05-11-2023, 08:44 AM
द्रव्याणि ।। 5-2 ।।
द्रव्य का स्वरूप―प्रथम सूत्र में जो 4 पदार्थ बताये गये वे सब द्रव्य हैं । द्रव्य तो जीव और काल भी हैं मगर सूत्र नीति के अनुसार इन 4 को द्रव्य कह दिया और जीव को इसके आगे बतायेंगे कि द्रव्य है और काल का भी वर्णन यथा समय किया जायेगा । यहाँ इस सूत्र में धर्म, अधर्म आकाश और पुद्गल ये द्रव्य हैं जिनका वर्णन ऊपर के सूत्र में किया गया है वे सब द्रव्य है । द्रव्य कहते किसे हैं ? अपने और पर पदार्थों के निमित्त से जो उत्पाद व्यय की पर्यायों से चलता रहे उसको द्रव्य कहते हैं । जो शाश्वत है, सदा काल रहने वाला है और अनेक पर्यायों में से चलता रहता है उस एक शाश्वत पदार्थ को द्रव्य कहते हैं । ऐसे द्रव्य अनंत हैं इस कारण यहाँ बहुवचन शब्द दिया है । धर्म द्रव्य एक है, अधर्म द्रव्य एक है, यह आकाश एक है और पुद्गल द्रव्य अनंतानंत हैं । और शेष के जीव द्रव्य भी अनंतानंत हैं । कालद्रव्य असंख्यात हैं और इस लक्षण में कि जो स्व पर निमित्तक उत्पाद व्यय की पर्यायों से चलता रहे उसे द्रव्य कहते हैं ।
पर्यायोत्पाद की स्वपर प्रत्ययकता―यहाँ एक यह सिद्धांत आया कि उत्पाद व्यय स्वपरप्रत्ययक होता है । स्व प्रत्ययक के मायने स्वयं की शक्तियों से होता है, पर प्रत्ययक के मायने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार होता है । तो पर प्रत्यय तो कहलाया द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप बाह्य प्रत्यय और स्व प्रत्यय कहलाया अपने आपका सामर्थ्य । कभी बाह्य पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भी मिले और पदार्थ में स्वयं में वह पर्याय योग्यता नहीं, तो उस रूप परिणमन नहीं होता । पदार्थ में पर्याय योग्यता है किंतु परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि न मिलें तो परिणमन तदनुरूप नहीं होता । दोनों ही का जब योग होता है तो पर्यायों का तदनुरूप उत्पाद व्यय होता है । एक के अभाव में उस प्रकार का कार्य नहीं होता जैसे उड़द कोठी में रखे हैं । उनको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का योग नहीं है पकने का तो वह नहीं पकता है । भोजन बनता नहीं है । और जो कुरडू उड़द है वह 24 घन्टे भी पानी में पकाने को रखा जाये तो भी पकता नहीं है । पकने के योग्य उर्दों में योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव न रहा और अग्नि पानी आदिक का संयोग मिलने पर भी कुरडू उड़द को पकाने में समर्थ नहीं है इसी प्रकार स्व और पर के हेतु से होने वाले उत्पाद व्ययों रूप अपनी-अपनी पर्यायों से जो जाते हैं, पर्यायों को प्राप्त होते चलते हैं उन्हें द्रव्य कहते हैं ।
पर्याय की द्रव्य से अपृथक्ता―यहाँ द्रव्य और पर्याय भिन्न-भिन्न नहीं हैं फिर भी भेद विवक्षा करके कर्ता और कर्म का निर्देश किया गया है अर्थात पदार्थ अपनी पर्यायों को उत्पन्न करते हैं । यहाँ द्रु धातु से द्रव्य शब्द बना है । य प्रत्यय लगा है, जिसका अर्थ है द्रवति गच्छति इति द्रव्यं । अर्थात उत्पाद विनाश आदिक अनेक पर्यायों के होते रहने पर भी जो संतति से, द्रव्यदृष्टि से गमन करता जाये मायने तीनों काल में रहे उसे द्रव्य कहते हैं । अथवा द्रव्य का भव्य अर्थ में भी भाव समझना चाहिये । अर्थात जो पर्यायों रूप हो सके उसे द्रव्य कहते हैं । होता ही है पर्यायोंरूप । जैसे कोई सीधी लकड़ी बढ़ई के प्रयोग से टेबल, कुर्सी आदिक अनेक आकारों को प्राप्त होती है उसी प्रकार द्रव्य भी स्व और पर प्रत्ययों से उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहता है । द्रु नाम लकड़ी का भी है । उसकी तरह जो अनेक पर्यायोंरूप होता रहे उसको द्रव्य कहते हैं।
द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य होने के सिद्धांत की मीमांसा―यहाँ शंकाकार कहता है कि द्रव्य शब्द का जो अर्थ बताया और यह सिद्ध किया कि कोई एक पदार्थ हैं और वह अनेक पर्यायों को प्राप्त होता रहता है, सो यह ठीक जंचता नहीं है कि उसमें पर्यायें होती हैं, और इस कारण से उसका नाम द्रव्य रखा गया है । किंतु यह मानना चाहिये कि द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य कहलाता है । जैसे डंडे के संबंध से कोई पुरुष डंडी कहलाता है । छतरी के संबंध से कोई पुरुष छतरी वाला कहलाता है । ऐसे ही द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य कहलाता है । द्रव्यत्व सामान्यरूप भी है । पृथ्वी आदि पदार्थों में द्रव्य, द्रव्य ऐसा ज्ञान और शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है । इसमें वे पृथ्वी आदिक भी द्रव्य विशेष हैं और चूंकि पृथ्वी आदिक सभी में द्रव्य शब्द का प्रयोग होता है तो द्रव्य सामान्य भी है और वह द्रव्य, गुण और कर्म से जुदा है । द्रव्यत्व के योग से द्रव्य कहलाता है, न कि पर्याय को पाने से द्रव्य कहलाता है यहाँ शंकाकार का यह अभिप्राय है कि द्रव्य जैसे स्वतंत्र पदार्थ है ऐसे ही गुण और कर्म भी स्वतंत्र पदार्थ हैं । गुण और पर्यायों को पाने से द्रव्य कहलाये सो बात नहीं, किंतु द्रव्यत्व के संबंध द्रव्य से कहलाता है, तो उसमें पर्याय की कोई बात नहीं आती । अब इस शंका के समाधान में कहते हैं कि उक्त शंका ठीक नहीं है, उसका कारण यह है कि द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य कहलाता है यह बात सिद्ध नहीं हो सकती । हाँ यह तो सिद्ध हो लेगा कि दंड के संबंध से पुरुष दंडी कहलाता है । दंडी में संबंध तो सिद्ध इस कारण होता है कि डंडे का जब तक संबंध न हुआ था तब तक भी वह देवदत्त था और डंडा जुदा था । दंडा अपने स्वरूप से है, देवदत्त अपने स्वरूप से है और अपने-अपने स्वरूप से स्वतंत्र-स्वतंत्र पदार्थ हैं । इनका संयोग हो गया तो देवदत्त दंडी कहलाने लगा, पर इस तरह द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्य पाया नहीं जाता ।
द्रव्य और द्रव्यत्व को भिन्न मानने और फिर संबंध बनाकर व्यवहार बनाने की अटपट कल्पनाओं का चित्रण―शंकाकार ही बताये कि द्रव्यत्व का संबंध जब द्रव्य में हुआ तो उससे पहले द्रव्य पाया गया या नहीं? यदि यह कहो कि द्रव्यत्व के संबंध से पहले भी द्रव्य है तब द्रव्यत्व का संबंध हुआ तो संबंध से पहले भी जब द्रव्य है तो अब संबंध की जरूरत ही क्या रही? संबंध की कल्पना अनर्थक है । तो द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्य नहीं है और द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्यत्व भी नहीं है क्योंकि द्रव्य के संबंध बिना द्रव्यत्व नाम कैसे बोलेंगे? वह चीज क्या है? तो जो यहाँ माने कि द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य कहलाता है तो उसके यहाँ न द्रव्य सत् रहेगा और न द्रव्यत्व सत् रहेगा, तो इस प्रकार असत् का संबंध हो ही नहीं सकता है, और कथंचित मान लो कि द्रव्य और द्रव्यत्व ये संबंध से पहले भी सत् हैं तो जब ये अलग-अलग पड़े हुये हैं तब द्रव्य में द्रव्यत्व की शक्ति नहीं है । द्रव्यत्व में द्रव्यत्व की शक्ति नहीं है । संबंध से पहले कदाचित सत् भी मान ले तो वे दोनों शक्तिहीन ही रहे । तो जब यह स्वयं शक्तिहीन है तो इसका संबंध होने पर भी उत्पादन शक्ति नहीं हो सकती है । जैसे कि जन्म के अंधे दो पुरुष हैं तो वे अलग-अलग कुछ देख नहीं सकते और उनको इकट्ठे भी बैठाल दिया जाये तो भी वे देख न सकेंगे, क्योंकि उनमें देखने की शक्ति है ही नहीं, तो मिलकर भी शक्ति कहां से आयेगी? ऐसे ही द्रव्य और द्रव्यत्व में जब शक्ति नहीं है तो दोनों का संबंध होने पर भी वह व्यवहार न बन सकेगा । वह उत्पाद न बन सकेगा, याने द्रव्यत्व बना पड़ा हुआ द्रव्य द्रव्यपने का काम कैसे कर सकेगा? द्रव्य के बिना पड़ा हुआ द्रव्यत्व अपने द्रव्यपना का क्या व्यवहार बना सकेगा? यदि द्रव्यत्व के संबंध के पहले भी द्रव्य अपने में द्रव्य का व्यवहार करा सके तो संबंध की आवश्यकता ही क्या रही और द्रव्यत्व की कल्पना ही निरर्थक रही ।
