11-20-2022, 03:14 PM
दो नय: दो दृष्टि कोण
आचार्य कुन्दकुन्द देव इस प्रवचनसार महा न ग्रन्थ की इस गाथा में द्रव्य को उसके स्व भाव में स्थि त हुआ बताते हैं और कहते हैं कि द्रव्य हमेशा अपने स्व भाव में ही स्थि त रहता है। वह स्व भाव ‘दव्वत्थ पज्जयत्थेहिं’ द्रव्यार् थिक नय से और पर्यायार् थिक नय से जानने में आता है, अनुभव में भी आता है। द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय, ये दो नय इस तरह से क्यों रखे जाते हैं? क्यों इनका आलंबन लिया जाता है?
वस्तु स्वरूप : सामान्य, वि शेषात्म क
हमें यह जानकारी होनी चाहि ए कि कोई भी पदार्थ, कोई भी वस्तु , दो रूपों में ही हमेशा बनी रहती है। एक सामान्य रूप में और एक विशेष रूप में। जो वस्तु का सामान्य विशेषात्मक धर्म होता है, उस धर्म को हम यदि जानना चाह ते हैं तो हमारे पास दो दृष्टि कोण होना चाहि ए।
नय के दो भेद : द्रव्यार्थि व्यार्थिक और पर्या यार्थि र्थिक
उन्हीं दृष्टि कोणों को यहा ँ पर नयों का नाम दिया गया है जिसे हम द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय कहते हैं। मतलब यह हुआ कि द्रव्यार् थिक नय हमें वस्तु के सामान्य गुण धर्म को बताता है और पर्यायार् थिक नय हमें वस्तु के विशेष गुण धर्म को बताते हैं। इसलि ए हमेशा दो ही तरह के नय होते हैं। द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय। कि सी के मन में यह भी प्रश्न आ सकता है कि जब तीन चीजें होती हैं- द्रव्य, गुण और पर्याय तो नय दो ही क्यों होते हैं? इसका समाधान आपको तब मि ल जाएगा जब आप द्रव्य और पर्याय ों के स्व भाव को जानेंगे। द्रव्य हमेशा अपने गुणों के साथ रहता है। द्रव्य का अपने गुणों से अन्वय रहता है। इसलि ए द्रव्य को जानने के लि ए हमें अलग से प्रया स नहीं करना पड़ ता। गुणों को यदि हमने जान लिया , उसी से ही द्रव्य की जानकारी हो जाती है।
द्रव्य = गुणों का समूह
यूँ कहें कि द्रव्य कुछ नहीं है, अपने गुणों के समुदाय से ही वह द्रव्य बना होता है क्योंकि जो द्रव्य है, वह अनेक गुणात्मक है। अनेक गुण स्व रूप जो वस्तु है, उसी का नाम द्रव्य है। द्रव्य कहने से हमें गुणों का ग्रह ण हो जाता है और गुण कहने से हमें द्रव्य का भी ग्रह ण हो जाता है। द्रव्य की परि भाषा क्या है? आचार्य जब द्रव्य को गुणों के साथ जोड़ कर बताते हैं तो कहते हैं जो हमेशा द्रव्य के साथ जुड़े ड़े रहें, द्रव्य के साथ बने रहें, उन्हें गुण कहते हैं। जो गुण वा ला होता है, वह ी गुणी यानि द्रव्य कहलाता है। मतलब क्या हो गया ? द्रव्य गुणों के साथ हमेशा जुड़ा हुआ रहता है। अब आप कोई भी पदार्थ देखें। चाह े वो अजीव पदार्थ हो, चाह े जीव पदार्थ हो, उसमें द्रव्य जो है, वह उसके गुणों का ही एक परि णमन है। गुणों के परि णमन के साथ में उसका जो हमें लक्ष ण दिखाई देता है, वह द्रव्य के रूप में ही दिखाई देता है। इसलि ए नय माने दो दृष्टि कोण हमारे सामने रहते हैं। एक दृष्टि कोण तो वह होता है, जो हमेशा बना हुआ रहता है। हर पदार्थ के साथ में जुड़ा हुआ रहता है। वो चाह े हम गुण के रूप में कह लें या द्रव्य के रूप में कह लें। तात्प र्य यह है कि गुणों को जानने के लि ए अलग से कोई गुणार् थिक नय की जरूरत नहीं है। वह द्रव्यार् थिक नय में ही अन्तर्भू त हो जाता है क्योंकि द्रव्य का स्व भाव और गुणों का स्व भाव एक जैसा है।
द्रव्य का सामान्य धर्म ही उसका सत् गुण
हम पढ़ चुके हैं कि द्रव्य में हमेशा एक सत् नाम का गुण होता है, जिसे सत्ता गुण कहते हैं। वह सत्ता गुण ही उस द्रव्य का एक ‘विधाय क’ है जो उसकी पहचान बनाए रखने वा ला है। इसलि ए पि छली गाथा में कहा गया ‘दव्वं सयं सत्ता ’ द्रव्य स्वय ं सत्ता है। सत्ता ही द्रव्य है और द्रव्य ही सत्ता है। मतलब गुण ही द्रव्य हो जाते हैं, द्रव्य ही गुण हो जाता है। इसलि ए अलग से कि सी गुणयार् थिक नय की जरूरत नहीं है। द्रव्यार् थिक नय से ही गुणों की भी पहचान हो जाती है और द्रव्य की भी पहचान हो जाती है। हर पदार्थ में जो एक सामान्य धर्म चल रहा है, वह उसकी सत्ता को बनाए हुए है। उसकी जो सत्ता बनी हुई है, वह ी उसका द्रव्य है। इसलि ए द्रव्यार् थिक नय के माध्य म से हम द्रव्य को जान लेते हैं और पर्यायार् थिक नय के माध्य म से पर्याय को जान लेते हैं। गुणों को भी जानना होगा तो वह भी हम द्रव्यार् थिक नय के माध्य म से उन गुणों को भी जान लेते हैं। यदि हमें गुणों की पर्याय ों को जानना होगा तो पर्यायार् थिक नय से गुणों की पर्याय ों को जान लेंगे। नय तो दो ही हैं- एक द्रव्यार् थिक नय और एक पर्यायार् थिक नय। जानना हमें द्रव्य को भी हैं, गुण को भी है, पर्याय ों को भी है। इन दोनों नयों से तीनों चीजें जानने में आ जाती हैं। यह द्रव्य का स्व भाव है कि हर द्रव्य, भले ही वह हमारी जानकारी में आ रहा है या नहीं आ रहा है, अपना परि णमन इन्हीं रूप में कर रहा है। जानकारी हमें लेनी है, तो इन दो दृष्टि कोणों से हमें जानकारी लेनी पड़ गी।
