11-13-2022, 02:27 PM
द्रव्य और गुण का सम्बन्ध
यहाँ पर द्रव्य और गुण के बीच जो सम्बन्ध है उसके बारे में बताया जा रहा है। कैसा सम्बन्ध होता है, कैसा नहीं होता है? पि छली गाथा में भी इसकी चर्चा की थी। एक पृथकत्व भाव है और एक अन्यत्व भाव है। इन दोनों के बीच में अन्तर को समझने की कोशि श की थी। उसी को पुनः एक निष्कर्ष के रूप में यहा ँ पर सामने रखते हुए कहा जा रहा है-”जं दव्वं ” जो द्रव्य है, “तण्ण गुणो” वह गुण नहीं है। जो द्रव्य है वह क्या है? गुण नहीं है। यहा ँ अत्यन्त स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हम द्रव्य को गुण नहीं कहते हैं और “जो वि गुणो स ण तच्चं” जो गुण है वह द्रव्य नहीं है। ‘अत्था दो’ अर्था त् अर्थ से, अर्थ माने वास्त विकता से या परि भाषा से द्रव्य को गुण नहीं कहा जाता और गुण को द्रव्य नहीं कहा जाता है। यह हमने अच्छी तरह से समझ लिया है कि द्रव्य सभी गुणों को आश्रय देने वा ला है और गुण उसके आश्रय से रहने वा ले हैं। द्रव्य एक होता है, गुण अनेक होते हैं। द्रव्य कि सी भी पदार्थ का विशेष्य कहलाता है और गुण उसके विशेषण कहलाते हैं। इस तरह से हम देखते हैं तो द्रव्य और गुणों में हमें बहुत बड़ा अन्तर समझ में आता है क्योंकि जो एक है वह अनेक के साथ एकता नहीं रख सकता। द्रव्य एक है और गुण अनेक हैं। जो एक स्व भाव वा ला है वह अनेक स्व भाव वा लों से अपना सम्बन्ध, एकता, सर्वथा नहीं रख सकता। द्रव्य गुणों को धारण करने वा ला है, आधार है लेकि न एक गुण कि सी भी अन्य गुण को धारण नहीं करता।
गुण निर्गु ण होता है
यह भी पि छली गाथा में बताया था क्योंकि गुण निर्गु ण होता है। गुणों में कोई दूसरा गुण नहीं होता सब जो हम समझ रहे हैं कि द्रव्य गुणों के साथ रहते हैं, गुण द्रव्य के साथ रहते हैं और द्रव्य और गुणों का एक ही प्रदेशों पर, एक ही स्था न पर रहना होता है। उनमें प्रदेश भेद नहीं है क्योंकि प्रदेश भेद हो जाय ेगा तो क्या हो जाएगा? वह पृथक्त्व हो जाएगा। जिसमें प्रदेश भेद पाया जाता है वह क्या हो जाता है? वह पृथक्त्व लक्ष ण वा ली भि न्नता हो जाती है। वह न हो कर उनमें क्या भि न्नता है? वह उसी एक क्षेत्र में, उसी एक क्षेत्रव गाह में, द्रव्य और गुण दोनों एक साथ रहते हैं इसलि ए “एसो अतब्भा वो” यह ी उनका अतद्भाव है। इसको क्या कहा ? अतद्भाव भाव ।
अतद्भा व
अतद्भाव का मतलब तद् भाव नहीं होना माने उस रूप नहीं होना। द्रव्य का गुण रूप नहीं होना और गुणों का द्रव्य रूप नहीं होना। इससे यह समझाया जा रहा है कि द्रव्य में और गुणों में अन्तर जानना और गुण की परि भाषा के माध्य म से यह भी जानना कि गुण कभी द्रव्य नहीं हो जाता है और द्रव्य कभी गुण नहीं हो जाता। “णेव अभावो त् ति णिद्दिट्ठो ” फिर कहते हैं यह अभाव नहीं समझना “णिद्दिट्ठो ” यानि यह अभाव निर्दि निर्दि ष्ट नहीं किया है अर्था त् नहीं कहा है। मतलब कि द्रव्य में गुण का अभाव और गुण में द्रव्य का अभाव नहीं है। जो अभाव एक दूसरे के सर्वथा नहीं होने रूप होता है वैसा अभाव नहीं है। किन्तु यह अभाव कैसा है? एक का दूसरे रूप नहीं होना। एक गुण कभी दूसरे गुण के रूप नहीं होगा, यह ी उसका एक दूसरे में अभाव है। इसी को अतद्भाव कहते हैं। आत्मा का ज्ञा न गुण और आत्मा का दर्श न गुण।
अब समझने की कोशि श करो। आत्मा का ज्ञा न गुण कभी दर्श न गुण रूप नहीं होगा और आत्मा का दर्श न गुण कभी भी ज्ञा न गुण रुप नहीं होगा। समझ आ रहा है? एक गुण में भी दूसरे गुण का अभाव रहता है और द्रव्य में भी गुण के स्व भाव का अभाव रहता है। आत्मा ज्ञा न ही नहीं है। क्या समझ आ रहा है? आत्मा ज्ञा न ही नहीं है, आत्मा ज्ञा न के अलावा भी बहुत कुछ है क्योंकि अगर आत्मा को ज्ञा न ही मान लेंगे तो फिर आत्मा में एक ही गुण हो जाएगा। आत्मा ज्ञा न गुण वा ला है लेकि न आत्मा में ज्ञा न के अलावा और अनेक अनन्त गुण भी हैं। आत्मा कभी ज्ञा न रूप नहीं हो गया , ज्ञा न कभी आत्मा रूप नहीं हो गया । इससे यह भी समझ सकते हैं कि द्रव्य कभी गुण रूप नहीं होता है और गुण कभी द्रव्य रूप नहीं होते। आत्मा केवल ज्ञा न रूप नहीं है, आत्मा अन्य अनेक रूपों में भी है। आत्मा का ज्ञा न रूप नहीं होना माने आत्मा - आत्मा रहेगा, ज्ञा न- ज्ञा न रहेगा। यदि आत्मा ही ज्ञा न हो गया फिर दूसरा कोई गुण आत्मा में हो ही नहीं सकता है। इसलि ए आत्मा को ज्ञा न का अभाव और ज्ञा न को आत्मा के अभाव के साथ जानना, इसको कहते हैं- अतद्भाव । क्या बोला इसको? अतद्भाव । इसको जानने का प्रयोजन यह है कि जो हमारी आत्मा का ज्ञा न, दर्श न स्व भाव आदि अनेक गुणों के रूप में हमें महसूस होता है, उस स्व भाव को और स्व भाव को धारण करने वा ले द्रव्य को हम अलग-अलग शब्दों से परि भाषि त कर सके। ये वस्तु एँ एक रूप नहीं है, एक तरह से ऐसा बताने के लि ए इस गाथा का यहा ँ पर अवतरण हुआ है।
