प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 15 नामकर्म जीव के स्वभाव का पराभव
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मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचन

द्रव्य-गुण-पर्याय का अस्तित्व है
अब इसमें और उसी चीज को और स्पष्ट किया गया है। क्या लि खते हैं? ‘सद्दव्वं ’ सत् क्या है? सत् द्रव्य है क्योंकि द्रव्य का अस्तित्व होता है कि नहीं होता है? द्रव्य कैसा है? सत् है। ‘सच्च गुणो’ और गुण भी सत् है क्योंकि गुणों का भी अस्तित्व है। समझ आ रहा है न? बातें केवल कल्पनाओं में ही नहीं चल रही हैं। दिखाई नहीं भी दे तो भी आपको अनुमान से, तर्क र्क से सब समझ में आएगा और यह वास्त विकता में है। इसलि ए यहा ँ पर कहा जा रहा है कि जैसे द्रव्य का अस्तित्व है वैसे ही गुणों का भी अस्तित्व है। वह भी सत् है और ‘सच्चेव य पज्जयो’ सत् ही पर्याय है। मतलब सत् कहा ँ-कहा ँ पर चल रहा है? कहा ँ-कहा ँ तक गया है? सत् का परि णमन कहा ँ-कहा ँ तक हो गया ? सत् द्रव्य भी है, सत् गुण भी है, सत् ही पर्याय में भी है। इसका मतलब यह नहीं समझना सत् द्रव्य हो गया । सत् तो गुण है लेकि न उस गुण का यह विस्ता र, ‘वि त्था रो’ माने विस्ता र। यह गुण कहा ँ-कहा ँ तक फैला है? यह सत् द्रव्य में भी फैला है, गुण में भी फैला है और पर्याय में भी फैला है। इसलि ए हमारे द्रव्य का भी अस्तित्व है, गुणों का भी अस्तित्व है और हमारी पर्याय का भी अस्तित्व है। आत्म द्रव्य का भी अस्तित्व है, आत्मा के ज्ञा न दर्श न आदि अनेक गुणों का भी अस्तित्व है और आत्मा की जो अनेक मति ज्ञा न आदि रूप पर्याय हैं उनका भी अस्तित्व है। मनुष्य आदि रूप जो पर्याय हैं उनका भी अस्तित्व है। ये सब पर्याय हैं। सब का क्या है? अस्तित्व है। सब सत् रूप है, माया चार नहीं है। माया नहीं है, भ्रम नहीं है। जगत को माया कहने वा लों ये सब क्या है? ये सब सत् है। जो सत् है वह सत्य है इसलि ए वो माया नहीं है। ये बड़े ड़े-बड़े ड़े भ्रम पड़े ड़े हैं हमारी बुद्धि के अन्दर तो वे इससे टूटते हैं।
एक दूसरे में एक दूसरे का अभाव अतद्भा व है


‘जो खलु तस्स अभावो’, ये सब सत् का क्या हो गया ? विस्ता र हो गया । सत् का विस्ता र यहा ँ तक चला गया । अब ‘जो खलु तस्स अभावो’ और उनके बीच में जो अभाव है, कि सका? जो द्रव्य है वह सत् नहीं, जो सत् है वह द्रव्य नहीं, जो द्रव्य है वह गुण नहीं, जो गुण है वह द्रव्य नहीं। यह क्या हो गया ? एक दूसरे में एक दूसरे का अभाव है। यह क्या कहलाएगा? यह तद अभाव कहलाय ेगा। इसी का नाम है, ‘अतब्भा वो’ माने अतद्भाव । यह क्या हो गया ? यह अतद्भाव हो गया । सत्, द्रव्य, गुण, पर्याय इन सब में क्या हो गया ? सत्! सत्! सत्! होते हुए भी जो सत् है वह द्रव्य नहीं, जो द्रव्य है वह सत् नहीं, जो गुण है वह द्रव्य नहीं, जो द्रव्य है