द्रव्यार्थि व्यार्थिक नय : कुछ नया, कुछ पुराना
अब द्रव्य की बात आपको समझ में तब आएगी जब थोड़ा सा उदाह रण से आप उस चीज को समझने की कोशि श करें। मान लो हमें कि सी व्यक्ति की जानकारी लेनी है। द्रव्य की जानकारी लेने के लि ए व्यक्ति की जानकारी का उदाह रण समझने कोशि श करें। हमें कि सी व्यक्ति की जानकारी लेनी है। कि सी भी व्यक्ति को हमने सामने देखा तो हम उसकी जानकारी कि स रूप में लेते हैं? यह कहा ँ से आ रहा है? यह कि स स्था न का है? ये कहा ँ का रहने वा ला है? इसका परिवा र कहा ँ रहता है? इसका family background (पारिवारि क पृष्ठ भूमि ) क्या है? हमने कि सी भी व्यक्ति की पहचान करने के लि ए क्या देखा? पीछे! पहले वह कहा ँ था ? क्या था ? इसका background क्या है? समझ आ रहा ? मतलब हम क्या देखना चाह रहे हैं कि कोई ऐसी चीज है, जो इसके साथ पहले से जुड़ी हुई है। जो व्यक्ति आज हमारे सामने खड़ा हुआ है, वह तो उस रूप में है ही लेकि न इससे पहले भी ये जहा ँ था , वहा ँ पर भी ये अपने इसी सम्बन्ध के साथ था । उस व्यक्ति को हमें आज की स्थिति में जानना है, तो उसे जानने के लि ए हमें उसकी पुरानी स्थिति को भी जानना पड़ ता है। लेकि न पुरानी स्थिति में और आज की स्थिति में अन्तर भी है। यदि कोई आपसे कह दे कि यह व्यक्ति बीस साल पहले इस sector में रहता था और बीस साल पहले इस व्यक्ति का यह नाम था । इसके परिवा र में ये-ये लोग रहते थे तो आप यदि उस sector के रहने वा ले होंगे तो एकदम से उस व्यक्ति को देखते ही जान जाएँगे कि हा ँ बीस साल पहले, यह इस परिवा र का है, इस sector का है, इस family (परिवा र) का है। आपके दिमाग में आ जाएगा कि उनको भी मैं जानता हूँ। क्या मतलब हुआ इसका? जो द्रव्य हम जान रहे हैं, जो पदार्थ हम जान रहे हैं, वह पदार्थ पहले भी था । इस बात को हमने स्वी कार किया कि नहीं किया ? वह पहले भी था । जब बीस साल पहले जो था , हम उसमें कुछ न कुछ ऐसी चीज स्वी कार कर रहे हैं जो बीस साल पहले भी कि सी न कि सी रूप में, हर स्थिति में उससे जुड़ा हुआ था और वह चीज आज तक भी उसके साथ एक जैसा बनी हुई है। उसी का नाम है द्रव्यार् थिक नय। शब्द थोड़े ड़े से बदल जाते हैं लेकि न हम ज्ञा न वह ी करते हैं जिस तरीके से हमें ज्ञा न होना चाहि ए। जब हमने यह देखा कि यह उसी परिवा र का है। बीस साल पहले यह इसी स्था न पर रहता था । बीस साल पहले यह इस नाम का व्यक्ति था तो जो हमने बीस साल पहले का उससे सम्बन्ध जोड़ा , हमें पता नहीं कौन से नय से जोड़ लिया लेकि न वह द्रव्यार् थिक नय है। उसका नाम क्या है? द्रव्यार् थिक नय। यह ऐसी चीज हो गई जैसे कोई भी चीज हो रही है लेकि न हमें पता नहीं है, यह क्यों हो रही है? हम कहते हैं:- वृक्ष से फल गि रता है, तो नीचे गि रता है। यह सब जानते हैं कि वृक्ष से फल गि रता है, तो नीचे ही गि रता है। अब वह क्यों गि रता है? उसका जिसने कारण बता दिया , उस कारण के साथ में जो उस फल का ज्ञा न करने लगा तो वह कहलाया वैज्ञानि क। समझ आ रहा है? जिसने उस कारण को नहीं जाना, वैसे ही अपने लि ए काम में ला रहा था तो वह सामान्य व्यक्ति कहलाया । यह ी अन्तर यहा ँ पर है। जो चीजें हमारे सामने हैं, हम उनका जिस तरह से उपयोग कर रहे हैं, जिस तरह से हम उसकी जानकारी ले रहे हैं, वो सब चीजें हमारे साथ में चलती रहती हैं लेकि न हमें पता नहीं होता कि उनको हमें कि स-कि स तरह से देखना चाहि ए, कि स-कि स angle से जानना चाहि ए। जिस द्रव्य को हम आज जान रहे हैं, उसको हम बीस साल पहले के साथ में मि ला कर जान रहे हैं। अब आपको समझना है कि बीस साल पहले से वो चीज, जो मि ल रही है, तो वह उसी के साथ मि ल कैसे सकती है, जो बीस साल पहले थी और आज भी वह ी चीज है। इसका मतलब है, हम ये मान रहे हैं कि द्रव्य पहले भी था । बीस साल के जितने भी fraction of times हैं, जितने भी उस समय के बिन्दु बिन्दु हैं, उन सब में भी वह द्रव्य रहा और वह द्रव्य आज भी, बीस साल बाद भी बना हुआ है। यह हमारे ज्ञा न में आया तभी तो हमने स्वी कार कर लिया कि बीस साल पहले वो क्या था और अब क्या हो गया ? बीस साल पहले उसका सम्बन्ध कहा ँ था और अब कहा ँ है? ये जो सम्बन्ध हमने जान लिया , इसी का नाम है- द्रव्यार् थिक नय। सरल भाषा में इसको इस तरह समझाने की कोशि श कर रहा हूँ। क्या समझ आ रहा है?
