तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग १
#6

सकषायाकषाययो: सांपरायिकेर्यापथयो: ।। 6-4 ।।

(14) आस्रव की द्विविधता का व आस्रव के स्वामी का वर्णन―कषायसहित जीवों के सांपरायिक आस्रव होते हैं और कषायरहित जीवके ईर्यापथास्रव होता है । चूंकि आस्रव के दो प्रकार के स्वामी हैं । इस अपेक्षा से आश्रय के दो भेद कहे गए हैं । यद्यपि आस्रव के स्वामी अनंत हैं । जितने जीव हैं उन सबमें परस्पर भेद भी हैं, तिस पर भी उन सब जीवों को एक दृष्टि से संक्षिप्त किया जाये तो दो प्रकारों में आते हैं । कोई कषायसहित है, कोई कषायरहित है, कषाय किसे कहते हैं? जो आत्मा को कसे उसे कषाय कहते हैं । 'कषति आत्मानं इति कषाय, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार परिणाम आत्मा का घात करते हैं, कसते है, इसे दु:खी कर डालते हैं । बेचैन हो जाते हैं आत्मा कषायों से ग्रस्त होकर । और फिर अगले भव में कुगति भी मिलती है सो आगे भी उसका फल भोगना पड़ता है । तो आत्मा को ये कषायें चोंटती हैं, घात करती हैं इस कारण इन्हें कषाय कहते हैं । अथवा कषायें दूध, गोंद आदिक की तरह कर्मों को चिपकाती हैं इसलिए वे कषाय कहलाती । जैसे बड़ आदिक के पेड़ से जो गाढ़ा दूध अथवा गोंद जैसा निकलता है वह दूसरे पदार्थों को चिपकाने में कारण है, ऐसे ही क्रोधादिक भाव भी आत्मा को कर्म से चिपकाने में कारण बन जाते हैं या आत्मा से कर्म को चिपकने में कारण बनते हैं, इस कारण कषाय की तरह होने को कषाय कहते हैं । जो इन कषायों से युक्त भाव हैं वे सकषाय कहलाते हैं । और जो कषायों से रहित है, जहां कषाये नहीं पायी जातीं वह अकषाय कहलाता है । तो कषायसहित जीवके सांपरायिक आस्रव है, कषायरहित जीव के ईर्यापथास्रव है ।

(15) सांपरायिक न ईर्यापथ आस्रव का निरुक्त्यर्थ भावार्थ स्वामित्व आदि विषयक चर्चा―सांपराय शब्दमें मूल शब्द है संपराय और उसकी व्युत्पत्ति है कि चारों ओर से कर्मोंके द्वारा आत्मा को पराभव होना सो सांपराय है । 'कर्मभि: समंतात आत्मनः पराभव: इति सांपराय:,' और यह सांपराय जिसका प्रयोजन हो, जिसका कार्य हो इस सांपराय के प्रयोजन वाला काम सांपरायिक कहलाता है । इन दोनों आस्रवों में सांपरायिक आस्रव कठिन है, कठोर है, संसार का बढ़ाने वाला है, संसार फल देने वाला है, सुख दुःख का कारण
है, किंतु ईर्यापथास्रव केवल आता है और तुरंत निकल जाता है, आत्मा में ठहरता नहीं है । ईर्यापथ शब्द में दो शब्द हैं―(1) ईर्या और (2) पथ । ईर्या नाम है योग की गतिका, ईरणं ईर्या अर्थात् आत्मप्रदेशपरिस्पंद होना इसे कहते हैं ईर्या, और ईर्या के द्वारसे जो कार्य होता है उसे कहते हैं ईर्यापथं । 'ईर्याद्वारं यस्य तत् ईर्यापथ' इस सूत्र में दो पद हैं और दोनों में द्वंद्व समास है और इसी कारण दोनों ही पद द्विवचन में हैं, जिनका विभक्ति अनुसार अर्थ है कि कषायसहित जीवके सांपरायिक कर्म का आस्रव होता है । कषायरहित जीव के ईर्यापथकर्म का आस्रव होता है । मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान तक इन 10 गुणस्थानों में कषाय का उदय रहता है । सो कषाय के उदय से सहित जो परिणाम है ऐसे परिणाम वाले जीव के योग के वश से कर्म आते हैं और वे गीले चमड़े में धूल लगने की तरह स्थिर हो जाते हैं वे सांपरायिक कर्म कहलाते हैं, और 11वें गुणस्थानसे लेकर 13वें गुणस्थान तक उपशांत कषाय, क्षीण कषाय और सयोगकेवली ये तीनों कषायरहित हैं, वीतराग हैं, किंतु योग का सद्भाव है तो इसके योग के वश से जो कर्म आते हैं सो आयें तो सही, पर कषाय न होने से बंध नहीं होता । जैसे सूखी भीत पर कोई लोंधा गिर जाये तो वह तुरंत ही अलग हो जाता है, चिपटता नहीं है, इसी प्रकार कषाय न होने से यह आत्मा सूखे की तरह है । वहां जो कर्म आते हैं वे डले की तरह तुरंत दूर हो जाते हैं, इसका नाम है ईर्यापथ।

(16) सकषाय अकषाय शब्दों के सूत्रोक्त अनुक्रम की मीमांसा―एक शंकाकार कहता है कि इस सूत्र में पहले पद में दो स्वामियों का वर्णन किया है―1―कषायसहित का और 2―कषायरहित का । तो इन दो स्वामियों के बीच प्रशंसनीय तो कषायरहित है, इस कारण कषायरहित शब्द पहले कहना चाहिए था फिर सकषाय शब्द बोलते । इस नीति का उल्लंघन क्यों किया गया? इसके उत्तर में कहते हैं कि बात तो यह सही है । अकषाय
आत्मा पवित्र है, पूज्य है और सकषाय आत्मा उससे निकृष्ट है, किंतु पहिले कुछ वर्णन सकषाय जीव के बारे में होना है । अकषाय जीव के बारे में क्या विशेष वर्णन होगा? वहां कर्म स्थिति को ही प्राप्त नहीं होते । तो बहुत वक्तव्यता होने से सकषाय शब्द को पहले रखा गया है और इस कारण सांपरायिक होता है सो दूसरे पद में प्रथम सांपरायिक शब्द रखना पड़ा है । यहां यह बात शिक्षा में आती है कि जीव यदि अपने स्वरूप की संभाल करे, पूर्वकृत कर्म का उदय होने पर कषाय की छाया आये भी तो भी ज्ञानदृष्टि के बल से वहां बंध अति अल्प होता है और जब कषाय का संस्कार ही न रहे, निमित्तभूत मोहनीय कर्म भी न रहे, उसका विपाक न आये तो छाया भी न पड़ेगी तो वहाँ फिर योगवश जो कर्म आयेंगे वे ईर्यापथ हैं । इस जीव का संसार में भ्रमण कराने वाला कषायभाव ही है । अब जिज्ञासा होती है कि जब सांपरायिक आस्रव पहला वक्तव्य है, इसके विषय में बहुत अधिक वर्णन किया जाना है तो उसके पहले भेद बतलावो कि सांपरायिक आस्रव के कितने भेद हैं । इसी जिज्ञासा की पूर्ति के लिए सूत्र कहते हैं ।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
Reply


Messages In This Thread

Forum Jump:


Users browsing this thread: 4 Guest(s)