05-11-2023, 08:15 AM
क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन
कायवाङ्मनःकर्म योग: ।। 6-1 ।।
योगका लक्षण और सूत्रप्रयुक्त कर्म शब्द के अर्थ पर विचार―शरीर, वचन और मन का कर्म योग कहलाता है । इस सूत्र में दो पद हैं । प्रथम पद में समास इस प्रकार है कि कायश्च वाक्चमनश्च कायवाङ्मनांसि तेषांकर्मइति कायवाङ्मन: कर्म । यहां कर्म शब्द का अर्थ क्रिया है अर्थात् शरीर की क्रिया, मन की क्रिया, वचन की क्रिया, यद्यपि कर्मशब्द के अर्थ अनेक होते हैं । कहीं तो कर्मकारक में प्रयोग होता है, कहीं पुण्य पाप अर्थ लिया जाता है, कहीं क्रिया अर्थ लिया जाता है, । यहां क्रिया अर्थ है, अन्य अर्थ यहां घटित नहीं होते । कर्म शब्द का एक अर्थ कर्मकारक है, वह यहां इस कारण घटित नहीं होता कि शरीर वचन और मन यहां कर्म नहीं माने जा सकते, क्योंकि कर्म होते हैं तीन प्रकार के (1) निर्वर्त्य (2) विकार्य और ( 3) प्राप्य । निर्वर्त्यं कर्म उसे कहते हैं जो रचा जाये । जैसे लोहे की तलवार बनायी जा रही है तो यहां बनाने वाला लोहार है और वह तलवार को बनाता है तो वह तलवार किस तरह बनती है कि वह लोहा ही पसर फैलकर उस रूप में आ जाता है । तो यह रचना हुई लोहे की । तो कोई कर्म तो रचनारूप होते हैं, कोई कर्म विकार्य होते हैं जैसे सेठानी जी दूध से दही को बना रही हैं तो दही का बनाना क्या? दूध में जामन डालना और उसका विकार बन गया, उस विकार का नाम दही है । तो दही जो निष्पन्न हुआ है वह दूध का विकार रूप है । निर्वर्त्य में और विकार्य में अंतर क्या आया? निर्वर्त्य में विकार नहीं है लोहा था उसे पसारकर, आकार बदलकर एक रचना ही तो हुई पर विकार नहीं आया दही में विकार आया है । उसकी बदल बन गई है । रूप भी दूसरा, रस भी दूसरा, गंध भी दूसरा, स्पर्श, भी दूसरा हो गया । एक होता है प्राप्यकर्म जैसे देवदत्त स्टेशन को जाता है तो यहां स्टेशन कर्म है तो वह प्राप्य कर्म है, अर्थात् न तो स्टेशन निर्वर्त्य है कि देवदत्त ने किसी चीज से स्टेशन की रचना की और न वह विकार्य कर्म है कि कोई चीज मिलाकर किसी चीज का विकार बन गया हो स्टेशन किंतु वह प्राप्य कर्म है । देवदत्त दो मील दूर था । अब वहाँ से चलकर उसने स्टेशन को प्राप्त कर लिया तो यों होता है प्राप्यकर्म । तो यहां देखिये कि ये तीनों ही प्रकार के कर्म कर्ता से भिन्न हैं । पर यहां शरीर, मन, वचन के जो योग हैं वे कर्ता से भिन्न हैं क्या? अगर इन्हें कर्म मानते तो इससे भिन्न कर्ता क्या? तो ये कर्म कारक में नहीं आते । यहाँ एक बात विशेष जानना कि अध्यात्मशास्त्र में कर्ता कर्म आदिक का अभेद बताया जाता । उसकी दृष्टि और है । निश्चयनय की दृष्टि में एक ही पदार्थ में षट्कारक निरखना हुआ करता है । मगर रूढ़ि में, आमरिवाज में जो कर्ता कर्म की रूढ़ि है तो वह भिन्न-भिन्न में हुआ करती है । यहां स्थूल दृष्टि से चिंतन चल रहा है कि शरीर, वचन और मन ये कर्मकारक नहीं है । तो दूसरा कहा गया था कि ये पुण्य, पापरूप होंगे सो पुण्य पापरूप भी कर्म यहां नहीं माना, क्योंकि यदि इनका पुण्य पापरूप से अभिप्राय होता तो आगे सूत्र स्वयं कहा जायेगा―शुभपुण्यस्याशुभ: पापस्य यदि पुण्य पाप यहां प्रयुक्त कर्म का अर्थ माना जाता तो आगे इस पुण्य पाप का जिक्र क्यों करते, इससे पुण्य पाप वाला कर्म भी इस सूत्र में कहे गए कर्म शब्द का अर्थ नहीं है । तब फिर क्रिया ही अर्थ रहा । शरीर, वचन, और मन की क्रिया योग है अथवा कर्मकारकरूप से भी समझना हो तो कर्ता मानो आत्मा को और उसके कर्म हुए शरीर, वचन, मन, तो इस प्रकार कर्म लगाये जा सकते हैं, पर यहां मुख्यता क्रिया की है । यहाँ यह बात भी समझने योग्य है, योग परमार्थ से शरीर, वचन, मन की क्रिया नहीं है, किंतु शरीर, वचन, मन की क्रिया करने के लिए उस क्रिया के अभिमुख जो आत्मप्रदेशों का परिस्पंद है वह योग कहलाता है ।
(2) कर्म शब्द की निष्पत्ति व योग की त्रिविधता―कर्म शब्द की निष्पत्ति कैसे हुई है । तीनों साधनों में कर्म शब्द की निष्पत्ति हुई है । जैसे―आत्मा के द्वारा जो परिणाम किया जाता है वह कर्म है । तो ‘आत्मना क्रियते तत् कर्म’ यह कर्म साधन हो गया । 'आत्मा द्रव्य भावरूपं पुण्यं पापं करोति इति कर्म ।’ आत्मद्रव्य भावरूपं कर्म को करता है तो यह कर्तृसाधन हो गया । और जब ऐसी क्रिया पर ही दृष्टि हुई तो वह भाव साधन हो गया । 'करणं कृतिर्वा कर्म' निश्चय से तो आत्मा के द्वारा अत्मा का परिणाम ही किया जाता है, पर निमित्तनैमित्तिक भाव के कारण व्यवहारदृष्टि से आत्मा के द्वारा योग शब्द भी कर्ता, कर्म, करण साधन में प्रयुक्त होता है । यहाँ एक शंकाकार कहता है कि आत्मा तो अखंड द्रव्य है और तीनों प्रकार के योग आत्मा के परिणाम स्वरूप हैं । तो परमार्थदृष्टि से तो तीन भेद योग के न होना चाहिए । फिर यहां ये तीन भेद कैसे किए गए? उत्तर―पर्यायदृष्टि से ये व्यापार भिन्न-भिन्न हैं, इस कारण योग के तीन भेद हो गए । जैसे मानो आम्रफल का परिचय करना है तो आम तो एक पदार्थ है, उसमें भेद क्यों हों? लेकिन चक्षु इंद्रिय से देखने पर आम में रूप विदित होता है तो घ्राणइंद्रिय से परिचय करने पर आम में सुगंध परिचत होती है और रसना इंद्रिय से परिचय करने पर मीठा खट्टा, इस प्रकार परिचय होता है, और स्पर्शन इंद्रिय से परिचय करने पर कोमल, कठोर ऐसा कुछ अनुभव होता है । तो आम तो एक वस्तु है दृष्टांत के लिए, किंतु इंद्रिय के व्यापार के भेद से उसमें चार भेद जैसे विदित हो गए हैं इसी तरह पर्याय के भेद से योग में भी भेद समझ लेना चाहिए । तो यहाँ आम्रफल में तो चक्षुइंद्रिय आदिक के निमित्त से रूप रस आदिक पर्यायभेद सिद्ध हुए हैं, क्योंकि ग्रहण भेद से ग्राह्य भेद होता ही है । इस प्रकार आत्मा में पूर्वकृत कर्मोंदय के निमित्त से, क्षयोपशम आदिक के निमित्त से शक्तिभेद भी होता है और योगभेद भी होता है।
(3) योगों की निष्पत्ति का सहेतुक विधान―देखिये पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से शरीरादिक मिले हैं तो वहाँ शरीर, वचन, मन की वर्गणा में से किसी वर्गणा के आलंबन होने पर और वीर्यांतराय के क्षयोपशम से और मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से जो अंतरंग में वचनलब्धि प्राप्त हुई है तक वचन के परिणमन के अभिमुख आत्मा का जो प्रदेश परिस्पंद है वह वचनयोग कहलाता है । इस