वस्तु स्वरूप का ज्ञा न ही वि ज्ञा न
सीधा-सीधा कोई पढ़ ने बैठता है। क्या द्रव्यार् थिक नय है? क्या पर्यायार् थिक नय है? कुछ नहीं है। सब वह ी है। बात वह ी है। वृक्ष से फल गि र रहा है, हम उसको जान नहीं रहे हैं कि नीचे क्यों गि र रहा है? हमें फल का नाम भी नहीं मालूम। हमें ये भी नहीं मालूम कि कि स वृक्ष का क्या फल है? बस हम खाय े जा रहे हैं, देखे जा रहे हैं, आनन्द लि ए जा रहे हैं और हमें कुछ नहीं मालूम। जब उस चीज को जान लेते हैं तो वह एक science बन जाती है। इसी तरीके से जो वस्तु व्यवस्था हमारे सामने है, जब हम उसको जान लेते हैं तो वह हमारे सामने एक विज्ञा न बन जाता है, जिसे हम जैन विज्ञा न कहते हैं। हर पदार्थ को जानने के लि ए, समझने के लि ए, हमें दो नयों की आवश्यकता पड़ ती है। दो प्रकार के दृष्टि कोण हमारे अन्दर रहते हैं। एक पदार्थ के सामान्य स्व रूप को हमेशा बनाए रखता है और सामान्य रूप से हमें पदार्थ को continuity के साथ में जो उसके साथ ही अन्वय बना हुआ है, उस अन्वय को बनाए रखता है। उस दृष्टि कोण से जब पदार्थ को देखते हैं तो हम कहते हैं, यह द्रव्यार् थिक नय से यह पदार्थ है।
अब इस नय का आप उपयोग करो। बीस साल पहले जो व्यक्ति था , आज वह ी व्यक्ति है। कि स नय से है? द्रव्यार् थिक नय से। पाँच साल पहले, छह साल पहले, मान लो यह पुस्त क बनी हो। आज भी यह वह ी पुस्त क है। कि स नय से है? द्रव्यार् थिक नय से। समझ आ रहा है? यह नय आपकाे हमेशा काम आएगा। ये नय वस्तु को उसके साथ जोड़े ड़े रखेगा चाह े वस्तु कहीं भी पहुँ च जाए। मान लो, कोई यहा ँ का रहने वा ला व्यक्ति है, भारत का, रूस में पहुँ च गया । जब उससे पूछा जाएगा तेरा जन्म कहा ँ हुआ? क्या बोलेगा? भारत में हुआ। अपने जन्म को वो भारत से जोड़े ड़े हुए है। अपने जन्म को उस सदी से जोड़े ड़े हुए है, जिस सदी में उसका जन्म हुआ। आज वह पचास साल, साठ साल आगे बढ़ गया फिर भी अपने को पि छली चीजों से जोड़े ड़े हुए है। ये जो जोड़ ने वा ली चीज है, ये जो हमारा देखने वा ला दृष्टि कोण है कि साठ साल तक वस्तु कहा ँ रही और वह वह ी चीज है, जो साठ साल पहले थी, इसी का नाम है द्रव्यार् थिक नय। जो व्यक्ति मुख्य रूप से यह जान रहा है, उसके लि ए पहले दो नय ही सामने आते हैं।
पहले मूल में दो नय हैं, द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय। ‘नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ’ यह सब बाद के नय हैं। यह उसी में से और उसके विभाजन होते हैं। कुछ द्रव्यार् थिक नय के भेद हो जाते हैं, कुछ पर्यायार् थिक नय के भेद हो जाते हैं लेकि न मूल में नय दो ही हैं। पहले मूल चीज जान लो। विस्ता र में पड़ जाते हैं तो हम उस वस्तु की मूल स्थिति भी नहीं जान पाते हैं। हमें पहले समझना है कि हर पदार्थ जो हमें देखने में आ रहा है, वह द्रव्यार् थिक नय से देखने में आता है कि नहीं आता? पहले यह समझ लो। आप के घर में टीवी सेट रखा हुआ है। कि तना पुराना है? आठ-दस साल पुराना है। आप उसको क्या कहोगे? कि स नय से आप देख रहे हो कि आठ-दस साल पुराना है? इसी का नाम है- द्रव्यार् थिक नय। द्रव्य को जो अर्थ माने प्रयोजनीय बनाए, द्रव्य को जो देखे, उसका नाम है- द्रव्यार् थिक नय। द्रव्य तो वह ी है। द्रव्य यानि वस्तु , पदार्थ, वह वह ी है। उस वह ी चीज को जो पकड़ रहा है- वह द्रव्यार् थिक नय है। समझ आ रहा है?
पर्यायार्थिर्थिक नय
उसकी जितनी भी अलग-अलग पर्याय हो रही हैं, अलग-अलग उसकी जो परि णतिया ँ हो रही हैं, उन परि णतिय ों को, पर्याय ों को जो पकड़ रहा है, उसका नाम है- पर्यायार् थिक नय। अब हमने देखा कि दस साल बाद भी वह टीवी सेट है लेकि न उसमें पहले जैसी आवा ज नहीं रही, shining नहीं रही। पहले जैसी उसमें अब image नहीं आ रही है। यह क्या हो गया ? ये उसमें change आ गया । टीवी सेट तो वह ी है लेकि न उसकी ये जो परि णतिय ों में अन्तर आ रहा है, वो भी हमें महसूस हो रहा है। यह वह ी टीवी है लेकि न अब ये पुरानी हो गई है। हम दोनों चीजें कह रहे हैं? हम दोनों नयों का उपयोग कर रहे हैं। यह वह ी टीवी है मतलब द्रव्यार् थिक नय से देख रहे हैं। पुरानी हो गयी, पर्यायार् थिक नय से देख रहे हैं ।
प्रत्येक पदार्थ दो स्वरूप ह र पदार्थ ऐसे ही चल रहा है। चाह े आप कहो या न कहो, जानो या न जानो, कोई बताय े या न बताय े, चल तो वैसे ही रहा है। चाह े हमारा शरीर हो, चाह े हमारी आत्मा हो। हर पदार्थ के साथ में द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय के द्वा रा हमें अपने द्रव्य का ज्ञा न रखना चाहि ए। अपनी आत्मा के साथ में भी, अपने शरीर के साथ में भी। शरीर के साथ हमें ज्ञा न रह जाता है लेकि न आत्मा के साथ ज्ञा न नहीं हो पाता है। शरीर के साथ ज्ञा न इस रूप में तो रह जाता है कि हम पचास साल पहले यह थे, अब पचास साल हमारे गुजर गए हैं। हम पहले यह ी थे लेकि न पहले जैसे थे, वैसे अब नहीं रहे। यह हमारे लि ए जो ज्ञा न आता है, यह ी द्रव्यार् थिक और पर्यायार् थिक, दोनों नयों का ज्ञा न है। जो हम यह मान रहे हैं कि हम पचास साल पहले भी थे। यह क्या हो गया ? द्रव्यार् थिक नय। जैसे पहले थे वैसे अब नहीं है, यह हो गया - पर्यायार् थिक नय। बस इतनी सरल सी तो चीज है। वह सब गुण उसी द्रव्य में रहते हैं और उन्हीं गुणों के साथ द्रव्य का परि णमन चलता रहता है। गुण कभी भी द्रव्य को छोड़ कर नहीं जाते। उनका परि णमन बदलता रहता है, पर्याय बदलती रहती है। इसलि ए द्रव्य गुणों के साथ बना हुआ है, वह द्रव्यार् थिक नय से ही जानने में आता है। पर्यायाथि क नय से उसकी पर्याय जानने में आती है।
वस्तु का सत् स्वभाव, असत् स्वभाव