आत्मा और गुण का भिन्नपना
यह गाथा क्या बता रही है हमको? द्रव्य कभी भी गुण रूप नहीं होता और गुण कभी भी द्रव्य रूप नहीं होता। द्रव्य और गुण में सम्बन्ध भी है, एकपना भी है, एक क्षेत्र में रहना भी होता है लेकि न फिर भी सबका स्व भाव अपना-अपना, अलग-अलग बना रहता है। अब आप भी विचार कर सकते हैं कि द्रव्य और गुण ये एक क्षेत्राव गाह ी वस्तु एँ हैं, एक ही स्था न में रहने वा ली परि णतिया ँ हैं। इनमें भी जब एक-दूसरे रूप नहीं हो रहा है और कि सी का भी अभाव नहीं हो रहा है, तो दो द्रव्य जो एक साथ रहते हैं, वे कैसे एक दूसरे रूप हो सकते हैं? दो द्रव्यों का भि न्न-भि न्न रहना, यह पृथक्त्व लक्ष ण वा ला भि न्नपना कभी भी एक रूप नहीं हो सकता है। जब हमारी दृष्टि में इस तरह का भाव आने लग जाता है तब हम प्रत्ये क द्रव्य को अपने से भि न्न-भि न्न महसूस करने लग जाते हैं।
एकत्व: अन्यत्व
आपने बारह भाव नाओं में दो भाव नाएँ पढ़ी होंगी- एक भाव ना कहलाती है- एकत्व भाव ना और एक कहलाती है- अन्यत्व भाव ना। एकत्व भाव ना का मतलब मैं एक हूँ, एक पने की भाव ना करना, मैं अनेक नहीं हूँ, मैं एक हूँ। एकपने की भाव ना करना यह कहलाती है- एकत्व भाव ना। मेरे साथ जुड़ी हुई कुछ भी वस्तु एँ हैं वह सब मुझ से अन्य हैं, यह भाव ना करना कहलाती है- अन्यत्व भाव ना। ज्या दा अन्तर आपको समझ नहीं आएगा लेकि न दोनों भाव नाओं में अन्तर है। बात वह ी है, जहा ँ एक है वहा ँ पर अनेकपना नहीं तो जहा ँ एक है, वहा ँ अन्य सब चीज छूट गई लेकि न वह हमारी दृष्टि की बात है कि हमारी दृष्टि कहा ँ है। जब हमारी दृष्टि एक पर होगी तो हमारे अन्दर एकत्व भाव ना होगी और जब हमारी दृष्टि में इतनी वस्तु एँ जो हमारे सामने है वह सब हमें सामने होते हुए भी अन्य-अन्य रूप में दिखाई देंगे, यह हम से अन्य यानि भि न्न है, तो इसे कहेंगे- अन्यत्व भाव ना।
अब देखो! यहा ँ पर आया हुआ उसमें जो अन्यत्व शब्द है और पि छली गाथा में जो अन्यत्व शब्द आया था , उसमें बड़ा अन्तर है। यहा ँ गाथा में जो अन्यत्व रूप भि न्नता बताई जा रही है, जिसे हमने कल बताया था , वह difference होते हुए भी वह identity का difference है, difference of identity। यहा ँ पर अन्यत्व को अलग रूप में प्रयोग किया है। अन्यत्व का मतलब यहा ँ पर द्रव्य में गुण का अभाव , गुण में द्रव्य का अभाव , यह वह अन्यत्व है। लेकि न व्यवहा र की भाषा में जो अन्यत्व भाव ना में हम पढ़ ते हैं उस अन्यत्व भाव ना में क्या आ जाता है? जो कोई भी द्रव्य हैं, वह पृथक रूप हैं, उस पृथक्त्व को भी हम अन्यत्व रूप में स्वी कार करेंगे। वे सब हमसे seperate-seperate हैं। यह ी हमारे अन्दर का जो भाव है- उसको अन्यत्व भाव के रूप से कहा जाता है। एकत्व भाव का अभाव होने पर जब हमारी दृष्टि में अन्य आए तो उसमें भी हमारे अन्दर अन्यत्व की भाव ना बनी रहे। क्या मतलब हुआ? एकत्व का अभाव होने पर मतलब यह है कि जब आप अपनी आत्मा में एकपने की भाव ना कर रहे हैं कि मैं एक हूँ, मैं एक हूँ तो आपके अन्दर में वह एकत्व भाव बना हुआ है। पर जब आपने उस एकत्व का अभाव कर दिया यानि अपनी आत्मा की भाव ना छोड़ दिया तो क्या होगा आपके सामने? अन्य-अन्य लोग आ जाएँगे आपके साथ । फिर क्या करोगे? जब अन्य लोग आपके सामने आएँगे तो अन्य के साथ आपका एकत्व फिर स्थापि त होगा। अभी तक आपका एकत्व कहा ँ स्थापि त हो रहा था ? अपने आप में। जब आप आत्मा की भाव ना करोगे तो अपने आप में एकत्व स्थापि त होता है और जब हम इस भाव ना को छोड़ कर बाह र आते हैं तो फिर हमारा अन्य के साथ में एकत्व होने लग जाता है। क्या समझ आ रहा है? अन्य के साथ एकत्व होने का मतलब होता है मोह के कारण से अन्य को एक रूप मानना। कि स कारण से? मोह के कारण से। आचार्य कहते हैं कि हम उस समय पर भी अपने आप को सुरक्षि त रख सकते हैं यदि हम अन्यत्व की भाव ना बना कर रखें। आप सब के बीच रह कर भी कैसे अपने आप को भि न्न रख सकते हैं? अन्यत्व की भाव ना से। यह भि न्न है, यह भि न्न है, यह भि न्न है। समझ आ रहा है? इसका स्व रुप हमारे स्व रुप से भि न्न है। अन्यत्व की भाव ना दृढ़ होने पर आपके बाह र जितनी भी वस्तु एँ होंगी उन सबसे आप मोह को प्राप्त नहीं होंगे, उनसे आपका मोह के कारण से एकत्व नहीं होगा। जब मोह नहीं होगा तो फिर आपका अपने एकत्व भाव में, एकाकी के भाव में आपका मन लग जाएगा। समझ आ रहा है?