प्रकार सीधे स्पष्ट जाने कि योग तो आत्मा का प्रदेश परिस्पंद है । वह योग यदि वचन के अभिमुख है, वचन व्यापार करने के लिए निमित्तभूत हो रहा है तो वह कहलाता है वचनयोग । पर वचनयोग होने के लिए प्रथम तो शरीर चाहिए ना, वह शरीर नामकर्म के उदय से मिल गया, फिर उसकी शक्ति चाहिए, सो वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से शक्ति मिल गई, फिर इतना ज्ञान चाहिए कि जिससे वह वचन बोल सके, तो मतिज्ञानावरण का क्षयोपशम मिल गया, ऐसी स्थिति में वचनवर्गणा का आलंबन होने पर जो आत्मा का प्रदेश परिस्पंद है उसे वचनयोग कहते हैं, इसी तरह मनोयोग भी वह आत्मा का प्रदेश परिस्पंद है जो मन के परिणाम के अभिमुख है इसमें भी क्या-क्या साधन हुआ करते हैं कि पहिले तो शरीर नामकर्म का उदय चाहिए ताकि शरीर मिला सो वह भी मिल गया और वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम हुआ और मनोज्ञानावरण का क्षयोपशम हुआ, इस प्रकार जब मन की लब्धि प्राप्त हो जाती है वहाँ फिर अंतरंग बहिरंग कारण मिलने पर विचार के अभिमुख जो आत्मा के प्रदेश परिस्पंद होते हैं वह है, मनोयोग। इसी प्रकार काययोग भी जानना । इतने साधन तो सभी में चाहने पड़ते हैं शरीर नामकर्म का उदय, वीर्यांतराय का क्षयोपशम और इसके होने पर औदारिक आदिक जो 7 प्रकारकी कायवर्गणायें हैं उनमें से किसी वर्गणा का आलंबन लेकर जो आत्मप्रदेश का परिंपंद है वह काययोग है । योग प्राय: क्षयोपशम के होने पर होता है, किंतु सयोगकेवली के ज्ञानावरण व वीर्यांतराय के क्षय पर भी होता है । वह क्षयोपशम निमित्तक रहा तो केवली भगवान में क्षय निमित्तक योग रहा । यह क्षय निमित्तक तो है पर इसका अर्थ यह नहीं कि क्षय हो चुके तो सदैव योग बना ही रहे । जो क्रिया का परिणमन करे ऐसे आत्मा के कायवर्गणा वचनवर्गणा, मनोवर्गणाके आलंबन से जो प्रदेश परिस्पंद होता है वह सयोगकेवली के योग की रीति है, पर इसका आलंबन आगे नहीं चलता इसलिए 14 वें गुणस्थान में और सिद्ध भगवान में योग नहीं होते हैं ।
(4) योग की आत्मा से कथंचित् भेदाभेद का संदर्शन व योग का प्रकृतार्थ―यहाँ एक बात यह भी जान लेना कि योग और आत्मा में कथंचित् भिन्नपना है, कथंचित् अभिन्नपना है । अभिन्नपना है ऐसा समझने में तो कुछ कठिनाई नहीं है, आत्मा है और प्रदेश परिस्पंद हो रहा उसका । तो आत्मा से प्रदेश जुदा नहीं और प्रदेश परिस्पंद जो हो रहा उससे आत्मा जुदा नहीं, लेकिन लक्षण संज्ञा आदिक के कारण उनमें भेद भी माना जा सकता है । जैसे एक पुरुष पुजारी है, किसान है, व्यापारी है । तो है तो वही पुरुष, मगर संज्ञा लक्षण आदिक के भेद से वे भिन्न-भिन्न रूप में परखे जाते हैं । अतएव वे व्यापार इससे भिन्न भी हो गए । तो ऐसे ही आत्मद्रव्य की दृष्टि से तो एकपना ही है, आत्मा, व योग तीन नहीं, हो गया, मगर क्षयोपशम जुदा-जुदा है, शरीर पर्याय जुदा-जुदा है । उसकी दृष्टि से योग तीन प्रकार का हो गया । यहां योग शब्द का अर्थ है प्रदेश परिस्पंद । योग का अर्थ ध्यान न लेना । ध्यान का वर्णन आगे ध्यान के प्रकरण में होगा । वैसे योग शब्द दोनों का पर्यायवाची है । युज् धातु समाधि अर्थ में भी आती है, पर उसका