इसीलि ए आचार्य कहते हैं, यह द्रव्य इसी प्रकार के स्व भाव में हमेशा बना रहता है। ‘एवंविध ं सहावे दव्वं दव्वत्थ पज्जयत्थेहिं’। फिर एक चीज यहा ँ अब आगे बताई जाती है। ‘सदसब्भा वणिबद्धं पादुब्भा वं’ प्रा दुर्भाव माने उत्पा द। ये जो उत्पा द है, उत्पत्ति है, यह दो प्रकार से बन्धी हुई है। एक सत् भाव के साथ और एक असत् भाव के साथ । मतलब एक सत् भाव रूप उत्पा द होता है और एक असत् भाव रूप उत्पा द होता है। पदार्थ वह ी है लेकि न बदल भी रहा है। अतः जो बदल रहा है, वह भी उत्पा द है। जो नहीं बदल रहा है, वह भी उत्पा द है। क्या कहा यहा ँ? जो बदल रहा है, वह भी उत्पा द है। जो नहीं बदल रहा है, वह भी उत्पा द है। जो बदल रहा है, उस उत्पा द का नाम है असत् उत्पा द क्योंकि वह पहले नहीं था , अब हो गया । क्या समझ आ रहा है? पहले जो हमारा रूप रंग नहीं था , अब हो गया । पहले जो हमारी अवस्था नहीं थी, अब हो गई। पहले नहीं थी, अब हो गई। ये क्या हो गया ? यह असत् का उत्पा द हो गया । असत् माने जिसका पहले सत् था माने यहा ँ सत् शब्द का अर्थ क्या लगाना- जो पहले हमारे साथ नहीं था , जो पहले हमारे अन्दर नहीं था , अब उसका उत्पा द हमें दिखाई देने लगा। अतः ये कहलाया , पहले जो नहीं था , उसका उत्प न्न होना। ये असत् उत्पा द हो गया । समझ आ रहा हैं? लेकि न वह चीज तो वह ी थी। जो मैं पहले था , वह ी अब हूँ। यह हो गया , सत् का उत्पा द। मतलब द्रव्यार् थिक नय से देखोगे तो आपको दिखाई देगा, सत् का उत्पा द हो रहा है, सत् उत्प न्न हो रहा है और पर्यायार् थिक नय से देखोगे तो आपको दिखाई देगा कि असत् उत्प न्न हो रहा है। जो पहले नहीं था , अब उत्प न्न हो गया ।
जैसे- मि ट्टी से घड़ा बनाया । समझ आ रहा है? मि ट्टी में पहले घड़ा तो नहीं था । मि ट्टी में मि ट्टी दिखाई दे रही थी। मि ट्टी से हमने लौंदा बनाया , उसको घड़े ड़े का आकार दिया । वह घड़ा बन गया । जब हम केवल घड़े ड़े को देखेंगे तो क्या कहलाएगा? ये भी उत्पा द है कि नहीं? ये कौन सा उत्पा द
कोई भी पदार्थ हमें बता दो कि एक रूप में कहीं रह सकता हो? पदार्थ हमेशा दोनों रूपों में मि लेगा। साठ साल पहले तुम कहा ँ थे? हम यहा ँ थे। यहा ँ जन्म लि ए थे। ये हमारे सम्बन्धी थे। ये हमारी पीढ़िया ँ, ये हमारा परिवा र है। इससे हमने सम्बन्ध जोड़ कर जो जाना, ये सब क्या हो गया ? द्रव्यार् थिक नय। अब हम क्या हैं? हम यहा ँ रह रहे हैं। हमने यह ीं की अपनी नागरि कता ग्रह ण कर ली है। अब हम यह ीं के सदस्य बन गए हैं। यह ी हमारे लि ए अब निवा स स्था न बन गया है। लोग हमें अब उस रूप में नहीं जानते, इस रूप में जानते हैं जो अभी मैं वर्त मान में हूँ। ये क्या हो गया ? यह पर्यायार् थिक नय हुआ। कि ताब के साथ भी यह ी स्थिति है। पाँच साल पहले यह कि ताब थी। जब बनी थी, उस समय पर इस कि ताब की, द्रव्य की जो स्थिति थी, आज उस कि ताब की द्रव्य की स्थिति में आपको अन्तर दिखाई देगा लेकि न द्रव्य तो वह ी है। जो थोड़ा उसमें पुरानापन आ गया , पीलापन आ गया । हलकी सी पुरानी लगने लगी। यह पुरानी quality की हो गई। यह पुरानी printing है। समझ आ रहा है न? ये जो पुरानापन हमें दिखाई दे रहा है, नया पन दिखाई दे रहा है, यह सब हो गया पर्याय और चीज तो वह ी है, वह हो गयी उसका द्रव्य। हर जगह यह ी है। कोई भी पदार्थ है, वह दोनों रूपों में ही जानने में आता है। एक रूप में तो कोई पदार्थ होता ही नहीं है लेकि न ये हमने अभी तक नहीं जाना। यह हमें बताया सर्वज्ञ भगवा न ने। इसीलि ए उनके ज्ञा न से जब हम जानते हैं तो हमें लगता है कि अब हमारे अन्दर नया विज्ञा न आ गया , हर पदार्थ को जानने का, देखने का, समझने का। है? यह असत् उत्पा द है लेकि न यह असत् उत्पा द कहीं अचानक से नहीं हो गया । हुआ कि ससे? कि सके द्वा रा हुआ? कि सके साथ हुआ? कहा ँ से चल कर आ रहा है? तो वह हुआ, सत् का उत्पा द। समझ आ रहा है? हम क्या बोलेंगे? ये मि ट्टी घड़ा बन गई। अब देखो! उसमें सब समाहि त है। मि ट्टी से बनी और क्या बना? तो मि ट्टी बनी, ये क्या हो गया ? सत् का उत्पा द और जो घड़ा बना, ये क्या हो गया ? असत् का उत्पा द। जो पहले उसमें नहीं था , वह अब उत्प न्न हो गया । आचार्य कहते हैं, हमेशा दो रूपों में ये उत्पा द चलता रहता है। एक सत् का उत्पा द है, एक असत् का उत्पा द। समझ आ रहा है? आपको यह उत्पा द तो समझ में नहीं आता। जो उत्पा त होता रहता है, वह समझ में आता है। जिस समय पर उत्पा त मच रहा हो उसी समय पर यदि अगर हमें यह ध्या न में आ जाए कि यह उत्पा द है, सत् और असत् का तो आपके अन्दर कि सी से उत्पा त करने का, लड़ा ई-झगड़ा करने का भाव ही नहीं आये। भाव तब आता है जब हम उस व्यक्ति को एक रूप में देखते हैं। कैसे एक रूप में देखते हैं? माने जिस व्यक्ति से हमें नाराजगी है, हम उस व्यक्ति को केवल उसी एक रूप में देखेंगे कि ये व्यक्ति हमारे लि ए बुरा करने वा ला है। यह व्यक्ति हमें नाराज करने वा ला है। यह व्यक्ति हमारा अहि त करने वा ला है। इसलि ए हमें इससे नाराजगी है। समझ आ रहा है? हम उसको कि स रूप में देख रहे हैं? केवल एक रूप में देख रहे हैं। वह उसकी एक पर्याय का रूप है। समझ में आ रहा है? हम उसको उस रूप में नहीं देख रहे हैं कि यह इससे पहले भी था , इससे पहले भी था , इससे पहले भी होगा। हम उसे एक पर्याय के रूप में ही देखते चले जाते हैं कि यह वह व्यक्ति है, जिसने अपने इसी शरीर के साथ में हमें दुःख दिया है. तो अब हमारे लि ए वह बैरी हो गया है। हम उसको अपने दुःख के कारण के रूप में देखते हैं तो यह हमारी दृष्टि में केवल एक भाव आया । वो क्या आया ? पर्याय का उत्पा द। समझ आ रहा है? यदि उत्पा त हमारे अन्दर आता है, तो वह क्यों आता है? केवल पर्याय का उत्पा द जब देखने में आता है, तो आता है। लेकि न जब हम देखें, सत् उत्पा द, द्रव्य का उत्पा द। वह कहा ँ से हो रहा है? वह तो हमेशा से बना हुआ है। आज जो व्यक्ति हमारे लि ए दुःख का कारण है, पहले भी दुःख का कारण रहा हो, जरूरी नहीं है। अगर हम उसके उस उत्पा द की तरफ देखेंगे, द्रव्यार् थिक नय की अपेक्षा से और रहता भी नहीं है।
आचार्य कुन्दकुन्द देव इस प्रवचनसार महा न ग्रन्थ की इस गाथा में द्रव्य को उसके स्व भाव में स्थि त हुआ बताते हैं और कहते हैं कि द्रव्य हमेशा अपने स्व भाव में ही स्थि त रहता है। वह स्व भाव ‘दव्वत्थ पज्जयत्थेहिं’ द्रव्यार् थिक नय से और पर्यायार् थिक नय से जानने में आता है, अनुभव में भी आता है। द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय, ये दो नय इस तरह से क्यों रखे जाते हैं? क्यों इनका आलंबन लिया जाता है?