द्रव्यत्व के संबंध से पहले असत् रहे द्रव्य व द्रव्यत्व में संबंध मानने का अज्ञानमय दुराग्रह―द्रव्यत्व के संबंध से पहले यदि द्रव्य सत् स्वरूप भी होता तो द्रव्यत्व का संबंध मानना उचित होता । किंतु द्रव्य स्वत: सत् भी तो नहीं है, क्योंकि इन शंकाकारों ने द्रव्य को सत् सत्ता के समवाय से माना है । अब द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्य सत् है ही नही, असत् रहा तो उस असत् में सत्ता का समवाय भी कैसे पहुँच जायेगा? अगर असत् में सत्ता का समवाय होने लगे तो जो असत् कल्पित है खरविषाण आकाश पुष्प इनमें भी सत्ता का समवाय संबंध हो जाना चाहिये । तो लो कितनी विडंबना है । सत् अलग है, द्रव्य अलग है, द्रव्यत्व अलग है । उनके संबंध से फिर पदार्थ का व्यवहार है । कितने आश्चर्य की बात है । सीधा जैसा वस्तुस्वरूप है वैसा न मानकर उनके खंड करना, विभाग बनाना यह कहां का न्याय है ।
भिन्न माने गये द्रव्यत्व का गुण कर्म सामान्य आदि सबमें संबंध होने का प्रसंग―और भी देखिये― द्रव्यत्व सामान्य सर्वगत है, ऐसा शंकाकार ने माना है । अत: यदि अतदात्मक द्रव्य में वह द्रव्यत्व समवाय संबंध से रहता है तो गुण और सामान्य आदिक में भी द्रव्यत्व को समवाय संबंध से रह जाना चाहिये, याने द्रव्य अलग है, द्रव्यत्व अलग है, तो इसके मायने यह ही तो हुआ कि द्रव्य द्रव्यमय नहीं है । तो जो द्रव्यत्वमय नहीं है ऐसा द्रव्य में द्रव्यत का तो समवाय संबंध बन जायेगा और द्रव्यत्वमय गुण भी नहीं है । कर्म भी नहीं है, उनमें द्रव्यत्व का संबंध न बने, इसका कारण तो बताये कोई । याने द्रव्यत्व का संबंध द्रव्य में ही क्यों होता है? द्रव्य का संबंध गुण आदिक में क्यों नही हो जाता, जब कि द्रव्यत्वमय नहीं, गुण भी द्रव्यत्वमय नहीं है । तो द्रव्यत्व का संबंध जुटाने के लिये द्रव्य और गुण एक ही समान हो गए । यदि शंकाकार यह कहे कि द्रव्य तदात्मक है याने वह द्रव्यत्वमय है इस कारण द्रव्य में ही द्रव्यत्व का समवाय होता है तो उत्तर यह है कि जब द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्य तादात्मक रहा, द्रव्यत्वमय रहा तो अब द्रव्यत्व के समवाय की कल्पना करना बिल्कुल निरर्थक है ।
भिन्न द्रव्यत्व का समवायी कारण द्रव्य को मानने की असिद्धि―अब शंकाकार कहता है कि द्रव्यसमवायी कारण है इस कारण द्रव्यत्व का समवाय द्रव्य में ही होता है, गुण में नहीं, खरविषाण आदिक असत् में नहीं । उत्तर यह है कि द्रव्यत्व के संबंध से पहले जब द्रव्य का कोई स्वरूप ही न बना तो फिर द्रव्य का समवायी कारण कैसे कहा जा सकता? यदि स्वरूप रहित द्रव्य समवायी कारण माना जाये तो खरविषाण आकाश पुष्प आदिक को भी समवायी कारण क्यों नही माना जाता? क्योंकि जब स्वरूप नहीं है तो उसका कुछ तथ्य भी नही है, कदाचित यह शंकाकार कहे कि खरविषाण आदिक तो असत् हैं, गधे का सींग कुछ है ही नहीं, तो असत् होने से वह समवायी कारण नहीं हो सकता । तो अर्थ इसका यह है कि असत् तो शंकाकार का द्रव्य भी है क्योंकि उनके सिद्धांत में द्रव्य स्वयं असत् नहीं, किंतु सत्ता के समवाय से असत् है । जैसे यहाँ द्रव्यत्व के समवाय से द्रव्य बता रहे हो ऐसे ही सत्ता के समवाय से उसको सत् बताया था । तो जब सत्ता का समवाय नहीं है उस स्थिति में द्रव्य असत् ही तो रहा, सो यही समस्या यहाँ रहती कि द्रव्य असत् है तो वह द्रव्य का समवायी कारण कैसे हो सकता? सारांश यह है कि कुछ भी कारण सोचें जिस कारण से द्रव्यत्व का द्रव्य ही समवायी कारण माना जाये, गुण कर्म आदिक न माने जायें तो जिस कारण से द्रव्य का समवायी कारण माना उस ही कारण से यह क्यों नहीं मान लेते कि द्रव्य का निज स्वरूप ही आत्मा है याने द्रव्यत्वमय द्रव्य है । द्रव्य के धर्म को द्रव्यत्व कहते हैं और उस ही द्रव्य स्वरूप से द्रव्यों का व्यवहार होता है । क्यों इतनी टेढ़ी लाइन चलते जा रहे हैं कि द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य होता है और फिर एक झूठ को ठीक करने के लिये साथ में 50 झूठ बोले जायें? तो सीधा ही मान लेना चाहिये कि द्रव्य का यह स्वरूप अनादि है । पारिणामिक है, द्रव्य से बाहर कोई द्रव्यत्व नाम का तत्त्व नहीं है कि जिसके संबंध से इसको द्रव्य कहा जाये ।
द्रव्य को द्रव्यत्व का आधार बताकर द्रव्य को समवायी कारण मानने की कल्पना की निरर्थकता―शंकाकार कहता है कि द्रव्य एक ऐसी विशेषता है कि जिसके कारण द्रव्य ही द्रव्यत्व का समवायी कारण होता है । गुण कर्म आदिक समवायी कारण नहीं होते और इसी वजह से द्रव्यत्व समवाय संबंध से द्रव्य में ही रहता है, अन्य में नहीं रहता, और वह विशेषता है आधार । द्रव्यत्व का आधार द्रव्य है इस कारण द्रव्यत्व का समवायी कारण द्रव्य रहा । इसका समाधान यह है कि द्रव्य में द्रव्य का आधार यह शंकाकार सिद्ध नहीं कर सकता, क्योंकि द्रव्य स्वतः सिद्ध ही नहीं । जो स्वत: सिद्ध हो वही तो किन्हीं आधेयों का आश्रय हो सकता है । जैसे जल आदिक का आश्रय घट है तो घट कोई चीज है तो वहाँ जल आधेय हो गया, ऐसे ही द्रव्यत्व कोई वस्तु नहीं है तो द्रव्यत्व का आधार कैसे बन जायेगा? तो द्रव्यत्व बिना द्रव्य क्या चीज रही? और अगर द्रव्यत्वमय है तो फिर द्रव्यत्व के संबंध की कल्पना ही क्यों करते? तो जैसे आधार कह रहे शंकाकार उसका सिद्धि ही नहीं कर सकते, फिर द्रव्यत्व का आधार कैसे बनेगा?
भिन्न-भिन्न द्रव्य व द्रव्यत्व की कल्पना करने वालों के ‘‘द्रव्य’’ शब्द बोलने का भी अशक्यपना―अब दूसरी बात सुनो कि यह शंकाकार ‘द्रव्य’ इतना शब्द भी नहीं बोल सकता, क्योंकि द्रव्यत्व अलग है, द्रव्य अलग है तो द्रव्यत्व के बिना अन्य कुछ भी द्रव्य कैसे कहा जा सकता है? तो जो लोग द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य मानते हैं उनको तो द्रव्य शब्द बोलना भी न चाहिये, बोला ही न जा सकेगा । कैसे? सो सुनो―उसको द्रव्य कैसे कहते हैं? द्रव्यत्व का अभेद है इस कारण द्रव्य कहते हो या द्रव्यत्व तो द्रव्य से भेद रूप से रहता है । इन दो पक्षों में से क्या स्वीकार करते हो? यदि कहो कि द्रव्यत्व का द्रव्य में अभेद है और उससे द्रव्य नाम पड़ गया है तो सुनो―यदि किसी अन्य के संबंध से, द्रव्यत्व के संबंध से वहाँ द्रव्य नाम बोलते हो तो संबंध होने से द्रव्यत्व नाम कहो, द्रव्य नाम क्यों कहते? जैसे लाठी से सहित पुरुष लाठी वाला कहा जाता है ऐसे ही द्रव्यत्व से सहचरित कुछ भी ‘द्रव्यत्व’ इस नाम से कहा जाना चाहिये । द्रव्य इस शब्द से न कहा जाना चाहिए । इस संबंध में शंकाकार यदि ऐसा कहे कि द्रव्यत्व शब्द का वाच्य जैसे द्रव्यत्व है ऐसे ही द्रव्यत्व का वाच्य द्रव्य भी है । तब द्रव्यत्व के संबंध से उसे द्रव्य का भी व्यवहार हो सकता है । ऐसा कहना शंकाकार का यों युक्त नहीं है कि यदि द्रव्यत्व की द्रव्य संज्ञा स्वत: मान ली गई तो द्रव्य को स्वत: मानने में क्यों असंतोष होता है याने यह संज्ञा स्वत: मान लेना चाहिये । यदि किसी अन्य पदार्थ के संबंध से ‘द्रव्य’ यह नाम माना जाये तो फिर वह ही दोष आयेगा, जैसे कि अब तक देते आये हैं । वह अभेद है या भेद है, दोनों की सिद्धि नहीं हो सकती है । फिर एक बात और भी सोचो कि द्रव्यत्व का वाच्य द्रव्य नाम माना शंकाकार ने और द्रव्यत्व भी माना, तो जैसे द्रव्य इस संज्ञा की हठ कर रहे हैं ऐसे ही उसे द्रव्यत्व भी क्यों नहीं बोल डालते ।
