11-20-2022, 03:20 PM
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
गाथा -20
द्रव्य कभी भी अपना द्रव्यपना नहीं छोड़ता
देखो! क्या कहते हैं? ‘जीवो भवं’ जीव होता हुआ, हो गया । ‘भवि स्सदि ’ यानि हो जाता है, होगा। ‘णरोSमरो वा’ नर भी हो जाता है और अमर भी हो जाता है। अमरो माने देव भी हो जाता है। वह ी जीव मनुष्य हो जाता है, वह ी जीव देव रूप हो जाता है। “परो” माने अन्य भी पुन: हो जाता है। ‘किं दव्वत्तं पजहदि ’ आचार्य पूछते हैं कि क्या अब वह अपने द्रव्यपने को छोड़ देता है? क्या द्रव्य अलग हो गया ? क्या उसने अपना द्रव्य स्व भाव छोड़ दिया ? आपको विश्वा स दिलाना चाह रहे हैं कि द्रव्य कभी भी अपने द्रव्य स्व भाव को छोड़ ता नहीं है।’ण जहं अण्णो कहं हवदि ’ यदि उसने द्रव्य नहीं छोड़ा तो अन्य कैसे हो गया ? अन्य माने कोई दूसरा कैसे हो गया ? मतलब द्रव्यार् थिक नय से हम देखें तो हम यह कहेंगे कि वह ी द्रव्य उत्प न्न होता है, तो ये दृष्टिया ँ हैं। पहले हमने कहा था कि द्रव्यार् थिक नय से कोई द्रव्य न नष्ट होता है, न उत्प न्न होता है। शास्त्र में लि खा हुआ है कि द्रव्यार् थिक नय से कोई भी द्रव्य न उत्प न्न होता है, न नष्ट होता है। लेकि न यहा ँ क्या कह रहे हैं? यहा ँ एक और नई चीज बता रहे हैं कि द्रव्यार् थिक नय से भी द्रव्य उत्प न्न होता है। उसके उत्प न्न होने को हम क्या कहेंगे? सत् उत्पा द कहेंगे क्योंकि जब हम द्रव्य की ओर दृष्टि रखेंगे तो द्रव्य तो वह ी है। वह ी द्रव्य उत्प न्न हो गया । जो वह ी द्रव्य उत्प न्न हो गया , इसी का नाम है- द्रव्य का नया उत्पा द हो गया । सुन रहे हो? हर चीज को हम कह सकते हैं, नयों के माध्य म से। द्रव्यार् थिक नय से उत्पा द नहीं होता लेकि न यहा ँ पर क्या कह रहे हैं? द्रव्यार् थिक नय से सत् का भी उत्पा द होता है माने द्रव्यपना बना हुआ है लेकि न फिर भी द्रव्य बदल गया । द्रव्य बदल गया ? द्रव्य तो वह ी रहा लेकि न नया उत्प न्न हो गया । जो नया उत्प न्न हो गया , वह ी द्रव्य का उत्पा द कहलाया माने द्रव्य ही तो उत्प न्न हो गया । जैसे आप बोलते हो, हमारे घर में नए बच्चे ने जन्म लिया है। नया ही तो होता है न बच्चा । हर बच्चा नया ही तो होता है। नया उत्पा द हुआ। समझ आ रहा है? वह नया उत्पा द कि स रूप में हुआ? जो पहले भी था कि नहीं था कि अभी-अभी उसका नया उत्पा द हुआ है? वह द्रव्य कहीं से आया है कि अभी कोई नया द्रव्य उत्प न्न हुआ? द्रव्य तो कहीं न कहीं होता ही है, था ही। उसी द्रव्य का यह उत्पा द हो गया । कोई निमित्त ज्ञा नी आपको उसी समय पर यह बता दे कि यह वह ी बेटा है जो आपके घर में आपके चाचा के, फूफा के, ताऊ का लड़ का था । उसको आपने देखा था , उसका यह नाम था , वह आपके घर आता था , आपकी उससे पहचान है, यह वह ी है। जब वह ी है, तो फिर नया कैसे हो गया ? इसी को कहते हैं, यह नई चीज आ गई, नया द्रव्य आ गया । द्रव्य का उत्पा द भी अगर हमें नई पर्याय के साथ प्राप्त होता है, तो भी हम उसको द्रव्य का ही उत्पा द कहेंगे, यह यहा ँ बताया गया है।
