05-11-2023, 09:12 AM
सप्तम गुण स्थान से ऊपर द्विविध श्रेणियों के चार गुण स्थान―सप्तम गुणस्थान से ऊपर चार गुण स्थानों में दो श्रेणियां होती हैं―8वां, 9वां, 10वां, 11वां गुणस्थान उपशम श्रेणी के हैं । 8वां, 9वा, 10वां, 12वां गुणस्थान क्षपक श्रेणी के हैं, तो जहाँ मोहनीय कर्म का उपशम करता हुआ आत्मा चढ़ता है वह उपशमक श्रेणी कहलाती है और जहाँ मोहनीय कर्म का क्षय करता हुआ चढ़ता है उसे क्षपक श्रेणी कहते हैं । यहाँ चारित्र मोहनीय का क्षय होता है । उपशम श्रेणी में चारित्र मोह का उपशम होता है, ऐसे इस गुणस्थान से ऊपर 8वां गुणस्थान अपूर्वकरण नाम का है । जो जीव चारित्र मोह के उपशम के लिए अधःकरण परिणाम करते हैं वे उपशम श्रेणी के 8वें गुणस्थान में पहुंचते हैं और जो चारित्र मोह के क्षय के लिए अधःकरण परिणाम मारते हैं वे क्षपक श्रेणी के 8 वें गुणस्थान में पहुँचते हैं । सो यद्यपि जहाँ किसी भी प्रकृति का उपशम या क्षय नहीं होता तो भी अपूर्व विशुद्धि के वश से चारित्र मोह का उपशम या क्षय करेगा, इस अपेक्षा से यहाँ 8वें गुणस्थान में उसे उपशमक व क्षपक कहा गया है । सो यह उपशमक व क्षपक नाम उपचार से है, 8वें गुणस्थान से ऊपर चढ़कर यह भव्य 9वें गुणस्थान में पहुँचता है, 8वें गुणस्थान में अपूर्वकरण नाम का परिणाम था । अब इसके अनवृत्तिकरण परिणाम हुआ है । इस गुणस्थान में बढ़ी हुई विशुद्धि के कारण कर्मप्रकृतियों का स्थूल भाव से उपशम करने वाला अथवा क्षय करने वाला होता है । जो जीव चारित्र मोह के उपशम के लिए चढ़ा है वह कर्मप्रकृतियों का यहाँ उपशम करता है । जो चारित्र मोह के क्षय के लिए चढ़ा है वह यहाँ कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है । किन प्रकृतियों का यह उपशम करता है अथवा क्षय करता है सो अभी ही आगे संवर का प्रसंग लेकर कहा जायेगा । 9वें गुणस्थान से ऊपर यह भव्य 10वें गुणस्थान में पहुंचता है । उपशम श्रेणी वाला जीव सूक्ष्म सांपराय उपशमक कहलाता है । वह यहाँ कषायों का सूक्ष्म दृष्टि से उपशम करता है, अंत तक पूर्ण उपशम हो जाता है जो जीव क्षपक श्रेणी में है वह सूक्ष्म सांपराय क्षपक कहलाता है । यह उस गुणस्थान में रही सही संज्वलन लोभ कषाय का क्षय करता है और अंत में पूर्ण क्षय हो जाता है । अब यहाँ से उपशम श्रेणी वाले सूक्ष्म सांपराय उपशम सर्व मोहनीय के उपशम होने के कारण 11वें गुणस्थान में पहुँचता है जिसका नाम है उपशांत कषाय । उपशांत कषाय गुणस्थान की अवधि है अंतर्मुहूर्त, इतने समय तक मोहनीय कर्म का उपशम रहता है । समय पूर्ण होने पर उसका उदय आने लगता है अतएव वहाँ से 11वें गुणस्थान में पहुँचता है, यदि कोई उपशांत कषाय गुणस्थान वाला मुनि मरण को प्राप्त हो जाये तो वह एकदम चतुर्थ गुणस्थान में आता और देव गति को प्राप्त होता है, जो जीव क्षपक श्रेणी में है वह क्षीण कषाय नामक 12वें गुणस्थान में पहुंचता है ।