एकाकीपन: अकेलापन
एक होता है- एकाकीपन और एक होता है- अकेलापन। इन दोनों में कुछ अन्तर आपको समझ आता है कि नहीं आता है? एकत्व भाव ना करने के लि ए आचार्यों ने कहा है। एकत्व भाव ना का मतलब मैं एकाकी हूँ, मैं एक हूँ, एक स्व रूप हूँ। यह भाव ना करने में आपको कहीं कोई कठि नाई नहीं होगी और इस भाव ना में आपके अन्दर कि सी भी तरीके से खेद-खि न्नता नहीं आएगी लेकि न जिसे आप अकेलापन कहते हो वो अकेलापन आपके लि ए खेद-खि न्नता लाता है। इस अकेलेपन में आपको बोरिय त होती है। अकेलेपन में आपको कि सी का साथ चाहि ए होता है। अकेलापन होगा तो आप इसे भरने की कोशि श करेंगे कि मेरे भीतर का अकेलापन कोई दूर कर दे। कोई हमारा अकेलापन दूर कर दे। हमारा अकेलापन कोई भर दे। इसअकेलेपन में हमेशा आपको अधूरापन महसूस होगा। यह क्या है? अधूरापन। इसको हम अलग-अलग शब्दों में समझें तो इसको कहते हैं- loneliness। क्या कहते हैं अकेलेपन को? loneliness।
एकाकी रहो: अकेले नहीं
जबकि आचार्यों ने यह नहीं कहा कि आप अकेले रहो। क्या बोला? आप एकाकी रहो। एकत्व भाव ना का जिक्र किया है और अध्या त्म ग्र न्थों में जब भी आत्मा की भाव ना की गई वहा ँ पर एक: शब्द का प्रयोग किया गया । “एगो मे सासदो आदा” मेरा आत्मा एक है, शाश्वत है। एक आत्मा की तरफ आप अपना भाव ले जाओगे तो आप में अधूरापन नहीं रहेगा, आप पूर्ण ता की ओर जाओगे। जब आप अकेलापन महसूस करोगे तो आप में अधूरापन होगा, आप कि सी का साथ चाह ोगे। यदि आपका साथ कि सी से छूट गया है, तो फिर आप एक नया साथ फिर बनाने की इच्छा करोगे। Friend, relation जब कि सी भी तरीके के टूटते हैं तो खेद होता है। फिर एक friend छूट गया । उसकी खेद-खि न्नता हो गई तो फिर चलो कोई बात नहीं; मैं दूसरा बना लूँगा। एक relation था वह टूट गया ; चलो कोई बात नहीं। तुम ही एक नहीं हो जमाने में; मैं दूसरे से सम्बन्ध बना लूँगा। यह हम कि स दौड़ में होते हैं? अपने अकेलेपन को हम समझ नहीं पाते हैं, इस अकेलेपन के भाव को समझ नहीं पाते हैं तो हम अपने अकेलेपन को दूर करने के लि ए एक नया मित्र , एक नया सम्बन्धी , कोई न कोई बनाने के लि ए हमेशा लालायि त रहते हैं लेकि न कि सी के भी साथ हो जाने पर आपका वह अकेलेपन का भाव कभी भी भर नहीं सकता है। इसे भाव कहें कि घाव कहें? अकेलापन होना हमारे हृदय का एक घाव है (loneliness is a wound of our heart)। जहा ँ पर हमारे अन्दर अकेलापन आएगा वहा ँ पर हमारे अन्दर एक घाव होगा यानि हम उसे दूसरे के माध्य म से भरना चाह ेंगे लेकि न वह कभी भी भर नहीं पाता है। थोड़ी देर के लि ए आपको लगता है कि कि सी ने मेरा साथ दिया या कोई मेरे साथ हो गया और मेरे लि ए थोड़ी सी उसमें राह त मि ल गई और थोड़ी सी राह त मि लने के बाद में आपके अन्दर कि सी न कि सी घटना से आपको फिर यह महसूस होने लग जाता है कि नहीं यह अकेलेपन का भाव बहुत देर तक जाता नहीं है। यह वह ीं का वह ीं बना रहता है। समझ आ रहा है? दुनिया के अकेलेपन का भाव और अध्या त्म के एकाकीपन का भाव , इस में बहुत बड़ा अन्तर है।
आधी छोड़ पूरी को धाए
दुनिया में हर आदमी अकेलेपन को दूर करना चाह रहा है। loneliness उसे सहन नहीं होती है, जिसे हम अकेलापन कहते हैं। उसे दूर करने के लि ए वह कि सी न कि सी से कुछ न कुछ familiar होता है, परि चित होता है। उसके माध्य म से वह अपने अकेलेपन के भाव को, घाव को दूर करने की कोशि श करता है। यह अज्ञा नता है। इसको आचार्यों ने क्या कहा है? यह एक बहुत बड़ी , एक अलग type की अज्ञा नता है। इस अज्ञा नता के भाव में कभी भी उसको कभी भी सन्तुष्टि नहीं मि लती है। जैसे बोलते हैं न “आधी छोड़ पूरी को धाए” वह ी स्थिति उसकी चलती रहती है क्योंकि अकेलेपन का भाव हमेशा उसको खटकता रहता है और उसी भाव के कारण उसके मन में कुछ अगर साथ में हो भी जाता है, तो भी वह सोचता है कि यह साथ भी कब तक रहेगा। समझ आ रहा है? यदि कोई साथ भी हो तो थोड़ी देर के लि ए तो आप भूल जाओगे लेकि न फिर भी आपके मन में एक भय भीतर पड़ा रहता है कि यह साथ भी कब तक रहेगा। आज के लोग तो साथ ी बनाने के बाद भी यह सोचते ही रहते हैं कि यह साथ कब छोड़ ना है और यह साथ कब तक रहना है और उनका दूसरा साथ ी बनाने के ऊपर दृष्टि रहती है। एक साथ पूरा चल नहीं पाता है। यह सब क्या है? यह भीतर के अकेलेपन का एक बहुत बड़ा परि णाम है, जिस परि णाम को यदि हम भर सकते हैं, जिस घाव को यदि हम भर सकते हैं तो उसका मल्हम एक ही है कि हम एकत्व भाव ना का चिन्तन करें। क्या करें? हा ँ! यह अकेलापन और कोई नहीं भर सकता। यह है- aloneness। इसको क्या