द्रव्य बदलता है: रावण हमेशा रावण नहीं
द्रव्यपना तो नहीं छोड़ा न उसने? जो मनुष्य था , वह ी देव हो गया । वह ी फिर पशु हो गया । द्रव्य तो वह ी है। जो सीता का जीव है, वह ी देव बन गया । वह ी सीता का जीव गणधर भी बनने वा ला है। वह ी राव ण तीर्थं कर बनेगा। जैन दर्श न में राव ण हमेशा राव ण नहीं है। राव ण आगे तीर्थं कर भी होने वा ला है। यदि आप उसको राव ण, राव ण कह कर, दशहरा ही मनाते रहोगे, उसकी पर्याय ही जलाते रहोगे तो आप द्रव्य को कब समझोगे? वह तीर्थं कर भी बन जाएगा तो भी आप उसका दशहरा ही मनाते रहोगे। समझ आ रहा है? अंजन चोर हुआ। अब वह अंजन चोर वर्त मान में कहा ँ है। सि द्ध भगवा न बन गया वह । आज भी हम अंजन ही कहते हैं, उसको। अंजन चोर का उत्पा द अभी सि द्ध पर्याय में है, तो सि द्ध पर्याय के रूप में वह उत्पा द हमें अंजन चोर की उस पर्याय के साथ दिखाई देता है तब तो चलो ठीक है, हमारा ज्ञा न। यदि ऐसा नहीं दिखाई देता है, हम उसको केवल चोर के रूप में ही आज तक जान रहे हैं माने हम उसकी केवल पर्याय को ही जान रहे हैं। आज भी अंजन चोर कहते हैं। हमें उसका चोरपना तो दिखाई देता है, सि द्धपना दिखाई नहीं दे रहा है। यह ी चीज हमें बताती है कि हम द्रव्य और पर्याय को पूरा नहीं जान रहे हैं। कि सी भी चीज के लि ए वास्त विक स्थिति को जब जानेंगे तो हमें दोनों ही प्रकार के नयों से उसका ज्ञा न करना होगा।
सब की सत्ता एक सी
आचार्य कहते हैं कि द्रव्य अपने द्रव्यत्व को, द्रव्य स्व भाव को, सत्ता स्व भाव को कभी छोड़ ता नहीं है। इसलि ए दुनिया में सब की सत्ता है। हमारी भी सत्ता है। समझ आ रहा है? हम कि सी की सत्ता को कभी भी यदि देखें तो उसके सत् स्व भाव के माध्य म से देखें कि इसकी सत्ता बनी रहती है, तो हम इसकी सत्ता को बुरा क्यों समझें? क्योंकि आज ये कि सी रूप में बुरा है। कल अच्छा था , आगे भी अच्छा हो जाएगा। एक ही पर्याय हमेशा नहीं बनी रहती है। समझ आ रहा है? आपने जिस दृष्टि से बहू को देखना शुरु किया है, जब से वह बहू बनकर आई है। हर सास बहू को आज तक उसी दृष्टि से देखती है। चाह े उसको घर में रहते हुए बीस वर्ष ही क्यों न नि कल गए हों, चालीस वर्ष क्यों न होने को आए हों। उस बहू को बीस वर्ष का लड़ का क्यों न हो गया हो पर दृष्टि नहीं बदलती। यह दृष्टि जब तक नहीं बदलेगी तब तक आपको यह पढ़ ने का कोई प्रयोजन सि द्ध नहीं होगा। यह गाथा एँ पढ़ कर, रट लेना या हमको प्रवचनसार समझ में आ रहा है ऐसा समझ लेना इससे कुछ होने वा ला नहीं