परमात्मत्व की परम भूमिका―क्षीण कषाय गुणस्थान के अंत व उपांत समय में कितनी ही प्रकृतियों का बंध रूक जाता है याने 13 वें गुणस्थान में जितना संवर है वे प्रकृतियां क्षीण कषाय के अंत में हट जाती हैं, इनका भी वर्णन आगे किया जायेगा । 12वें गुणस्थानवर्ती जीव यहाँ घातिया कर्मों का क्षय करता है और उन घातिया कर्मों के क्षय से अतुल ज्ञान, परिपूर्ण ज्ञान प्रकट होता हे, उसे कहते हैं केवली । वहाँ अचितय केवल दर्शन, केवल ज्ञान, अनंत आनंद और अनंत शक्ति का अतिशय प्रकट होता है । ये केवली दो प्रकार के होते हैं―(1) सयोग केवली और (2) अयोग केवली याने एक योग सहित केवली और एक योग रहित केवली । ये 13वें गुणस्थान वाले हैं । 13वें गुणस्थान का समय पूर्ण होने पर योगरहित होने से ये 14वें गुणस्थानवर्ती अयोग केवली हो जाते हैं । अयोग केवली शेष बचे हुए समस्त अघातिया कर्मों का क्षय करके अशरीर सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं । देखिये―यह संवर का प्रकरण चल रहा है । संवर तत्त्व में मुख्य भाव संवर ग्रहण करना, जहाँ शुभोपयोग, अशुभोपयोग दूर होता है, अथवा आंशिक शुद्धि जगती है, उस भाव को भाव संवर कहते है और भाव संवर के साथ ही कर्म का आस्रव भी रुकता है वह द्रव्य संवर कहलाता है ।
मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी कषाय के विपाक में होने वाले असंयम से रहित भूमिका में संवर का विवरण―संवर तत्त्व को समझने के लिए कुंजी रूप यह जानना कि जिन-जिन भावों के कारण जिन-जिन कर्म प्रकृतियों का आस्रव होता था उन-उन भावों का आस्रव होने पर उन-उन प्रकृतियों का आस्रव रुक जाता है । आस्रव के निरोध का ही नाम संवर है, तो सर्वप्रथम यह समझिये कि मिथ्यात्व भाव के कारण जिन प्रकृतियों का आस्रव होता है मिथ्यात्व का अभाव होने पर उन प्रकृतियों का संवर हो जाता है । यद्यपि मिथ्यात्व का उदय होने पर तीर्थकर आहारक जैसी सातिशय पुण्य प्रकृतियों को छोड़कर सभी प्रकृतियों का आस्रव चल सकता है, किंतु यहाँ यह जानना कि मिथ्यात्व न रहने पर जिन प्रकृतियों का आस्रव अविरति आदिक के कारण चल रहा है उनको मिथ्यात्व निमित्तक आस्रव न समझना । मिथ्यात्व के हटते ही जिन प्रकृतियों का आस्रव हट जाता है उन प्रकृतियों के आस्रव को मिथ्यात्व निमित्तक समझना । तो ऐसी प्रकृतियां 16 हैं । और चूंकि मिथ्यात्व का उदय दूसरे गुणस्थान में भी नहीं है, यद्यपि तुरंत ही मिथ्यात्व का उदय आ जायेगा मगर एक समय से लेकर 6 आवली पर्यंत सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान का समय हुआ करता है, वहाँ मिथ्यात्व का उदय नहीं है, सो मिथ्यात्व निमित्तक 16 प्रकृतियां दूसरे गुणस्थान में भी गहलनी अर्थात् दूसरे गुणस्थान में 16 प्रकृतियों का संवर है । वे 16 प्रकृतियां कौन-कौन हैं―ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय इन तीन कर्मों की प्रकृतियों का यहाँ संवर नहीं है, आवरण वाली प्रकृतियों का संवर 12वें गुणस्थान के अनंतर है सो यहाँ उसका सवाल ही नहीं । वेदनीय प्रकृति का भी मिथ्यात्व के कारण आस्रव नहीं होता अत: उसका भी यहाँ संवर नहीं है । मोहनीय में से मिथ्यात्व और नपुंसक वेद इनका संवर दूसरे गुण स्थान में है । आयु में नरकायु नाम कर्म में नरकगति, एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चार इंद्रिय, हुँडक संस्थान, छठा संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण असाधारण इन 16 प्रकृतियों का बंध पहले गुणस्थान तक ही है । दूसरे गुणस्थान में इनका संवर है । तीसरे गुणस्थान में 25 का संवर और हो जाता है । वे प्रकृतियां ये हैं―निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, और स्त्यानगृद्धि, ये तीन तो खोटी प्रकृतियाँ है । यहाँ इनका दूसरे गुणस्थान में संवर है । मोहनीय में से अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और स्त्रीवेद, इन