बोलते हैं? एकाकी का मतलब क्या हो गया है? alone, I am alone। अकेलेपन का मतलब क्या हो गया ? loneliness। जितने भी lawn मि लेंगे आपको, यह lawn भी क्या है? यहा ँ पर भी लोग आपको घूमते हुए मि लते हैं न, एक दूसरे के साथ बैठे हुए मि लते हैं न, यह क्या है ? यह सब अपने अकेलेपन को भर रहे हैं। एक-दूसरे के माध्य म से अपने अकेलेपन के भाव को दूर करने की कोशि श कर रहे हैं। क्या उनकी यह कोशि श सही है? fundamentally यह सही नहीं है। अर्थ माने धार्मि ार्मिक दृष्टि कोण से या वास्त विक दृष्टि कोण से, तत्त्व की दृष्टि से हम देखे तो यह अकेलेपन को दूर करने का कोई उपाय है ही नहीं। अकेलेपन को दूर करने के लि ए व्यक्ति एक रि श्ता तोड़ कर दूसरा रि श्ता बना लेता है। एक को छोड़ कर दूसरे के साथ होने की कोशि श करता है लेकि न आचार्य कहते हैं इससे कभी भी तुम्हा रे अन्दर एकत्वपने का भाव नहीं आयेगा और अकेलेपन का भाव कभी दूर होगा नहीं। अतः एकत्वपने के भाव में क्या है? वह उस समय पर अपने आपको एकाकी मानेगा तो एकाकी मानने का मतलब है कि वह अपने आप में self centered हो रहा है। वह कहा ँ आ रहा है? अपने centre की ओर आ रहा है, जिसे कहते हैं- द्रव्य। उसको यहा ँ क्या कहा जा रहा है? द्रव्य। द्रव्य का मतलब ही है- तत्त्व । जो यहा ँ पर तत्त्व शब्द से define किया है “जो णो वि गुणो सो ण तच्चं” जो गुण नहीं है वह तत्त्व नहीं है। तत्त्व माने द्रव्य नहीं। अतः द्रव्य का मतलब क्या है? तत्त्व ।
द्रव्य और पर्या य
तत्त्व का मतलब ही होता है अपना भाव , अपना द्रव्य और द्रव्य माने अपना जिससे सम्बन्ध है, वह centre point। वह क्या है? वह द्रव्य है। उसी द्रव्य के चारों ओर सभी गुण रह रहे हैं, उसी द्रव्य में सभी गुणों का वा स हो रहा है। समझ आ रहा है? उस गुण की, उन गुणों की जो अनेक प्रकार की परि णतिया ँ हो रही हैं, यह उसकी पर्याय है। एक तरह से हम समझें कि पर्याय हमारे लि ए परिधि के रूप में है जो चारों ओर हमें दिखाई देती हैं। केन्द्र हमारा द्रव्य है। सुन रहे हो? उस द्रव्य को परीधि से मि लाने वा ली जो रेखाएँ हैं, वह सब हमारे गुण हैं, जो हमारे उस केन्द्र के साथ और उस circle के साथ में हमेशा बने रहने वा ले हैं। हम हमेशा कहा ँ घूमते हैं? परिधि पर घूमते हैं। पर्याय ों में घूमते हैं। हम न तो कभी गुणों की ओर आ पाते हैं, न कभी द्रव्य की ओर आ पाते हैं। जब तक हम गुणों की ओर नहीं आएँगे तो द्रव्य की ओर आना तो कभी सम्भव ही नहीं हो पाएगा। जब हम परिधि से हट कर, पर्याय से हटकर द्रव्य की ओर आएँगे उस समय पर हमें अपना पूरा का पूरा भरा हुआ भाव दिखाई देगा। परिधि पर घूम रहे हो तो आपको वहा ँ पर पूरा का पूरा खालीपन दिखाई दे रहा है क्योंकि आप की भीतर दृष्टि नहीं रही। बाह र की ओर देखोगे तो बाह र तो नि तान्त एक अन्धकार है, समझ लो। उसमें ही आप डोलने की इच्छा कर रहे हैं। उसी में आप अपने साथ ी बनाना चाह रहे हैं, उसी में आप अपना अकेलापन भरना चाह रहे हो लेकि न आपको यह पता नहीं है कि हमारी यह दौड़ हमें थकाने वा ली है। परिधि के बाह र जितना जाने की कोशि श करोगे उतना परेशान होंगे, भटकोगे। जितना परिधि से केन्द्र की ओर आने की कोशि श करोगे तो क्या होगा? अपने में आओगे। अपने में आओगे तो आप को सुख मि लेगा, शान्ति मि लेगी। आप एकत्व की ओर आओगे। इसी का मतलब है हम अब अपने जो centre था एक था , गुण तो अनेक हैं। जो पूरे ३६० degree के angle बनेंगे, वह सब क्या हो गए? गुण। वह एक-एक लाइन जो केन्द्र से परिधि की ओर जा रही है, वह सब क्या हो गए? गुण। गुण तो अनेक हैं लेकि न द्रव्य, centre point एक ही है। उन सब गुणों का समूह और उन सब गुणों का परि णमन हमें एक पर्याय के रूप में बाह र दिखाई देता है। हमारी दृष्टि केवल पर्याय पर रहती है। हम कभी भी अपने तत्त्व , अपने द्रव्य की ओर नहीं आ पाते क्योंकि एकत्व का भाव हमारे अन्दर नहीं आता। एकत्व भाव ना आए बि ना आप कभी भी अपने द्रव्य की ओर नहीं आ पाएँगे। अब देखो, अभी भी आपका अपने द्रव्य में समाना नहीं हुआ। एकत्व भाव ना अलग है और एक शुद्ध आत्मा की भाव ना करना अलग है। इसमें बड़ा अन्तर है। एकत्व भाव ना तो इसलि ए है कि पहले आप जो परिधि पर घूम-घूम कर थक गये हो उस थकान को मि टाने के लि ए पहले आप यह सोचे कि यह सब कुछ आपका था नहीं, है नहीं और उससे जब तक आप विराम नहीं लोगे तब तक आपको कभी सुख मि लेगा नहीं। अन्यत्व भाव ना करके इन सब को, परिधि के बाह र जो वस्तु एँ हैं, उन सब को अन्य समझ कर के अपने केन्द्र की ओर आने की भाव ना करना, इसे एकत्व भाव ना कहते हैं।
