एक जैसे, अलग-अलग क्यों करना। अरे! जब तुम्हा रे पास बुद्धि होगी तभी तो तुम समझोगे कि क्या तीर्थ होते हैं? क्या तीर्थं कर होते हैं? क्या भगवा न होते हैं? क्या तमाशे होते हैं? ये सब चीजें जब तक आप खुद नही समझोगे तब तक आप न दूसरों को समझा पाओगे, न आपके अन्दर दृढ़ विश्वा स कि सी चीज का आ पाएगा। आगे इसी बात को और विस्तारि त किया जा रहा है- देखो क्या कहते हैं।
होते प्रदेश अपने-अपने निरे हैं, पै वस् तु में, न बि खरे बि खरे पड़े ड़े हैं।
पर्या य-द्रव् य -गुण लक्ष ण से निरे हैं, पै वस् तु में, जि न कहे हे जग से परे हैं।।
अब उसी तद्भाव को, अतद्भाव को और बताने के लि ए आगे कहते हैं—
'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' तत्वार्थ सूत्र के पाँचवे अध्याय में एक सूत्र आता है। गुणों की पहचान बताने के लि ए सूत्र दिया है। 'द्रव्याश्रया', द्रव्य के आश्रय से गुण रहते हैं। गुण कहाँ रहेंगे? एक आधार हो गया और उस एक आधार पर रहने वा ली चीज हो गई तो दोनों एक कैसे हो गई? द्रव्य आधार है, आश्रय है। कि नके लि ए? गुणों के लि ए वे आश्रय देने वा ला है और एक आश्रय लेने वा ला है। दोनों का nature अलग-अलग हो गया कि नहीं लेकि न ऐसा नहीं है। जैसे मान लो कि आपने यहा ँ दिल्ली में आश्रय ले लिया या इस रोहि णी के इस sector में आश्रय ले लिया । आपको कभी नि काल भी दिया जाए तो sector वह ी रहे, ऐसा आश्रय नहीं है। ये कैसा आश्रय है? यह स्व भाविक आश्रय है। अपने आप बना हुआ है। द्रव्य के ही आश्रय से गुण रहते हैं। गुण कभी भी द्रव्यों को छोड़ कर नहीं जाते। गुणों के बि ना द्रव्य की पहचान नहीं और द्रव्य के बि ना गुणों का अस्तित्व नहीं। समझ लो! थोड़ी सी चर्चा अभी सुन लो। ‘द्रव्यश्र या निर्गु णा गुणाः’ और गुणों की जो दूसरी characterstic है, वह क्या है? निर्गु णा गुणा: मतलब गुण निर्गु ण होते हैं माने उसमें कोई भी दूसरा गुण कभी भी प्रवेश नहीं करता। जैसे हम इसको पुद्गल द्रव्य में घटित करके बताते हैं ऐसा ही इसको अपने जीव द्रव्य में, आत्म द्रव्य में घटित करना चाहि ए। कैसे? आत्म द्रव्य में हर एक आत्मा का द्रव्य असंख्या त प्रदेश वा ला है। कि तने प्रदेश वा ला? असंख्या त प्रदेश वा ला। मतलब क्या हो गया ? कोई भी आत्मा कहीं पर भी इस लोक में रहेगी तो वह इस लोक के असंख्या त परमाणुओं के बराबर जो जगह है, उतनी घेरेगी। संख्या त नहीं, कि तनी? असंख्या त। मतलब हर आत्मा लोक के असंख्यात्वें भाग में है। असंख्या त points उसके लि ए घेरने में आएँगे। चाह े वह बिल्कु बिल्कु ल सुई की नोक के हजारवें भाग के बराबर भी जीव होगा तो भी वह लोक के असंख्या तवें भाग में कहलाएगा। वह भी उसका असंख्या त क्षेत्र घेर रहा है। मतलब लोक इतना बड़ा है कि उसका असंख्यतवा ँ भाग जो है, वह यह सुई की नोक के बराबर का क्षेत्र भी असंख्यतवा ँ भाग है और चींटी के बराबर जो क्षेत्र है वह भी असंख्यतवा ँ भाग है और जो मनुष्य के बराबर क्षेत्र है वह भी लोक के असंख्यात्वें भाग में है। हाथ ी, डाय नासोर कुछ भी बड़े ड़े से बड़ा जो आप जानते हो वह भी लोक के असंख्यात्वाँ भाग ही कहलाएगा। यह सब असंख्यात्वें भाग के ही सब proportion हैं और यह सब उसी में आ जाते हैं। तो क्या सि द्ध हुआ? द्रव्य हर आत्मा का कि तना क्षेत्र घेर रहा ह