द्रव्य व द्रव्यत्व का व्यपदेश भेद मूलक मानने की आशंका का समाधान―अब यदि शंकाकार भेद सूत्रक व्यपदेश माने अर्थात् जैसे लाठी वाला ऐसा कहने में लाठी अलग मालूम होती है और लाठी वाला पुरुष अलग मालूम होता है । इस शब्द से दो का ज्ञान होता है कि ये जुदे हैं पुरुष और लाठी, फिर संबंध से लाठी वाला कहा । तो ऐसा भेद मूलक अगर द्रव्य संज्ञा मानते हो तो उसे द्रव्य न कहना चाहिये किंतु द्रव्यत्व वाला । जैसे लाठी के संबंध से लाठी वाला कहा जाना चाहिये । ‘द्रव्य’ यह न कहा जाना चाहिये, यदि शंकाकार यह समाधान देने का प्रयत्न करे कि जैसे शुक्ल गुण के संबंध से कपड़ा भी शुक्ल कहा जाता, शुक्लवान कोई नहीं कहता, यह कपड़ा शुक्ल है । ऐसा कोई नहीं कहता कि यह कपड़ा शुक्ल वाला है । तो जैसे शुक्ल गुण के योग से कपड़े को भी शुक्ल कहा जाता वहाँ वाला साथ में कोई नहीं लगाता और है वहाँ भेद । कपड़ा अलग नहीं है, शुक्ल गुण अलग नहीं है, कपड़ा ही शुक्ल है तो उस अभेद में भी वाला शब्द का प्रयोग हुआ । संस्कृत में कहते हैं इसे मतुप् प्रत्यय, जैसे बुद्धिमान हिंदी में कहेंगे बुद्धि वाला । तो शंकाकार यह कह रहे हैं कि जैसे शुक्ल पट में शुक्ल गुण के संबंध से शुक्ल कहा जाता है, वहाँ वाला शब्द का प्रयोग नहीं होता ऐसे ही द्रव्यत्व गुण के संबंध में यह द्रव्य कहा जायेगा, द्रव्यत्व वाला ऐसा वाला शब्द का प्रयोग न होगा । उत्तर यह है कि शंकाकार का यह समाधान करना निष्फल चेष्टा है, क्योंकि व्याकरण में गुणवाची शब्द से तो मतुप् प्रत्यय का लोप माना है सो शुक्ल पट में मतुप् प्रत्यय बोले बिना ही तो काम चल गया पर यह भी तो समझें कि शुक्ल द्रव्यवाची भी है और गुणवाची भी है । तो द्रव्यवाची होने मे वहाँ मतुप् की जरूरत नहीं है, किंतु यह द्रव्यत्व शब्द गुणवाची नहीं है इसलिये द्रव्यत्व का संबंध लगाकर मतुप् प्रत्यय बोलना ही पड़ेगा, फिर बोला―द्रव्यत्व वाला । और ऐसा भी नहीं है कि द्रव्यत्व में से तो हो जाये जो संबंध के कारण इसलिए झट यह व्यपदेश हो नहीं सकता ।
भेदैकांतवाद में ‘‘द्रव्यत्व’’ शब्द बनने ही असंभवता―एक बात यह भी सोचना चाहिये कि द्रव्यत्व शब्द बना कैसे लिया गया है । द्रव्य शब्द से भाव अर्थक त्व प्रत्यय लग ही नहीं सकता, क्योंकि वे यह बतायें कि द्रव्यत्व का भाव द्रव्यत्व है सो वह भाव द्रव्य से क्या अभिन्न है या भिन्न है? यदि भाव द्रव्यों से अभिन्न है तो मायने वह भाव द्रव्य का ही आत्म स्वरूप हुआ । सो अनादि पारिणामिक द्रव्य रूप ही कहलाता है । तो द्रव्य से द्रव्यत्व भिन्न रहा नहीं, फिर द्रव्यत्व के समवाय की कल्पना ही खत्म हो जाती । यदि शंकाकार कहे कि द्रव्य का भाव द्रव्य से भिन्न है तो वह द्रव्य का कैसे कहा जा सकता? द्रव्य से भिन्न अनेक पदार्थ पड़े हैं, लेकिन वे एक द्रव्य के तो न कहलायेंगे । जो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं उन्हें यह नहीं कहा जा सकता कि यह इसकी चीज है, और भी समझिये । जिस प्रकार द्रव्य का भाव द्रव्यत्व माना जाता है तो द्रव्यत्व का भी भाव होना चाहिये । यदि उसमें एक त्व और लगा दिया जाये ‘द्रव्यत्वत्व’ फिर उसका भी भाव तो यों त्व लगाते जाइये, उसका कहीं विराम ही न हो पायेगा, अनवस्था दोष आता है । यदि कोई कहे कि द्रव्यत्व का कोई भाव नहीं होता इस कारण एक तब लगाने की जरूरत नहीं । तो जिसका कोई भाव नहीं है वह तो स्वभाव शून्य कहलायेगा । द्रव्यत्व का भाव नहीं तो द्रव्यत्व भी कुछ न रहा । स्वभाव शून्य होने से द्रव्यत्व का अभाव हो जायेगा ।
नित्य एक निरवयव द्रव्यत्व का पृथिवी जल आदिक सब पदार्थों में संबंध की असिद्धि―अब शंकाकार यह बतलाये कि जिस द्रव्यत्व के समवाय से द्रव्य कहा जा रहा है वह द्रव्यत्व शंकाकार ने माना नित्य एक निरवयव, तो वह द्रव्यत्व अनेक पृथ्वी आदिक में कैसे रह सकता है? द्रव्यत्व एक है और वह पृथ्वी में भी है, जल में भी है । तो पृथ्वी पड़ी किसी जगह, जल है दूर पत्थर में है, आदमी में है । तो ये भिन्न-भिन्न पदार्थों में एक द्रव्यत्व कैसे रह सकता । द्रव्यत्व कहीं टूट तो न जायेगा कि बीच में द्रव्यत्व न रहा । तो द्रव्य एक नित्य पृथ्वी आदिक में संभव नहीं । पृथ्वी आदिक में माना ही है कि द्रव्यत्व तो एक है पर वह कहलाता है समस्त पदार्थों में तब तो वह रूप आदिक की तरह द्रव्यत्व भी अनेक बन जायेगा । जैसे पृथ्वी में जो रूप है वह पृथ्वी का है, जल में जो रूप है वह जल का है, ऐसे ही पृथ्वी में द्रव्यत्व पृथ्वी का है, पत्थर आदिक में द्रव्यत्व पत्थर आदिक का है, काठ में द्रव्यत्व काठ आदिक का है । तो यों द्रव्यत्व अनेक तरह का हो जायेगा ।
अमहत्द्रव्यत्वं को सर्वव्यापक सिद्ध करने के लिये आकाश का दृष्टांत देने की असंगतता―यदि शंकाकार ऐसा कहे कि जैसे आकाश अनेक द्रव्यों को व्याप करके रहता है ऐसे ही द्रव्यत्व अनेक द्रव्यों को व्याप करके रहता है । आकाश भी तो नित्य एक निरवयव है और वह सब पदार्थों में व्यापकर रहता है, ऐसे ही द्रव्यत्व भी सब द्रव्यों में व्यापकर रह लेगा सो यह बात यों नहीं बनती कि आकाश तो महापरिमाण वाला है । उसका तो एक साथ अनेक द्रव्यों को व्याप्त करना बन जायेगा, परंतु द्रव्यत्व सामान्य में यह बात नहीं । एक व महापरिमाण वाला आकाश तो सबको व्यापता है किंतु गुण तो द्रव्य में रहते हैं तो अमहत् द्रव्यत्व सबको कैसे व्याप सकता है । यदि शंकाकार यह कहे कि एकत्व संख्या के गुण की तरह उपचार से द्रव्यत्व महापरिमाण वाला बन जायेगा सो यह बात यों ठीक नहीं कि यह तो सब असिद्ध के द्वारा ही सिद्ध करने का प्रयास चल रहा है क्योंकि उपचरित पदार्थ मुख्य कार्य नहीं कर सकता । आकाश तो अनंत प्रदेश वाला है सो प्रदेश भेद होने से आकाश का सर्वत्र वर्तन बनता है । सब द्रव्य उसमें व्याप जाते हैं, किंतु द्रव्यत्व में तो यह बात नहीं है । अनेक कपड़ों में जैसे रंग भिदाया गया, मानो नीले रंग से कपड़ा रंगा गया तो वहाँ वह पीला द्रव्य एक नहीं है । कपड़े का जितना विस्तार है उसका एक-एक अंश में अलग-अलग रंग पड़ा हुआ है, ऐसे ही द्रव्यत्व का संबंध बनाया जाये तो द्रव्यत्व सबमें अलग-अलग ही कहलायेगा । वह एक नित्य निरवयव नहीं हो सकता ।
भिन्न द्रव्यत्व की सिद्धि के लिये असंगत वचन बोलने की व्यर्थ माथापच्ची―अब यहाँ शंकाकार एक तर्क उपस्थित करता है कि जैसे अग्नि की उष्णता सिद्ध करने के लिये कोई दृष्टांत नहीं मिल रहा, फिर भी यह खूब समझ में है कि अग्नि स्वभाव से उष्ण है, तो दृष्टांत न मिलने पर भी अग्नि की उष्णता, स्वभाव से है, यह बात माननी पड़ती है, इसी प्रकार एक पदार्थ अनेक जगह रहता है ऐसा सिद्ध करने में दृष्टांत न भी मिले तो भी एक स्वभाव से सिद्ध समझ लेना चाहिये । तो द्रव्यत्व की बात कही जा रही कि द्रव्यत्व एक है और वह एक होकर निरवयव और नित्य होकर भी अनेक जगहों में उसको वृत्ति है, पर उसका दृष्टांत नहीं मिलता सो न मिले दृष्टांत, तो भी स्वभावत: यह सिद्ध हो जायेगा, जैसे कि अग्नि की गर्मी स्वभावत: सिद्ध हो जाती है, ऐसा शंकाकार का तर्क करना भी असंगत है, क्योंकि दृष्टांत के अभाव में भी काम सिद्ध होता है, इसको सिद्ध करने के लिये आपने एक दृष्टांत स्वतंत्र दिया है इसलिये स्ववचन विरोध है, दृष्टांत के अभाव में भी सादृश्य सिद्ध होता है इसका निर्णय दृष्टांत दिये बिना नहीं कर सकते आप, सो ऐसे ही यहाँ युक्ति के अभाव होने पर भी द्रव्यत्व से अनेक की स्थिति मानते हो तो द्रव्य को ही स्वत: द्रव्य क्यों नहीं मान लेते? समवाय कोई संबंध नहीं है, संबंध तो भिन्न-भिन्न पदार्थों में होता है । शेष तो तादात्म्य है । द्रव्य ही द्रव्यत्व धर्म में तन्मय है फिर समवाय की कुछ आवश्यकता नहीं । संयोग संबंध में भिन्न पदार्थों का संयोग बनता है और संयोग शब्द से वाच्य संयोग बराबर समझ में आता है, उसकी आदि है, पर द्रव्य में द्रव्यत्व का प्रारंभ नहीं है कि कब से द्रव्य में द्रव्यत्व आया? त्रिकाल द्रव्य है, द्रव्यत्व है, वह द्रव्य के ही स्वरूप को द्रव्यत्व कहा है, सो द्रव्य को अनेक का संबंधी मानने का परिश्रम व्यर्थ करते हो, द्रव्य को ही स्वतः द्रव्य क्यों नहीं मान लेते?