यहाँ पर द्रव्य और गुण के बीच जो सम्बन्ध है उसके बारे में बताया जा रहा है। कैसा सम्बन्ध होता है, कैसा नहीं होता है? पि छली गाथा में भी इसकी चर्चा की थी। एक पृथकत्व भाव है और एक अन्यत्व भाव है। इन दोनों के बीच में अन्तर को समझने की कोशि श की थी। उसी को पुनः एक निष्कर्ष के रूप में यहा ँ पर सामने रखते हुए कहा जा रहा है-”जं दव्वं ” जो द्रव्य है, “तण्ण गुणो” वह गुण नहीं है। जो द्रव्य है वह क्या है? गुण नहीं है। यहा ँ अत्यन्त स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हम द्रव्य को गुण नहीं कहते हैं और “जो वि गुणो स ण तच्चं” जो गुण है वह द्रव्य नहीं है। ‘अत्था दो’ अर्था त् अर्थ से, अर्थ माने वास्त विकता से या परि भाषा से द्रव्य को गुण नहीं कहा जाता और गुण को द्रव्य नहीं कहा जाता है। यह हमने अच्छी तरह से समझ लिया है कि द्रव्य सभी गुणों को आश्रय देने वा ला है और गुण उसके आश्रय से रहने वा ले हैं। द्रव्य एक होता है, गुण अनेक होते हैं। द्रव्य कि सी भी पदार्थ का विशेष्य कहलाता है और गुण उसके विशेषण कहलाते हैं। इस तरह से हम देखते हैं तो द्रव्य और गुणों में हमें बहुत बड़ा अन्तर समझ में आता है क्योंकि जो एक है वह अनेक के साथ एकता नहीं रख सकता। द्रव्य एक है और गुण अनेक हैं। जो एक स्व भाव वा ला है वह अनेक स्व भाव वा लों से अपना सम्बन्ध, एकता, सर्वथा नहीं रख सकता। द्रव्य गुणों को धारण करने वा ला है, आधार है लेकि न एक गुण कि सी भी अन्य गुण को धारण नहीं करता।
गुण निर्गु ण होता है
यह भी पि छली गाथा में बताया था क्योंकि गुण निर्गु ण होता है। गुणों में कोई दूसरा गुण नहीं होता सब जो हम समझ रहे हैं कि द्रव्य गुणों के साथ रहते हैं, गुण द्रव्य के साथ रहते हैं और द्रव्य और गुणों का एक ही प्रदेशों पर, एक ही स्था न पर रहना होता है। उनमें प्रदेश भेद नहीं है क्योंकि प्रदेश भेद हो जाय ेगा तो क्या हो जाएगा? वह पृथक्त्व हो जाएगा। जिसमें प्रदेश भेद पाया जाता है वह क्या हो जाता है? वह पृथक्त्व लक्ष ण वा ली भि न्नता हो जाती है। वह न हो कर उनमें क्या भि न्नता है? वह उसी एक क्षेत्र में, उसी एक क्षेत्रव गाह में, द्रव्य और गुण दोनों एक साथ रहते हैं इसलि ए “एसो अतब्भा वो” यह ी उनका अतद्भाव है। इसको क्या कहा ? अतद्भाव भाव ।
अतद्भा व
अतद्भाव का मतलब तद् भाव नहीं होना माने उस रूप नहीं होना। द्रव्य का गुण रूप नहीं होना और गुणों का द्रव्य रूप नहीं होना। इससे यह समझाया जा रहा है कि द्रव्य में और गुणों में अन्तर जानना और गुण की परि भाषा के माध्य म से यह भी जानना कि गुण कभी द्रव्य नहीं हो जाता है और द्रव्य कभी गुण नहीं हो जाता। “णेव अभावो त् ति णिद्दिट्ठो ” फिर कहते हैं यह अभाव नहीं समझना “णिद्दिट्ठो ” यानि यह अभाव निर्दि निर्दि ष्ट नहीं किया है अर्था त् नहीं कहा है। मतलब कि द्रव्य में गुण का अभाव और गुण में द्रव्य का अभाव नहीं है। जो अभाव एक दूसरे के सर्वथा नहीं होने रूप होता है वैसा अभाव नहीं है। किन्तु यह अभाव कैसा है? एक का दूसरे रूप नहीं होना। एक गुण कभी दूसरे गुण के रूप नहीं होगा, यह ी उसका एक दूसरे में अभाव है। इसी को अतद्भाव कहते हैं। आत्मा का ज्ञा न गुण और आत्मा का दर्श न गुण।
अब समझने की कोशि श करो। आत्मा का ज्ञा न गुण कभी दर्श न गुण रूप नहीं होगा और आत्मा का दर्श न गुण कभी भी ज्ञा न गुण रुप नहीं होगा। समझ आ रहा है? एक गुण में भी दूसरे गुण का अभाव रहता है और द्रव्य में भी गुण के स्व भाव का अभाव रहता है। आत्मा ज्ञा न ही नहीं है। क्या समझ आ रहा है? आत्मा ज्ञा न ही नहीं है, आत्मा ज्ञा न के अलावा भी बहुत कुछ है क्योंकि अगर आत्मा को ज्ञा न ही मान लेंगे तो फिर आत्मा में एक ही गुण हो जाएगा। आत्मा ज्ञा न गुण वा ला है लेकि न आत्मा में ज्ञा न के अलावा और अनेक अनन्त गुण भी हैं। आत्मा कभी ज्ञा न रूप नहीं हो गया , ज्ञा न कभी आत्मा रूप नहीं हो गया । इससे यह भी समझ सकते हैं कि द्रव्य कभी गुण रूप नहीं होता है और गुण कभी द्रव्य रूप नहीं होते। आत्मा केवल ज्ञा न रूप नहीं है, आत्मा अन्य अनेक रूपों में भी है। आत्मा का ज्ञा न रूप नहीं होना माने आत्मा - आत्मा रहेगा, ज्ञा न- ज्ञा न रहेगा। यदि आत्मा ही ज्ञा न हो गया फिर दूसरा कोई गुण आत्मा में हो ही नहीं सकता है। इसलि ए आत्मा को ज्ञा न का अभाव और ज्ञा न को आत्मा के अभाव के साथ जानना, इसको कहते हैं- अतद्भाव । क्या बोला इसको? अतद्भाव । इसको जानने का प्रयोजन यह है कि जो हमारी आत्मा का ज्ञा न, दर्श न स्व भाव आदि अनेक गुणों के रूप में हमें महसूस होता है, उस स्व भाव को और स्व भाव को धारण करने वा ले द्रव्य को हम अलग-अलग शब्दों से परि भाषि त कर सके। ये वस्तु एँ एक रूप नहीं है, एक तरह से ऐसा बताने के लि ए इस गाथा का यहा ँ पर अवतरण हुआ है।
