प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप
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गाथा - 22
द्रव्य- अन्य भी, अनन्य भी।
देखो! कि तने अच्छे स्पष्टी करण के साथ लि खा जा रहा है। ‘दव्वट्ठि येण’ यानि द्रव्यार् थिकपने से माने द्रव्यार् थिक नय से। क्या मतलब हुआ? द्रव्य को जब हम देखेंगे तो द्रव्यार् थिक नय से। ‘सव्वं दव्वं ’ माने सभी द्रव्य। उनको ‘तं’ और उन ही सब द्रव्यों को ‘पज्जयट्ठि एण पुणो’ पुनः उन्हीं को पर्यायार् थिक नय से, क्या हो जाते हैं वह ? ‘अण्णमणण्णं य हवदि ’ अन्य भी हो जाते हैं और अनन्य भी हो जाते हैं। द्रव्यार् थिक नय से अनन्य ही रहता है और पर्यायार् थिक नय से वह ी द्रव्य अन्य भी हो जाता है। हम अलग भी कहेंगे और वह ी भी कहेंगे। दोनों विरोधाभास कैसे कह लोगे? दुनिया का कोई भी व्यक्ति इस विरोधाभास को मि टा नहीं सकता है। केवल अनेकान्त को जानने वा ला, स्या दवा द से ही इस विरोधाभास को मि टा सकता है। जिसको आप कह रहे हो यह वह ी है और यह भी कह रहे हो कि यह अलग हो गया । समझ आ रहा है? जब वह ी था तो अलग कैसे? अनन्य है, तो अन्य कैसे? और अन्य है, तो अनन्य कैसे?
अनन्य याने एकपना, अन्य याने अनेक पना
अनन्य माने एकपना और अन्य माने अनेकपना, भि न्नपना। एकपना और अनेकपना, अभि न्नपना और भि न्नपना दोनों हर द्रव्य के साथ -साथ चल रहे हैं। दोनों उसके गुण धर्म हैं। जब हम दोनों को जानेंगे तभी हमारे लि ए अनेकान्त वा द के माध्य म से वस्तु का यथा र्थ जानने में आएगा। आचार्य क्या कहते हैं? वह ी द्रव्य ‘तक्का ले अण्णमणण्णं वा’ तक्का ले या ने उसी समय पर जो द्रव्य जिस पर्याय के साथ रह रहा है, वह द्रव्य उस समय पर उसी काल में अन्य भी होता है, अनन्य भी होता है। कैसे हो जाता है?
द्रव्य प्रति समय पर्या य में तन्मय
‘तक्का ले तम्मयत्ता दो’ क्योंकि उस समय पर वह उस मय होता है, तन्मय होता है। समझ आ रहा है? वह द्रव्य उस समय पर अपनी पर्याय मय होता है। जैसे अभी हम मनुष्य द्रव्य के साथ , मनुष्य पर्याय के साथ हैं। अभी हम मनुष्य पर्याय मय हैं। हमारा सब व्यवहा र मनुष्यों जैसा होगा। पशुओं जैसा नहीं होगा, नारकिय ों जैसा नहीं होगा, देवों जैसा नहीं होगा। हम हमेशा क्या महसूस करेंगे? हम मनुष्य हैं। हमारा द्रव्य इस समय कि स मय है?


अनुभूति किसकी? द्रव्य की या पर्या य की?