वर्णन आगे किया जायेगा । यहां उसके आस्रव बताये जा रहे हैं तो ध्यान से कहीं आस्रव होता है? प्रदेश परिस्पंद से आस्रव होता है । तो यहां योग का मतलब शरीर, वचन, काय की क्रिया है । योग शब्द का अर्थ जोड़ भी होता है । जैसे बच्चों को सवाल दिया जाता है दो तीन संख्यावों की लाइन रख दी और कहा कि इनका योग करो याने समुदाय अर्थ में भी योग का नाम चलता है, पर यहाँ समुदाय अर्थ नहीं किया जा रहा है । समुदाय अर्थ तो प्रथम पद में ही आ गया कि शरीर, वचन और मन का कर्म तो कर्म शब्द सबके साथ लिया जायेगा । शरीरकर्म, वचनकर्म और मन कर्म । पर यहां योग शब्द का अर्थ प्रदेशपरिस्पंद ही है ।
(5) आस्रवकारणपना व कायादिक्रमरहस्य का संदर्शन―इस सूत्र का तात्पर्य यह हुआ कि नवीन कर्म का आस्रव योग का निमित्त पाकर होता है, आत्मा के प्रदेश में जो परिस्पंद है वह नवीन कर्म के आस्रव का कारण है । कार्माणवर्गणा में कर्मत्व का आ जाना यह आत्मा के प्रदेशपरिस्पंद के कारण होता, यहाँ तक एक साधारण बात रही, पर उस कार्माणवर्गणा में स्थिति और अनुभाग आ जाये तो वह होता है कषायके निमित्त से । यहां केवल आस्रव का प्रकरण है । तो जो आस्रव का सीधा निमित्त हैं उसका ही वर्णन किया जा रहा है । शरीर, वचन और मन ये तीनों अजीव पदार्थ हैं, पर जीव के साथ संबंध होने से वे जीवित कहलाते हैं । तो वहां दो पदार्थ पड़े हैं―जीव और ये काय आदि पुद्गल । तो उपादान की दृष्टि से देखा जाये तो शरीर, वचन, मन की क्रियायें उन पुद्गलों में ही होती हैं और आत्मा के प्रदेशपरिस्पंद रूप क्रियायें आत्मा में होती हैं, किंतु जो आत्मप्रदेशपरिस्पंद काय, वचन, मन में से जिसकी क्रिया के लिए हो रहा हो उसमें उसका नाम जोड़ा जाता है । तो आरोप होने से योग के तीन नाम हो जाते हैं―काययोग, वचनयोग और मनोयोग प्राय: करके योग के जहां नाम आते हैं तो उनका क्रम इस प्रकार रहता है मन, वचन, काय, किंतु यहाँ काय, वचन, मन इस क्रम से प्रयोग किया गया है तो इसमें यह बात ध्वनित होती है कि काय की क्रियाविशेष विदित होने वाली और और विशेष परिस्पंद वाली है । वचनकी क्रिया काय की क्रिया की अपेक्षा कुछ कम चेष्टा वाली और वचन की अपेक्षा मन की क्रिया परिस्पंद भीतर ही उससे भी सूक्ष्म ढंग से है । तो स्थूल और सूक्ष्म की अपेक्षा इस सूत्र में काय, वचन और मन इस क्रम का प्रयोग किया गया है । एक बात यह जाहिर होती है कि कोई काय चेष्टा बिना विचारे भी हो जाती है, पर उसकी अपेक्षा वचन की क्रिया बिना विचारे नहीं होती, कम होती है । वचन बोलने में काययोग की अपेक्षा विचार अधिक चलता है और मनोयोग में तो वह विचाररूप ही है । तीसरी बात लौकिक दृष्टि से काय से होने वाला अनर्थ सबसे बड़ा अनर्थ है, वचन से होने वाला अनर्थ उससे कम है और मन में ही कोई बात सोच ले तो उससे दूसरे का अनर्थ नहीं होता, वह कम अनर्थ है, पर सिद्धांत की दृष्टि से काययोग से अधिक अनर्थ वचनयोग में है, वचनयोग से अधिक अनर्थ मनोयोग में है । ऐसे अनेक रहस्यों को संकेत करने वाले इस सूत्र में यह बात कहना प्रारंभ किया है कि जीव के साथ कर्मों का आते रहना किस प्रकार होता है? उसमें सर्वप्रथम आस्रव होता, उस आस्रव का इस सूत्र में संकेत किया है ।