प्रकृतियों का संवर है । आयु कर्म में से तिर्यंचायु का संवर है । दूसरे गुणस्थान में तिर्यक आयु का आस्रव बंध नहीं होता । नाम कर्म की प्रकृतियों में से इन प्रकृतियों का संवर दूसरे गुणस्थान में है, तिर्यग्गति, चार संस्थान, पहले और छठे को छोड़कर चार संहनन, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, उद्योत अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, गोत्र कर्म की प्रकृतियों में से नीच गोत्र का संवर है, ऐसी इन 25 प्रकृतियों का बंध एकेंद्रिय से लेकर सासादन सम्यग्दृष्टि पर्यंत के होता है । इसके बाद याने तीसरे गुणस्थान और आगे के गुणस्थान में इन सबका संवर होता है ।
अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण कषाय वाले असंयम से रहित भूमिका में संवर का विवरण―चतुर्थ गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, प्रथम संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन 10 प्रकृतियों का बंध होता है । यह बंध अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होने वाले असंयम के कारण होता है । यह असंयम 5वें गुणस्थान में नहीं है इसे कारण इन 10 प्रकृतियों का संवर 5वें गुणस्थान में है और इससे आगे के गुणस्थानों में है । संयमासंयमी जीवों के प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार प्रकृतियों का बंध होता है अर्थात् एकेंद्रिय से लेकर पंचम गुणस्थान तक के जीवों के ये बंध चल रहे थे किंतु प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय छठे गुणस्थान में नहीं है, अत: इस कषाय के कारण हुए असंयम के निमित्त से जिन प्रकृतियों का आस्रव होता था उनका आस्रव नहीं है अर्थात् इन चार प्रकृतियों का छठे गुणस्थान में और उससे ऊपर के गुणस्थानों में संवर होता है । छठे गुणस्थान में प्रमाद के कारण जिन प्रकृतियों का आस्रव होता था सो प्रकृतियां आगे न रहने के कारण उन प्रकृतियों का संवर 7वें गुणस्थान में है, वे प्रकृतियां 6 हैं । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति । देवायु का भी बंध प्रमाद के कारण होता है, पर प्रमाद में देवायु का बंध प्रारंभ करके अप्रमाद में भी अर्थात् 7वें गुणस्थान में भी उसका कहीं बंध होता है तब देवायु का संवर 7वें गुणस्थान से ऊपर है । कुछ 7वें गुणस्थान में भी संवर है । यहाँ तक मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद ये तीन कारण हट चुके ।
प्रमाद रहित उत्कृष्ट कषाय की भूमिका में संवर का विवरण―8वें गुणस्थान में ये तीन कारण तो नही हैं, पर कषाय है । यद्यपि कषाय पहले गुणस्थान से ही चली आ रही है, किंतु यहाँ उस कषाय को लिया है कि जहाँ मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद न रहे और कषाय मात्र रहे ऐसे कषाय के कारण जिन प्रकृतियों का आस्रव होता था उन प्रकृतियों का कषाय न रहने पर निरोध हो जाता है । तो प्रमाद आदिक रहित ये कषाय तीन प्रकार के हैं―(1) तीव्र (2) मध्यम और (3) जघन्य । सो प्रमादरहित तीव्र कषाय 9वें गुणस्थान में है, प्रमादरहित मध्यम कषाय हवे गुणस्थान में है, प्रमादरहित जघन्य कषाय 10वें गुणस्थान में है । अपूर्वकरण के पहले संख्यात भाग में निद्रा और प्रचला ये दो प्रकृतियां बनती हैं । उसके ऊपर के संख्यात भाग में तीन ही प्रकृतियां बंधती हैं और इस ही अपूर्व कारण के अंतिम समय में चार प्रकृतियां बंधती हैं । ये सब मिलकर 36 प्रकृतियां हैं । इन 36 प्रकृतियों का संवर 9वें गुणस्थान में रहता है । वे 36 प्रकृतियां ये हैं । प्रथम अंश में निद्रा और प्रचला द्वितीय अंश में ये तीन ही प्रकृतियां हैं । देवगति पंचेंद्रिय जाति वैक्रियक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर और कार्माण शरीर । पहला संस्थान वैक्रियक अंगोपांग, आहारक अंगोपांग, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस वादर पर्याप्त, प्रत्येक स्थिर, शुभ, सुभग, सुश्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर, अंतिम समय की चार प्रकृतियां हैं― हास्य, रति, भय, जुगुप्सा ।
प्रमाद रहित मध्यम और जघन्य कषाय वाली भूमिका में संवर का विवरण―उक्त समस्त 36 प्रकृतियों का 9वें गुणस्थान में संवर होता है । 9वें गुणस्थान के प्रथम समय से लेकर संख्यात भागों में प्रदेश बंध और संज्वलन क्रोध ये दो प्रकृतियां बंधती हैं । उससे ऊपर शेष संख्यात भागों में संज्वलन मान और संज्वलन माया ये दो प्रकृतियां बंधती हैं, और इस ही 9वें गुणस्थान के अंतिम समय में संज्वलन लोभ बंध को प्राप्त होता है । ये समस्त प्रकृतियां जो 9वें गुणस्थान में बंध रही हैं ये मध्यम कषाय के आस्रव हैं । ये जब नहीं रहती याने उसके बाद के भागों में इन प्रकृतियों का संवर होता है और इन सब प्रकृतियों का 11वें गुणस्थान में प्रारंभ से ही संवर है । 10वें गुणस्थान में यह जीव 5 ज्ञानावरण प्रकृतियों का, 4 दर्शनावरण प्रकृतियों का, यशसकीर्ति, उच्चगोत्र और 5 अंतराय प्रकृतियों का बंध करने वाला है । ये मंद कषाय के आस्रव हैं । इन प्रकृतियों का 10वें गुणस्थान के अंत में बंध विच्छेद हो जाता है, सो इन प्रकृतियों का अभाव होने पर इससे ऊपर के गुणस्थानों में इन प्रकृतियों का संवर है ।
कषाय रहित भूमिका में संवर का विवरण―क्षीण मोह नामक 12वें गुणस्थान के अंत में मंद कषाय से होने वाले आस्रव का निरोध है और यहाँ ही समस्त शेष घातिया कर्मों का अभाव हो जाता है जिसके कारण 13वां गुणस्थान बनता है । तेरहवें गुणस्थान में योग का सद्भाव होने से वह सयोग केवली कहलाता है । 13वें गुणस्थान में 12वें गुणस्थान में और 11वें गुणस्थान में सातावेदनीय का ही आस्रव है । इसका संवर होने पर अयोग केवली गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का आस्रव नहीं है, इस प्रकार मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के अभाव से इन समस्त प्रकृतियों का अपनी-अपनी भूमिका में संवर हो जाता है । अंत में सातावेदनीय का आस्रव चलता था, जिसका निमित्त है योग, क्योंकि असातावेदनीय प्रकृतियों का बंध नहीं होता, केवल ईर्यापथ आस्रव होता है । सो इस योग के अभाव में अयोग केवली के शेष बचे हुए सातावेदनीय का भी संवर हो जाता है, आत्मा की प्रगति संवर पूर्वक ही होती है, जैसे किसी समुद्र या नदी में नाव चल रही है, उसमें छेद है और उस छेद के द्वार से नाव में पानी आ रहा है, तो पानी आ रहा, भरेगा तो वह नाव डूब जायेगी । तो नाव का खेने वाला सर्व प्रथम उपाय उस छेद को बंद करने का करता है, ऐसा भी नहीं चाहता कि छेद बंद तो न हो और पानी उलीचता जाये । ऐसा करने से उसे लाभ नहीं हैं । यहाँ उलीच रहा वहाँ आ रहा, आपत्ति तो वही रही, तो सर्वप्रथम वह नाव का छिद्र बंद करता है, फिर आया हुआ जो पानी है उसको वहाँ से निकालता है । सब पानी निकल जाने पर आराम से नौका