वस्तु स्वरूप : सामान्य, वि शेषात्म क
हमें यह जानकारी होनी चाहि ए कि कोई भी पदार्थ, कोई भी वस्तु , दो रूपों में ही हमेशा बनी रहती है। एक सामान्य रूप में और एक विशेष रूप में। जो वस्तु का सामान्य विशेषात्मक धर्म होता है, उस धर्म को हम यदि जानना चाह ते हैं तो हमारे पास दो दृष्टि कोण होना चाहि ए।
नय के दो भेद : द्रव्यार्थि व्यार्थिक और पर्या यार्थि र्थिक
उन्हीं दृष्टि कोणों को यहा ँ पर नयों का नाम दिया गया है जिसे हम द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय कहते हैं। मतलब यह हुआ कि द्रव्यार् थिक नय हमें वस्तु के सामान्य गुण धर्म को बताता है और पर्यायार् थिक नय हमें वस्तु के विशेष गुण धर्म को बताते हैं। इसलि ए हमेशा दो ही तरह के नय होते हैं। द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय। कि सी के मन में यह भी प्रश्न आ सकता है कि जब तीन चीजें होती हैं- द्रव्य, गुण और पर्याय तो नय दो ही क्यों होते हैं? इसका समाधान आपको तब मि ल जाएगा जब आप द्रव्य और पर्याय ों के स्व भाव को जानेंगे। द्रव्य हमेशा अपने गुणों के साथ रहता है। द्रव्य का अपने गुणों से अन्वय रहता है। इसलि ए द्रव्य को जानने के लि ए हमें अलग से प्रया स नहीं करना पड़ ता। गुणों को यदि हमने जान लिया , उसी से ही द्रव्य की जानकारी हो जाती है।
द्रव्य = गुणों का समूह
यूँ कहें कि द्रव्य कुछ नहीं है, अपने गुणों के समुदाय से ही वह द्रव्य बना होता है क्योंकि जो द्रव्य है, वह अनेक गुणात्मक है। अनेक गुण स्व रूप जो वस्तु है, उसी का नाम द्रव्य है। द्रव्य कहने से हमें गुणों का ग्रह ण हो जाता है और गुण कहने से हमें द्रव्य का भी ग्रह ण हो जाता है। द्रव्य की परि भाषा क्या है? आचार्य जब द्रव्य को गुणों के साथ जोड़ कर बताते हैं तो कहते हैं जो हमेशा द्रव्य के साथ जुड़े ड़े रहें, द्रव्य के साथ बने रहें, उन्हें गुण कहते हैं। जो गुण वा ला होता है, वह ी गुणी यानि द्रव्य कहलाता है। मतलब क्या हो गया ? द्रव्य गुणों के साथ हमेशा जुड़ा हुआ रहता है। अब आप कोई भी पदार्थ देखें। चाह े वो अजीव पदार्थ हो, चाह े जीव पदार्थ हो, उसमें द्रव्य जो है, वह उसके गुणों का ही एक परि णमन है। गुणों के परि णमन के साथ में उसका जो हमें लक्ष ण दिखाई देता है, वह द्रव्य के रूप में ही दिखाई देता है। इसलि ए नय माने दो दृष्टि कोण हमारे सामने रहते हैं। एक दृष्टि कोण तो वह होता है, जो हमेशा बना हुआ रहता है। हर पदार्थ के साथ में जुड़ा हुआ रहता है। वो चाह े हम गुण के रूप में कह लें या द्रव्य के रूप में कह लें। तात्प र्य यह है कि गुणों को जानने के लि ए अलग से कोई गुणार् थिक नय की जरूरत नहीं है। वह द्रव्यार् थिक नय में ही अन्तर्भू त हो जाता है क्योंकि द्रव्य का स्व भाव और गुणों का स्व भाव एक जैसा है।
द्रव्य का सामान्य धर्म ही उसका सत् गुण
हम पढ़ चुके हैं कि द्रव्य में हमेशा एक सत् नाम का गुण होता है, जिसे सत्ता गुण कहते हैं। वह सत्ता गुण ही उस द्रव्य का एक ‘विधाय क’ है जो उसकी पहचान बनाए रखने वा ला है। इसलि ए पि छली गाथा में कहा गया ‘दव्वं सयं सत्ता ’ द्रव्य स्वय ं सत्ता है। सत्ता ही द्रव्य है और द्रव्य ही सत्ता है। मतलब गुण ही द्रव्य हो जाते हैं, द्रव्य ही गुण हो जाता है। इसलि ए अलग से कि सी गुणयार् थिक नय की जरूरत नहीं है। द्रव्यार् थिक नय से ही गुणों की भी पहचान हो जाती है और द्रव्य की भी पहचान हो जाती है। हर पदार्थ में जो एक सामान्य धर्म चल रहा है, वह उसकी सत्ता को बनाए हुए है। उसकी जो सत्ता बनी हुई है, वह ी उसका द्रव्य है। इसलि ए द्रव्यार् थिक नय के माध्य म से हम द्रव्य को जान लेते हैं और पर्यायार् थिक नय के माध्य म से पर्याय को जान लेते हैं। गुणों को भी जानना होगा तो वह भी हम द्रव्यार् थिक नय के माध्य म से उन गुणों को भी जान लेते हैं। यदि हमें गुणों की पर्याय ों को जानना होगा तो पर्यायार् थिक नय से गुणों की पर्याय ों को जान लेंगे। नय तो दो ही हैं- एक द्रव्यार् थिक नय और एक पर्यायार् थिक नय। जानना हमें द्रव्य को भी हैं, गुण को भी है, पर्याय ों को भी है। इन दोनों नयों से तीनों चीजें जानने में आ जाती हैं। यह द्रव्य का स्व भाव है कि हर द्रव्य, भले ही वह हमारी जानकारी में आ रहा है या नहीं आ रहा है, अपना परि णमन इन्हीं रूप में कर रहा है। जानकारी हमें लेनी है, तो इन दो दृष्टि कोणों से हमें जानकारी लेनी पड़ गी।