आत्मा और गुण का भिन्नपना
यह गाथा क्या बता रही है हमको? द्रव्य कभी भी गुण रूप नहीं होता और गुण कभी भी द्रव्य रूप नहीं होता। द्रव्य और गुण में सम्बन्ध भी है, एकपना भी है, एक क्षेत्र में रहना भी होता है लेकि न फिर भी सबका स्व भाव अपना-अपना, अलग-अलग बना रहता है। अब आप भी विचार कर सकते हैं कि द्रव्य और गुण ये एक क्षेत्राव गाह ी वस्तु एँ हैं, एक ही स्था न में रहने वा ली परि णतिया ँ हैं। इनमें भी जब एक-दूसरे रूप नहीं हो रहा है और कि सी का भी अभाव नहीं हो रहा है, तो दो द्रव्य जो एक साथ रहते हैं, वे कैसे एक दूसरे रूप हो सकते हैं? दो द्रव्यों का भि न्न-भि न्न रहना, यह पृथक्त्व लक्ष ण वा ला भि न्नपना कभी भी एक रूप नहीं हो सकता है। जब हमारी दृष्टि में इस तरह का भाव आने लग जाता है तब हम प्रत्ये क द्रव्य को अपने से भि न्न-भि न्न महसूस करने लग जाते हैं।
एकत्व: अन्यत्व
आपने बारह भाव नाओं में दो भाव नाएँ पढ़ी होंगी- एक भाव ना कहलाती है- एकत्व भाव ना और एक कहलाती है- अन्यत्व भाव ना। एकत्व भाव ना का मतलब मैं एक हूँ, एक पने की भाव ना करना, मैं अनेक नहीं हूँ, मैं एक हूँ। एकपने की भाव ना करना यह कहलाती है- एकत्व भाव ना। मेरे साथ जुड़ी हुई कुछ भी वस्तु एँ हैं वह सब मुझ से अन्य हैं, यह भाव ना करना कहलाती है- अन्यत्व भाव ना। ज्या दा अन्तर आपको समझ नहीं आएगा लेकि न दोनों भाव नाओं में अन्तर है। बात वह ी है, जहा ँ एक है वहा ँ पर अनेकपना नहीं तो जहा ँ एक है, वहा ँ अन्य सब चीज छूट गई लेकि न वह हमारी दृष्टि की बात है कि हमारी दृष्टि कहा ँ है। जब हमारी दृष्टि एक पर होगी तो हमारे अन्दर एकत्व भाव ना होगी और जब हमारी दृष्टि में इतनी वस्तु एँ जो हमारे सामने है वह सब हमें सामने होते हुए भी अन्य-अन्य रूप में दिखाई देंगे, यह हम से अन्य यानि भि न्न है, तो इसे कहेंगे- अन्यत्व भाव ना।
अब देखो! यहा ँ पर आया हुआ उसमें जो अन्यत्व शब्द है और पि छली गाथा में जो अन्यत्व शब्द आया था , उसमें बड़ा अन्तर है। यहा ँ गाथा में जो अन्यत्व रूप भि न्नता बताई जा रही है, जिसे हमने कल बताया था , वह difference होते हुए भी वह identity का difference है, difference of identity। यहा ँ पर अन्यत्व को अलग रूप में प्रयोग किया है। अन्यत्व का मतलब यहा ँ पर द्रव्य में गुण का अभाव , गुण में द्रव्य का अभाव , यह वह अन्यत्व है। लेकि न व्यवहा र की भाषा में जो अन्यत्व भाव ना में हम पढ़ ते हैं उस अन्यत्व भाव ना में क्या आ जाता है? जो कोई भी द्रव्य हैं, वह पृथक रूप हैं, उस पृथक्त्व को भी हम अन्यत्व रूप में स्वी कार करेंगे। वे सब हमसे seperate-seperate हैं। यह ी हमारे अन्दर का जो भाव है- उसको अन्यत्व भाव के रूप से कहा जाता है। एकत्व भाव का अभाव होने पर जब हमारी दृष्टि में अन्य आए तो उसमें भी हमारे अन्दर अन्यत्व की भाव ना बनी रहे। क्या मतलब हुआ? एकत्व का अभाव होने पर मतलब यह है कि जब आप अपनी आत्मा में एकपने की भाव ना कर रहे हैं कि मैं एक हूँ, मैं एक हूँ तो आपके अन्दर में वह एकत्व भाव बना हुआ है। पर जब आपने उस एकत्व का अभाव कर दिया यानि अपनी आत्मा की भाव ना छोड़ दिया तो क्या होगा आपके सामने? अन्य-अन्य लोग आ जाएँगे आपके साथ । फिर क्या करोगे? जब अन्य लोग आपके सामने आएँगे तो अन्य के साथ आपका एकत्व फिर स्थापि त होगा। अभी तक आपका एकत्व कहा ँ स्थापि त हो रहा था ? अपने आप में। जब आप आत्मा की भाव ना करोगे तो अपने आप में एकत्व स्थापि त होता है और जब हम इस भाव ना को छोड़ कर बाह र आते हैं तो फिर हमारा अन्य के साथ में एकत्व होने लग जाता है। क्या समझ आ रहा है? अन्य के साथ एकत्व होने का मतलब होता है मोह के कारण से अन्य को एक रूप मानना। कि स कारण से? मोह के कारण से। आचार्य कहते हैं कि हम उस समय पर भी अपने आप को सुरक्षि त रख सकते हैं यदि हम अन्यत्व की भाव ना बना कर रखें। आप सब के बीच रह कर भी कैसे अपने आप को भि न्न रख सकते हैं? अन्यत्व की भाव ना से। यह भि न्न है, यह भि न्न है, यह भि न्न है। समझ आ रहा है? इसका स्व रुप हमारे स्व रुप से भि न्न है। अन्यत्व की भाव ना दृढ़ होने पर आपके बाह र जितनी भी वस्तु एँ होंगी उन सबसे आप मोह को प्राप्त नहीं होंगे, उनसे आपका मोह के कारण से एकत्व नहीं होगा। जब मोह नहीं होगा तो फिर आपका अपने एकत्व भाव में, एकाकी के भाव में आपका मन लग जाएगा। समझ आ रहा है?