सर्वथा एकांत पक्ष में ‘‘जो गुणों को प्राप्त हो सो द्रव्य है’’ इस लक्षण की अनुपपत्ति―अब शंकाकार कहता है कि द्रव्य का लक्षण यह है सही गुण संद्भाव: द्रव्यं, अर्थात् जो गुणों को प्राप्त हो वह द्रव्य कहलाता है । इसके संबंध में समाधान यह है कि गुणों को प्राप्त होना सो द्रव्य है । इसमें यह बतलाओ कि वे गुण द्रव्य से अभिन्न हैं या भिन्न हैं । जिन गुणों को प्राप्त करने वाला द्रव्य है वे गुण और ये द्रव्य ये भिन्न हैं या अभिन्न हैं? यदि गुणों से द्रव्य को अभिन्न मानोगे तो यह भी द्रव्य कर्ता है ऐसा कर्ता रूप कर्म से बोल न सकेंगे । अभेद पक्ष में तो कोई बात एक ही होती है, दो नहीं होती, दो हैं तो भेद है, याने गुणों से द्रव्य को अभिन्न मानने पर या तो द्रव्य ही रहेगा या गुण रहेंगे । तो यदि यह कहे कोई कि गुण ही रह जाये तो इसमें क्या आपत्ति है? तो देखिये निराश्रय गुणों का अभाव हो जायेगा । गुण ही रहे, द्रव्य साथ नहीं तो गुणों का आश्रय तो कुछ रहा नहीं, तो आश्रय रहित गुण कभी होता ही नहीं, गुणों का अभाव हो जायेगा । यदि कहा जाये कि द्रव्य ही रहा आवे अभेद करने में कुछ भी एक बोलना चाहिये ना, चाहे द्रव्य बोले चाहे गुण बोले तो द्रव्य ही बोला जाये वही कहलाता है, तो सुनो । द्रव्य और गुण को अभेद करने पर द्रव्य को ही रहना माना है, गुण रहे नहीं तो गुण से ही तो लक्षण समझा जाता है, गुण से ही स्वभाव जाना जाता है । गुण तो रहे नहीं, एक द्रव्य मात्र ही रहा तो यह लक्षण या स्वभाव के बिना उस द्रव्य का कुछ भी अस्तित्त्व नहीं रह सकता । सो यदि द्रव्य और गुणों को भिन्न माना जाये याने गुणों को जो प्राप्त करे सो द्रव्य है ऐसे कथन में दो बातें ध्यान में आयीं, गुण और द्रव्य, सो उन्हें अगर भिन्न माना जाये तो गुण के बिना द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है और द्रव्य के बिना गुण की भी सत्ता नहीं है । तो स्वरूप रहित होने से दोनों का ही अभाव हो जायेगा । इस कारण गुणों का संगम द्रव्य है अर्थात् जो गुणों को प्राप्त होवे सो द्रव्य है । द्रव्य का बाहरी लक्षण सही नहीं होता ।
जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जाये सो द्रव्य है, इस लक्षण की सर्वथा एकांत पक्ष में अनुपपत्ति―यहाँ शंकाकार कहता है कि द्रव्य का लक्षण हम यह करेंगे―जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जाता है वह द्रव्य कहलाता है । इस शंका का उत्तर बताया है कि गुणों को तो निष्क्रिय माना गया है । वैशेषिक दर्शन में 5वें अध्याय के दूसरे पद में 21वें, 22वें सूत्र में बताया है कि दिशा, काल और आकाश ये निष्क्रिय हैं क्योंकि क्रियावान पदार्थों से विलक्षण है, और इस ही से कर्म और गुण भी निष्क्रिय कहे गये हैं । तो यों जब गुण निष्क्रिय हैं तो वे द्रव्य के प्रति किस तरह से प्राप्त होंगे? यदि यह कहा जाये कि द्रव्य का लक्षण हम यों कर देंगे कि जो गुणों को प्राप्त करता है वह द्रव्य है सो यह भी नहीं बन सकता, क्योंकि द्रव्य भी निष्क्रिय है । तो गुणों के प्रति कहे जायेंगे अथवा गुण तो निष्क्रिय माने ही गये हैं । उन गुणों के प्रति द्रव्य कैसे पहुँचेगा? दूसरी बात यह देखिये कि गुण तो स्वत: असिद्ध हैं । गुण का लक्षण ही नहीं बन सकता । जहाँ भेदवाद है वहाँ तो द्रव्य गुण किसी का भी लक्षण नहीं बनता । तो जब स्वत: सिद्ध नहीं है गुण तो गुण व द्रव्य में प्राप्यप्रापकभाव कैसे बन सकता । कोई भी मनुष्य अगर ग्राम आदिक को प्राप्त होता है तो स्वतः सिद्ध हैं ना ग्राम आदिक तब ही तो उनको प्राप्त होते हैं । गुण तो स्वत: सिद्ध है नहीं तो द्रव्य उनको कैसे प्राप्त करेंगे?
सर्वथैकांतवाद द्रव्य व गुण में प्राप्यप्रापकभाव की असिद्धि―शंकाकार कहता है कि हम गुणों की सिद्धि इस तरह से करते हैं कि जैसे लोक में कच्चे घड़े को पकाने से रंग बदलता है तो वहाँ यह कह सकते हैं कि उस घड़े ने कालेपन को छोड़कर लालपन को प्राप्त किया है । तो लो यों गुणों के द्वारा द्रव्य प्राप्त हो गया । इसका उत्तर यह है कि यदि इस तरह से व्यवहार द्वारा गुण और द्रव्यों की प्राप्ति का संबंध बन गया तो इसमें पृथक सिद्धपने का प्रसंग आयेगा । जो पृथक सिद्ध हो वही तो प्राप्य प्रापकभाव बनता है । जैसे देवदत्त ने गांव को प्राप्त किया तो देवदत्त एक पुरुष है, गाँव अपनी जगह है, तो भिन्न सिद्ध है तभी तो पाने की बात बनती है । जब द्रव्य तो ठहरा रहता है और रूपादिक नष्ट होते हैं, पैदा होते हैं तो यही तो सिद्ध हुआ कि द्रव्य और रूपादिक पृथक सिद्ध भये । यदि इनको अभेद माना जाये तो जैसे द्रव्य नित्य है तो ये लाल पीले आदिक गुण भी नित्य होने चाहिये । अथवा जैसे लाल, पीला रंग आदिक गुण अनित्य हैं ऐसे ही द्रव्य भी अनित्य होना चाहिए । अत: यह लक्षण ही ठीक नहीं बैठता कि जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जाये सो द्रव्य है या जो गुणों को प्राप्त करता है सो द्रव्य है ।
समवायीकारण द्रव्य व गुणों का एकत्र रहने में विरोध―और भी देखिये―जैसे पंडित और मूर्ख में परस्पर विरोध है । जो पंडित है वह मूर्ख नहीं, जो मूर्ख है वह पंडित नहीं । इसी तरह समवायी कारण द्रव्य से, रूपादिक को अपृथक माना जायेगा तो वे द्रव्य की तरह न तो उत्पन्न ही होंगे और न विनष्ट ही होंगे । यदि विनष्ट भी होंगे और उत्पन्न भी होंगे और द्रव्य स्थिर रहेगा । तो मानना चाहिये कि यह अभेद नहीं है । भेद रूप से हे तब ही तो गुण नष्ट विनष्ट उत्पन्न हुए और द्रव्य ज्यों का त्यों रहा । यहाँ द्रव्य के स्वरूप के संबंध में विचार चल रहा है । वास्तविक बात तो यह है कि प्रत्येक सत् द्रव्य है । और ये सब सत् की विशेषतायें हैं कि उनमें गुण और पर्याय की समझ बनती है और इस समझ के द्वारा उस सत् द्रव्य को पहिचाना जाता है पर समझने की पद्धति में अभेद को परमार्थ मान लिया उस शंकाकार ने इस कारण द्रव्य का लक्षण वहाँ मत में ठीक नहीं बैठ रहा । गुण और द्रव्य दों सत् मानकर वहाँ संबंध बनाना यह सिद्ध नहीं हो पाता । अगर वह अभेद है तो संबंध नहीं बनता और लक्षण यदि गुण और द्रव्य पृथक हैं तो संबंध नहीं बनता और लक्षण भी नहीं बनता । गुणों के द्वारा द्रव्य का प्राप्त होना भेदवाद में उसी तरह असंभव है जैसे कि जैसे घट के द्वारा पट का लाभ नहीं ।
सर्वथा भेदभाव में द्रव्य व गुण में प्राप्यप्रापकभाव की असिद्धि―अब शंकाकार कहता है कि प्राप्यप्रापकभाव भेदभाव में ही देखा जाता है । जैसे अनुमान बनाते हैं कि धूम से द्वारा अग्नि पहिचानी गई तो जब यहाँ भेद है तब तो लक्ष्य-लक्षण बना । तो द्रव्यों ने गुण को पाया या गुणों ने द्रव्य को पाया, यह बात तब ही बने जब ये दो भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं । अभेद में प्राप्यप्रापकभाव नहीं बनता क्योंकि अभेद है, एक ही हैं तो उसमें वृत्ति का विरोध है । जैसे अंगुली का अग्र भाग अपने अग्र भाग को छू नहीं सकता, अंगुली का अग्र भाग दूसरे भाग को ही तो छुवेगा या अन्य पदार्थ को । तो जैसे अंगुली का अग्र भाग अपने आपको नहीं छूता क्योंकि अभेद ही एक हे इसी तरह जो भी एक होगा वह एक दूसरे को प्राप्त नहीं कर सकता । शंका के समाधान में कहते हें कि आपका कहना ही आपकी बात को काट रहा है । अग्नि और धूम आदिक भिन्न-भिन्न हैं । उनमें लक्ष्य लक्षण भाव बनता है । वह पृथक सिद्ध है यह तो सही है, पर द्रव्य और गुण की पृथक प्रसिद्धि नहीं है । वे जुदे-जुदे सत् नहीं हैं, क्योंकि भिन्न-भिन्न रूप से ये दोनों पाये नहीं जाते और फिर जो यह कहा है कि अपने आपमें अपना व्यापार नहीं होता, सो इसकी भी हठ ठीक नहीं है । अपने आपमें भी अपना व्यापार होता है । जैसे दीपक अपने आपको प्रकाशित करता है तो खुद ने खुद पर अपना प्रभाव किया ना । और यह बात बिल्कुल सिद्ध है । सभी पहचानते हैं कि दीपक खुद अपने स्वरूप को प्रकाशित करता है । अगर दीपक अपने प्रकाश करने में अन्य दीपक की मदद ले याने दूसरे दीपक के द्वारा कोई दीपक देखा जाये तो वह दीपक ही न रहा, क्योंकि स्वयं प्रकाशक नहीं है ना; जैसे घट, पट आदिक स्वयं प्रकाशक नहीं हैं तो वे दीपक की अपेक्षा रखते हैं । सो कोई भी दीपक किसी अन्य दीपक की अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि वह स्वयं जल रहा है प्रकाशमान है ।