द्रव्यार्थि व्यार्थिक नय : कुछ नया, कुछ पुराना
अब द्रव्य की बात आपको समझ में तब आएगी जब थोड़ा सा उदाह रण से आप उस चीज को समझने की कोशि श करें। मान लो हमें कि सी व्यक्ति की जानकारी लेनी है। द्रव्य की जानकारी लेने के लि ए व्यक्ति की जानकारी का उदाह रण समझने कोशि श करें। हमें कि सी व्यक्ति की जानकारी लेनी है। कि सी भी व्यक्ति को हमने सामने देखा तो हम उसकी जानकारी कि स रूप में लेते हैं? यह कहा ँ से आ रहा है? यह कि स स्था न का है? ये कहा ँ का रहने वा ला है? इसका परिवा र कहा ँ रहता है? इसका family background (पारिवारि क पृष्ठ भूमि ) क्या है? हमने कि सी भी व्यक्ति की पहचान करने के लि ए क्या देखा? पीछे! पहले वह कहा ँ था ? क्या था ? इसका background क्या है? समझ आ रहा ? मतलब हम क्या देखना चाह रहे हैं कि कोई ऐसी चीज है, जो इसके साथ पहले से जुड़ी हुई है। जो व्यक्ति आज हमारे सामने खड़ा हुआ है, वह तो उस रूप में है ही लेकि न इससे पहले भी ये जहा ँ था , वहा ँ पर भी ये अपने इसी सम्बन्ध के साथ था । उस व्यक्ति को हमें आज की स्थिति में जानना है, तो उसे जानने के लि ए हमें उसकी पुरानी स्थिति को भी जानना पड़ ता है। लेकि न पुरानी स्थिति में और आज की स्थिति में अन्तर भी है। यदि कोई आपसे कह दे कि यह व्यक्ति बीस साल पहले इस sector में रहता था और बीस साल पहले इस व्यक्ति का यह नाम था । इसके परिवा र में ये-ये लोग रहते थे तो आप यदि उस sector के रहने वा ले होंगे तो एकदम से उस व्यक्ति को देखते ही जान जाएँगे कि हा ँ बीस साल पहले, यह इस परिवा र का है, इस sector का है, इस family (परिवा र) का है। आपके दिमाग में आ जाएगा कि उनको भी मैं जानता हूँ। क्या मतलब हुआ इसका? जो द्रव्य हम जान रहे हैं, जो पदार्थ हम जान रहे हैं, वह पदार्थ पहले भी था । इस बात को हमने स्वी कार किया कि नहीं किया ? वह पहले भी था । जब बीस साल पहले जो था , हम उसमें कुछ न कुछ ऐसी चीज स्वी कार कर रहे हैं जो बीस साल पहले भी कि सी न कि सी रूप में, हर स्थिति में उससे जुड़ा हुआ था और वह चीज आज तक भी उसके साथ एक जैसा बनी हुई है। उसी का नाम है द्रव्यार् थिक नय। शब्द थोड़े ड़े से बदल जाते हैं लेकि न हम ज्ञा न वह ी करते हैं जिस तरीके से हमें ज्ञा न होना चाहि ए। जब हमने यह देखा कि यह उसी परिवा र का है। बीस साल पहले यह इसी स्था न पर रहता था । बीस साल पहले यह इस नाम का व्यक्ति था तो जो हमने बीस साल पहले का उससे सम्बन्ध जोड़ा , हमें पता नहीं कौन से नय से जोड़ लिया लेकि न वह द्रव्यार् थिक नय है। उसका नाम क्या है? द्रव्यार् थिक नय। यह ऐसी चीज हो गई जैसे कोई भी चीज हो रही है लेकि न हमें पता नहीं है, यह क्यों हो रही है? हम कहते हैं:- वृक्ष से फल गि रता है, तो नीचे गि रता है। यह सब जानते हैं कि वृक्ष से फल गि रता है, तो नीचे ही गि रता है। अब वह क्यों गि रता है? उसका जिसने कारण बता दिया , उस कारण के साथ में जो उस फल का ज्ञा न करने लगा तो वह कहलाया वैज्ञानि क। समझ आ रहा है? जिसने उस कारण को नहीं जाना, वैसे ही अपने लि ए काम में ला रहा था तो वह सामान्य व्यक्ति कहलाया । यह ी अन्तर यहा ँ पर है। जो चीजें हमारे सामने हैं, हम उनका जिस तरह से उपयोग कर रहे हैं, जिस तरह से हम उसकी जानकारी ले रहे हैं, वो सब चीजें हमारे साथ में चलती रहती हैं लेकि न हमें पता नहीं होता कि उनको हमें कि स-कि स तरह से देखना चाहि ए, कि स-कि स angle से जानना चाहि ए। जिस द्रव्य को हम आज जान रहे हैं, उसको हम बीस साल पहले के साथ में मि ला कर जान रहे हैं। अब आपको समझना है कि बीस साल पहले से वो चीज, जो मि ल रही है, तो वह उसी के साथ मि ल कैसे सकती है, जो बीस साल पहले थी और आज भी वह ी चीज है। इसका मतलब है, हम ये मान रहे हैं कि द्रव्य पहले भी था । बीस साल के जितने भी fraction of times हैं, जितने भी उस समय के बिन्दु बिन्दु हैं, उन सब में भी वह द्रव्य रहा और वह द्रव्य आज भी, बीस साल बाद भी बना हुआ है। यह हमारे ज्ञा न में आया तभी तो हमने स्वी कार कर लिया कि बीस साल पहले वो क्या था और अब क्या हो गया ? बीस साल पहले उसका सम्बन्ध कहा ँ था और अब कहा ँ है? ये जो सम्बन्ध हमने जान लिया , इसी का नाम है- द्रव्यार् थिक नय। सरल भाषा में इसको इस तरह समझाने की कोशि श कर रहा हूँ। क्या समझ आ रहा है?