है। होना कि ससे है? अपनी दृष्टि हर पदार्थ के साथ द्रव्य और पर्याय दोनों को जाने। द्रव्यार् थिक नय से भी पदार्थ को देखें और पर्यायार् थिक नय से भी पदार्थ को देखें। कि तनी भी बुरी कोई भी वस्तु चाह े वह बहू हो, चाह े बेटा हो, वह एक रूप में हमेशा कभी रह ही नहीं सकता है। पर्याय रूप, परि णमन रूप उसका स्व भाव है। लेकि न हमें वह हमेशा एक ही रूप में दिखाई देता है और पहले से ज्या दा बुरा ही दिखाई देगा। ऐसा भी नहीं है कि जितना पहले बुरा दिखाई देता था , उतना ही आज भी दिखाई दे रहा है। अब तो इतना बुरा हो गया कि उसका नाम भी यदि कोई दूर से ले, माने वो घर में नहीं हो, सौ कि लोमीटर दूर भी हो तो भी कलेजा जल जाता है। इतना बुरा लगने लगा वह द्रव्य हमें। क्या पता वह ी द्रव्य पहले आपकी बेटी की पर्याय में था । पहले वह ी आपकी माँ की पर्याय में था । कि सी भी रूप में हो सकता है। आपकी माँ बचपन में मर गई। वह ी बहू बन कर आपके घर में आ गई। क्या नहीं हो सकता? यदि हम द्रव्य की ओर दृष्टि डाले तो हमें सब कुछ समझ आ सकता है और उसके प्रति हमारा द्वेष कम हो सकता है। लेकि न हम पर्याय को ही और गाढ़ा करते चले जाते हैं। अब बहू कि तनी भी बदल जाए लेकि न हम उसके प्रति अपनी धारणा नहीं बदल सकते। अब वह कि तना भी फोन से संदेश भेजे, मेरी प्या री दुलारी सासू माँ लेकि न आपको भरोसा नहीं आएगा। आपको लगेगा कि यह message मेरे लड़ के ने बहू के नाम से कर दिया है। यह बहू का message हो ही नहीं सकता। मेरा लड़ का उसके प्रति मेरी धारणा बदलना चाह रहा है पर मैं नहीं बदलूँगी। वह ऐसी हो ही नहीं सकती। जो ऐसे बन चुके हैं तब आपका कोई भी धर्म कार्य, उनके भीतर धर्म पैदा नहीं कर सकता। आप कि तनी ही पूजा करे, कि तना ही स्वा ध्याय करे। यदि ऐसी कषाय बन जाती है, तो फिर वह पूजा, वह स्वा ध्याय भीतर से कुछ भी परिवर्त न का कारण नहीं बनता। द्वेष में, कषाय में कमी नहीं आती तो कभी भी हमारा भला होने वा ला नहीं।
सम्यक्त्व परिणाम ही सार्थक
सम्यक्त्व का परि णाम यदि आ जाता है तो हम कि सी के प्रति एक धारणा रखते ही नहीं है। ये आपको सीता के दृष्टा न्त से समझ कर रखना है। मि थ्या दृष्टि का परि णाम क्या होता है वह भी बता दिया और सम्यग्दृष्टि का परि णाम क्या होता है वह भी बता दिया । द्रव्य हमेशा बने रहते हैं। हमें अपने परि णामों को सम्यक्त्व के अनुसार बनाने के लि ए समझना चाहि ए कि कैसे परि णाम हमें बनाना है। उसी से हमारा सम्यग्दर्श न बनता है। केवल द्रव्य, गुण, पर्याय का श्रद्धा न कर लिया उससे हमारे परि णाम में जो द्वेष कम होगा, कषाय कम होगी, यह उसका प्रयोजन होगा, तभी हमें उस परि णाम से सम्यग्दर्श न होगा।
जीवत्व जीव धरता नर देव होता, तिर्यंच नारक तथा स्वयमेव होता।