द्रव्य का स्वरूप―प्रथम सूत्र में जो 4 पदार्थ बताये गये वे सब द्रव्य हैं । द्रव्य तो जीव और काल भी हैं मगर सूत्र नीति के अनुसार इन 4 को द्रव्य कह दिया और जीव को इसके आगे बतायेंगे कि द्रव्य है और काल का भी वर्णन यथा समय किया जायेगा । यहाँ इस सूत्र में धर्म, अधर्म आकाश और पुद्गल ये द्रव्य हैं जिनका वर्णन ऊपर के सूत्र में किया गया है वे सब द्रव्य है । द्रव्य कहते किसे हैं ? अपने और पर पदार्थों के निमित्त से जो उत्पाद व्यय की पर्यायों से चलता रहे उसको द्रव्य कहते हैं । जो शाश्वत है, सदा काल रहने वाला है और अनेक पर्यायों में से चलता रहता है उस एक शाश्वत पदार्थ को द्रव्य कहते हैं । ऐसे द्रव्य अनंत हैं इस कारण यहाँ बहुवचन शब्द दिया है । धर्म द्रव्य एक है, अधर्म द्रव्य एक है, यह आकाश एक है और पुद्गल द्रव्य अनंतानंत हैं । और शेष के जीव द्रव्य भी अनंतानंत हैं । कालद्रव्य असंख्यात हैं और इस लक्षण में कि जो स्व पर निमित्तक उत्पाद व्यय की पर्यायों से चलता रहे उसे द्रव्य कहते हैं ।
पर्यायोत्पाद की स्वपर प्रत्ययकता―यहाँ एक यह सिद्धांत आया कि उत्पाद व्यय स्वपरप्रत्ययक होता है । स्व प्रत्ययक के मायने स्वयं की शक्तियों से होता है, पर प्रत्ययक के मायने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार होता है । तो पर प्रत्यय तो कहलाया द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप बाह्य प्रत्यय और स्व प्रत्यय कहलाया अपने आपका सामर्थ्य । कभी बाह्य पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भी मिले और पदार्थ में स्वयं में वह पर्याय योग्यता नहीं, तो उस रूप परिणमन नहीं होता । पदार्थ में पर्याय योग्यता है किंतु परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि न मिलें तो परिणमन तदनुरूप नहीं होता । दोनों ही का जब योग होता है तो पर्यायों का तदनुरूप उत्पाद व्यय होता है । एक के अभाव में उस प्रकार का कार्य नहीं होता जैसे उड़द कोठी में रखे हैं । उनको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का योग नहीं है पकने का तो वह नहीं पकता है । भोजन बनता नहीं है । और जो कुरडू उड़द है वह 24 घन्टे भी पानी में पकाने को रखा जाये तो भी पकता नहीं है । पकने के योग्य उर्दों में योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव न रहा और अग्नि पानी आदिक का संयोग मिलने पर भी कुरडू उड़द को पकाने में समर्थ नहीं है इसी प्रकार स्व और पर के हेतु से होने वाले उत्पाद व्ययों रूप अपनी-अपनी पर्यायों से जो जाते हैं, पर्यायों को प्राप्त होते चलते हैं उन्हें द्रव्य कहते हैं ।
पर्याय की द्रव्य से अपृथक्ता―यहाँ द्रव्य और पर्याय भिन्न-भिन्न नहीं हैं फिर भी भेद विवक्षा करके कर्ता और कर्म का निर्देश किया गया है अर्थात पदार्थ अपनी पर्यायों को उत्पन्न करते हैं । यहाँ द्रु धातु से द्रव्य शब्द बना है । य प्रत्यय लगा है, जिसका अर्थ है द्रवति गच्छति इति द्रव्यं । अर्थात उत्पाद विनाश आदिक अनेक पर्यायों के होते रहने पर भी जो संतति से, द्रव्यदृष्टि से गमन करता जाये मायने तीनों काल में रहे उसे द्रव्य कहते हैं । अथवा द्रव्य का भव्य अर्थ में भी भाव समझना चाहिये । अर्थात जो पर्यायों रूप हो सके उसे द्रव्य कहते हैं । होता ही है पर्यायोंरूप । जैसे कोई सीधी लकड़ी बढ़ई के प्रयोग से टेबल, कुर्सी आदिक अनेक आकारों को प्राप्त होती है उसी प्रकार द्रव्य भी स्व और पर प्रत्ययों से उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहता है । द्रु नाम लकड़ी का भी है । उसकी तरह जो अनेक पर्यायोंरूप होता रहे उसको द्रव्य कहते हैं।
द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य होने के सिद्धांत की मीमांसा―यहाँ शंकाकार कहता है कि द्रव्य शब्द का जो अर्थ बताया और यह सिद्ध किया कि कोई एक पदार्थ हैं और वह अनेक पर्यायों को प्राप्त होता रहता है, सो यह ठीक जंचता नहीं है कि उसमें पर्यायें होती हैं, और इस कारण से उसका नाम द्रव्य रखा गया है । किंतु यह मानना चाहिये कि द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य कहलाता है । जैसे डंडे के संबंध से कोई पुरुष डंडी कहलाता है । छतरी के संबंध से कोई पुरुष छतरी वाला कहलाता है । ऐसे ही द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य कहलाता है । द्रव्यत्व सामान्यरूप भी है । पृथ्वी आदि पदार्थों में द्रव्य, द्रव्य ऐसा ज्ञान और शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है । इसमें वे पृथ्वी आदिक भी द्रव्य विशेष हैं और चूंकि पृथ्वी आदिक सभी में द्रव्य शब्द का प्रयोग होता है तो द्रव्य सामान्य भी है और वह द्रव्य, गुण और कर्म से जुदा है । द्रव्यत्व के योग से द्रव्य कहलाता है, न कि पर्याय को पाने से द्रव्य कहलाता है यहाँ शंकाकार का यह अभिप्राय है कि द्रव्य जैसे स्वतंत्र पदार्थ है ऐसे ही गुण और कर्म भी स्वतंत्र पदार्थ हैं । गुण और पर्यायों को पाने से द्रव्य कहलाये सो बात नहीं, किंतु द्रव्यत्व के संबंध द्रव्य से कहलाता है, तो उसमें पर्याय की कोई बात नहीं आती । अब इस शंका के समाधान में कहते हैं कि उक्त शंका ठीक नहीं है, उसका कारण यह है कि द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य कहलाता है यह बात सिद्ध नहीं हो सकती । हाँ यह तो सिद्ध हो लेगा कि दंड के संबंध से पुरुष दंडी कहलाता है । दंडी में संबंध तो सिद्ध इस कारण होता है कि डंडे का जब तक संबंध न हुआ था तब तक भी वह देवदत्त था और डंडा जुदा था । दंडा अपने स्वरूप से है, देवदत्त अपने स्वरूप से है और अपने-अपने स्वरूप से स्वतंत्र-स्वतंत्र पदार्थ हैं । इनका संयोग हो गया तो देवदत्त दंडी कहलाने लगा, पर इस तरह द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्य पाया नहीं जाता ।
द्रव्य और द्रव्यत्व को भिन्न मानने और फिर संबंध बनाकर व्यवहार बनाने की अटपट कल्पनाओं का चित्रण―शंकाकार ही बताये कि द्रव्यत्व का संबंध जब द्रव्य में हुआ तो उससे पहले द्रव्य पाया गया या नहीं? यदि यह कहो कि द्रव्यत्व के संबंध से पहले भी द्रव्य है तब द्रव्यत्व का संबंध हुआ तो संबंध से पहले भी जब द्रव्य है तो अब संबंध की जरूरत ही क्या रही? संबंध की कल्पना अनर्थक है । तो द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्य नहीं है और द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्यत्व भी नहीं है क्योंकि द्रव्य के संबंध बिना द्रव्यत्व नाम कैसे बोलेंगे? वह चीज क्या है? तो जो यहाँ माने कि द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य कहलाता है तो उसके यहाँ न द्रव्य सत् रहेगा और न द्रव्यत्व सत् रहेगा, तो इस प्रकार असत् का संबंध हो ही नहीं सकता है, और कथंचित मान लो कि द्रव्य और द्रव्यत्व ये संबंध से पहले भी सत् हैं तो जब ये अलग-अलग पड़े हुये हैं तब द्रव्य में द्रव्यत्व की शक्ति नहीं है । द्रव्यत्व में द्रव्यत्व की शक्ति नहीं है । संबंध से पहले कदाचित सत् भी मान ले तो वे दोनों शक्तिहीन ही रहे । तो जब यह स्वयं शक्तिहीन है तो इसका संबंध होने पर भी उत्पादन शक्ति नहीं हो सकती है । जैसे कि जन्म के अंधे दो पुरुष हैं तो वे अलग-अलग कुछ देख नहीं सकते और उनको इकट्ठे भी बैठाल दिया जाये तो भी वे देख न सकेंगे, क्योंकि उनमें देखने की शक्ति है ही नहीं, तो मिलकर भी शक्ति कहां से आयेगी? ऐसे ही द्रव्य और द्रव्यत्व में जब शक्ति नहीं है तो दोनों का संबंध होने पर भी वह व्यवहार न बन सकेगा । वह उत्पाद न बन सकेगा, याने द्रव्यत्व बना पड़ा हुआ द्रव्य द्रव्यपने का काम कैसे कर सकेगा? द्रव्य के बिना पड़ा हुआ द्रव्यत्व अपने द्रव्यपना का क्या व्यवहार बना सकेगा? यदि द्रव्यत्व के संबंध के पहले भी द्रव्य अपने में द्रव्य का व्यवहार करा सके तो संबंध की आवश्यकता ही क्या रही और द्रव्यत्व की कल्पना ही निरर्थक रही ।