वस्तु स्वरूप का ज्ञा न ही वि ज्ञा न
सीधा-सीधा कोई पढ़ ने बैठता है। क्या द्रव्यार् थिक नय है? क्या पर्यायार् थिक नय है? कुछ नहीं है। सब वह ी है। बात वह ी है। वृक्ष से फल गि र रहा है, हम उसको जान नहीं रहे हैं कि नीचे क्यों गि र रहा है? हमें फल का नाम भी नहीं मालूम। हमें ये भी नहीं मालूम कि कि स वृक्ष का क्या फल है? बस हम खाय े जा रहे हैं, देखे जा रहे हैं, आनन्द लि ए जा रहे हैं और हमें कुछ नहीं मालूम। जब उस चीज को जान लेते हैं तो वह एक science बन जाती है। इसी तरीके से जो वस्तु व्यवस्था हमारे सामने है, जब हम उसको जान लेते हैं तो वह हमारे सामने एक विज्ञा न बन जाता है, जिसे हम जैन विज्ञा न कहते हैं। हर पदार्थ को जानने के लि ए, समझने के लि ए, हमें दो नयों की आवश्यकता पड़ ती है। दो प्रकार के दृष्टि कोण हमारे अन्दर रहते हैं। एक पदार्थ के सामान्य स्व रूप को हमेशा बनाए रखता है और सामान्य रूप से हमें पदार्थ को continuity के साथ में जो उसके साथ ही अन्वय बना हुआ है, उस अन्वय को बनाए रखता है। उस दृष्टि कोण से जब पदार्थ को देखते हैं तो हम कहते हैं, यह द्रव्यार् थिक नय से यह पदार्थ है।
अब इस नय का आप उपयोग करो। बीस साल पहले जो व्यक्ति था , आज वह ी व्यक्ति है। कि स नय से है? द्रव्यार् थिक नय से। पाँच साल पहले, छह साल पहले, मान लो यह पुस्त क बनी हो। आज भी यह वह ी पुस्त क है। कि स नय से है? द्रव्यार् थिक नय से। समझ आ रहा है? यह नय आपकाे हमेशा काम आएगा। ये नय वस्तु को उसके साथ जोड़े ड़े रखेगा चाह े वस्तु कहीं भी पहुँ च जाए। मान लो, कोई यहा ँ का रहने वा ला व्यक्ति है, भारत का, रूस में पहुँ च गया । जब उससे पूछा जाएगा तेरा जन्म कहा ँ हुआ? क्या बोलेगा? भारत में हुआ। अपने जन्म को वो भारत से जोड़े ड़े हुए है। अपने जन्म को उस सदी से जोड़े ड़े हुए है, जिस सदी में उसका जन्म हुआ। आज वह पचास साल, साठ साल आगे बढ़ गया फिर भी अपने को पि छली चीजों से जोड़े ड़े हुए है। ये जो जोड़ ने वा ली चीज है, ये जो हमारा देखने वा ला दृष्टि कोण है कि साठ साल तक वस्तु कहा ँ रही और वह वह ी चीज है, जो साठ साल पहले थी, इसी का नाम है द्रव्यार् थिक नय। जो व्यक्ति मुख्य रूप से यह जान रहा है, उसके लि ए पहले दो नय ही सामने आते हैं।
पहले मूल में दो नय हैं, द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय। ‘नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ’ यह सब बाद के नय हैं। यह उसी में से और उसके विभाजन होते हैं। कुछ द्रव्यार् थिक नय के भेद हो जाते हैं, कुछ पर्यायार् थिक नय के भेद हो जाते हैं लेकि न मूल में नय दो ही हैं। पहले मूल चीज जान लो। विस्ता र में पड़ जाते हैं तो हम उस वस्तु की मूल स्थिति भी नहीं जान पाते हैं। हमें पहले समझना है कि हर पदार्थ जो हमें देखने में आ रहा है, वह द्रव्यार् थिक नय से देखने में आता है कि नहीं आता? पहले यह समझ लो। आप के घर में टीवी सेट रखा हुआ है। कि तना पुराना है? आठ-दस साल पुराना है। आप उसको क्या कहोगे? कि स नय से आप देख रहे हो कि आठ-दस साल पुराना है? इसी का नाम है- द्रव्यार् थिक नय। द्रव्य को जो अर्थ माने प्रयोजनीय बनाए, द्रव्य को जो देखे, उसका नाम है- द्रव्यार् थिक नय। द्रव्य तो वह ी है। द्रव्य यानि वस्तु , पदार्थ, वह वह ी है। उस वह ी चीज को जो पकड़ रहा है- वह द्रव्यार् थिक नय है। समझ आ रहा है?
पर्यायार्थिर्थिक नय
उसकी जितनी भी अलग-अलग पर्याय हो रही हैं, अलग-अलग उसकी जो परि णतिया ँ हो रही हैं, उन परि णतिय ों को, पर्याय ों को जो पकड़ रहा है, उसका नाम है- पर्यायार् थिक नय। अब हमने देखा कि दस साल बाद भी वह टीवी सेट है लेकि न उसमें पहले जैसी आवा ज नहीं रही, shining नहीं रही। पहले जैसी उसमें अब image नहीं आ रही है। यह क्या हो गया ? ये उसमें change आ गया । टीवी सेट तो वह ी है लेकि न उसकी ये जो परि णतिय ों में अन्तर आ रहा है, वो भी हमें महसूस हो रहा है। यह वह ी टीवी है लेकि न अब ये पुरानी हो गई है। हम दोनों चीजें कह रहे हैं? हम दोनों नयों का उपयोग कर रहे हैं। यह वह ी टीवी है मतलब द्रव्यार् थिक नय से देख रहे हैं। पुरानी हो गयी, पर्यायार् थिक नय से देख रहे हैं ।
प्रत्येक पदार्थ दो स्वरूप ह र पदार्थ ऐसे ही चल रहा है। चाह े आप कहो या न कहो, जानो या न जानो, कोई बताय े या न बताय े, चल तो वैसे ही रहा है। चाह े हमारा शरीर हो, चाह े हमारी आत्मा हो। हर पदार्थ के साथ में द्रव्यार् थिक नय और पर्यायार् थिक नय के द्वा रा हमें अपने द्रव्य का ज्ञा न रखना चाहि ए। अपनी आत्मा के साथ में भी, अपने शरीर के साथ में भी। शरीर के साथ हमें ज्ञा न रह जाता है लेकि न आत्मा के साथ ज्ञा न नहीं हो पाता है। शरीर के साथ ज्ञा न इस रूप में तो रह जाता है कि हम पचास साल पहले यह थे, अब पचास साल हमारे गुजर गए हैं। हम पहले यह ी थे लेकि न पहले जैसे थे, वैसे अब नहीं रहे। यह हमारे लि ए जो ज्ञा न आता है, यह ी द्रव्यार् थिक और पर्यायार् थिक, दोनों नयों का ज्ञा न है। जो हम यह मान रहे हैं कि हम पचास साल पहले भी थे। यह क्या हो गया ? द्रव्यार् थिक नय। जैसे पहले थे वैसे अब नहीं है, यह हो गया - पर्यायार् थिक नय। बस इतनी सरल सी तो चीज है। वह सब गुण उसी द्रव्य में रहते हैं और उन्हीं गुणों के साथ द्रव्य का परि णमन चलता रहता है। गुण कभी भी द्रव्य को छोड़ कर नहीं जाते। उनका परि णमन बदलता रहता है, पर्याय बदलती रहती है। इसलि ए द्रव्य गुणों के साथ बना हुआ है, वह द्रव्यार् थिक नय से ही जानने में आता है। पर्यायाथि क नय से उसकी पर्याय जानने में आती है।
वस्तु का सत् स्वभाव, असत् स्वभाव