कायवाङ्मनःकर्म योग: ।। 6-1 ।।
योगका लक्षण और सूत्रप्रयुक्त कर्म शब्द के अर्थ पर विचार―शरीर, वचन और मन का कर्म योग कहलाता है । इस सूत्र में दो पद हैं । प्रथम पद में समास इस प्रकार है कि कायश्च वाक्चमनश्च कायवाङ्मनांसि तेषांकर्मइति कायवाङ्मन: कर्म । यहां कर्म शब्द का अर्थ क्रिया है अर्थात् शरीर की क्रिया, मन की क्रिया, वचन की क्रिया, यद्यपि कर्मशब्द के अर्थ अनेक होते हैं । कहीं तो कर्मकारक में प्रयोग होता है, कहीं पुण्य पाप अर्थ लिया जाता है, कहीं क्रिया अर्थ लिया जाता है, । यहां क्रिया अर्थ है, अन्य अर्थ यहां घटित नहीं होते । कर्म शब्द का एक अर्थ कर्मकारक है, वह यहां इस कारण घटित नहीं होता कि शरीर वचन और मन यहां कर्म नहीं माने जा सकते, क्योंकि कर्म होते हैं तीन प्रकार के (1) निर्वर्त्य (2) विकार्य और ( 3) प्राप्य । निर्वर्त्यं कर्म उसे कहते हैं जो रचा जाये । जैसे लोहे की तलवार बनायी जा रही है तो यहां बनाने वाला लोहार है और वह तलवार को बनाता है तो वह तलवार किस तरह बनती है कि वह लोहा ही पसर फैलकर उस रूप में आ जाता है । तो यह रचना हुई लोहे की । तो कोई कर्म तो रचनारूप होते हैं, कोई कर्म विकार्य होते हैं जैसे सेठानी जी दूध से दही को बना रही हैं तो दही का बनाना क्या? दूध में जामन डालना और उसका विकार बन गया, उस विकार का नाम दही है । तो दही जो निष्पन्न हुआ है वह दूध का विकार रूप है । निर्वर्त्य में और विकार्य में अंतर क्या आया? निर्वर्त्य में विकार नहीं है लोहा था उसे पसारकर, आकार बदलकर एक रचना ही तो हुई पर विकार नहीं आया दही में विकार आया है । उसकी बदल बन गई है । रूप भी दूसरा, रस भी दूसरा, गंध भी दूसरा, स्पर्श, भी दूसरा हो गया । एक होता है प्राप्यकर्म जैसे देवदत्त स्टेशन को जाता है तो यहां स्टेशन कर्म है तो वह प्राप्य कर्म है, अर्थात् न तो स्टेशन निर्वर्त्य है कि देवदत्त ने किसी चीज से स्टेशन की रचना की और न वह विकार्य कर्म है कि कोई चीज मिलाकर किसी चीज का विकार बन गया हो स्टेशन किंतु वह प्राप्य कर्म है । देवदत्त दो मील दूर था । अब वहाँ से चलकर उसने स्टेशन को प्राप्त कर लिया तो यों होता है प्राप्यकर्म । तो यहां देखिये कि ये तीनों ही प्रकार के कर्म कर्ता से भिन्न हैं । पर यहां शरीर, मन, वचन के जो योग हैं वे कर्ता से भिन्न हैं क्या? अगर इन्हें कर्म मानते तो इससे भिन्न कर्ता क्या? तो ये कर्म कारक में नहीं आते । यहाँ एक बात विशेष जानना कि अध्यात्मशास्त्र में कर्ता कर्म आदिक का अभेद बताया जाता । उसकी दृष्टि और है । निश्चयनय की दृष्टि में एक ही पदार्थ में षट्कारक निरखना हुआ करता है । मगर रूढ़ि में, आमरिवाज में जो कर्ता कर्म की रूढ़ि है तो वह भिन्न-भिन्न में हुआ करती है । यहां स्थूल दृष्टि से चिंतन चल रहा है कि शरीर, वचन और मन ये कर्मकारक नहीं है । तो दूसरा कहा गया था कि ये पुण्य, पापरूप होंगे सो पुण्य पापरूप भी कर्म यहां नहीं माना, क्योंकि यदि इनका पुण्य पापरूप से अभिप्राय होता तो आगे सूत्र स्वयं कहा जायेगा―शुभपुण्यस्याशुभ: पापस्य यदि पुण्य पाप यहां प्रयुक्त