ै? लोक का असंख्या तवा ँ भाग मतलब असंख्या त। एक संख्या है वह भी, असंख्या त भी एक गि नती है। समझ आ रहा है न? वो अनन्त नहीं है। वह असंख्या त माने असंख्या त। बस इतना ही है कि उसको हम गि न नहीं सकते। इसलि ए जो गि नती है, जो वह अपने आप में अलग है। उसका विवेचन फिर कभी करेंगें। असंख्यात्वें भाग माने असंख्या त points को घेरने वा ला हर आत्मा हैं एक द्रव्य के रूप में और हर आत्मा में अनन्त गुण हैं।
द्रव्य में ही गुण है लेकिन उन्हें भी अतद्भा व रूप में जानो
एक गुण का नाम जैसे ज्ञा न गुण। वह पूरी आत्मा के हर एक point पर पूरा फैला हुआ है जैसे कि वस्त्र में सफेदी फैली हुई है। ऐसे ही आत्मा का दूसरा गुण दर्श न गुण, जिससे वह देखता है। वह भी पूरी आत्मा में फैला हुआ है जैसे कि वस्त्र में सफ़े फ़े दी फैली हुई है। ऐसे ही आत्मा का सुख गुण, आत्मा में फैला हुआ है जैसे कि वस्त्र में सफ़े फ़े दी फैली हुई है। ऐसे एक नहीं अनेक, अनन्त गुण हैं और वे पूरे आत्म द्रव्य में फैले हुये हैं इसलि ए द्रव्य के अन्दर तो अनन्त गुण रहेंगे लेकि न गुण के अन्दर कोई गुण नहीं रहेगा। यह सीखने की कोशि श करो। भीतर जा रहा है कुछ? ‘द्रव्याश्र या निर्गु णा गुणा:’, गुण जो होते हैं वे द्रव्य के आश्रि त होते हैं पहली बात और दूसरी वे निर्गु ण होते हैं, माने गुणों को अपने अन्दर नहीं धारण करते। अकेले ही गुण के रूप में रहेंगे। यह द्रव्य अलग, गुण अलग। द्रव्य और गुणों के बीच में कि तना बड़ा अन्तर आ गया । लक्ष ण, भेद कि तना अलग-अलग हो गया । उनके लक्ष ण अलग और उनके लक्ष ण अलग लेकि न एक ही साथ रहते हैं तो इसलि ए कथंचित एक हैं लेकि न एक होते हुए भी हम उन्हें भि न्न कैसे जानें? उसके लि ए आचार्य कहते हैं- उन्हें अतद्भाव रूप में जानना। कैसे रूप में जानना? अतद्भाव रूप में जानना। तद्भाव का मतलब क्या हो गया ? जो द्रव्य है, वह ी गुण हो गया । जो substance है, वह ी उसकी quality हो गयी, वह ी उसका mode हो गया । ऐसा नहीं है। ऐसा हो जाएगा तो तद्भाव हो जाएगा। तो आचार्य कहते है- यह तद्भाव नहीं है, यह क्या है? अतद्भाव । सब एक रूप नहीं हो रहे हैं, सब अलग-अलग हैं लेकि न फिर भी एक ही साथ में हैं। माने जिस space point पर द्रव्य है, वह ीं पर गुण है, वह ीं पर पर्याय है। लेकि न फिर भी द्रव्य अलग है, गुण अलग है, पर्याय अलग है। नाम अलग है, लक्ष ण अलग है, प्रयोजन अलग है, पहचान अलग है। आ रहा है समझ में? इसको क्या बोलेंगे? इसको कहेंगे अन्यत्व रूप difference मतलब difference of identity। ये कि सका difference हो गया ? अतद्भाव रूप, difference of identity मतलब अपनी-अपनी identity का difference है और दो आत्मा एँ एक ही स्था न पर भी रहेंगी तो भी वे दो आत्म द्रव्य अलग-अलग कहलाएँगे और वे दोनों separate-separate कहलाएँगे। तब वह कहलाएगा difference of seperateness. समझ आ रहा है दोनो में अन्तर? एक पृथक्त्व में और एक अन्यत्व में।
पृथक्त्व दो द्रव्यों में घटि त होता है और अन्यत्व एक ही द्रव्य के गुण और पर्या य में घटि त होता है
