05-11-2023, 09:15 AM
क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन
हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् ।। 7-1 ।।
(107) पंच व्रत और उनकी शुभास्रवहेतुता―छठे अध्याय तक जीव, अजीव व आस्रव पदार्थ का वर्णन हुआ था, किंतु वह आस्रव का सामान्य वर्णन था और उसमें 108 तरह के सांपरायिक आस्रव बताये गए । जीवाधिकार आस्रव 108 प्रकार के होते हैं और इसी कारण माला में 108 दाने माने गए हैं, उसका आशय यह है कि एक बार भगवान का नाम लिया तो मेरा यह पाप खत्म हो जाये तो वे सब आस्रव दो प्रकार के होते है―(1) पुण्य और (2) पाप । तो पहले जो आस्रव का वर्णन हुआ वह सामान्य वर्णन था तथा कुछ वर्णन पापास्रव की प्रधानता से भी था जैसे चारों घातिया कर्मों का अलग-अलग वर्णन सूत्रों में था । इन घातिया कर्मों में विशेष अधिक पापानुभागी कर्म मोहनीय कर्म है उसके आस्रवों के भी कारण बताये गये थे । उन विवरणों से यह शिक्षा दी गई थी कि ऐसे-ऐसे पापकार्यों से बचने का पूरा ध्यान रखना चाहिये । तीर्थंकरप्रकृति, सातावेदनीय, शुभ नामकर्म, उच्चगोत्र जैसे पुण्यकर्मों के आस्रव के भी कारण बताये गये थे जिनसे सद्भावनाओं की शिक्षा मिली थी । अब व्रत संयम भाव के होने पर होने वाले पुण्य आस्रव का वर्णन किया जा रहा है । पाप से पुण्य प्रधान है, मोक्ष पुण्य पूर्वक होता है, पाप करके कोई मोक्ष नहीं गया, पुण्य करके पुण्य को छोड़कर शुद्ध भाव में आकर मोक्ष हुआ करता है । साक्षात् तो पुण्य से भी मोक्ष नहीं होता, पुण्य करने से तुरंत मोक्ष नहीं होता । पुण्य करने वाले की ऐसी पात्रता रहती है कि वह मोक्ष के मार्ग में लग जायेगा, तो जब मोक्षमार्ग में लगा और बढ़ा तो उसका पुण्य भी छूट गया । पाप तो पहले छूट गया था, अब पुण्य भी छूट गया, अब उसके शुद्धोपयोग आ गया और शुद्धोपयोग से मोक्ष होता है । तो मतलब यह है कि मोक्ष पुण्य पूर्वक होता है इस कारण से पुण्य के आस्रव बताना चाहिए कौन सा हमारा परिणाम है जिससे पुण्य का आस्रव होता है । उसका वर्णन करने के लिए सप्तम अध्याय के प्रारंभ में यह सूत्र कहा है―‘‘हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् ।’’
(108) शांतिलाभ के लिये धर्मलाभ की अनिवार्यता―हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 पापों से विरक्त होना व्रत कहलाता है । कोई नास्तिक लोग ऐसा भी सोच सकते हैं कि मनुष्य जीवन पाया तो मौज से बिताओ । व्रत, तप, कष्ट करके करने से क्या फायदा है? कोई लोग ऐसा सोच सकते हैं और उनकी दृष्टि में धर्म का कोई महत्त्व नहीं है । लेकिन निष्पक्ष रूप से सोचा जाये तो हर एक कोई जीवन में शांति चाहता है, सो यह खूब नजर करके देख लो कि किसी पर पदार्थ में, किसी विषय में किसी के आधीन बनकर रहने में शांति मिलती है या सब बखेड़ों को दूर करके आराम से बैठने में शांति मिलती है, तो अपने अपने अनुभव सभी बतायेंगे कि दूसरे के आधीन रहने में शांति नहीं मिलती और जो विषयों के आधीन रहेंगे वे परतंत्र रहेंगे । तो परतंत्रता में शांति नहीं है, स्वतंत्रता में शांति है और स्वतंत्रता भी कैसी? देखिये हम आप सबका परिणाम धर्म के लिए चाहता तो है पर धर्म का जो मूल स्रोत है, कहां से धर्म निकलता है और किसका सहारा लेने से धर्म निकलता है इसका ज्ञान न होने से धर्म के नाम पर परिश्रम बहुत कर डालते हैं और शांति नहीं मिलती । उसका कारण क्या है कि अभी तक धर्म का स्रोत नहीं जाना कि धर्म धरा कहां है? हम यह ख्याल करते हैं कि धर्म हमें मंदिर से मिल जायेगा, अमुक चीज से मिल जायेगा, केवल इतना ख्याल है । किंतु, ध्यान यह होना चाहिये कि धर्मस्वरूप तो हमारा आत्मा है । आत्मा का स्वभाव ज्ञान है वही धर्मस्वरूप है और इसी धर्मस्वरूप आत्मा का जिन्होंने सहारा लिया है वे अरहंत सिद्ध भगवान हुए हैं ।