उस समुद्र या नदी के एक तट पर पहुंच जाती है । ऐसे ही इस आत्मा में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद आदिक के छिद्रों से कर्मप्रकृतियों का आस्रव होता है । तो मोक्षगामी जीव सर्वप्रथम उन मिथ्यादर्शन आदिक छिद्रों को बंद करता है, शुद्ध आत्म स्वभाव की दृष्टि से वह इन विभावों को दूर करता है । होता है संवर । अब नवीन कर्मों का आस्रव नहीं चल रहा । जहाँ जैसी भूमिका है उसके अनुसार आस्रव निरोध है । अंत में जब पूर्ण आस्रव निरोध हो जाता तो जहाँ से आस्रव निरोध चल रहा और चारित्र मोह का क्षय चलने लगा वहाँ से कर्म प्रकृतियों की निर्जरा चल रही थी, क्षय हो रहा था, क्षय होते-होते अंत में सर्व कर्म प्रकृतियों का अभाव हो जाता है तो आत्मा को मुक्ति प्राप्त होती है । तो मुक्ति प्राप्त होने में मूल उपाय संवर है । बड़े-बड़े मुनिराजों ने संवर तत्त्व पाये बिना बड़ी-बड़ी तपस्यायें की लेकिन उनको मोक्ष मार्ग नहीं मिल सका । और जिन मुनिराजों ने सम्यक्त्व लाभ लिया, संवर तत्त्व पाया उनकी निर्जरा और क्षय होकर मुक्ति हुई है । इस प्रथम सूत्र में संवर तत्त्व का लक्षण कहा है कि आस्रव का निरोध होना संवर है वहाँ यह ज्ञात न हो सका कि आत्मोपलब्धि के कारण मिलने पर कर्म का निरोध होता है तो वह किस उपाय से होता है, उस उपाय की यहाँ जिज्ञासा है कि आस्रव निरोध इस उपाय से होता है, उस उपाय को बताने के लिए सूत्र कहते हैं ।
परमात्मत्व की परम भूमिका―क्षीण कषाय गुणस्थान के अंत व उपांत समय में कितनी ही प्रकृतियों का बंध रूक जाता है याने 13 वें गुणस्थान में जितना संवर है वे प्रकृतियां क्षीण कषाय के अंत में हट जाती हैं, इनका भी वर्णन आगे किया जायेगा । 12वें गुणस्थानवर्ती जीव यहाँ घातिया कर्मों का क्षय करता है और उन घातिया कर्मों के क्षय से अतुल ज्ञान, परिपूर्ण ज्ञान प्रकट होता हे, उसे कहते हैं केवली । वहाँ अचितय केवल दर्शन, केवल ज्ञान, अनंत आनंद और अनंत शक्ति का अतिशय प्रकट होता है । ये केवली दो प्रकार के होते हैं―(1) सयोग केवली और (2) अयोग केवली याने एक योग सहित केवली और एक योग रहित केवली । ये 13वें गुणस्थान वाले हैं । 13वें गुणस्थान का समय पूर्ण होने पर योगरहित होने से ये 14वें गुणस्थानवर्ती अयोग केवली हो जाते हैं । अयोग केवली शेष बचे हुए समस्त अघातिया कर्मों का क्षय करके अशरीर सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं । देखिये―यह संवर का प्रकरण चल रहा है । संवर तत्त्व में मुख्य भाव संवर ग्रहण करना, जहाँ शुभोपयोग, अशुभोपयोग दूर होता है, अथवा आंशिक शुद्धि जगती है, उस भाव को भाव संवर कहते है और भाव संवर के साथ ही कर्म का आस्रव भी रुकता है वह द्रव्य संवर कहलाता है ।
मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी कषाय के विपाक में होने वाले असंयम से रहित भूमिका में संवर का विवरण―संवर तत्त्व को समझने के लिए कुंजी रूप यह जानना कि जिन-जिन भावों के कारण जिन-जिन कर्म प्रकृतियों का आस्रव होता था उन-उन भावों का आस्रव होने पर उन-उन प्रकृतियों का आस्रव रुक जाता है । आस्रव के निरोध का ही नाम संवर है, तो सर्वप्रथम यह समझिये कि मिथ्यात्व भाव के कारण जिन प्रकृतियों का आस्रव होता है मिथ्यात्व का अभाव होने पर उन प्रकृतियों का संवर हो जाता है । यद्यपि मिथ्यात्व का उदय होने पर तीर्थकर आहारक जैसी सातिशय पुण्य प्रकृतियों