पृथक्त्व दो द्रव्यों में घटित हो रहा है और अन्यत्व एक ही द्रव्य के गुण और पर्याय में घटित हो रहा है। हो रहा है कि नहीं हो रहा है? अब तो हो गया या और भी कि सी उदाह रण की जरूरत है। एक और जरूरत है। कोई भी उदाह रण ले लो आप। जैसे सोना है, स्वर्ण है और स्वर्ण में उसका पीलापन, उसकी yellowness है। उसी स्वर्ण में उसकी जो पर्याय है- कुण्ड ल रूप में। कुण्ड ल उसकी क्या हो गई? पर्याय हो गयी। पीलापन उसका गुण हो गया और सोना उसका द्रव्य हो गया । द्रव्य गुणों को धारण कि ए हुए है। अब सोचो! द्रव्य, गुणों का आश्रय है। सोचो! स्वर्ण , पीलेपन आदि अनेक गुणों का आश्रय भूत द्रव्य है। ठीक! उसकी पर्याय कुण्ड ल रूप है, द्रव्य भी अलग जानो, गुण भी अलग जानो, पर्याय भी अलग जानो। लेकि न जैसे हम कहेंगे- कुण्ड ल ले आओ तो सोना भी आ जाएगा, पीलापन भी आ जाएगा, उसकी जितनी कीमत होगी सब साथ में आ जाय ेगी। अलग-अलग तो नहीं है। अब आप अलग-अलग भी कह रहे हो यह पीला है, यह भारी है, यह कुण्ड ल है, यह हा र है। समझ आ रहा है? अब उसी कुण्ड ल का हम हा र बना देंगे तो क्या हो गया ? पर्याय बदल गयी। द्रव्य वह ी रहा , गुण वह ी रहे।
द्रव्य-गुण-पर्या य एक साथ रहते हुए भी भिन्न हैं--अतद्भा व है
द्रव्य कभी भी गुणों के साथ अलग नहीं है लेकि न द्रव्य और गुण को भी हम भि न्न-भि न्न जाने इसलि ए यहा ँ कहा जा रहा है- अतद्भाव है। द्रव्यों में, गुणों में, पर्याय ों में क्या है? अतद्भाव । तद्भाव नहीं है। वह उसी रूप नहीं है। जो वह है, वह ी वह है ऐसा नहीं है। जो आँख है, वह ी कान है ऐसा नहीं है। आँख का काम अलग है और कान का काम अलग है लेकि न जब एक शरीर को बुलाएँगे एक शरीर आएगा तो उसमें कान भी आ जाएगा, आँख भी आ जाएगी। समझ आ गया ? आ जाय ेगा और धीरे-धीरे। इतना कठि न तो कुछ नहीं है, शब्दाव ली है। यह भाव बताने के लि ए जो कल नही बता पाए थे, उसी को यहा ँ इसलि ए बताना जरुरी है क्योंकि हम जो कोई ग्रन्थ पढ़ रहे हैं तो उसका पूरा मर्म भी हमें आना चाहि ए। ‘अण् णत्त मतब्भा वो ण तब् भ वो होदि कथमेक्को ’ वह तद्भाव नहीं है, तो फिर एक कैसे हो गये। आचार्य महा राज ने खुद ही गाथा में प्रश्न उठा दिया कि द्रव्य, गुण, पर्याय सब एक नहीं हो गए जो तुम एक मान रहे हो। वे क्यों बता रहे हैं? अभी तक चर्चा चल रही थी सत् की। कि स की चर्चा चल रही थी? सत्!, सत्!, सत्! हर द्रव्य में क्या है? सत् है। सत् माने सत्ता गुण है। हर द्रव्य का existence है, तो सत्ता भी उसका एक गुण है और वह गुण कि स रूप में है? आप यह नहीं समझ लेना जो सत्ता है, वह ी द्रव्य है, जो द्रव्य है, वही सत्ता है। रहेंगी तो दोनो चीजें एक साथ । जहाँ द्रव्य आयेगा वहाँ सत्ता आ जाएगी। जहाँ सत्ता आएगी वहाँ द्रव्य होगा क्योंकि द्रव्य बि ना सत्ता के नहीं होता और सत्ता कि सी भी चीज की हो, वह द्रव्य रूप ज़ रूर होगा ही।
वस्तु व्यवस्था केवल ज्ञान का वि षय है