इसीलि ए आचार्य कहते हैं, यह द्रव्य इसी प्रकार के स्व भाव में हमेशा बना रहता है। ‘एवंविध ं सहावे दव्वं दव्वत्थ पज्जयत्थेहिं’। फिर एक चीज यहा ँ अब आगे बताई जाती है। ‘सदसब्भा वणिबद्धं पादुब्भा वं’ प्रा दुर्भाव माने उत्पा द। ये जो उत्पा द है, उत्पत्ति है, यह दो प्रकार से बन्धी हुई है। एक सत् भाव के साथ और एक असत् भाव के साथ । मतलब एक सत् भाव रूप उत्पा द होता है और एक असत् भाव रूप उत्पा द होता है। पदार्थ वह ी है लेकि न बदल भी रहा है। अतः जो बदल रहा है, वह भी उत्पा द है। जो नहीं बदल रहा है, वह भी उत्पा द है। क्या कहा यहा ँ? जो बदल रहा है, वह भी उत्पा द है। जो नहीं बदल रहा है, वह भी उत्पा द है। जो बदल रहा है, उस उत्पा द का नाम है असत् उत्पा द क्योंकि वह पहले नहीं था , अब हो गया । क्या समझ आ रहा है? पहले जो हमारा रूप रंग नहीं था , अब हो गया । पहले जो हमारी अवस्था नहीं थी, अब हो गई। पहले नहीं थी, अब हो गई। ये क्या हो गया ? यह असत् का उत्पा द हो गया । असत् माने जिसका पहले सत् था माने यहा ँ सत् शब्द का अर्थ क्या लगाना- जो पहले हमारे साथ नहीं था , जो पहले हमारे अन्दर नहीं था , अब उसका उत्पा द हमें दिखाई देने लगा। अतः ये कहलाया , पहले जो नहीं था , उसका उत्प न्न होना। ये असत् उत्पा द हो गया । समझ आ रहा हैं? लेकि न वह चीज तो वह ी थी। जो मैं पहले था , वह ी अब हूँ। यह हो गया , सत् का उत्पा द। मतलब द्रव्यार् थिक नय से देखोगे तो आपको दिखाई देगा, सत् का उत्पा द हो रहा है, सत् उत्प न्न हो रहा है और पर्यायार् थिक नय से देखोगे तो आपको दिखाई देगा कि असत् उत्प न्न हो रहा है। जो पहले नहीं था , अब उत्प न्न हो गया ।
जैसे- मि ट्टी से घड़ा बनाया । समझ आ रहा है? मि ट्टी में पहले घड़ा तो नहीं था । मि ट्टी में मि ट्टी दिखाई दे रही थी। मि ट्टी से हमने लौंदा बनाया , उसको घड़े ड़े का आकार दिया । वह घड़ा बन गया । जब हम केवल घड़े ड़े को देखेंगे तो क्या कहलाएगा? ये भी उत्पा द है कि नहीं? ये कौन सा उत्पा द
कोई भी पदार्थ हमें बता दो कि एक रूप में कहीं रह सकता हो? पदार्थ हमेशा दोनों रूपों में मि लेगा। साठ साल पहले तुम कहा ँ थे? हम यहा ँ थे। यहा ँ जन्म लि ए थे। ये हमारे सम्बन्धी थे। ये हमारी पीढ़िया ँ, ये हमारा परिवा र है। इससे हमने सम्बन्ध जोड़ कर जो जाना, ये सब क्या हो गया ? द्रव्यार् थिक नय। अब हम क्या हैं? हम यहा ँ रह रहे हैं। हमने यह ीं की अपनी नागरि कता ग्रह ण कर ली है। अब हम यह ीं के सदस्य बन गए हैं। यह ी हमारे लि ए अब निवा स स्था न बन गया है। लोग हमें अब उस रूप में नहीं जानते, इस रूप में जानते हैं जो अभी मैं वर्त मान में हूँ। ये क्या हो गया ? यह पर्यायार् थिक नय हुआ। कि ताब के साथ भी यह ी स्थिति है। पाँच साल पहले यह कि ताब थी। जब बनी थी, उस समय पर इस कि ताब की, द्रव्य की जो स्थिति थी, आज उस कि ताब की द्रव्य की स्थिति में आपको अन्तर दिखाई देगा लेकि न द्रव्य तो वह ी है। जो थोड़ा उसमें पुरानापन आ गया , पीलापन आ गया । हलकी सी पुरानी लगने लगी। यह पुरानी quality की हो गई। यह पुरानी printing है। समझ आ रहा है न? ये जो पुरानापन हमें दिखाई दे रहा है, नया पन दिखाई दे रहा है, यह सब हो गया पर्याय और चीज तो वह ी है, वह हो गयी उसका द्रव्य। हर जगह यह ी है। कोई भी पदार्थ है, वह दोनों रूपों में ही जानने में आता है। एक रूप में तो कोई पदार्थ होता ही नहीं है लेकि न ये हमने अभी तक नहीं जाना। यह हमें बताया सर्वज्ञ भगवा न ने। इसीलि ए उनके ज्ञा न से जब हम जानते हैं तो हमें लगता है कि अब हमारे अन्दर नया विज्ञा न आ गया , हर पदार्थ को जानने का, देखने का, समझने का। है? यह असत् उत्पा द है लेकि न यह असत् उत्पा द कहीं अचानक से नहीं हो गया । हुआ कि ससे? कि सके द्वा रा हुआ? कि सके साथ हुआ? कहा ँ से चल कर आ रहा है? तो वह हुआ, सत् का उत्पा द। समझ आ रहा है? हम क्या बोलेंगे? ये मि ट्टी घड़ा बन गई। अब देखो! उसमें सब समाहि त है। मि ट्टी से बनी और क्या बना? तो मि ट्टी बनी, ये क्या हो गया ? सत् का उत्पा द और जो घड़ा बना, ये क्या हो गया ? असत् का उत्पा द। जो पहले उसमें नहीं था , वह अब उत्प न्न हो गया । आचार्य कहते हैं, हमेशा दो रूपों में ये उत्पा द चलता रहता है। एक सत् का उत्पा द है, एक असत् का उत्पा द। समझ आ रहा है? आपको यह उत्पा द तो समझ में नहीं आता। जो उत्पा त होता रहता है, वह समझ में आता है। जिस समय पर उत्पा त मच रहा हो उसी समय पर यदि अगर हमें यह ध्या न में आ जाए कि यह उत्पा द है, सत् और असत् का तो आपके अन्दर कि सी से उत्पा त करने का, लड़ा ई-झगड़ा करने का भाव ही नहीं आये। भाव तब आता है जब हम उस व्यक्ति को एक रूप में देखते हैं। कैसे एक रूप में देखते हैं? माने जिस व्यक्ति से हमें नाराजगी है, हम उस व्यक्ति को केवल उसी एक रूप में देखेंगे कि ये व्यक्ति हमारे लि ए बुरा करने वा ला है। यह व्यक्ति हमें नाराज करने वा ला है। यह व्यक्ति हमारा अहि त करने वा ला है। इसलि ए हमें इससे नाराजगी है। समझ आ रहा है? हम उसको कि स रूप में देख रहे हैं? केवल एक रूप में देख रहे हैं। वह उसकी एक पर्याय का रूप है। समझ में आ रहा है? हम उसको उस रूप में नहीं देख रहे हैं कि यह इससे पहले भी था , इससे पहले भी था , इससे पहले भी होगा। हम उसे एक पर्याय के रूप में ही देखते चले जाते हैं कि यह वह व्यक्ति है, जिसने अपने इसी शरीर के साथ में हमें दुःख दिया है. तो अब हमारे लि ए वह बैरी हो गया है। हम उसको अपने दुःख के कारण के रूप में देखते हैं तो यह हमारी दृष्टि में केवल एक भाव आया । वो क्या आया ? पर्याय का उत्पा द। समझ आ रहा है? यदि उत्पा त हमारे अन्दर आता है, तो वह क्यों आता है? केवल पर्याय का उत्पा द जब देखने में आता है, तो आता है। लेकि न जब हम देखें, सत् उत्पा द, द्रव्य का उत्पा द। वह कहा ँ से हो रहा है? वह तो हमेशा से बना हुआ है। आज जो व्यक्ति हमारे लि ए दुःख का कारण है, पहले भी दुःख का कारण रहा हो, जरूरी नहीं है। अगर हम उसके उस उत्पा द की तरफ देखेंगे, द्रव्यार् थिक नय की अपेक्षा से और रहता भी नहीं है।