पै द्रव्य द्रव्यपन को जब ना तजेगा, कैसा भला परपना फिर वो भजेगा।
गाथा -20
द्रव्य कभी भी अपना द्रव्यपना नहीं छोड़ता
देखो! क्या कहते हैं? ‘जीवो भवं’ जीव होता हुआ, हो गया । ‘भवि स्सदि ’ यानि हो जाता है, होगा। ‘णरोSमरो वा’ नर भी हो जाता है और अमर भी हो जाता है। अमरो माने देव भी हो जाता है। वह ी जीव मनुष्य हो जाता है, वह ी जीव देव रूप हो जाता है। “परो” माने अन्य भी पुन: हो जाता है। ‘किं दव्वत्तं पजहदि ’ आचार्य पूछते हैं कि क्या अब वह अपने द्रव्यपने को छोड़ देता है? क्या द्रव्य अलग हो गया ? क्या उसने अपना द्रव्य स्व भाव छोड़ दिया ? आपको विश्वा स दिलाना चाह रहे हैं कि द्रव्य कभी भी अपने द्रव्य स्व भाव को छोड़ ता नहीं है।’ण जहं अण्णो कहं हवदि ’ यदि उसने द्रव्य नहीं छोड़ा तो अन्य कैसे हो गया ? अन्य माने कोई दूसरा कैसे हो गया ? मतलब द्रव्यार् थिक नय से हम देखें तो हम यह कहेंगे कि वह ी द्रव्य उत्प न्न होता है, तो ये दृष्टिया ँ हैं। पहले हमने कहा था कि द्रव्यार् थिक नय से कोई द्रव्य न नष्ट होता है, न उत्प न्न होता है। शास्त्र में लि खा हुआ है कि द्रव्यार् थिक नय से कोई भी द्रव्य न उत्प न्न होता है, न नष्ट होता है। लेकि न यहा ँ क्या कह रहे हैं? यहा ँ एक और नई चीज बता रहे हैं कि द्रव्यार् थिक नय से भी द्रव्य उत्प न्न होता है। उसके उत्प न्न होने को हम क्या कहेंगे? सत् उत्पा द कहेंगे क्योंकि जब हम द्रव्य की ओर दृष्टि रखेंगे तो द्रव्य तो वह ी है। वह ी द्रव्य उत्प न्न हो गया । जो वह ी द्रव्य उत्प न्न हो गया , इसी का नाम है- द्रव्य का नया उत्पा द हो गया । सुन रहे हो? हर चीज को हम कह सकते हैं, नयों के माध्य म से। द्रव्यार् थिक नय से उत्पा द नहीं होता लेकि न यहा ँ पर क्या कह रहे हैं? द्रव्यार् थिक नय से सत् का भी उत्पा द होता है माने द्रव्यपना बना हुआ है लेकि न फिर भी द्रव्य बदल गया । द्रव्य बदल गया ? द्रव्य तो वह ी रहा लेकि न नया उत्प न्न हो गया । जो नया उत्प न्न हो गया , वह ी द्रव्य का उत्पा द कहलाया माने द्रव्य ही तो उत्प न्न हो गया । जैसे आप बोलते हो, हमारे घर में नए बच्चे ने जन्म लिया है। नया ही तो होता है न बच्चा । हर बच्चा नया ही तो होता है। नया उत्पा द हुआ। समझ आ रहा है? वह नया उत्पा द कि स रूप में हुआ? जो पहले भी था कि नहीं था कि अभी-अभी उसका नया उत्पा द हुआ है? वह द्रव्य कहीं से आया है कि अभी कोई नया द्रव्य उत्प न्न हुआ? द्रव्य तो कहीं न कहीं होता ही है, था ही। उसी द्रव्य का यह उत्पा द हो गया । कोई निमित्त ज्ञा नी आपको उसी समय पर यह बता दे कि यह वह ी बेटा है जो आपके घर में आपके चाचा के, फूफा के, ताऊ का लड़ का था । उसको आपने देखा था , उसका यह नाम था , वह आपके घर आता था , आपकी उससे पहचान है, यह वह ी है। जब वह ी है, तो फिर नया कैसे हो गया ? इसी को कहते हैं, यह नई चीज आ गई, नया द्रव्य आ गया । द्रव्य का उत्पा द भी अगर हमें नई पर्याय के साथ प्राप्त होता है, तो भी हम उसको द्रव्य का ही उत्पा द कहेंगे, यह यहा ँ बताया गया है।