एकाकीपन: अकेलापन
एक होता है- एकाकीपन और एक होता है- अकेलापन। इन दोनों में कुछ अन्तर आपको समझ आता है कि नहीं आता है? एकत्व भाव ना करने के लि ए आचार्यों ने कहा है। एकत्व भाव ना का मतलब मैं एकाकी हूँ, मैं एक हूँ, एक स्व रूप हूँ। यह भाव ना करने में आपको कहीं कोई कठि नाई नहीं होगी और इस भाव ना में आपके अन्दर कि सी भी तरीके से खेद-खि न्नता नहीं आएगी लेकि न जिसे आप अकेलापन कहते हो वो अकेलापन आपके लि ए खेद-खि न्नता लाता है। इस अकेलेपन में आपको बोरिय त होती है। अकेलेपन में आपको कि सी का साथ चाहि ए होता है। अकेलापन होगा तो आप इसे भरने की कोशि श करेंगे कि मेरे भीतर का अकेलापन कोई दूर कर दे। कोई हमारा अकेलापन दूर कर दे। हमारा अकेलापन कोई भर दे। इसअकेलेपन में हमेशा आपको अधूरापन महसूस होगा। यह क्या है? अधूरापन। इसको हम अलग-अलग शब्दों में समझें तो इसको कहते हैं- loneliness। क्या कहते हैं अकेलेपन को? loneliness।
एकाकी रहो: अकेले नहीं
जबकि आचार्यों ने यह नहीं कहा कि आप अकेले रहो। क्या बोला? आप एकाकी रहो। एकत्व भाव ना का जिक्र किया है और अध्या त्म ग्र न्थों में जब भी आत्मा की भाव ना की गई वहा ँ पर एक: शब्द का प्रयोग किया गया । “एगो मे सासदो आदा” मेरा आत्मा एक है, शाश्वत है। एक आत्मा की तरफ आप अपना भाव ले जाओगे तो आप में अधूरापन नहीं रहेगा, आप पूर्ण ता की ओर जाओगे। जब आप अकेलापन महसूस करोगे तो आप में अधूरापन होगा, आप कि सी का साथ चाह ोगे। यदि आपका साथ कि सी से छूट गया है, तो फिर आप एक नया साथ फिर बनाने की इच्छा करोगे। Friend, relation जब कि सी भी तरीके के टूटते हैं तो खेद होता है। फिर एक friend छूट गया । उसकी खेद-खि न्नता हो गई तो फिर चलो कोई बात नहीं; मैं दूसरा बना लूँगा। एक relation था वह टूट गया ; चलो कोई बात नहीं। तुम ही एक नहीं हो जमाने में; मैं दूसरे से सम्बन्ध बना लूँगा। यह हम कि स दौड़ में होते हैं? अपने अकेलेपन को हम समझ नहीं पाते हैं, इस अकेलेपन के भाव को समझ नहीं पाते हैं तो हम अपने अकेलेपन को दूर करने के लि ए एक नया मित्र , एक नया सम्बन्धी , कोई न कोई बनाने के लि ए हमेशा लालायि त रहते हैं लेकि न कि सी के भी साथ हो जाने पर आपका वह अकेलेपन का भाव कभी भी भर नहीं सकता है। इसे भाव कहें कि घाव कहें? अकेलापन होना हमारे हृदय का एक घाव है (loneliness is a wound of our heart)। जहा ँ पर हमारे अन्दर अकेलापन आएगा वहा ँ पर हमारे अन्दर एक घाव होगा यानि हम उसे दूसरे के माध्य म से भरना चाह ेंगे लेकि न वह कभी भी भर नहीं पाता है। थोड़ी देर के लि ए आपको लगता है कि कि सी ने मेरा साथ दिया या कोई मेरे साथ हो गया और मेरे लि ए थोड़ी सी उसमें राह त मि ल गई और थोड़ी सी राह त मि लने के बाद में आपके अन्दर कि सी न कि सी घटना से आपको फिर यह महसूस होने लग जाता है कि नहीं यह अकेलेपन का भाव बहुत देर तक जाता नहीं है। यह वह ीं का वह ीं बना रहता है। समझ आ रहा है? दुनिया के अकेलेपन का भाव और अध्या त्म के एकाकीपन का भाव , इस में बहुत बड़ा अन्तर है।
आधी छोड़ पूरी को धाए
दुनिया में हर आदमी अकेलेपन को दूर करना चाह रहा है। loneliness उसे सहन नहीं होती है, जिसे हम अकेलापन कहते हैं। उसे दूर करने के लि ए वह कि सी न कि सी से कुछ न कुछ familiar होता है, परि चित होता है। उसके माध्य म से वह अपने अकेलेपन के भाव को, घाव को दूर करने की कोशि श करता है। यह अज्ञा नता है। इसको आचार्यों ने क्या कहा है? यह एक बहुत बड़ी , एक अलग type की अज्ञा नता है। इस अज्ञा नता के भाव में कभी भी उसको कभी भी सन्तुष्टि नहीं मि लती है। जैसे बोलते हैं न “आधी छोड़ पूरी को धाए” वह ी स्थिति उसकी चलती रहती है क्योंकि अकेलेपन का भाव हमेशा उसको खटकता रहता है और उसी भाव के कारण उसके मन में कुछ अगर साथ में हो भी जाता है, तो भी वह सोचता है कि यह साथ भी कब तक रहेगा। समझ आ रहा है? यदि कोई साथ भी हो तो थोड़ी देर के लि ए तो आप भूल जाओगे लेकि न फिर भी आपके मन में एक भय भीतर पड़ा रहता है कि यह साथ भी कब तक रहेगा। आज के लोग तो साथ ी बनाने के बाद भी यह सोचते ही रहते हैं कि यह साथ कब छोड़ ना है और यह साथ कब तक रहना है और उनका दूसरा साथ ी बनाने के ऊपर दृष्टि रहती है। एक साथ पूरा चल नहीं पाता है। यह सब क्या है? यह भीतर के अकेलेपन का एक बहुत बड़ा परि णाम है, जिस परि णाम को यदि हम भर सकते हैं, जिस घाव को यदि हम भर सकते हैं तो उसका मल्हम एक ही है कि हम एकत्व भाव ना का चिन्तन करें। क्या करें? हा ँ! यह अकेलापन और कोई नहीं भर सकता। यह है- aloneness। इसको क्या