द्रव्यत्व के संबंध से पहले असत् रहे द्रव्य व द्रव्यत्व में संबंध मानने का अज्ञानमय दुराग्रह―द्रव्यत्व के संबंध से पहले यदि द्रव्य सत् स्वरूप भी होता तो द्रव्यत्व का संबंध मानना उचित होता । किंतु द्रव्य स्वत: सत् भी तो नहीं है, क्योंकि इन शंकाकारों ने द्रव्य को सत् सत्ता के समवाय से माना है । अब द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्य सत् है ही नही, असत् रहा तो उस असत् में सत्ता का समवाय भी कैसे पहुँच जायेगा? अगर असत् में सत्ता का समवाय होने लगे तो जो असत् कल्पित है खरविषाण आकाश पुष्प इनमें भी सत्ता का समवाय संबंध हो जाना चाहिये । तो लो कितनी विडंबना है । सत् अलग है, द्रव्य अलग है, द्रव्यत्व अलग है । उनके संबंध से फिर पदार्थ का व्यवहार है । कितने आश्चर्य की बात है । सीधा जैसा वस्तुस्वरूप है वैसा न मानकर उनके खंड करना, विभाग बनाना यह कहां का न्याय है ।
भिन्न माने गये द्रव्यत्व का गुण कर्म सामान्य आदि सबमें संबंध होने का प्रसंग―और भी देखिये― द्रव्यत्व सामान्य सर्वगत है, ऐसा शंकाकार ने माना है । अत: यदि अतदात्मक द्रव्य में वह द्रव्यत्व समवाय संबंध से रहता है तो गुण और सामान्य आदिक में भी द्रव्यत्व को समवाय संबंध से रह जाना चाहिये, याने द्रव्य अलग है, द्रव्यत्व अलग है, तो इसके मायने यह ही तो हुआ कि द्रव्य द्रव्यमय नहीं है । तो जो द्रव्यत्वमय नहीं है ऐसा द्रव्य में द्रव्यत का तो समवाय संबंध बन जायेगा और द्रव्यत्वमय गुण भी नहीं है । कर्म भी नहीं है, उनमें द्रव्यत्व का संबंध न बने, इसका कारण तो बताये कोई । याने द्रव्यत्व का संबंध द्रव्य में ही क्यों होता है? द्रव्य का संबंध गुण आदिक में क्यों नही हो जाता, जब कि द्रव्यत्वमय नहीं, गुण भी द्रव्यत्वमय नहीं है । तो द्रव्यत्व का संबंध जुटाने के लिये द्रव्य और गुण एक ही समान हो गए । यदि शंकाकार यह कहे कि द्रव्य तदात्मक है याने वह द्रव्यत्वमय है इस कारण द्रव्य में ही द्रव्यत्व का समवाय होता है तो उत्तर यह है कि जब द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्य तादात्मक रहा, द्रव्यत्वमय रहा तो अब द्रव्यत्व के समवाय की कल्पना करना बिल्कुल निरर्थक है ।
भिन्न द्रव्यत्व का समवायी कारण द्रव्य को मानने की असिद्धि―अब शंकाकार कहता है कि द्रव्यसमवायी कारण है इस कारण द्रव्यत्व का समवाय द्रव्य में ही होता है, गुण में नहीं, खरविषाण आदिक असत् में नहीं । उत्तर यह है कि द्रव्यत्व के संबंध से पहले जब द्रव्य का कोई स्वरूप ही न बना तो फिर द्रव्य का समवायी कारण कैसे कहा जा सकता? यदि स्वरूप रहित द्रव्य समवायी कारण माना जाये तो खरविषाण आकाश पुष्प आदिक को भी समवायी कारण क्यों नही माना जाता? क्योंकि जब स्वरूप नहीं है तो उसका कुछ तथ्य भी नही है, कदाचित यह शंकाकार कहे कि खरविषाण आदिक तो असत् हैं, गधे का सींग कुछ है ही नहीं, तो असत् होने से वह समवायी कारण नहीं हो सकता । तो अर्थ इसका यह है कि असत् तो शंकाकार का द्रव्य भी है क्योंकि उनके सिद्धांत में द्रव्य स्वयं असत् नहीं, किंतु सत्ता के समवाय से असत् है । जैसे यहाँ द्रव्यत्व के समवाय से द्रव्य बता रहे हो ऐसे ही सत्ता के समवाय से उसको सत् बताया था । तो जब सत्ता का समवाय नहीं है उस स्थिति में द्रव्य असत् ही तो रहा, सो यही समस्या यहाँ रहती कि द्रव्य असत् है तो वह द्रव्य का समवायी कारण कैसे हो सकता? सारांश यह है कि कुछ भी कारण सोचें जिस कारण से द्रव्यत्व का द्रव्य ही समवायी कारण माना जाये, गुण कर्म आदिक न माने जायें तो जिस कारण से द्रव्य का समवायी कारण माना उस ही कारण से यह क्यों नहीं मान लेते कि द्रव्य का निज स्वरूप ही आत्मा है याने द्रव्यत्वमय द्रव्य है । द्रव्य के धर्म को द्रव्यत्व कहते हैं और उस ही द्रव्य स्वरूप से द्रव्यों का व्यवहार होता है । क्यों इतनी टेढ़ी लाइन चलते जा रहे हैं कि द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य होता है और फिर एक झूठ को ठीक करने के लिये साथ में 50 झूठ बोले जायें? तो सीधा ही मान लेना चाहिये कि द्रव्य का यह स्वरूप अनादि है । पारिणामिक है, द्रव्य से बाहर कोई द्रव्यत्व नाम का तत्त्व नहीं है कि जिसके संबंध से इसको द्रव्य कहा जाये ।
द्रव्य को द्रव्यत्व का आधार बताकर द्रव्य को समवायी कारण मानने की कल्पना की निरर्थकता―शंकाकार कहता है कि द्रव्य एक ऐसी विशेषता है कि जिसके कारण द्रव्य ही द्रव्यत्व का समवायी कारण होता है । गुण कर्म आदिक समवायी कारण नहीं होते और इसी वजह से द्रव्यत्व समवाय संबंध से द्रव्य में ही रहता है, अन्य में नहीं रहता, और वह विशेषता है आधार । द्रव्यत्व का आधार द्रव्य है इस कारण द्रव्यत्व का समवायी कारण द्रव्य रहा । इसका समाधान यह है कि द्रव्य में द्रव्य का आधार यह शंकाकार सिद्ध नहीं कर सकता, क्योंकि द्रव्य स्वतः सिद्ध ही नहीं । जो स्वत: सिद्ध हो वही तो किन्हीं आधेयों का आश्रय हो सकता है । जैसे जल आदिक का आश्रय घट है तो घट कोई चीज है तो वहाँ जल आधेय हो गया, ऐसे ही द्रव्यत्व कोई वस्तु नहीं है तो द्रव्यत्व का आधार कैसे बन जायेगा? तो द्रव्यत्व बिना द्रव्य क्या चीज रही? और अगर द्रव्यत्वमय है तो फिर द्रव्यत्व के संबंध की कल्पना ही क्यों करते? तो जैसे आधार कह रहे शंकाकार उसका सिद्धि ही नहीं कर सकते, फिर द्रव्यत्व का आधार कैसे बनेगा?
भिन्न-भिन्न द्रव्य व द्रव्यत्व की कल्पना करने वालों के ‘‘द्रव्य’’ शब्द बोलने का भी अशक्यपना―अब दूसरी बात सुनो कि यह शंकाकार ‘द्रव्य’ इतना शब्द भी नहीं बोल सकता, क्योंकि द्रव्यत्व अलग है, द्रव्य अलग है तो द्रव्यत्व के बिना अन्य कुछ भी द्रव्य कैसे कहा जा सकता है? तो जो लोग द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य मानते हैं उनको तो द्रव्य शब्द बोलना भी न चाहिये, बोला ही न जा सकेगा । कैसे? सो सुनो―उसको द्रव्य कैसे कहते हैं? द्रव्यत्व का अभेद है इस कारण द्रव्य कहते हो या द्रव्यत्व तो द्रव्य से भेद रूप से रहता है । इन दो पक्षों में से क्या स्वीकार करते हो? यदि कहो कि द्रव्यत्व का द्रव्य में अभेद है और उससे द्रव्य नाम पड़ गया है तो सुनो―यदि किसी अन्य के संबंध से, द्रव्यत्व के संबंध से वहाँ द्रव्य नाम बोलते हो तो संबंध होने से द्रव्यत्व नाम कहो, द्रव्य नाम क्यों कहते? जैसे लाठी से सहित पुरुष लाठी वाला कहा जाता है ऐसे ही द्रव्यत्व से सहचरित कुछ भी ‘द्रव्यत्व’ इस नाम से कहा जाना चाहिये । द्रव्य इस शब्द से न कहा जाना चाहिए । इस संबंध में शंकाकार यदि ऐसा कहे कि द्रव्यत्व शब्द का वाच्य जैसे द्रव्यत्व है ऐसे ही द्रव्यत्व का वाच्य द्रव्य भी है । तब द्रव्यत्व के संबंध से उसे द्रव्य का भी व्यवहार हो सकता है । ऐसा कहना शंकाकार का यों युक्त नहीं है कि यदि द्रव्यत्व की द्रव्य संज्ञा स्वत: मान ली गई तो द्रव्य को स्वत: मानने में क्यों असंतोष होता है याने यह संज्ञा स्वत: मान लेना चाहिये । यदि किसी अन्य पदार्थ के संबंध से ‘द्रव्य’ यह नाम माना जाये तो फिर वह ही दोष आयेगा, जैसे कि अब तक देते आये हैं । वह अभेद है या भेद है, दोनों की सिद्धि नहीं हो सकती है । फिर एक बात और भी सोचो कि द्रव्यत्व का वाच्य द्रव्य नाम माना शंकाकार ने और द्रव्यत्व भी माना, तो जैसे द्रव्य इस संज्ञा की हठ कर रहे हैं ऐसे ही उसे द्रव्यत्व भी क्यों नहीं बोल डालते ।