को छोड़कर सभी प्रकृतियों का आस्रव चल सकता है, किंतु यहाँ यह जानना कि मिथ्यात्व न रहने पर जिन प्रकृतियों का आस्रव अविरति आदिक के कारण चल रहा है उनको मिथ्यात्व निमित्तक आस्रव न समझना । मिथ्यात्व के हटते ही जिन प्रकृतियों का आस्रव हट जाता है उन प्रकृतियों के आस्रव को मिथ्यात्व निमित्तक समझना । तो ऐसी प्रकृतियां 16 हैं । और चूंकि मिथ्यात्व का उदय दूसरे गुणस्थान में भी नहीं है, यद्यपि तुरंत ही मिथ्यात्व का उदय आ जायेगा मगर एक समय से लेकर 6 आवली पर्यंत सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान का समय हुआ करता है, वहाँ मिथ्यात्व का उदय नहीं है, सो मिथ्यात्व निमित्तक 16 प्रकृतियां दूसरे गुणस्थान में भी गहलनी अर्थात् दूसरे गुणस्थान में 16 प्रकृतियों का संवर है । वे 16 प्रकृतियां कौन-कौन हैं―ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय इन तीन कर्मों की प्रकृतियों का यहाँ संवर नहीं है, आवरण वाली प्रकृतियों का संवर 12वें गुणस्थान के अनंतर है सो यहाँ उसका सवाल ही नहीं । वेदनीय प्रकृति का भी मिथ्यात्व के कारण आस्रव नहीं होता अत: उसका भी यहाँ संवर नहीं है । मोहनीय में से मिथ्यात्व और नपुंसक वेद इनका संवर दूसरे गुण स्थान में है । आयु में नरकायु नाम कर्म में नरकगति, एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चार इंद्रिय, हुँडक संस्थान, छठा संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण असाधारण इन 16 प्रकृतियों का बंध पहले गुणस्थान तक ही है । दूसरे गुणस्थान में इनका संवर है । तीसरे गुणस्थान में 25 का संवर और हो जाता है । वे प्रकृतियां ये हैं―निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, और स्त्यानगृद्धि, ये तीन तो खोटी प्रकृतियाँ है । यहाँ इनका दूसरे गुणस्थान में संवर है । मोहनीय में से अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और स्त्रीवेद, इन प्रकृतियों का संवर है । आयु कर्म में से तिर्यंचायु का संवर है । दूसरे गुणस्थान में तिर्यक आयु का आस्रव बंध नहीं होता । नाम कर्म की प्रकृतियों में से इन प्रकृतियों का संवर दूसरे गुणस्थान में है, तिर्यग्गति, चार संस्थान, पहले और छठे को छोड़कर चार संहनन, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, उद्योत अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, गोत्र कर्म की प्रकृतियों में से नीच गोत्र का संवर है, ऐसी इन 25 प्रकृतियों का बंध एकेंद्रिय से लेकर सासादन सम्यग्दृष्टि पर्यंत के होता है । इसके बाद याने तीसरे गुणस्थान और आगे के गुणस्थान में इन सबका संवर होता है ।
अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण कषाय वाले असंयम से रहित भूमिका में संवर का विवरण―चतुर्थ गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, प्रथम संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन 10 प्रकृतियों का बंध होता है । यह बंध अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होने वाले असंयम के कारण होता है । यह असंयम 5वें गुणस्थान में नहीं है इसे कारण इन 10 प्रकृतियों का संवर 5वें गुणस्थान में है और इससे आगे के गुणस्थानों में है । संयमासंयमी जीवों के प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार प्रकृतियों का बंध होता है अर्थात् एकेंद्रिय से लेकर पंचम गुणस्थान