मनुष्य पर्याय मय है। जीव द्रव्य जिस समय पर जिस पर्याय के साथ होगा, वह उस मय होता है। उस समय पर वह उस मय होगा या ने उसी में मि ला हुआ होगा, घुला मि ला रहेगा। मतलब हम कभी भी यह चाह े कि मनुष्य पर्याय में हम देवत्व की अनुभूति कर ले तो यह कभी नहीं हो सकती है। स्व प्न में भी नहीं। स्व प्न में तो और नहीं हो सकती क्योंकि स्व प्न तो वैसे भी झूठ होते हैं। समझ आ रहा है? इस मनुष्य पर्याय में लोग सि द्धत्व की अनुभूति कर रहे हैं। मैं सि द्ध हूँ, मैं सि द्ध हूँ, मैं सि द्ध हूँ। सि द्ध कैसे हो सकते हो? यदि यह कहो कि मैं सि द्ध समान हूँ तब तो चलो फिर भी ठीक है लेकि न मैं सि द्ध हूँ। क्या आप सि द्ध हो गए? यह सोच कर बोलना। मैं भी आपको बुलवा ता हूँ। सिद्धोह ं, सोहम्, सोहम्। कभी-कभी बुलवा ता हूँ न। सि द्ध स्व रूपोहं। सि द्ध स्व रूप है, मेरा। उसका मतलब क्या ? अगर मान लो मैं यह भी बोल दूँ कि सिद्धोह ं तो कहीं तुमने यह तो नहीं मान लिया कि मैं सि द्ध हो ही गया ? शक्ति आ गई न? यह तो नहीं कहा न कि सि द्ध ही हो गया हूँ मैं। यह ध्या न में रखना। जब भी आपसे भाव ना कही जाती है कि सिद्धोह ं या सि द्ध स्व रूपोहं तो इसका मतलब हो गया मेरा स्व रूप और सि द्ध का स्व रूप एक समान है। ऐसी एकत्व की भाव ना जोड़ने के लि ए यह भाव ना रखी जाती है। ऐसा नहीं समझ लेना कि मैं ही सि द्ध हो गया । सिद्धोह ं कहा न। मैं सि द्ध हूँ। सोsहं, सोsहं माने भी होता है- सो यानि वह । वह माने जो मैं अभी नहीं हूँ। जो होऊँगा, वह मैं हूँ, वह मै हूँ यानि मैं सि द्ध हूँ, मैं सि द्ध हूँ, इसका मतलब यह ही होता है।

वह मैं हूँ
सोsहं या ने वह मैं हूँ। सो या ने वह , जो अभी नहीं है। वह कि सको बोलते हैं, जो परोक्ष में है। समझ आ रहा है? सर्व नाम शब्द है। सो या ने वह । परोक्षवा ची होता है, यह । तत् से बनता है। सो माने वह और अहं माने मैं। वह मैं, वह मैं, वह मैं, मतलब वह तो कोई दूसरा है, कोई अलग है लेकि न उसमें मैं अपने को जोड़ रहा हूँ, जोड़ने की कोशि श कर रहा हूँ। वह मैं, वह मैं, वह मैं ताकि मेरे अन्दर वह भाव आ जाय े कि मैं ऐसा हूँ। मैं वैसा बन सकता हूँ। जब तक मि लान नहीं करोगे कि सी से तो बनोगे कैसे? कुण्ड ली मि लाओगे नहीं तो विवाह होगा कैसे? मि लाओ तो सि द्ध वधु से, मुक्ति वधु से, शिव रमा से, अपनी कुण्ड ली तो मि लाओ कि मैं भी वह ी हूँ, मैं वह हूँ, मैं वह हूँ लेकि न यह मत समझ लेना कि मैं तो सि द्ध हो ही गया , मेरा विवाह हो ही गया , मैं सि द्ध बन ही गया । यह चीज बताती है कि हमारा द्रव्य के साथ अन्य पना भी है और अनन्य पना भी है। अनन्य पना का मतलब क्या होगा? जब हम स्वय ं सि द्ध पर्याय को प्राप्त होंगे तब हम कहेंगे कि हा ँ मैं ही वह था , अब सि द्ध बन गया । जब तक मैं यह कह रहा हूँ कि मैं और सि द्ध दोनों में अन्तर है, तो यह अन्तर भी गलत नहीं है। यदि आपने इस अन्तर को न मानकर यह मान लिया कि मैं ही सि द्ध हो गया तो सब गलत हो जाएगा क्योंकि जब आप सि द्ध हो गए तो अब आपको अनन्त सुख की जरूरत तो है ही नहीं? जब आप सि द्ध हो गए आप सिद्धोह ं, सिद्धोह ं कर रहे हैं, मैं ही सि द्ध हूँ, यह आप ने मान लिया आपको अनन्त सुख की प्राप् ति हो गई। अब आप खाना-पीना कुछ नहीं करना। अब न हवा खाना, न यहा ँ से उठना, न कहीं जाना, मैं सि द्ध हो गया , सिद्धोह ं। कुछ भी जानने की कोशि श मत करना क्योंकि अब सि द्ध में तो अनन्त ज्ञा न होता है, अब आप में भी अनन्त ज्ञा न आ गया । यह सब क्या हो गया ? कि तना बड़ा अनर्थ हो गया ? हम यह समझने की कोशि श करे।
आचार्य श्री क्या कह रहे हैं?