कर्म का अर्थ माना जाता तो आगे इस पुण्य पाप का जिक्र क्यों करते, इससे पुण्य पाप वाला कर्म भी इस सूत्र में कहे गए कर्म शब्द का अर्थ नहीं है । तब फिर क्रिया ही अर्थ रहा । शरीर, वचन, और मन की क्रिया योग है अथवा कर्मकारकरूप से भी समझना हो तो कर्ता मानो आत्मा को और उसके कर्म हुए शरीर, वचन, मन, तो इस प्रकार कर्म लगाये जा सकते हैं, पर यहां मुख्यता क्रिया की है । यहाँ यह बात भी समझने योग्य है, योग परमार्थ से शरीर, वचन, मन की क्रिया नहीं है, किंतु शरीर, वचन, मन की क्रिया करने के लिए उस क्रिया के अभिमुख जो आत्मप्रदेशों का परिस्पंद है वह योग कहलाता है ।
(2) कर्म शब्द की निष्पत्ति व योग की त्रिविधता―कर्म शब्द की निष्पत्ति कैसे हुई है । तीनों साधनों में कर्म शब्द की निष्पत्ति हुई है । जैसे―आत्मा के द्वारा जो परिणाम किया जाता है वह कर्म है । तो ‘आत्मना क्रियते तत् कर्म’ यह कर्म साधन हो गया । 'आत्मा द्रव्य भावरूपं पुण्यं पापं करोति इति कर्म ।’ आत्मद्रव्य भावरूपं कर्म को करता है तो यह कर्तृसाधन हो गया । और जब ऐसी क्रिया पर ही दृष्टि हुई तो वह भाव साधन हो गया । 'करणं कृतिर्वा कर्म' निश्चय से तो आत्मा के द्वारा अत्मा का परिणाम ही किया जाता है, पर निमित्तनैमित्तिक भाव के कारण व्यवहारदृष्टि से आत्मा के द्वारा योग शब्द भी कर्ता, कर्म, करण साधन में प्रयुक्त होता है । यहाँ एक शंकाकार कहता है कि आत्मा तो अखंड द्रव्य है और तीनों प्रकार के योग आत्मा के परिणाम स्वरूप हैं । तो परमार्थदृष्टि से तो तीन भेद योग के न होना चाहिए । फिर यहां ये तीन भेद कैसे किए गए? उत्तर―पर्यायदृष्टि से ये व्यापार भिन्न-भिन्न हैं, इस कारण योग के तीन भेद हो गए । जैसे मानो आम्रफल का परिचय करना है तो आम तो एक पदार्थ है, उसमें भेद क्यों हों? लेकिन चक्षु इंद्रिय से देखने पर आम में रूप विदित होता है तो घ्राणइंद्रिय से परिचय करने पर आम में सुगंध परिचत होती है और रसना इंद्रिय से परिचय करने पर मीठा खट्टा, इस प्रकार परिचय होता है, और स्पर्शन इंद्रिय से परिचय करने पर कोमल, कठोर ऐसा कुछ अनुभव होता है । तो आम तो एक वस्तु है दृष्टांत के लिए, किंतु इंद्रिय के व्यापार के भेद से उसमें चार भेद जैसे विदित हो गए हैं इसी तरह पर्याय के भेद से योग में भी भेद समझ लेना चाहिए । तो यहाँ आम्रफल में तो चक्षुइंद्रिय आदिक के निमित्त से रूप रस आदिक पर्यायभेद सिद्ध हुए हैं, क्योंकि ग्रहण भेद से ग्राह्य भेद होता ही है । इस प्रकार आत्मा में पूर्वकृत कर्मोंदय के निमित्त से, क्षयोपशम आदिक के निमित्त से शक्तिभेद भी होता है और योगभेद भी होता है।
(3) योगों की निष्पत्ति का सहेतुक विधान―देखिये पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से शरीरादिक मिले हैं तो वहाँ शरीर, वचन, मन की वर्गणा में से किसी वर्गणा के आलंबन होने पर और वीर्यांतराय के क्षयोपशम से और मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से जो अंतरंग में वचनलब्धि प्राप्त हुई है तक वचन के परिणमन के अभिमुख आत्मा का जो प्रदेश परिस्पंद है वह वचनयोग कहलाता है । इस प्रकार सीधे स्पष्ट जाने कि योग तो आत्मा