बोलते हैं? एकाकी का मतलब क्या हो गया है? alone, I am alone। अकेलेपन का मतलब क्या हो गया ? loneliness। जितने भी lawn मि लेंगे आपको, यह lawn भी क्या है? यहा ँ पर भी लोग आपको घूमते हुए मि लते हैं न, एक दूसरे के साथ बैठे हुए मि लते हैं न, यह क्या है ? यह सब अपने अकेलेपन को भर रहे हैं। एक-दूसरे के माध्य म से अपने अकेलेपन के भाव को दूर करने की कोशि श कर रहे हैं। क्या उनकी यह कोशि श सही है? fundamentally यह सही नहीं है। अर्थ माने धार्मि ार्मिक दृष्टि कोण से या वास्त विक दृष्टि कोण से, तत्त्व की दृष्टि से हम देखे तो यह अकेलेपन को दूर करने का कोई उपाय है ही नहीं। अकेलेपन को दूर करने के लि ए व्यक्ति एक रि श्ता तोड़ कर दूसरा रि श्ता बना लेता है। एक को छोड़ कर दूसरे के साथ होने की कोशि श करता है लेकि न आचार्य कहते हैं इससे कभी भी तुम्हा रे अन्दर एकत्वपने का भाव नहीं आयेगा और अकेलेपन का भाव कभी दूर होगा नहीं। अतः एकत्वपने के भाव में क्या है? वह उस समय पर अपने आपको एकाकी मानेगा तो एकाकी मानने का मतलब है कि वह अपने आप में self centered हो रहा है। वह कहा ँ आ रहा है? अपने centre की ओर आ रहा है, जिसे कहते हैं- द्रव्य। उसको यहा ँ क्या कहा जा रहा है? द्रव्य। द्रव्य का मतलब ही है- तत्त्व । जो यहा ँ पर तत्त्व शब्द से define किया है “जो णो वि गुणो सो ण तच्चं” जो गुण नहीं है वह तत्त्व नहीं है। तत्त्व माने द्रव्य नहीं। अतः द्रव्य का मतलब क्या है? तत्त्व ।
द्रव्य और पर्या य
तत्त्व का मतलब ही होता है अपना भाव , अपना द्रव्य और द्रव्य माने अपना जिससे सम्बन्ध है, वह centre point। वह क्या है? वह द्रव्य है। उसी द्रव्य के चारों ओर सभी गुण रह रहे हैं, उसी द्रव्य में सभी गुणों का वा स हो रहा है। समझ आ रहा है? उस गुण की, उन गुणों की जो अनेक प्रकार की परि णतिया ँ हो रही हैं, यह उसकी पर्याय है। एक तरह से हम समझें कि पर्याय हमारे लि ए परिधि के रूप में है जो चारों ओर हमें दिखाई देती हैं। केन्द्र हमारा द्रव्य है। सुन रहे हो? उस द्रव्य को परीधि से मि लाने वा ली जो रेखाएँ हैं, वह सब हमारे गुण हैं, जो हमारे उस केन्द्र के साथ और उस circle के साथ में हमेशा बने रहने वा ले हैं। हम हमेशा कहा ँ घूमते हैं? परिधि पर घूमते हैं। पर्याय ों में घूमते हैं। हम न तो कभी गुणों की ओर आ पाते हैं, न कभी द्रव्य की ओर आ पाते हैं। जब तक हम गुणों की ओर नहीं आएँगे तो द्रव्य की ओर आना तो कभी सम्भव ही नहीं हो पाएगा। जब हम परिधि से हट कर, पर्याय से हटकर द्रव्य की ओर आएँगे उस समय पर हमें अपना पूरा का पूरा भरा हुआ भाव दिखाई देगा। परिधि पर घूम रहे हो तो आपको वहा ँ पर पूरा का पूरा खालीपन दिखाई दे रहा है क्योंकि आप की भीतर दृष्टि नहीं रही। बाह र की ओर देखोगे तो बाह र तो नि तान्त एक अन्धकार है, समझ लो। उसमें ही आप डोलने की इच्छा कर रहे हैं। उसी में आप अपने साथ ी बनाना चाह रहे हैं, उसी में आप अपना अकेलापन भरना चाह रहे हो लेकि न आपको यह पता नहीं है कि हमारी यह दौड़ हमें थकाने वा ली है। परिधि के बाह र जितना जाने की कोशि श करोगे उतना परेशान होंगे, भटकोगे। जितना परिधि से केन्द्र की ओर आने की कोशि श करोगे तो क्या होगा? अपने में आओगे। अपने में आओगे तो आप को सुख मि लेगा, शान्ति मि लेगी। आप एकत्व की ओर आओगे। इसी का मतलब है हम अब अपने जो centre था एक था , गुण तो अनेक हैं। जो पूरे ३६० degree के angle बनेंगे, वह सब क्या हो गए? गुण। वह एक-एक लाइन जो केन्द्र से परिधि की ओर जा रही है, वह सब क्या हो गए? गुण। गुण तो अनेक हैं लेकि न द्रव्य, centre point एक ही है। उन सब गुणों का समूह और उन सब गुणों का परि णमन हमें एक पर्याय के रूप में बाह र दिखाई देता है। हमारी दृष्टि केवल पर्याय पर रहती है। हम कभी भी अपने तत्त्व , अपने द्रव्य की ओर नहीं आ पाते क्योंकि एकत्व का भाव हमारे अन्दर नहीं आता। एकत्व भाव ना आए बि ना आप कभी भी अपने द्रव्य की ओर नहीं आ पाएँगे। अब देखो, अभी भी आपका अपने द्रव्य में समाना नहीं हुआ। एकत्व भाव ना अलग है और एक शुद्ध आत्मा की भाव ना करना अलग है। इसमें बड़ा अन्तर है। एकत्व भाव ना तो इसलि ए है कि पहले आप जो परिधि पर घूम-घूम कर थक गये हो उस थकान को मि टाने के लि ए पहले आप यह सोचे कि यह सब कुछ आपका था नहीं, है नहीं और उससे जब तक आप विराम नहीं लोगे तब तक आपको कभी सुख मि लेगा नहीं। अन्यत्व भाव ना करके इन सब को, परिधि के बाह र जो वस्तु एँ हैं, उन सब को अन्य समझ कर के अपने केन्द्र की ओर आने की भाव ना करना, इसे एकत्व भाव ना कहते हैं।