तक के जीवों के ये बंध चल रहे थे किंतु प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय छठे गुणस्थान में नहीं है, अत: इस कषाय के कारण हुए असंयम के निमित्त से जिन प्रकृतियों का आस्रव होता था उनका आस्रव नहीं है अर्थात् इन चार प्रकृतियों का छठे गुणस्थान में और उससे ऊपर के गुणस्थानों में संवर होता है । छठे गुणस्थान में प्रमाद के कारण जिन प्रकृतियों का आस्रव होता था सो प्रकृतियां आगे न रहने के कारण उन प्रकृतियों का संवर 7वें गुणस्थान में है, वे प्रकृतियां 6 हैं । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति । देवायु का भी बंध प्रमाद के कारण होता है, पर प्रमाद में देवायु का बंध प्रारंभ करके अप्रमाद में भी अर्थात् 7वें गुणस्थान में भी उसका कहीं बंध होता है तब देवायु का संवर 7वें गुणस्थान से ऊपर है । कुछ 7वें गुणस्थान में भी संवर है । यहाँ तक मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद ये तीन कारण हट चुके ।
प्रमाद रहित उत्कृष्ट कषाय की भूमिका में संवर का विवरण―8वें गुणस्थान में ये तीन कारण तो नही हैं, पर कषाय है । यद्यपि कषाय पहले गुणस्थान से ही चली आ रही है, किंतु यहाँ उस कषाय को लिया है कि जहाँ मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद न रहे और कषाय मात्र रहे ऐसे कषाय के कारण जिन प्रकृतियों का आस्रव होता था उन प्रकृतियों का कषाय न रहने पर निरोध हो जाता है । तो प्रमाद आदिक रहित ये कषाय तीन प्रकार के हैं―(1) तीव्र (2) मध्यम और (3) जघन्य । सो प्रमादरहित तीव्र कषाय 9वें गुणस्थान में है, प्रमादरहित मध्यम कषाय हवे गुणस्थान में है, प्रमादरहित जघन्य कषाय 10वें गुणस्थान में है । अपूर्वकरण के पहले संख्यात भाग में निद्रा और प्रचला ये दो प्रकृतियां बनती हैं । उसके ऊपर के संख्यात भाग में तीन ही प्रकृतियां बंधती हैं और इस ही अपूर्व कारण के अंतिम समय में चार प्रकृतियां बंधती हैं । ये सब मिलकर 36 प्रकृतियां हैं । इन 36 प्रकृतियों का संवर 9वें गुणस्थान में रहता है । वे 36 प्रकृतियां ये हैं । प्रथम अंश में निद्रा और प्रचला द्वितीय अंश में ये तीन ही प्रकृतियां हैं । देवगति पंचेंद्रिय जाति वैक्रियक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर और कार्माण शरीर । पहला संस्थान वैक्रियक अंगोपांग, आहारक अंगोपांग, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस वादर पर्याप्त, प्रत्येक स्थिर, शुभ, सुभग, सुश्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर, अंतिम समय की चार प्रकृतियां हैं― हास्य, रति, भय, जुगुप्सा ।
प्रमाद रहित मध्यम और जघन्य कषाय वाली भूमिका में संवर का विवरण―उक्त समस्त 36 प्रकृतियों का 9वें गुणस्थान में संवर होता है । 9वें गुणस्थान के प्रथम समय से लेकर संख्यात भागों में प्रदेश बंध और संज्वलन क्रोध ये दो प्रकृतियां बंधती हैं । उससे ऊपर शेष संख्यात भागों में संज्वलन मान और संज्वलन माया ये दो प्रकृतियां बंधती हैं, और इस ही 9वें गुणस्थान के अंतिम समय में संज्वलन लोभ बंध को प्राप्त होता है । ये समस्त प्रकृतियां जो 9वें गुणस्थान में बंध रही हैं ये मध्यम कषाय के आस्रव हैं । ये जब नहीं रहती याने उसके बाद के भागों में इन प्रकृतियों का संवर होता है और इन सब प्रकृतियों का 11वें गुणस्थान में प्रारंभ से ही संवर है । 10वें गुणस्थान में यह जीव 5 ज्ञानावरण प्रकृतियों का, 4 दर्शनावरण प्रकृतियों का, यशसकीर्ति, उच्चगोत्र और 5 अंतराय प्रकृतियों का बंध करने वाला है । ये मंद कषाय के आस्रव हैं । इन प्रकृतियों का 10वें गुणस्थान के अंत में बंध विच्छेद हो जाता है, सो इन प्रकृतियों का अभाव होने पर इससे ऊपर के गुणस्थानों में इन प्रकृतियों का संवर है ।