का प्रदेश परिस्पंद है । वह योग यदि वचन के अभिमुख है, वचन व्यापार करने के लिए निमित्तभूत हो रहा है तो वह कहलाता है वचनयोग । पर वचनयोग होने के लिए प्रथम तो शरीर चाहिए ना, वह शरीर नामकर्म के उदय से मिल गया, फिर उसकी शक्ति चाहिए, सो वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से शक्ति मिल गई, फिर इतना ज्ञान चाहिए कि जिससे वह वचन बोल सके, तो मतिज्ञानावरण का क्षयोपशम मिल गया, ऐसी स्थिति में वचनवर्गणा का आलंबन होने पर जो आत्मा का प्रदेश परिस्पंद है उसे वचनयोग कहते हैं, इसी तरह मनोयोग भी वह आत्मा का प्रदेश परिस्पंद है जो मन के परिणाम के अभिमुख है इसमें भी क्या-क्या साधन हुआ करते हैं कि पहिले तो शरीर नामकर्म का उदय चाहिए ताकि शरीर मिला सो वह भी मिल गया और वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम हुआ और मनोज्ञानावरण का क्षयोपशम हुआ, इस प्रकार जब मन की लब्धि प्राप्त हो जाती है वहाँ फिर अंतरंग बहिरंग कारण मिलने पर विचार के अभिमुख जो आत्मा के प्रदेश परिस्पंद होते हैं वह है, मनोयोग। इसी प्रकार काययोग भी जानना । इतने साधन तो सभी में चाहने पड़ते हैं शरीर नामकर्म का उदय, वीर्यांतराय का क्षयोपशम और इसके होने पर औदारिक आदिक जो 7 प्रकारकी कायवर्गणायें हैं उनमें से किसी वर्गणा का आलंबन लेकर जो आत्मप्रदेश का परिंपंद है वह काययोग है । योग प्राय: क्षयोपशम के होने पर होता है, किंतु सयोगकेवली के ज्ञानावरण व वीर्यांतराय के क्षय पर भी होता है । वह क्षयोपशम निमित्तक रहा तो केवली भगवान में क्षय निमित्तक योग रहा । यह क्षय निमित्तक तो है पर इसका अर्थ यह नहीं कि क्षय हो चुके तो सदैव योग बना ही रहे । जो क्रिया का परिणमन करे ऐसे आत्मा के कायवर्गणा वचनवर्गणा, मनोवर्गणाके आलंबन से जो प्रदेश परिस्पंद होता है वह सयोगकेवली के योग की रीति है, पर इसका आलंबन आगे नहीं चलता इसलिए 14 वें गुणस्थान में और सिद्ध भगवान में योग नहीं होते हैं ।
(4) योग की आत्मा से कथंचित् भेदाभेद का संदर्शन व योग का प्रकृतार्थ―यहाँ एक बात यह भी जान लेना कि योग और आत्मा में कथंचित् भिन्नपना है, कथंचित् अभिन्नपना है । अभिन्नपना है ऐसा समझने में तो कुछ कठिनाई नहीं है, आत्मा है और प्रदेश परिस्पंद हो रहा उसका । तो आत्मा से प्रदेश जुदा नहीं और प्रदेश परिस्पंद जो हो रहा उससे आत्मा जुदा नहीं, लेकिन लक्षण संज्ञा आदिक के कारण उनमें भेद भी माना जा सकता है । जैसे एक पुरुष पुजारी है, किसान है, व्यापारी है । तो है तो वही पुरुष, मगर संज्ञा लक्षण आदिक के भेद से वे भिन्न-भिन्न रूप में परखे जाते हैं । अतएव वे व्यापार इससे भिन्न भी हो गए । तो ऐसे ही आत्मद्रव्य की दृष्टि से तो एकपना ही है, आत्मा, व योग तीन नहीं, हो गया, मगर क्षयोपशम जुदा-जुदा है, शरीर पर्याय जुदा-जुदा है । उसकी दृष्टि से योग तीन प्रकार का हो गया । यहां योग शब्द का अर्थ है प्रदेश परिस्पंद । योग का अर्थ ध्यान न लेना । ध्यान का वर्णन आगे ध्यान के प्रकरण में होगा । वैसे योग शब्द दोनों का पर्यायवाची है । युज् धातु समाधि अर्थ में भी आती है, पर उसका वर्णन आगे किया जायेगा । यहां उसके आस्रव