तत्वार्थ सूत्र अध्याय ५ भाग १
#6

स्वात्मवृत्ति का विरोध करने वालों के स्ववचन विरोध―अच्छा, स्वात्मा में वृत्ति का विरोध करने वाले जरा इस तत्त्व के उपदेष्टा शंकाकार यह बतलायें कि वह उपदेष्टा अपने आपको जानता है या नहीं? यदि नहीं जानता है तो स्ववचन का विरोध है, क्योंकि उन्हीं वैशेषिकों ने वैशेषिक दर्शन के 9वें अध्याय के पहले बाद के 11वें सूत्र में बताया गया है कि आत्मा में आत्मा मन के संयोग विशेष से आत्म प्रत्यक्षता होती है । तो अपने आपको प्रत्यक्ष जानना माना है ना; किंतु स्वात्मवृत्ति का विरोध करने वाले लोग जानते हैं और यह नहीं कह सकते, और यदि आत्मा अपने आपको नहीं जानता तो असर्वज्ञपने का प्रसंग आयेगा, क्योंकि यदि यह अपने को ही नहीं जानता तो अन्य को कैसे जानेगा? जब स्व पर किसी को भी नहीं जानता तो सर्वज्ञ कैसे कहलायेगा? अब यदि यह कहा जाये कि आत्मा अपने आपको जानता है तब तो जो पहले यह कहा था कि किसी पदार्थ का अपने आपमें व्यापार नहीं होता तो यह कथन गलत हुआ । तब तो यह सिद्ध हुआ कि अपने आपमें भी अपने व्यापार का विरोध नही है । तब द्रव्यात्मक ही पर्यायें हैं । गुण पर्याय द्रव्य सब एक है । सो ये पर्यायें द्रव्य को लक्षित कर लेती हैं अर्थात प्रतिबोध करा देती हैं ।

एकांतवाद में ‘गुणसंद्राव द्रव्यम्’ इस लक्षण की अनुपपत्ति―अब शंकाकार कहता है कि द्रव्य तो गुण का समुदाय मात्र है । गुण समुदाय से भिन्न अन्य कुछ भी द्रव्य नहीं है । इस शंका का समाधान यह है कि किसी दृष्टि में बात तो ठीक है, मगर भेद एकांत में यह कथन भी बनता नहीं है । जो यह लक्षण कहा गया है भेदवादियों का कि गुणों का समुदाय द्रव्य है, यह बात यों नहीं बनती कि फिर कर्ता कर्म का भेद ही नहीं बन सकता । गुण समुदाय मात्र द्रव्य है, ऐसा कहने पर गुण तो कोई पृथक रहे नहीं और न समुदाय कुछ अलग है । जब कुछ भेद ही न रहा तो कर्ता कर्म भाव को कैसे कहा जा सकता? शंकाकार कहता है कि नहीं भेद रहा, अभेद में भी तो कर्ता कर्मभाव देखा गया है । जैसे दीपक अपने को प्रकाशित करता है तो यहाँ अभेद होने पर भी कर्ता कर्मभाव प्रकट हुआ है । उत्तर में कहते हैं कि यहाँ पर भी कथंचित भेद होना ही चाहिये । दीपक अपने को प्रकाशित करता है, ऐसे कर्ता प्रयोग की हालत में दीपक एक द्रव्य के स्थानीय हे और वह प्रकाश भासुर रूप कर्म के स्थानीय है, सो यदि सर्व प्रकार से इनमें भेद माना जाये तो उसका अर्थ यह होगा कि समस्त द्रव्य भासुररूप हो जायेंगे और भासुर द्रव्य सदा भासुर रूप वाला ही बना रहे मगर देखो ना कि जिसको दीपक कहते हैं उसमें कालापन भी आ जाता है । कज्जल आदिक उसी से ही पैदा होते हैं, और सीधी सी बात यह है कि जब गुण और द्रव्य को किसी भी दृष्टि से पृथक नहीं समझा जा रहा है तो उनके समुदाय की कल्पना भी निरर्थक है ।

सर्वथा अभेद या सर्वथा भेद में गुण समुदाय की अशक्यता―गुण का अर्थ है विशेषण याने द्रव्य की विशेषता जो बताया उसी का नाम विशेषण है और द्रव्य हुआ विशेष्य । गुणी कहो या द्रव्य कहो तो गुणी के बिना गुणों से गुणपना कैसे आ सकता? और फिर वह गुणों का समुदाय गुणों से यदि अभिन्न है तो यों तो समुदाय ही रहा या गुणी? और यदि भिन्न है तो यह गुणों का समुदाय है यह व्यवहार नहीं बन सकता । और, यदि अवक्तव्य है तो सर्वथा अवक्तव्य होने पर अवक्तव्य शब्द से भी कथन नहीं हो सकता, क्योंकि यह समुदाय है तो अवक्तव्य नहीं और यदि अवक्तव्य है तो समुदाय नही । इसका कारण यह है कि जो भी संज्ञा होती है वह विद्यमान पदार्थों में ही होती है । सर्वथा अवक्तव्य अगर कुछ है तो वह स्वरूप रहित ही है । यदि कहो कि वक्तव्य अर्थात गुण है, समुदाय अवक्तव्य है तो यों यहीं लक्षण भेद है । समुदाय का ढंग और है, वक्तव्य का ढंग और है । जब यहीं भेद बन गया तो समुदाय कैसे बन सकता है? शंकाकार की ओर से जो यह प्रस्ताव आया था कि गुणों का समुदाय मात्र को द्रव्य मान लिया जाये सो उनके गुण शाश्वत शक्ति से मतलब नहीं रखते, किंतु काला, पीला, नीला आदिक पर्यायों को भी गुण कहा करते हैं । ऐसे गुण के समुदाय की बात चल रही थी । अब उसी समुदाय विषयक एक बात और कही जा रही है कि रूपादिक परमाणु को समुदायात्मक द्रव्य माना जाये, जैसे कि घट पट आदिक पदार्थ या इन स्कंधों को द्रव्य कहा जाता तो यों रूपादिक परमाणु को मात्र समुदाय कहा गया है ऐसा मानने पर उस स्कंध में कोई नवीन पर्याय की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि अणु है अतिंद्रिय स्वभाव याने इंद्रिय द्वारा ग्राह्य नहीं होते तो परमाणु अपने स्वभाव का उल्लंघन न करेगा और अदृश्य परमाणुओं का समुदाय कहा गया है स्कंध, तब जो कुछ दिख रहा है यह सब भ्रम कहना पड़ेगा । अदृश्यों का समुदाय भी अदृश्य ही रहेगा । यदि स्कंध प्रतीति से भ्रांत माने जाते हैं तो प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष भास में फिर कोई भेद न रहा और अनुमान तथा अनुमानाभास में भी कोई भेद न रह पायेगा ।