द्रव्य व द्रव्यत्व का व्यपदेश भेद मूलक मानने की आशंका का समाधान―अब यदि शंकाकार भेद सूत्रक व्यपदेश माने अर्थात् जैसे लाठी वाला ऐसा कहने में लाठी अलग मालूम होती है और लाठी वाला पुरुष अलग मालूम होता है । इस शब्द से दो का ज्ञान होता है कि ये जुदे हैं पुरुष और लाठी, फिर संबंध से लाठी वाला कहा । तो ऐसा भेद मूलक अगर द्रव्य संज्ञा मानते हो तो उसे द्रव्य न कहना चाहिये किंतु द्रव्यत्व वाला । जैसे लाठी के संबंध से लाठी वाला कहा जाना चाहिये । ‘द्रव्य’ यह न कहा जाना चाहिये, यदि शंकाकार यह समाधान देने का प्रयत्न करे कि जैसे शुक्ल गुण के संबंध से कपड़ा भी शुक्ल कहा जाता, शुक्लवान कोई नहीं कहता, यह कपड़ा शुक्ल है । ऐसा कोई नहीं कहता कि यह कपड़ा शुक्ल वाला है । तो जैसे शुक्ल गुण के योग से कपड़े को भी शुक्ल कहा जाता वहाँ वाला साथ में कोई नहीं लगाता और है वहाँ भेद । कपड़ा अलग नहीं है, शुक्ल गुण अलग नहीं है, कपड़ा ही शुक्ल है तो उस अभेद में भी वाला शब्द का प्रयोग हुआ । संस्कृत में कहते हैं इसे मतुप् प्रत्यय, जैसे बुद्धिमान हिंदी में कहेंगे बुद्धि वाला । तो शंकाकार यह कह रहे हैं कि जैसे शुक्ल पट में शुक्ल गुण के संबंध से शुक्ल कहा जाता है, वहाँ वाला शब्द का प्रयोग नहीं होता ऐसे ही द्रव्यत्व गुण के संबंध में यह द्रव्य कहा जायेगा, द्रव्यत्व वाला ऐसा वाला शब्द का प्रयोग न होगा । उत्तर यह है कि शंकाकार का यह समाधान करना निष्फल चेष्टा है, क्योंकि व्याकरण में गुणवाची शब्द से तो मतुप् प्रत्यय का लोप माना है सो शुक्ल पट में मतुप् प्रत्यय बोले बिना ही तो काम चल गया पर यह भी तो समझें कि शुक्ल द्रव्यवाची भी है और गुणवाची भी है । तो द्रव्यवाची होने मे वहाँ मतुप् की जरूरत नहीं है, किंतु यह द्रव्यत्व शब्द गुणवाची नहीं है इसलिये द्रव्यत्व का संबंध लगाकर मतुप् प्रत्यय बोलना ही पड़ेगा, फिर बोला―द्रव्यत्व वाला । और ऐसा भी नहीं है कि द्रव्यत्व में से तो हो जाये जो संबंध के कारण इसलिए झट यह व्यपदेश हो नहीं सकता ।
भेदैकांतवाद में ‘‘द्रव्यत्व’’ शब्द बनने ही असंभवता―एक बात यह भी सोचना चाहिये कि द्रव्यत्व शब्द बना कैसे लिया गया है । द्रव्य शब्द से भाव अर्थक त्व प्रत्यय लग ही नहीं सकता, क्योंकि वे यह बतायें कि द्रव्यत्व का भाव द्रव्यत्व है सो वह भाव द्रव्य से क्या अभिन्न है या भिन्न है? यदि भाव द्रव्यों से अभिन्न है तो मायने वह भाव द्रव्य का ही आत्म स्वरूप हुआ । सो अनादि पारिणामिक द्रव्य रूप ही कहलाता है । तो द्रव्य से द्रव्यत्व भिन्न रहा नहीं, फिर द्रव्यत्व के समवाय की कल्पना ही खत्म हो जाती । यदि शंकाकार कहे कि द्रव्य का भाव द्रव्य से भिन्न है तो वह द्रव्य का कैसे कहा जा सकता? द्रव्य से भिन्न अनेक पदार्थ पड़े हैं, लेकिन वे एक द्रव्य के तो न कहलायेंगे । जो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं उन्हें यह नहीं कहा जा सकता कि यह इसकी चीज है, और भी समझिये । जिस प्रकार द्रव्य का भाव द्रव्यत्व माना जाता है तो द्रव्यत्व का भी भाव होना चाहिये । यदि उसमें एक त्व और लगा दिया जाये ‘द्रव्यत्वत्व’ फिर उसका भी भाव तो यों त्व लगाते जाइये, उसका कहीं विराम ही न हो पायेगा, अनवस्था दोष आता है । यदि कोई कहे कि द्रव्यत्व का कोई भाव नहीं होता इस कारण एक तब लगाने की जरूरत नहीं । तो जिसका कोई भाव नहीं है वह तो स्वभाव शून्य कहलायेगा । द्रव्यत्व का भाव नहीं तो द्रव्यत्व भी कुछ न रहा । स्वभाव शून्य होने से द्रव्यत्व का अभाव हो जायेगा ।
नित्य एक निरवयव द्रव्यत्व का पृथिवी जल आदिक सब पदार्थों में संबंध की असिद्धि―अब शंकाकार यह बतलाये कि जिस द्रव्यत्व के समवाय से द्रव्य कहा जा रहा है वह द्रव्यत्व शंकाकार ने माना नित्य एक निरवयव, तो वह द्रव्यत्व अनेक पृथ्वी आदिक में कैसे रह सकता है? द्रव्यत्व एक है और वह पृथ्वी में भी है, जल में भी है । तो पृथ्वी पड़ी किसी जगह, जल है दूर पत्थर में है, आदमी में है । तो ये भिन्न-भिन्न पदार्थों में एक द्रव्यत्व कैसे रह सकता । द्रव्यत्व कहीं टूट तो न जायेगा कि बीच में द्रव्यत्व न रहा । तो द्रव्य एक नित्य पृथ्वी आदिक में संभव नहीं । पृथ्वी आदिक में माना ही है कि द्रव्यत्व तो एक है पर वह कहलाता है समस्त पदार्थों में तब तो वह रूप आदिक की तरह द्रव्यत्व भी अनेक बन जायेगा । जैसे पृथ्वी में जो रूप है वह पृथ्वी का है, जल में जो रूप है वह जल का है, ऐसे ही पृथ्वी में द्रव्यत्व पृथ्वी का है, पत्थर आदिक में द्रव्यत्व पत्थर आदिक का है, काठ में द्रव्यत्व काठ आदिक का है । तो यों द्रव्यत्व अनेक तरह का हो जायेगा ।
अमहत्द्रव्यत्वं को सर्वव्यापक सिद्ध करने के लिये आकाश का दृष्टांत देने की असंगतता―यदि शंकाकार ऐसा कहे कि जैसे आकाश अनेक द्रव्यों को व्याप करके रहता है ऐसे ही द्रव्यत्व अनेक द्रव्यों को व्याप करके रहता है । आकाश भी तो नित्य एक निरवयव है और वह सब पदार्थों में व्यापकर रहता है, ऐसे ही द्रव्यत्व भी सब द्रव्यों में व्यापकर रह लेगा सो यह बात यों नहीं बनती कि आकाश तो महापरिमाण वाला है । उसका तो एक साथ अनेक द्रव्यों को व्याप्त करना बन जायेगा, परंतु द्रव्यत्व सामान्य में यह बात नहीं । एक व महापरिमाण वाला आकाश तो सबको व्यापता है किंतु गुण तो द्रव्य में रहते हैं तो अमहत् द्रव्यत्व सबको कैसे व्याप सकता है । यदि शंकाकार यह कहे कि एकत्व संख्या के गुण की तरह उपचार से द्रव्यत्व महापरिमाण वाला बन जायेगा सो यह बात यों ठीक नहीं कि यह तो सब असिद्ध के द्वारा ही सिद्ध करने का प्रयास चल रहा है क्योंकि उपचरित पदार्थ मुख्य कार्य नहीं कर सकता । आकाश तो अनंत प्रदेश वाला है सो प्रदेश भेद होने से आकाश का सर्वत्र वर्तन बनता है । सब द्रव्य उसमें व्याप जाते हैं, किंतु द्रव्यत्व में तो यह बात नहीं है । अनेक कपड़ों में जैसे रंग भिदाया गया, मानो नीले रंग से कपड़ा रंगा गया तो वहाँ वह पीला द्रव्य एक नहीं है । कपड़े का जितना विस्तार है उसका एक-एक अंश में अलग-अलग रंग पड़ा हुआ है, ऐसे ही द्रव्यत्व का संबंध बनाया जाये तो द्रव्यत्व सबमें अलग-अलग ही कहलायेगा । वह एक नित्य निरवयव नहीं हो सकता ।
भिन्न द्रव्यत्व की सिद्धि के लिये असंगत वचन बोलने की व्यर्थ माथापच्ची―अब यहाँ शंकाकार एक तर्क उपस्थित करता है कि जैसे अग्नि की उष्णता सिद्ध करने के लिये कोई दृष्टांत नहीं मिल रहा, फिर भी यह खूब समझ में है कि अग्नि स्वभाव से उष्ण है, तो दृष्टांत न मिलने पर भी अग्नि की उष्णता, स्वभाव से है, यह बात माननी पड़ती है, इसी प्रकार एक पदार्थ अनेक जगह रहता है ऐसा सिद्ध करने में दृष्टांत न भी मिले तो भी एक स्वभाव से सिद्ध समझ लेना चाहिये । तो द्रव्यत्व की बात कही जा रही कि द्रव्यत्व एक है और वह एक होकर निरवयव और नित्य होकर भी अनेक जगहों में उसको वृत्ति है, पर उसका दृष्टांत नहीं मिलता सो न मिले दृष्टांत, तो भी स्वभावत: यह सिद्ध हो जायेगा, जैसे कि अग्नि की गर्मी स्वभावत: सिद्ध हो जाती है, ऐसा शंकाकार का तर्क करना भी असंगत है, क्योंकि दृष्टांत के अभाव में भी काम सिद्ध होता है, इसको सिद्ध करने के लिये आपने एक दृष्टांत स्वतंत्र दिया है इसलिये स्ववचन विरोध है, दृष्टांत के अभाव में भी सादृश्य सिद्ध होता है इसका निर्णय दृष्टांत दिये बिना नहीं कर सकते आप, सो ऐसे ही यहाँ युक्ति के अभाव होने पर भी द्रव्यत्व से अनेक की स्थिति मानते हो तो द्रव्य को ही स्वत: द्रव्य क्यों नहीं मान लेते? समवाय कोई संबंध नहीं है, संबंध तो भिन्न-भिन्न पदार्थों में होता है । शेष तो तादात्म्य है । द्रव्य ही द्रव्यत्व धर्म में तन्मय है फिर समवाय की कुछ आवश्यकता नहीं । संयोग संबंध में भिन्न पदार्थों का संयोग बनता है और संयोग शब्द से वाच्य संयोग बराबर समझ में आता है, उसकी आदि है, पर द्रव्य में द्रव्यत्व का प्रारंभ नहीं है कि कब से द्रव्य में द्रव्यत्व आया? त्रिकाल द्रव्य है, द्रव्यत्व है, वह द्रव्य के ही स्वरूप को द्रव्यत्व कहा है, सो द्रव्य को अनेक का संबंधी मानने का परिश्रम व्यर्थ करते हो, द्रव्य को ही स्वतः द्रव्य क्यों नहीं मान लेते?