‘सद्-द्रव्यस्य-लक्ष णम्’ यह तत्वा र्थ सूत्र के सूत्र हैं। यहाँ पढ़ ने में अच्छे काम आ रहे हैं। द्रव्य का लक्ष ण क्या है? सत् है। माने द्रव्य की पहचान कि ससे होती है? सत् से होती है। यह नहीं समझ लेना जो द्रव्य है, वह ी सत् है, जो सत् है वह ी द्रव्य है। समझ आ रहा है? अन्तर कि समें है? उनके नाम में है, उनकी पहचान में है। एक द्रव्य है, एक गुण है, यह उनमें अन्तर है लेकि न ऐसा अन्तर नहीं समझ लेना कि जैसे एक द्रव्य यह रखा है, दूसरा द्रव्य यह रखा है, इन दोनों द्रव्यों में जो पृथकत्व रूप अन्तर है वैसा अन्तर नहीं समझ लेना। अलग-अलग कहते हुए भी कैसे अलग-अलग हैं, यह विचार बनाए रखना। जैसे आपके शरीर के अंग अलग-अलग हैं फिर भी कैसे अलग-अलग हैं? जैसे दो टमाटर अलग-अलग रखे हैं ऐसे। ऐसे तो नहीं है न! अपने ही शरीर के अंग कि स रूप में अलग हैं? अन्यत्व रूप में और अपने से दूसरा शरीर जो अलग है, वह कि स रूप में है? पृथक्त्व रूप में। बस यह इसलि ए बताने की ज़ रूरत पड़ गयी कि सत्! सत्! सत्! कहते-कहते आप यह नहीं समझ लेना की सत् ही द्रव्य हो गया और द्रव्य ही सत् हो गया । इतनी गहरी बारीकिया ँ केवल ज्ञा नी के अलावा और कोई न जान सकता और न ही बता सकता। समझ आ रहा है न? आपको इसलि ए कहा गया है कि यह वीर भगवा न का शासन है। यह बातें आपको कहीं नहीं मि लेंगी। क्यों नही मि लेंगी? क्योंकि केवलज्ञा नी कोई होता ही नहीं। अब कि सी से कहो कि केवलज्ञा नी वह ी कैसे हैं? कैसे पहचान हो गयी कि आपके तीर्थं कर ही केवल ज्ञा नी हैं और आप दूसरों को मना कर देते हो और कोई केवलज्ञा नी नहीं है, कोई सर्वज्ञ नहीं है। अपने ही तीर्थं कर को सर्वज्ञ मान लेते हो आप। हमें बताओ तो, यदि सर्वज्ञ है। कोई सर्वज्ञ ता की कुछ बातें तो बताओ कि जिसके ज्ञा न में कौन सी ऐसी चीजें आ रही हैं, जिसको देख कर, जानकर हम यह अनुमान लगा ले कि हा ँ! ये सर्वज्ञ ता की चीजें हैं। बता दो आप! कोई भी कि तने भी सम्प्रदाय वा ले हो, कोई भी दर्श न हो, कोई भी मत हो, ऐसी कौन सी चीजें हैं जिससे उसकी सर्वज्ञ ता का अनुमान लगाया जा सके। यह चीजें हैं जिससे सर्वज्ञ ता का अनुमान लगता है। ये वे शब्दावलिया ँ है, वह तत्त्व ज्ञा न है जिससे सर्वज्ञ ता का अनुमान लगता है। बताओ! नहीं तो काैन देखने वा ला है? सत् कहा ँ होता है? सत् द्रव्य होता है, सत् गुण होता है। काैन जानता है? हम कि तने ही कपड़े ड़े पहनते रहते हैं, कि तने शरीर बदलते रहते हैं, कि तने शरीर जल चुके, मर चुके, कि तने कपड़े ड़े फट चुके, कट चुके और बदल चुके लेकि न द्रव्य, गुण और पर्याय के रूप में कुछ समझ आया है? नहीं समझ आया ? कैसे पता चले? होने को तो सब कुछ हो सकता है लेकि न यह सब कि सके आश्रि त हो रहा है? यह वस्तु की व्यवस्था क्या है? यह सारी की सारी बारीकिया ँ, गहराइया ँ जो केवल ज्ञा न में देखने में आती है, वह हमें इस तरह से बताई गयी है। इससे सर्वज्ञ ता की पहचान होती है।
द्रव्य व्यवस्था का ज्ञान सर्वज्ञ द्वा रा कहा गया है
इतनी सी बात को बताने के लि ए ही यह शब्द आया ‘शासन’ यह वीर भगवा न का है, दूसरी जगह यह बातें नही मि लेंगी। दूसरी जगह तो सब जानते है कि यह अलग है, यह अलग है लेकि न अलग-अलग भी कि स तरीके का अलग है। आप बता दो! कहीं पर भी इतनी बारीकिय ों से कोई। एक भी है, अनेक भी है। एक साथ भी है फिर भी अलग है। यह एक साथ रह कर अलग है, वो अपना एक साथ रह कर अलग है फिर भी दोनों आपस में अलग-अलग हैं। इन सबकी क्या -क्या व्याख्या न की जाएँ? इन सब की परि भाषाएँ क्या बनाई जाएँ? तो वह परभाषाएँ बनायी हैं। समझ आ रहा है? यह द्रव्य व्यवस्था है। मेरा आत्म द्रव्य और आपका आत्म द्रव्य, अभी तक हम क्या बोल रहे थे?