कषाय रहित भूमिका में संवर का विवरण―क्षीण मोह नामक 12वें गुणस्थान के अंत में मंद कषाय से होने वाले आस्रव का निरोध है और यहाँ ही समस्त शेष घातिया कर्मों का अभाव हो जाता है जिसके कारण 13वां गुणस्थान बनता है । तेरहवें गुणस्थान में योग का सद्भाव होने से वह सयोग केवली कहलाता है । 13वें गुणस्थान में 12वें गुणस्थान में और 11वें गुणस्थान में सातावेदनीय का ही आस्रव है । इसका संवर होने पर अयोग केवली गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का आस्रव नहीं है, इस प्रकार मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के अभाव से इन समस्त प्रकृतियों का अपनी-अपनी भूमिका में संवर हो जाता है । अंत में सातावेदनीय का आस्रव चलता था, जिसका निमित्त है योग, क्योंकि असातावेदनीय प्रकृतियों का बंध नहीं होता, केवल ईर्यापथ आस्रव होता है । सो इस योग के अभाव में अयोग केवली के शेष बचे हुए सातावेदनीय का भी संवर हो जाता है, आत्मा की प्रगति संवर पूर्वक ही होती है, जैसे किसी समुद्र या नदी में नाव चल रही है, उसमें छेद है और उस छेद के द्वार से नाव में पानी आ रहा है, तो पानी आ रहा, भरेगा तो वह नाव डूब जायेगी । तो नाव का खेने वाला सर्व प्रथम उपाय उस छेद को बंद करने का करता है, ऐसा भी नहीं चाहता कि छेद बंद तो न हो और पानी उलीचता जाये । ऐसा करने से उसे लाभ नहीं हैं । यहाँ उलीच रहा वहाँ आ रहा, आपत्ति तो वही रही, तो सर्वप्रथम वह नाव का छिद्र बंद करता है, फिर आया हुआ जो पानी है उसको वहाँ से निकालता है । सब पानी निकल जाने पर आराम से नौका उस समुद्र या नदी के एक तट पर पहुंच जाती है । ऐसे ही इस आत्मा में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद आदिक के छिद्रों से कर्मप्रकृतियों का आस्रव होता है । तो मोक्षगामी जीव सर्वप्रथम उन मिथ्यादर्शन आदिक छिद्रों को बंद करता है, शुद्ध आत्म स्वभाव की दृष्टि से वह इन विभावों को दूर करता है । होता है संवर । अब नवीन कर्मों का आस्रव नहीं चल रहा । जहाँ जैसी भूमिका है उसके अनुसार आस्रव निरोध है । अंत में जब पूर्ण आस्रव निरोध हो जाता तो जहाँ से आस्रव निरोध चल रहा और चारित्र मोह का क्षय चलने लगा वहाँ से कर्म प्रकृतियों की निर्जरा चल रही थी, क्षय हो रहा था, क्षय होते-होते अंत में सर्व कर्म प्रकृतियों का अभाव हो जाता है तो आत्मा को मुक्ति प्राप्त होती है । तो मुक्ति प्राप्त होने में मूल उपाय संवर है । बड़े-बड़े मुनिराजों ने संवर तत्त्व पाये बिना बड़ी-बड़ी तपस्यायें की लेकिन उनको मोक्ष मार्ग नहीं मिल सका । और जिन मुनिराजों ने सम्यक्त्व लाभ लिया, संवर तत्त्व पाया उनकी निर्जरा और क्षय होकर मुक्ति हुई है । इस प्रथम सूत्र में संवर तत्त्व का लक्षण कहा है कि आस्रव का निरोध होना संवर है वहाँ यह ज्ञात न हो सका कि आत्मोपलब्धि के कारण मिलने पर कर्म का निरोध होता है तो वह किस उपाय से होता है, उस उपाय की यहाँ जिज्ञासा है कि आस्रव निरोध इस उपाय से होता है, उस उपाय को बताने के लिए सूत्र कहते हैं ।