सर्वथा एकांत पक्ष में ‘‘जो गुणों को प्राप्त हो सो द्रव्य है’’ इस लक्षण की अनुपपत्ति―अब शंकाकार कहता है कि द्रव्य का लक्षण यह है सही गुण संद्भाव: द्रव्यं, अर्थात् जो गुणों को प्राप्त हो वह द्रव्य कहलाता है । इसके संबंध में समाधान यह है कि गुणों को प्राप्त होना सो द्रव्य है । इसमें यह बतलाओ कि वे गुण द्रव्य से अभिन्न हैं या भिन्न हैं । जिन गुणों को प्राप्त करने वाला द्रव्य है वे गुण और ये द्रव्य ये भिन्न हैं या अभिन्न हैं? यदि गुणों से द्रव्य को अभिन्न मानोगे तो यह भी द्रव्य कर्ता है ऐसा कर्ता रूप कर्म से बोल न सकेंगे । अभेद पक्ष में तो कोई बात एक ही होती है, दो नहीं होती, दो हैं तो भेद है, याने गुणों से द्रव्य को अभिन्न मानने पर या तो द्रव्य ही रहेगा या गुण रहेंगे । तो यदि यह कहे कोई कि गुण ही रह जाये तो इसमें क्या आपत्ति है? तो देखिये निराश्रय गुणों का अभाव हो जायेगा । गुण ही रहे, द्रव्य साथ नहीं तो गुणों का आश्रय तो कुछ रहा नहीं, तो आश्रय रहित गुण कभी होता ही नहीं, गुणों का अभाव हो जायेगा । यदि कहा जाये कि द्रव्य ही रहा आवे अभेद करने में कुछ भी एक बोलना चाहिये ना, चाहे द्रव्य बोले चाहे गुण बोले तो द्रव्य ही बोला जाये वही कहलाता है, तो सुनो । द्रव्य और गुण को अभेद करने पर द्रव्य को ही रहना माना है, गुण रहे नहीं तो गुण से ही तो लक्षण समझा जाता है, गुण से ही स्वभाव जाना जाता है । गुण तो रहे नहीं, एक द्रव्य मात्र ही रहा तो यह लक्षण या स्वभाव के बिना उस द्रव्य का कुछ भी अस्तित्त्व नहीं रह सकता । सो यदि द्रव्य और गुणों को भिन्न माना जाये याने गुणों को जो प्राप्त करे सो द्रव्य है ऐसे कथन में दो बातें ध्यान में आयीं, गुण और द्रव्य, सो उन्हें अगर भिन्न माना जाये तो गुण के बिना द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है और द्रव्य के बिना गुण की भी सत्ता नहीं है । तो स्वरूप रहित होने से दोनों का ही अभाव हो जायेगा । इस कारण गुणों का संगम द्रव्य है अर्थात् जो गुणों को प्राप्त होवे सो द्रव्य है । द्रव्य का बाहरी लक्षण सही नहीं होता ।
जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जाये सो द्रव्य है, इस लक्षण की सर्वथा एकांत पक्ष में अनुपपत्ति―यहाँ शंकाकार कहता है कि द्रव्य का लक्षण हम यह करेंगे―जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जाता है वह द्रव्य कहलाता है । इस शंका का उत्तर बताया है कि गुणों को तो निष्क्रिय माना गया है । वैशेषिक दर्शन में 5वें अध्याय के दूसरे पद में 21वें, 22वें सूत्र में बताया है कि दिशा, काल और आकाश ये निष्क्रिय हैं क्योंकि क्रियावान पदार्थों से विलक्षण है, और इस ही से कर्म और गुण भी निष्क्रिय कहे गये हैं । तो यों जब गुण निष्क्रिय हैं तो वे द्रव्य के प्रति किस तरह से प्राप्त होंगे? यदि यह कहा जाये कि द्रव्य का लक्षण हम यों कर देंगे कि जो गुणों को प्राप्त करता है वह द्रव्य है सो यह भी नहीं बन सकता, क्योंकि द्रव्य भी निष्क्रिय है । तो गुणों के प्रति कहे जायेंगे अथवा गुण तो निष्क्रिय माने ही गये हैं । उन गुणों के प्रति द्रव्य कैसे पहुँचेगा? दूसरी बात यह देखिये कि गुण तो स्वत: असिद्ध हैं । गुण का लक्षण ही नहीं बन सकता । जहाँ भेदवाद है वहाँ तो द्रव्य गुण किसी का भी लक्षण नहीं बनता । तो जब स्वत: सिद्ध नहीं है गुण तो गुण व द्रव्य में प्राप्यप्रापकभाव कैसे बन सकता । कोई भी मनुष्य अगर ग्राम आदिक को प्राप्त होता है तो स्वतः सिद्ध हैं ना ग्राम आदिक तब ही तो उनको प्राप्त होते हैं । गुण तो स्वत: सिद्ध है नहीं तो द्रव्य उनको कैसे प्राप्त करेंगे?
सर्वथैकांतवाद द्रव्य व गुण में प्राप्यप्रापकभाव की असिद्धि―शंकाकार कहता है कि हम गुणों की सिद्धि इस तरह से करते हैं कि जैसे लोक में कच्चे घड़े को पकाने से रंग बदलता है तो वहाँ यह कह सकते हैं कि उस घड़े ने कालेपन को छोड़कर लालपन को प्राप्त किया है । तो लो यों गुणों के द्वारा द्रव्य प्राप्त हो गया । इसका उत्तर यह है कि यदि इस तरह से व्यवहार द्वारा गुण और द्रव्यों की प्राप्ति का संबंध बन गया तो इसमें पृथक सिद्धपने का प्रसंग आयेगा । जो पृथक सिद्ध हो वही तो प्राप्य प्रापकभाव बनता है । जैसे देवदत्त ने गांव को प्राप्त किया तो देवदत्त एक पुरुष है, गाँव अपनी जगह है, तो भिन्न सिद्ध है तभी तो पाने की बात बनती है । जब द्रव्य तो ठहरा रहता है और रूपादिक नष्ट होते हैं, पैदा होते हैं तो यही तो सिद्ध हुआ कि द्रव्य और रूपादिक पृथक सिद्ध भये । यदि इनको अभेद माना जाये तो जैसे द्रव्य नित्य है तो ये लाल पीले आदिक गुण भी नित्य होने चाहिये । अथवा जैसे लाल, पीला रंग आदिक गुण अनित्य हैं ऐसे ही द्रव्य भी अनित्य होना चाहिए । अत: यह लक्षण ही ठीक नहीं बैठता कि जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जाये सो द्रव्य है या जो गुणों को प्राप्त करता है सो द्रव्य है ।
समवायीकारण द्रव्य व गुणों का एकत्र रहने में विरोध―और भी देखिये―जैसे पंडित और मूर्ख में परस्पर विरोध है । जो पंडित है वह मूर्ख नहीं, जो मूर्ख है वह पंडित नहीं । इसी तरह समवायी कारण द्रव्य से, रूपादिक को अपृथक माना जायेगा तो वे द्रव्य की तरह न तो उत्पन्न ही होंगे और न विनष्ट ही होंगे । यदि विनष्ट भी होंगे और उत्पन्न भी होंगे और द्रव्य स्थिर रहेगा । तो मानना चाहिये कि यह अभेद नहीं है । भेद रूप से हे तब ही तो गुण नष्ट विनष्ट उत्पन्न हुए और द्रव्य ज्यों का त्यों रहा । यहाँ द्रव्य के स्वरूप के संबंध में विचार चल रहा है । वास्तविक बात तो यह है कि प्रत्येक सत् द्रव्य है । और ये सब सत् की विशेषतायें हैं कि उनमें गुण और पर्याय की समझ बनती है और इस समझ के द्वारा उस सत् द्रव्य को पहिचाना जाता है पर समझने की पद्धति में अभेद को परमार्थ मान लिया उस शंकाकार ने इस कारण द्रव्य का लक्षण वहाँ मत में ठीक नहीं बैठ रहा । गुण और द्रव्य दों सत् मानकर वहाँ संबंध बनाना यह सिद्ध नहीं हो पाता । अगर वह अभेद है तो संबंध नहीं बनता और लक्षण यदि गुण और द्रव्य पृथक हैं तो संबंध नहीं बनता और लक्षण भी नहीं बनता । गुणों के द्वारा द्रव्य का प्राप्त होना भेदवाद में उसी तरह असंभव है जैसे कि जैसे घट के द्वारा पट का लाभ नहीं ।
सर्वथा भेदभाव में द्रव्य व गुण में प्राप्यप्रापकभाव की असिद्धि―अब शंकाकार कहता है कि प्राप्यप्रापकभाव भेदभाव में ही देखा जाता है । जैसे अनुमान बनाते हैं कि धूम से द्वारा अग्नि पहिचानी गई तो जब यहाँ भेद है तब तो लक्ष्य-लक्षण बना । तो द्रव्यों ने गुण को पाया या गुणों ने द्रव्य को पाया, यह बात तब ही बने जब ये दो भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं । अभेद में प्राप्यप्रापकभाव नहीं बनता क्योंकि अभेद है, एक ही हैं तो उसमें वृत्ति का विरोध है । जैसे अंगुली का अग्र भाग अपने अग्र भाग को छू नहीं सकता, अंगुली का अग्र भाग दूसरे भाग को ही तो छुवेगा या अन्य पदार्थ को । तो जैसे अंगुली का अग्र भाग अपने आपको नहीं छूता क्योंकि अभेद ही एक हे इसी तरह जो भी एक होगा वह एक दूसरे को प्राप्त नहीं कर सकता । शंका के समाधान में कहते हें कि आपका कहना ही आपकी बात को काट रहा है । अग्नि और धूम आदिक भिन्न-भिन्न हैं । उनमें लक्ष्य लक्षण भाव बनता है । वह पृथक सिद्ध है यह तो सही है, पर द्रव्य और गुण की पृथक प्रसिद्धि नहीं है । वे जुदे-जुदे सत् नहीं हैं, क्योंकि भिन्न-भिन्न रूप से ये दोनों पाये नहीं जाते और फिर जो यह कहा है कि अपने आपमें अपना व्यापार नहीं होता, सो इसकी भी हठ ठीक नहीं है । अपने आपमें भी अपना व्यापार होता है । जैसे दीपक अपने आपको प्रकाशित करता है तो खुद ने खुद पर अपना प्रभाव किया ना । और यह बात बिल्कुल सिद्ध है । सभी पहचानते हैं कि दीपक खुद अपने स्वरूप को प्रकाशित करता है । अगर दीपक अपने प्रकाश करने में अन्य दीपक की मदद ले याने दूसरे दीपक के द्वारा कोई दीपक देखा जाये तो वह दीपक ही न रहा, क्योंकि स्वयं प्रकाशक नहीं है ना; जैसे घट, पट आदिक स्वयं प्रकाशक नहीं हैं तो वे दीपक की अपेक्षा रखते हैं । सो कोई भी दीपक किसी अन्य दीपक की अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि वह स्वयं जल रहा है प्रकाशमान है ।