द्रव्य बदलता है: रावण हमेशा रावण नहीं
द्रव्यपना तो नहीं छोड़ा न उसने? जो मनुष्य था , वह ी देव हो गया । वह ी फिर पशु हो गया । द्रव्य तो वह ी है। जो सीता का जीव है, वह ी देव बन गया । वह ी सीता का जीव गणधर भी बनने वा ला है। वह ी राव ण तीर्थं कर बनेगा। जैन दर्श न में राव ण हमेशा राव ण नहीं है। राव ण आगे तीर्थं कर भी होने वा ला है। यदि आप उसको राव ण, राव ण कह कर, दशहरा ही मनाते रहोगे, उसकी पर्याय ही जलाते रहोगे तो आप द्रव्य को कब समझोगे? वह तीर्थं कर भी बन जाएगा तो भी आप उसका दशहरा ही मनाते रहोगे। समझ आ रहा है? अंजन चोर हुआ। अब वह अंजन चोर वर्त मान में कहा ँ है। सि द्ध भगवा न बन गया वह । आज भी हम अंजन ही कहते हैं, उसको। अंजन चोर का उत्पा द अभी सि द्ध पर्याय में है, तो सि द्ध पर्याय के रूप में वह उत्पा द हमें अंजन चोर की उस पर्याय के साथ दिखाई देता है तब तो चलो ठीक है, हमारा ज्ञा न। यदि ऐसा नहीं दिखाई देता है, हम उसको केवल चोर के रूप में ही आज तक जान रहे हैं माने हम उसकी केवल पर्याय को ही जान रहे हैं। आज भी अंजन चोर कहते हैं। हमें उसका चोरपना तो दिखाई देता है, सि द्धपना दिखाई नहीं दे रहा है। यह ी चीज हमें बताती है कि हम द्रव्य और पर्याय को पूरा नहीं जान रहे हैं। कि सी भी चीज के लि ए वास्त विक स्थिति को जब जानेंगे तो हमें दोनों ही प्रकार के नयों से उसका ज्ञा न करना होगा।
सब की सत्ता एक सी
आचार्य कहते हैं कि द्रव्य अपने द्रव्यत्व को, द्रव्य स्व भाव को, सत्ता स्व भाव को कभी छोड़ ता नहीं है। इसलि ए दुनिया में सब की सत्ता है। हमारी भी सत्ता है। समझ आ रहा है? हम कि सी की सत्ता को कभी भी यदि देखें तो उसके सत् स्व भाव के माध्य म से देखें कि इसकी सत्ता बनी रहती है, तो हम इसकी सत्ता को बुरा क्यों समझें? क्योंकि आज ये कि सी रूप में बुरा है। कल अच्छा था , आगे भी अच्छा हो जाएगा। एक ही पर्याय हमेशा नहीं बनी रहती है। समझ आ रहा है? आपने जिस दृष्टि से बहू को देखना शुरु किया है, जब से वह बहू बनकर आई है। हर सास बहू को आज तक उसी दृष्टि से देखती है। चाह े उसको घर में रहते हुए बीस वर्ष ही क्यों न नि कल गए हों, चालीस वर्ष क्यों न होने को आए हों। उस बहू को बीस वर्ष का लड़ का क्यों न हो गया हो पर दृष्टि नहीं बदलती। यह दृष्टि जब तक नहीं बदलेगी तब तक आपको यह पढ़ ने का कोई प्रयोजन सि द्ध नहीं होगा। यह गाथा एँ पढ़ कर, रट लेना या हमको प्रवचनसार समझ में आ रहा है ऐसा समझ लेना इससे कुछ होने वा ला नहीं है। होना कि ससे है? अपनी दृष्टि हर