देखो! आचार्य श्री क्या कह रहे हैं? उस समय पर वह द्रव्य उस मय होता है जिस द्रव्य की जो पर्याय होगी, उस समय पर वह उस मय होगा। यानि हमारे सि द्ध कहने से सि द्ध पर्याय हम में प्रकट नहीं हो गई। हम अपने में महसूस क्या करेंगे? है, तो मनुष्य ही, सि द्ध तो नहीं बन गए? बोलो! समझ आ रहा है कि नहीं? यदि हमने यह मान लिया कि मैं ही सि द्ध बन गया तो ये सूत्र ही गलत हो जाएँगे। ‘तक्का ले तम्मयत्ता दो’ उस काल में ही वह द्रव्य उस मय होगा। जिस समय पर जैसा होगा। इसी से हम यह सि द्ध कर सकते हैं कि अरिहन्तों को भी सि द्धत्व की अनुभूति नहीं होती क्योंकि वे अभी अरिह न्त पर्याय के साथ हैं। जब अरिह न्त है, तो अरिह न्तपने की ही अनुभूति होगी, सि द्धपने की अनुभूति नहीं हो जाय ेगी। क्यों नही होगी? अभी शरीर साथ में है। यह तो अनुभूत हो रहा है कि यह मेरा शरीर है। मनुष्य आयु का उदय चल रहा है। आयु का मतलब ही होता है कि शरीर के साथ एकत्व बनाए रखना तो उन्हें उस समय मैं मनुष्य पर्याय रूप हूँ, यह भी उनकी अनुभूति में रहता है। तभी उनको उस समय सि द्धत्व की अनुभूति नहीं होती। ये औदयि क भाव कहलाते हैं। ये औदयि क भाव जो कर्म के उदय से होते हैं, इनका जब तक आत्मा में उदय चलता है तब तक वह उसी रूप फल देने वा ला होता है। अतः अरिह न्त भगवा न अपने आप को सि द्ध नहीं मान सकते हैं। भले ही अनन्त ज्ञा नमय हैं, अनन्त सुखमय हैं लेकि न फिर भी वे चल रहे हैं। जब आप सि द्ध हो तो चल क्यों रहे हो, क्या भगवा न चलते हैं अपने सि द्ध लोक में? आप समवशरण में बैठ गए ऐसा करके। अभी तक तो ऐसे चल रहे थे और अब यूँ करके बैठ गए। जब मनुष्य थे ही नहीं तो यह हाथ पर हाथ रखने की जरूरत क्या थी? सि द्धत्व में तो ऐसा नहीं होता। वे तो जैसे थे मान लो ऐसे खड़े थे तो वे खड़े ही बने रहेंगे सि द्ध में। मान लो बैठे थे तो बैठे ही बने रह जाएँगे, सि द्धत्व में। आप तो जब खड़े होते हो तो ऐसा कर लेते हो और जब बैठते थे तो ऐसा कर लेते हो। ये भी तो पर्याय में ही आपकी बुद्धि चल रही है न। देखो ये अरिह न्त पर्याय में ही बुद्धि घटित कर रहा हूँ। कान खोल कर सुनना। अरिहन्तों में भी कोई पर्याय बुद्धि है।

चिन्तनशून्य, एकान्तवादी, मिथ्या दृष्टि
सोचते समझते कुछ हैं नहीं। चिन्तन के नाम पर शून्य है, बस। एकान्तवा दी बने जा रहे हो। समयसार पढ़-पढ़ कर सब मि थ्या दृष्टि बने जा रहे हैं। सब ग्रह ीत मि थ्या दृष्टि बने जा रहे हैं। A, B, C, D कुछ आती नहीं, द्रव्य, गुण, पर्याय की और बस पर्याय झूठी है, पर्याय असत्य है, पर्याय दृष्टि नहीं होनी चाहिय े। अरे! अरिहन्तों की पर्याय दृष्टि नहीं छूट रही। बताओ! बि ना पर्याय के वे विहा र क्यों , कैसे कर जाएँगे ? जब मनुष्य पर्याय रूप मानेंगे तभी तो विहा र कर रहे हैं। कहने की हि म्मत नहीं। महा राज! आप यह कैसे बोल रहे हो? क्या बोलने में डर लग रहा है? यदि पर्याय दृष्टि नहीं है, तो जैसा द्रव्य था , वैसा ही रह जाना चाहि ए। कभी हम यूँ बैठ गए, कभी हम उपदेश दे रहे हैं, कभी चल रहे हैं। यह सब पर्याय के