सर्वथैकांतवाद में द्रव्य के भवनयोग्य लक्षण की अनुपपत्ति―अब शंकाकार कहता है कि हम द्रव्य का लक्षण भव्य अर्थ में मानते हैं याने जो द्रव्य के योग्य हो, प्राप्ति के योग्य हो उसका नाम द्रव्य है । उत्तर―एकांतवादियों के यहाँ द्रव्य संभव ही नहीं है क्योंकि जब द्रव्य स्वत: असिद्ध है तो असत् में भव्य अर्थ कैसे लग सकता है? वैशेषिकों के यहाँ द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष, ये सब जुदे-जुदे माने गये हैं । जब द्रव्य गुण आदिक से सर्वथा भिन्न हैं तो वह असत् हो गया । गुणरहित पर्यायरहित द्रव्य की चीज क्या रही? जब स्वयं असत् हो गया तो जो होने योग्य है ऐसा कैसे कहा जा सकता? भवन क्रियाओं का कर्ता असत् नहीं बन सकता । जो स्वयं सत् है उसमें समवाय संबंध की कल्पना करके स्वरूप की कल्पना करना एक विडंबना है, ऐसा संभव ही नहीं है । सो गुण समुदाय द्रव्य है, इस पक्ष में एकांतवादियों का समुदाय काल्पनिक है, गुणों का कोई पृथक स्वरूप है ही नहीं । तो गुण भी असत् द्रव्य भी असत् । वहाँ फिर भवन क्रिया की बात करना तो बिल्कुल ही अनुचित है । हां अनेकांतवादियों के गुण समुदाय द्रव्य हैं या भवन योग्य द्रव्य हैं, यह सब सिद्ध होता है । क्योंकि इसमें कथंचित भेद और कथंचित अभेद जाना जाता है । अभेद तो है ही क्योंकि इसके प्रदेश अलग नहीं हैं । वही एक सत् है और पर्याय और पर्यायी में संज्ञा लक्षण आदिक से भेद है, इस कारण सूत्र में कहे गए पदार्थ द्रव्य हैं सो उसका अर्थ यही है कि ये सब सत् हैं और गुणपर्यायमय हैं ।

धर्म द्रव्य व अधर्म द्रव्य की पदार्थता का कथन―यहां कोई ऐसी जिज्ञासा कर सकता है कि धर्म और अधर्म तो आत्मा के गुण हैं । जैसे वैशेषिकों में 24 गुण जो माने गये हैं उनमें धर्म-अधर्म भी गिनाये गये हैं । तो धर्म-अधर्म भी आत्मा के गुण हुये । ये द्रव्य नहीं माने जा सकते । और कुछ लोग ऐसा कह सकते हैं कि आकाश भी कोई द्रव्य नहीं है, आकाश के मायने है मूर्त द्रव्यों का अभाव, याने कुछ न होना उसका नाम आकाश है, किंतु उन दोनों को सोचना अविचरित है । यहाँ धर्म, अधर्म, गुण, रूप नहीं किंतु गुणी हैं । जो जीव पुद्गल के गमन और स्थिति में निमित्त कारण मात्र है ऐसे पुण्य पाप को यहाँ नही बताया जा रहा किंतु सद्भूत धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य कहा जा रहा है, जो कि जीव पुद्गल की गति स्थिति में कारण है । इसी प्रकार आकाश भी तुच्छाभावरूप नहीं है, किंतु वह भी सद्भूत है गुणवान होने से ।

सूत्रपद के वचन के प्रयोग का प्रयोजन―इस सूत्र में एक पद है द्रव्याणि, और वह भी बहुवचन है, जिससे यह सिद्ध होता है कि पूर्व सूत्र में कहे गये धर्म अधर्म द्रव्य बहुत हैं, उन्हीं का समानाधिकरण्य रूप से यह द्रव्य है अर्थात वे सब द्रव्य हैं । यहाँ द्रव्य शब्द नपुंसकलिंग में प्रयुक्त है । वह अजहल्लिंग है अर्थात अपने लिंग को छोड़ नहीं सकता । द्रव्य शब्द नपुंसकलिंग है सो इससे प्रथमसूत्र में अजीवकाय का समानाधिकरण होने से पुर्लिंग में प्रयोग है । किंतु यह सूत्र नपुंसकलिंग में प्रयुक्त किया गया है । अब यहाँ तक 4 पदार्थों को द्रव्य बताया गया है । धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल । सो ये चार ही द्रव्य नहीं हैं किंतु और भी द्रव्य हैं । सो उस अन्य का ग्रहण करने के लिये सूत्र कहते हैं ।

Manish Jain Luhadia 
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