वह गुण नही और इनमें जो एक दूसरे रूप होने का अभाव है, इसी का नाम ही अतद्भाव है। घूम तो नहीं रहे आप? चक्कर तो नहीं आने लगे? कई बार ऐसा ही हो जाता है। यह अतद्भाव है। इसके लि ए भी आचार्य समझाने के लि ए कहते हैं कि जैसे मान लो आप अपने गले में एक हा र पहने हुए हैं। हा र में क्या होता है? एक तो वह हा र है ही, पूरा खोल हा र हो गया । हा र के साथ में उसमें धागा हो गया जिससे वह हा र और उसके मोती पि रोए गए हैं। उस धागे के साथ में वह मोती है और मोती मान लो सफेद है और धागा भी मान लो सफेद है, तो पूरा का पूरा वह एक सफ़े फ़े द हा र हो गया । अब उस सफेद हा र में क्या देखो? एक तो सफेद हा र रूप पहले एक द्रव्य हो गया । अब उसी में जो डोरी है, वह उसका गुण हो गया । गुण मतलब हमेशा पूरे द्रव्य के साथ रहेंगे और एक-एक मोती जो है वह उसकी पर्याय हो गयी। अब हमने कहा जो हा र द्रव्य है, वह ी सत् रूप है। जो उस हा र में सफेदी गुण है, शुक्लत्व है, वह भी सत् रूप है। जो उस हा र की मोती रूप पर्याय है, वह भी सत् रूप है। यह तो सत् के साथ हो गया । अब इसी को देखो अब हम शुल्क त्व के साथ घटित करे। क्या समझ आ रहा है? जो सफेदी है वह ी हा र द्रव्य है, वह ी डोर है और वह ी उसकी पर्याय मोती है। जो सफेदी है, वह ी सफेदी ही हा र है। ऐसे बोलते हो न आप कि सफेद हा र है। सफेदी ही उसके गुण हो गए और सफेदी ही उसकी पर्याय रूप मोती हो गयी। फिर हमने कहा जो सफेदी है वह हा र नहीं है, जो सफेदी है, वह डोर नहीं है। क्योंकि सफेदी कहीं और भी है और जो मोती है वह ी सफेदी नहीं है क्योंकि सफेद मोती के अलावा भी कहीं और भी है। तो क्या हो गया ? सब अलग-अलग हो गए। पहले क्या बोला था ? सब एक हो रहे थे। घूम तो नहीं गए! इसी का नाम अनेकान्त दर्श न है। जिस चीज में हम एकपने का भाव लाते हैं वह कि स अपेक्षा से? पूरा का पूरा द्रव्य एक अपने आप में एक आधारभूत है इसलि ए वह एक है। भई! सफेद हा र ले आना तो वह सफेद मोतीयों वा ला, सफेद डोरे में पीरा हुआ, हा र लेकर आएगा। सफेद कहने से पूरा हा र आ गया । द्रव्य भी आ गए, गुण भी आ गए, पर्याय भी आ गयी। फिर उससे कहा कि जो सफेद है, वह ी मोती नहीं है। जो सफेदी है वह ी उसका केवल मात्र गुण नहीं है और भी गुण हैं उसमें। वह ी द्रव्य नहीं है, द्रव्य और भी हैं। ये जो सफेदी के साथ उसकी भि न्नता हो गई यह ी उसका अतद्भाव बताने वा ला भाव हो गया ।

द्रव्य गुण पर्याय का परिणमन और स्वभाव अलग-अलग है पर एक ही द्रव्य के आश्रि त