एक है! एक है! लेकि न ध्या न रखना सब पृथकत्व है! पृथकत्व है! पृथकत्व है! है कि नहीं पृथकत्व? अलग-अलग हैं, सब separate-separate है। एक नहीं मान लेना। जब आप एक मान लोगे तो सब कैसा हो जाएगा? सब उसी का एक ब्रह्मा जैसा हो जाएगा। समझ आ रहा है? जब आप अलग-अलग कहोगे पृथकत्व है! पृथकत्व है! पृथक्त्व है! तब आपके लि ए आएगा, क्यों पृथक्त्व है? उनका प्रदेशपना अलग है, उनका क्षेत्र अलग है और आपका आत्मा का क्षेत्र अलग है। एक ही स्था न पर रहते हुए भी दोनों द्रव्यों का क्षेत्र अलग-अलग होगा क्योंकि उनके प्रदेश अलग हैं और उस द्रव्य के प्रदेश अलग हैं। इस अलग-अलग विज्ञा न को कोई भी दुनिया में नहीं बताता। सब एक ही ब्रह्मा हैं, एक ही ब्रह्मा के सब कट-कट कर सब में अंश समाहि त हो गए हैं और जैसे एक चन्द्रमा की परछाइया ँ अलग-अलग तालाबों में एक ही दिखाई देती हैं वैसे ही सब घट में, घट माने सब शरीरों में एक ही वह ब्रह्मा की परछाइया ँ आ रही हैं। ऐसा समझाया जाता है। पहले भी सुना होगा और वह ी दिमाग में बैठा रहता है। उसको समझने के लि ए कि जो हमने बि ठा रखा है, दिमाग में कि वह सही है या गलत है और अगर आपके दिमाग में यह सब समझ में आएगा तो अपने आप समझ में आ जाएगा कि जो हमने अभी तक सोच रखा था , वह सही था या गलत था । यह ी अपने आप में सबसे बड़ा द्रव्य व्यवस्था का ज्ञा न है, तत्त्व का ज्ञा न है। इसी को हमने कहा था कि सबसे पहले द्रव्य पर विश्वा स करो। द्रव्य, गुण, पर्याय ों को जानने से सम्यग्दर्श न होता है। कैसे होगा? ऐसे द्रव्य, गुण, पर्याय ों को जानने से होगा। सत्! सत्! कहते हुए उस ब्रह्मा के अंश की तरह सबको एक मत मान लेना, ये सब भि न्न-भि न्न हैं लेकि न एक में भी अलग-अलग गुण हैं, अनेक गुण हैं और वे सब अपना अस्तित्व, अपना-अपना स्व भाव से अलग-अलग बनाए हुए हैं।
द्रव्य के एक भी गुण कोई अलग नहीं कर सकता
एक गुण भी द्रव्य से कोई अलग नहीं कर सकता, नष्ट नहीं कर सकता है। क्या समझ में आ रहा है? कभी आत्मा के अन्दर से ज्ञा न नि काल दिया जाए। मान लो असंख्या त प्रदेशी आत्मा है, एक point से बस ज्ञा न अलग कर दिया जाए। possible है? नहीं, यह बि ठा लो दिमाग में। तभी आपको आत्मा का ध्या न करते हुए आत्मा कुछ समझ में आएगी नहीं तो कुछ समझ में नहीं आयेगा। चेतना, आत्मा कहते हुए हमें ऐसा तो लगे मेरा आत्म द्रव्य, द्रव्य माने एक अलग पदार्थ है। जो हमें आँख बन्द करके भीतर से महसूस होता है। उस एक अलग पदार्थ को पहले हम पदार्थ के रूप में जान लेंगे और तब आँख बंद करोगे तो पूरा पदार्थ, पूरी चेतना, पूरा