पदार्थ के साथ द्रव्य और पर्याय दोनों को जाने। द्रव्यार् थिक नय से भी पदार्थ को देखें और पर्यायार् थिक नय से भी पदार्थ को देखें। कि तनी भी बुरी कोई भी वस्तु चाह े वह बहू हो, चाह े बेटा हो, वह एक रूप में हमेशा कभी रह ही नहीं सकता है। पर्याय रूप, परि णमन रूप उसका स्व भाव है। लेकि न हमें वह हमेशा एक ही रूप में दिखाई देता है और पहले से ज्या दा बुरा ही दिखाई देगा। ऐसा भी नहीं है कि जितना पहले बुरा दिखाई देता था , उतना ही आज भी दिखाई दे रहा है। अब तो इतना बुरा हो गया कि उसका नाम भी यदि कोई दूर से ले, माने वो घर में नहीं हो, सौ कि लोमीटर दूर भी हो तो भी कलेजा जल जाता है। इतना बुरा लगने लगा वह द्रव्य हमें। क्या पता वह ी द्रव्य पहले आपकी बेटी की पर्याय में था । पहले वह ी आपकी माँ की पर्याय में था । कि सी भी रूप में हो सकता है। आपकी माँ बचपन में मर गई। वह ी बहू बन कर आपके घर में आ गई। क्या नहीं हो सकता? यदि हम द्रव्य की ओर दृष्टि डाले तो हमें सब कुछ समझ आ सकता है और उसके प्रति हमारा द्वेष कम हो सकता है। लेकि न हम पर्याय को ही और गाढ़ा करते चले जाते हैं। अब बहू कि तनी भी बदल जाए लेकि न हम उसके प्रति अपनी धारणा नहीं बदल सकते। अब वह कि तना भी फोन से संदेश भेजे, मेरी प्या री दुलारी सासू माँ लेकि न आपको भरोसा नहीं आएगा। आपको लगेगा कि यह message मेरे लड़ के ने बहू के नाम से कर दिया है। यह बहू का message हो ही नहीं सकता। मेरा लड़ का उसके प्रति मेरी धारणा बदलना चाह रहा है पर मैं नहीं बदलूँगी। वह ऐसी हो ही नहीं सकती। जो ऐसे बन चुके हैं तब आपका कोई भी धर्म कार्य, उनके भीतर धर्म पैदा नहीं कर सकता। आप कि तनी ही पूजा करे, कि तना ही स्वा ध्याय करे। यदि ऐसी कषाय बन जाती है, तो फिर वह पूजा, वह स्वा ध्याय भीतर से कुछ भी परिवर्त न का कारण नहीं बनता। द्वेष में, कषाय में कमी नहीं आती तो कभी भी हमारा भला होने वा ला नहीं।
सम्यक्त्व परिणाम ही सार्थक
सम्यक्त्व का परि णाम यदि आ जाता है तो हम कि सी के प्रति एक धारणा रखते ही नहीं है। ये आपको सीता के दृष्टा न्त से समझ कर रखना है। मि थ्या दृष्टि का परि णाम क्या होता है वह भी बता दिया और सम्यग्दृष्टि का परि णाम क्या होता है वह भी बता दिया । द्रव्य हमेशा बने रहते हैं। हमें अपने परि णामों को सम्यक्त्व के अनुसार बनाने के लि ए समझना चाहि ए कि कैसे परि णाम हमें बनाना है। उसी से हमारा सम्यग्दर्श न बनता है। केवल द्रव्य, गुण, पर्याय का श्रद्धा न कर लिया उससे हमारे परि णाम में जो द्वेष कम होगा, कषाय कम होगी, यह उसका प्रयोजन होगा, तभी हमें उस परि णाम से सम्यग्दर्श न होगा।
जीवत्व जीव धरता नर देव होता, तिर्यंच नारक तथा स्वयमेव होता।
पै द्रव्य द्रव्यपन को जब ना तजेगा, कैसा भला परपना फिर वो भजेगा।