बि ना हो रहा है क्या ? हमें समझाओ तो! पर्याय में ही हो रहा है। पर्याय मेरी नहीं है, तो पर्याय के बि ना अपने आप हो रहा है क्या ? द्रव्य कुछ कर रहा है या नहीं? द्रव्य को पर्याय के अनुसार अपनी दृष्टि बनानी पड़ रही हैं कि नही पड़ रही है? स्वय ं आचार्य कह रहे हैं- जरूर बनाय ेगा वह द्रव्य पर्याय दृष्टि । क्यों बनाय ेगा? जो जिस समय पर जिस पर्याय के साथ होगा वह उस समय पर उसमय होगा, तन्मय होगा। अरिह न्त है, तो अरिह न्तपने के साथ तन्मय हैं। सि द्धपने के साथ वे अभी तन्मय नहीं हो गए। यह कहने की हि म्मत कि सी में नहीं है। खुद स्वा ध्याय कर रहे हो और उनको ये भी नहीं मालूम कि ये व्याख्याय ें कि न-कि न की लि खी हुई हैं और विद्वा नों के क्या -क्या भाव हैं, सब चलता रहता है। इसलि ए तो एकान्तवा द की तरफ़ झुकते चले जाते हैं। फिर अपने आप को कहेंगे मैं नि श्चय को जानने वा ला हूँ, मैं रहस्य को जानने वा ला हूँ। मैं द्रव्य दृष्टि रखने वा ला हूँ। मैं सम्यग्दृष्टि हूँ। कहा ँ से तुम्हा री सम्यग्दृष्टि हो गई? एक आँख तो फूट रही है। यहा ँ क्या कह रहे हैं? दोनों आँखों से देखो। अरे! इसी गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र जी महा राज लि खते हैं। ऐसा ही लि खा है उन्हों ने कि जब हम एक आँख बन्द करके एक पर्याय की आँख से देखेंगे तो हमें सब चीजें पर्याय , पर्याय दिखाई देंगी। समझ आ रहा है? ऐसा ही लि खा है उन्हों ने। एक आँख, मान लो द्रव्य की आँख बन्द कर लो। दो आँखें हैं न हमारे पास, एक द्रव्य दृष्टि वा ली है, एक पर्याय दृष्टि वा ली है।
दो नय, दो ही नयन
दो ही नय हैं और दो ही नयन हैं। सबके पास दो ही नयन हैं? फिर एक नयन की बात क्यों करते हो। अब हम आपसे कहे कि एक नयन तो तुम्हा रा काम कर रहा है, एक नयन तुम्हा रा बिल्कुवबकिुल झूठा है, तो उसको क्या बोलेंगे? आँख वा ला कहलाय ेगा वह ? उसका नाम तो काणा कहलाय ेगा न। आचार्य कहते हैं- एक आँख बन्द करके देखो। कौन सी आँख? मान लो द्रव्य की आँख बन्द कर लो, पर्याय से देखो हर चीज़ को तो पर्याय से क्या दिखेगा? यह मनुष्य है, यह कीड़ा है, यह तिर्यं च गति का है, यह देव है, यह इसकी मोटी पर्याय , यह इसकी पतली पर्याय , यह चिकनी पर्याय , यह रूखी पर्याय , यह लाल है, यह पीली है, यह सब क्या है? सब पर्याय है। अब आचार्य कहते हैं पर्याय की आँख बन्द करो । द्रव्य दृष्टि से देखो। अब क्या है ? यह सब तो पुद्गल है, यह भी पुद्गल है, यह भी पुद्गल है। यह वह ी जीव है, यह वह ी जीव है, यह वह ी जीव है जो पहले ये था , फिर यह था , फिर यह था , फिर यह था । आचार्य कहते हैं दोनो आँखों से देखो। अब दोनों आँखों से देखो। क्या दिखेगा? यह द्रव्य मय भी है और पर्याय मय भी। अनन्य भी है और अन्य भी है। द्रव्य स्व रूप भी है और पर्याय स्व रूप भी है। यह क्या हो गया ? यह दोनों दृष्टिय ों से देखना हो गया । जब एक दृष्टि से देखा तो वो कहलाता है नय।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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