जब हमारे अन्दर यह ज्ञा न आ जाता है कि गुण का परि णमन अलग है, द्रव्य का अलग है, पर्याय ें अलग स्व भाव वा ली हैं तो हमारे लि ए द्रव्य, गुण, पर्याय ये सब अलग-अलग समझ में आने लग जाते हैं लेकि न रहेंगे सब एक ही द्रव्य के आश्रि त। समझ आ रहा है? आज का प्रवचन, आज का व्याख्या न थोड़ा कठि न तो हुआ है। बहुत कठि न हो गया ! लेकि न समझने योग्य तो है। आखि र आप इतने बड़े ड़े-बड़े computers में अपनी आँखें गड़ा गड़ा कर अपनी आँखे खराब करते हो और उससे भी जो knowledge मि लती है वह कहीं पर भी कुछ काम नही आती है। अगर थोड़ा सा भी अपने दिमाग में ताकत लगाकर थोड़ा सा ज़्या दा बादाम खाकर भी अगर आपको थोड़ा सा दिमाग की या ददाश्त बढ़ा नी पड़े ड़े तो बढ़ा लेनी चाहि ए लेकि न यह ज्ञा न भी सीखना तो चाहि ए। हम इन चीजों को सीखतें ही नहीं कभी, बि लकुल हवा में उड़ा देते हैं। कोई भी तत्त्व ज्ञा न बारीकी से समझना, आचार्यों ने क्या कहा है उसको ही बताना, उसको ही पढ़ ना, उसको ही पढ़ा ना, उन्हीं शब्दावलि यों का उपयोग करना, यह जब तक नहीं आएगा तब तक आखि र जिन धर्म की, जिनवा णी की प्रभाव ना आगे बढ़े ढ़ेगी कैसे? बस कहा नी कि स्सों में उलझे रहोगे तुम लोग। यह धर्म की प्रभाव ना तो जिनवा णी की प्रभाव ना से ही आगे बढ़ ती है और जब इस तरह से अपने दिमाग में एक बार बैठ जाता है, तो सब चीजें अपने आप समझ में आने लग जाती हैं कि भगवा न कौन, क्यों , कैसे, कहा ँ, कब, ये सब चीजें समझ में आ जाएँगी। अब आत्म द्रव्य ही है, हमने जब उस आत्म द्रव्य के गुणों का परि णमन होना इस रूप में करा लिया कि वह आत्मा के अन्दर का जो ज्ञा न गुण है। कोई नया गुण नहीं आ गया । आत्मा के अन्दर का जो ज्ञा न गुण है, अभी कि स रूप में है? अभी मति ज्ञा न की पर्याय है, श्रुतज्ञा न की पर्याय है। ये उस ज्ञा न गुण की पर्याय है, मति ज्ञा न, श्रुतज्ञा न के रूप में। अब ये सभी पर्याय छूटकर वह ी आत्मा का ज्ञा न रूप गुण केवलज्ञा न की पर्याय के साथ में प्रकट हो जाता है, तो वह ी आत्मा जो पहले था , वह ी जो सत् था , वह ी अब उसी द्रव्य में उसी गुणों के साथ और उसी पर्याय ों के साथ सत् रूप बना रहता है। सि द्ध बन गए तो क्या बन गया ? कोई नया आत्मा आ गया क्या ? द्रव्य नया आ गया क्या ? गुण नए आ गए क्या ? क्या आया ? द्रव्य का एक समूचा परि णमन इस रूप में हुआ कि वे अगर पर्याय की अपेक्षा से देखे तो कहेंगे नया आ गया । कि सकी अपेक्षा से? पर्याय की अपेक्षा से। जैसे आप बैठे हो इस मनुष्य की पर्याय को लि ए हुए। अभी आप बिल्कु बिल्कु ल simple से कपड़े ड़े पहने बैठे हो और अगर आपको शाम को कि सी पार्टी में जाना है, तो यह कुर्ता -पजामा पहनकर तो नहीं जाओगे। तो फिर क्या करोगे? आप बिल्कु बिल्कु ल अच्छे-खासे वस्त्र पहनकर सज-धज कर जब आप जाओगे सामने तो कैसा लगेगा? नया आदमी आ गया ? क्या बदल गया ? उस पर्याय के बदलने से पूरा समूचा द्रव्य जो है, नया कहलाने लग जाता है, नया बदल गया । आत्मा वह ी रहती है सि द्ध अवस्था में भी तभी हमारे अन्दर ज्ञा न आएगा कि हमें अपनी आत्मा को सि द्धत्व तक ले जाना है। तो क्या करना है? आत्मा तो यह ी रहेगी, सत् द्रव्य यह ी रहेगा, सत् गुण यह ी रहेगा, द्रव्य