बताये जा रहे हैं तो ध्यान से कहीं आस्रव होता है? प्रदेश परिस्पंद से आस्रव होता है । तो यहां योग का मतलब शरीर, वचन, काय की क्रिया है । योग शब्द का अर्थ जोड़ भी होता है । जैसे बच्चों को सवाल दिया जाता है दो तीन संख्यावों की लाइन रख दी और कहा कि इनका योग करो याने समुदाय अर्थ में भी योग का नाम चलता है, पर यहाँ समुदाय अर्थ नहीं किया जा रहा है । समुदाय अर्थ तो प्रथम पद में ही आ गया कि शरीर, वचन और मन का कर्म तो कर्म शब्द सबके साथ लिया जायेगा । शरीरकर्म, वचनकर्म और मन कर्म । पर यहां योग शब्द का अर्थ प्रदेशपरिस्पंद ही है ।
(5) आस्रवकारणपना व कायादिक्रमरहस्य का संदर्शन―इस सूत्र का तात्पर्य यह हुआ कि नवीन कर्म का आस्रव योग का निमित्त पाकर होता है, आत्मा के प्रदेश में जो परिस्पंद है वह नवीन कर्म के आस्रव का कारण है । कार्माणवर्गणा में कर्मत्व का आ जाना यह आत्मा के प्रदेशपरिस्पंद के कारण होता, यहाँ तक एक साधारण बात रही, पर उस कार्माणवर्गणा में स्थिति और अनुभाग आ जाये तो वह होता है कषायके निमित्त से । यहां केवल आस्रव का प्रकरण है । तो जो आस्रव का सीधा निमित्त हैं उसका ही वर्णन किया जा रहा है । शरीर, वचन और मन ये तीनों अजीव पदार्थ हैं, पर जीव के साथ संबंध होने से वे जीवित कहलाते हैं । तो वहां दो पदार्थ पड़े हैं―जीव और ये काय आदि पुद्गल । तो उपादान की दृष्टि से देखा जाये तो शरीर, वचन, मन की क्रियायें उन पुद्गलों में ही होती हैं और आत्मा के प्रदेशपरिस्पंद रूप क्रियायें आत्मा में होती हैं, किंतु जो आत्मप्रदेशपरिस्पंद काय, वचन, मन में से जिसकी क्रिया के लिए हो रहा हो उसमें उसका नाम जोड़ा जाता है । तो आरोप होने से योग के तीन नाम हो जाते हैं―काययोग, वचनयोग और मनोयोग प्राय: करके योग के जहां नाम आते हैं तो उनका क्रम इस प्रकार रहता है मन, वचन, काय, किंतु यहाँ काय, वचन, मन इस क्रम से प्रयोग किया गया है तो इसमें यह बात ध्वनित होती है कि काय की क्रियाविशेष विदित होने वाली और और विशेष परिस्पंद वाली है । वचनकी क्रिया काय की क्रिया की अपेक्षा कुछ कम चेष्टा वाली और वचन की अपेक्षा मन की क्रिया परिस्पंद भीतर ही उससे भी सूक्ष्म ढंग से है । तो स्थूल और सूक्ष्म की अपेक्षा इस सूत्र में काय, वचन और मन इस क्रम का प्रयोग किया गया है । एक बात यह जाहिर होती है कि कोई काय चेष्टा बिना विचारे भी हो जाती है, पर उसकी अपेक्षा वचन की क्रिया बिना विचारे नहीं होती, कम होती है । वचन बोलने में काययोग की अपेक्षा विचार अधिक चलता है और मनोयोग में तो वह विचाररूप ही है । तीसरी बात लौकिक दृष्टि से काय से होने वाला अनर्थ सबसे बड़ा अनर्थ है, वचन से होने वाला अनर्थ उससे कम है और मन में ही कोई बात सोच ले तो उससे दूसरे का अनर्थ नहीं होता, वह कम अनर्थ है, पर सिद्धांत की दृष्टि से काययोग से अधिक अनर्थ वचनयोग में है, वचनयोग से अधिक अनर्थ मनोयोग में है । ऐसे अनेक रहस्यों को संकेत करने वाले इस सूत्र में यह बात कहना प्रारंभ किया है कि जीव के साथ कर्मों का आते रहना किस प्रकार होता है? उसमें सर्वप्रथम आस्रव होता, उस आस्रव का इस सूत्र में संकेत किया है ।