प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 14 जीवकी मनुष्यादि पर्यायो की क्रियाफलरूप
#8

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -13,14

सत्ता संबंध असत् भी सत् यदि तो खरभृंग बने ।
सतमें सत्तायोग क्या करें यों स्वभावसे सत्य सने
गुणगुणि एकप्रदेशता इसलिये वे भिन्न नहीं ।
गुणका क्षण और गुणी का और किन्तु यो अन्य सही ॥ ७ ॥

सारांश:- कुछ लोगों का विचार है कि सत्व सामान्य एक पृथक् चीज है और द्रव्य उससे भिन्न है। सत्व सामान्यके साथ संबंध होनेसे द्रव्य भी सत् कहा जाता है। इस पर ग्रंथकारका कहना है कि सत्ता सामान्यके साथ संबंध होनेसे पहिले द्रव्य स्वयं सत् है या असत् है?

यदि यह कहा जावे कि सत्व संबंधसे पहिले वह असत् ही होता है। तब जिसप्रकार सत्ताके साथ सम्बन्ध होनेसे द्रव्य असत्से सत् हो गया उसीप्रकार गधेके सींग भी उसी सत्तासे सम्बन्धित होकर सत् क्यों नहीं बन जाता है, उसे कौन रोकता है? क्योंकि दोनोंके ही स्वयं असत्यनेमें कोई भेद नहीं है। फिर सताका सम्बन्ध पृथिव्यादिके साथमें हो और खरविधा के साथमें न हो इसमें विशेष नियामक कौन है?

यदि पृथिव्यादि द्रव्योंको सत्ता सम्बन्धके पहिले भी सद्रूप ही मान लिया जाये तब वहाँ सत्ता सम्बन्ध होने का फल क्या शेष रह जाता है? कुछ भी नहीं। यही सर्वज्ञ श्री वीर भगवान्का कथन है कि जीवादिक सम्पूर्ण पदार्थ स्वयं सद्रूप हैं। ये सब गुणी हैं और इनका सत्व गुण है। जो भिन्न प्रदेशत्वके रूपमें इनसे कभी भी पृथक नहीं होता है किन्तु सर्वथा एकरूप ही होता है और उनसे किसी भी तरहसे भिन्न प्रतीत नहीं होता है, ऐसी बात भी नहीं है।

गुण और गुणीमें संज्ञा, संख्या, प्रयोजनादिसे भेद भी रहता ही है। जैसे वस्त्र और उसकी सफेदीमें होता है। वस्त्रकी सफेदी नेत्र इन्द्रियके द्वारा जानी जाती है, स्पर्शन आदिके द्वारा नहीं जानी जा सकती है किन्तु वस्त्रको जिसप्रकार हम लोग नेत्र इन्द्रियसे जान सकते हैं वैसे ही स्पर्शनादि इन्द्रियोंके द्वारा भी जान सकते हैं अतः मानना पड़ता है कि सफेदी वस्त्रसे भिन्न है।

इसीप्रकार सत्ता और द्रव्यमें भी अन्यपना है। सत्ता अपने आप में अन्यगुणसे रहित स्वयं गुणरूपसे आश्रित होकर रहनेवाली है किन्तु द्रव्य वस्तुत्वादि अनेक गुणोंका समुदायरूप गुणी होकर उस सत्ताका आश्रयभूत है। इसप्रकार सत्ता और द्रव्यके स्वरूपमें भेद है। ऐसा ही आगे और भी स्पष्टरूपसे बताते हैं
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