यह ी रहेगा लेकि न उसके गुण जो अभी अशुद्ध हो रहे हैं तो वे सब कैसे हो जाएँगे? शुद्ध। जब सब गुण शुद्ध हो गए तो उनकी जो पर्याय नि कलेगी वे सब शुद्ध हो जाएगी और गुण और पर्याय शुद्ध है, तो द्रव्य तो अपने आप शुद्ध कहलाएगा ही। ऐसा नहीं कि द्रव्य हमारा शुद्ध है, गुण भी हमारे शुद्ध है और लोग कहते हैं कि केवल पर्याय अशुद्ध है। समझ आ रहा है न? पर्याय की अशुद्धि कहा ँ से आएगी? जब गुण अशुद्ध होंगे तो ही अशुद्ध पर्याय होगी। द्रव्य अशुद्ध होगा, कपड़ा मैला होगा तो कपड़े ड़े को मैला ही कहा जाएगा न। केवल मैला-मैला है, कपड़ा -कपड़ा है। पूरा कपड़ा ही तो मैला हुआ। उसकी सफेदी मैली हुई कि नहीं, उसका सफेदीपन, शुक्लत्व गुण जो मैले रूप में परिवर्ति रिवर्तित हुआ कि नहीं, उसका गुण भी बदला कि नहीं।
गुण शुद्ध तो पर्या य भी शुद्ध , द्रव्य भी शुद्ध
गुण के बदलने पर, पर्याय ों के बदलने पर ही तो द्रव्य का परिवर्त न कहलाया । द्रव्य, गुण और पर्याय ों के अनुसार ही कहा जाता है। अगर गुण अशुद्ध हैं तो द्रव्य अशुद्ध है, द्रव्य अशुद्ध है, तो गुण भी अशुद्ध हैं। गुण अशुद्ध हैं तो उसकी पर्याय अशुद्ध है। पर्याय ें अशुद्ध हैं तो गुण अशुद्ध हैं, द्रव्य अशुद्ध है और ये सब शुद्ध हो गई, पर्याय शुद्ध है मतलब उसका गुण भी शुद्ध हो गया , उसका द्रव्य भी शुद्ध हो गया । सि द्धत्व में और कुछ नहीं होता, बस क्या हो जाता है? सब कुछ शुद्ध-शुद्ध हो जाता है। आज आपकी जो यह सोला शुद्धि है, ये शरीर की सोला शुद्धि कहा ँ तक पहुँ चती है? ये आत्मा तक पहुँ चती है, आत्मा को शुद्ध करती है और ये ही शुद्धि शुद्ध करते-करते एकदम पूर्ण तया शुद्ध हो जाता है, तो वह ी शुद्ध आत्मा बन जाता है। समझ आ रहा है न? ये सब शुद्धि कि सलि ए है? धीरे-धीरे अपनी आत्मा को शुद्ध करने के लि ए ही है। आप अपनी श्राव क की अवस्था में, अपनी आत्मा को शुद्ध कि स रूप में कर पाएँगे? इसी शुद्धि के माध्य म से। भाव शुद्धि , द्रव्य शुद्धि , वस्त्र शुद्धि , क्षेत्र शुद्धि , काल शुद्धि ये सब शुद्धिय ो को ध्या न में रखोगे तो थोड़ी आत्मा में शुद्धता आएगी और वह ी शुद्धता बढ़ ती-बढ़ ती जब पर द्रव्य के आश्रय बि ना केवल आत्म द्रव्य के आश्रय से शुद्धता रह जाएगी तो वह सि द्ध दशा की शुद्धता कहलाय गी। सि द्ध दशा में कुछ और नया नहीं हो जाता। क्या हो गया ? वह ी आत्मा जो अशुद्ध अवस्था में था वह शुद्ध हो गया । जो लोहे की तरह जंग खाया हुआ पड़ा था , वह पारस की तरह एक बहुमूल्य धातु बन गया और वह सबके काम में आने लग गया । ठीक है! इतना ही विस्ता र बहुत है। इस गाथा का अर्थ पढ़ ते हैं:-

“पर्या य द्रव्य गुण ये सब सत् सुधारे, विस्ता र सत् समय का गुरु यों पुकारे।
सत्तादि का रहत आपस में अभाव, सो ही रहा समझ मिश्र अतत् स्वभाव”।।
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