आत्म द्रव्य आपको शरीर के अन्दर महसूस होगा। कि ससे भरा हुआ? ज्ञा न शक्ति से, दर्श न शक्ति से, सुख से, अस्तित्व से, वस्तु त्व से, अनेक अनन्त गुणों से भरा हुआ, वह आत्म द्रव्य। उसी की पहचान करने के लि ए यहा ँ यह शब्द डालना पड़ा । ऐसा नहीं समझना कि गाथा पूरी नहीं हो रही थी तो लि ख दिया 'सासणं हि वीरस्स'। कई बार ऐसे भी कह देते है लोग गाथा पूर्ति र्ति करने के लि ए ऐसे शब्द डाल दिए जाते हैं। यह गाथा पूर्ति र्ति नहीं है। यह बताने के लि ए कि वीर भगवा न के शासन में ही ये चीजें हैं, ये इतना बारीकी का ज्ञा न है, अन्यत्र कहीं पर भी ये ज्ञा न आपको मि लने वा ला नहीं है। सबके पास जितना ज्ञा न मि लेगा बस वह उतना ही मि लेगा कि मनुष्य है, दुनिया में बहुत पशु हैं। जैसे कर्म करोगे वैसा फल मि लेगा। इसलि ए दया भाव रखो, क्ष मा भाव रखो और मानवता के अनुसार जीयो। इसके लि ए आप कहीं पर भी दूसरे धर्म में देख लो कोई दूसरी theory हो। बस इतनी सी theory है, सबके पास। द्रव्य, गुण, पर्याय तो कुछ है ही नहीं। आत्मा , परमात्मा तो कुछ है ही नहीं। तीन लोक की कोई व्यवस्था कुछ भी नहीं कही। फिर भी लोग पूछते हैं कि आप अपने भगवा न को ही तीर्थं कर कहते हो, सबको क्यों नहीं कहते हो? सबको तीर्थं कर क्यों नहीं मानते हो? तुम्हा रे पास बुद्धि तो हो कि हम क्यों नहीं मानते? और तुम क्यों मानते हो? तुम्हा रे पास तो बुद्धि की शून्यता है। तुम्हा रे पास तो परखने की, जानने की इतनी बुद्धि ही नहीं है कि हम क्यों नहीं मान रहे हैं और जब बुद्धि है, तो आप अपनी बुद्धि से उसको परखो, देखो। सर्वज्ञ ता की पहचान करने के कोई तरीके है या नहीं? यह तरीके हैं जो मैं आपको बता रहा हूँ। इसलि ए सब भगवा न एक जैसे, सब मन्दि र एक जैसे, सब तीर्थं कर एक जैसे। यहा ँ तीर्थं कर कहने से मतलब सबने अपने-अपने तीर्थं कर मान रखे हैं। सब तीर्थ एक जैसे, अलग-अलग क्यों करना। अरे! जब तुम्हा रे पास बुद्धि होगी तभी तो तुम समझोगे कि क्या तीर्थ होते हैं? क्या तीर्थं कर होते हैं? क्या भगवा न होते हैं? क्या तमाशे होते हैं? ये सब चीजें जब तक आप खुद नही समझोगे तब तक आप न दूसरों को समझा पाओगे, न आपके अन्दर दृढ़ विश्वा स कि सी चीज का आ पाएगा। आगे इसी बात को और विस्तारि त किया जा रहा है- देखो क्या कहते हैं।
होते प्रदेश अपने-अपने निरे हैं, पै वस् तु में, न बि खरे बि खरे पड़े ड़े हैं।
पर्या य-द्रव् य -गुण लक्ष ण से निरे हैं, पै वस् तु में, जि न कहे हे जग से परे हैं।।
अब उसी तद्भाव को, अतद्भाव को और बताने के लि ए आगे कहते हैं—