(109) धर्मसाधनों की धर्मदृष्टिप्रयोजकता―हम मंदिर इसलिए जाते कि हम अरहंत सिद्ध भगवान के गुण सोचेंगे और उससे हमको अपने आत्मा की खबर मिलेगी और आत्मा का कुछ सहारा लेंगे तो हमें धर्म मिलेगा सो यह दृष्टि तो नहीं है, पर सीधी दृष्टि यह है कि हमको इस मंदिर से धर्म मिलेगा याने मंदिर की भींतों से या मंदिर की मूर्ति से । अरे धर्म तो आत्मा को मिलेगा उस आत्मा के स्वरूप से ही, पर वह मिले कैसे? तो उस आत्मस्वरूप की सुध करने के लिए हम भगवान के मंदिर में जायेंगे और वहाँ भगवान के स्वरूप को विचारेंगे तो हमारे यहाँ वहां के ख्याल सब दूर हो जायेंगे और उस समय जो हमको अपने आत्मा का स्पर्श होगा उससे आनंद जगेगा । आनंद हमेशा अपने आत्मा से ही जगेगा, दूसरे पदार्थ से जगेगा नहीं । भगवान की भक्ति करते समय भी जितना आनंद जग रहा है वह भगवान से निकलकर नहीं जग रहा है किंतु इस आत्मा में से उठ उठकर जग रहा है । तो इसकी जिसको खबर हो जाये उसे अपने आप में आनंद मिलेगा और जिसको अपनी ही खबर नहीं है उसे आनंद कहां से मिलेगा? तो यह तथ्य निकला कि आत्मा इस जीवन में सुख शांति चाहता है । तो परलोक है या नहीं इस, बात को भी छोड़ दो, पर इस समय हमको शांति मिलने का ढंग क्या है यह तो समझ लो।
(110) विषयों से विरति होने में ही सबको लाभ―कोई नास्तिक कहते कि न तो स्वर्ग है, न नरक है, हमें तो ये कहीं दिखते नहीं इसलिए क्यों धर्म करना, क्यों व्रत तप आदि करके कष्ट उठाना ? अच्छा तो चलो थोड़ी देर को उनकी ही बात मान लो स्वर्ग, नरक नहीं हैं, पर इस जीवन में भी तो सुख शांति चाहिए ना? तो निर्णय करो कि संसार के ये पदार्थ जो हमारी इंद्रिय के विषयभूत हैं इनकी गुलामी करने में आकुलता होती कि सुख मिलता? कोई बता देंगे कि आकुलता मिलती है, सुख शांति नहीं मिलती तो इस ही जीवन को शांत बनाने के लिए आवश्यक है कि विषयों का मोह छोड़े । अभी यह हम उसको कह रहे जो कि परलोक नहीं मानते और अगर परलोक आया तो आगे जाकर सुख शांति पायेंगे । अगर मान लो परलोक है नहीं तो इस जीवन में तो सुख शांति से रह लेंगे । हर दृष्टियों से विषयों की प्रीति छोड़ना सुख शांति के लिए आवश्यक है । नहीं तो देखो विषयों में रमते-रमते जिंदगी गुजर जाती ओर जैसे-जैसे जिंदगी गुजरती है वैसे ही वैसे यह अपने को रीता अनुभव करता है कि मेरे को कुछ नहीं मिला, मेरे को कुछ नहीं रखा । तो अगर विषयों से सुख होता तो जिंदगी भर विषय भोगे वे सब जोड़ जोड़कर आज कुछ सुख का भंडार रहता, पर बात तो इससे उल्टी दिख रही । ज्यों-ज्यों जिंदगी बीतती जा रही, वृद्धावस्था में आते हैं त्यों-त्यों और भी दुःखी होते हैं । इससे सिद्ध होता है कि पदार्थों में सुख नहीं भरा है । सुख मिलेगा तो अपने आत्मा में । मिलेगा, आत्मा के आलंबन से मिलेगा ।
(111) माया के प्रति आस्था का कारण व्यामोह स्वप्न―यहां तो अज्ञान छाया है सो यह जीव इस दिखने वाली दुनिया को सच मान रहा । जैसे कि सोते हुए में कोई स्वप्न आ जाये तो स्वप्न में देखी हुई बात सच मालुम होती है ऐसे ही मोह की नींद में जो ये घटनायें दिख रही हैं वे सब सच मालूम हो रही हैं । यह मानता है कि मेरा नाम फैलेगा, यश फैलेगा, कीर्ति चलेगी, मेरा बड़प्पन चलेगा मगर इस मायामयी दुनिया में यश किसका नाम है? अनंते चौबीस तीर्थंकर अब तक हो चुके, समय की कोई आदि तो नहीं है, अब तक कितने ही चौथे काल व्यतीत हो चुके उस काल में 24 तीर्थंकर होते आये, बताओ आज उनके नाम भी कोई जानता है क्या? उनकी तो बात छोड़ो, आज के ही 24 तीर्थंकरों के नाम कोई नहीं जानते, बिरले ही लोग जानते, तो काहे का नाम । अब वे भगवान सिद्ध होते हैं तो हम उन्हें जाने या न जाने, वे तो अपने अनंत आनंद में लीन हैं, उनमें कुछ फर्क नहीं पड़ता । तो बताओ यश नामवरी न रहने से कोई दुःख होता है क्या? बल्कि यश नामवरी जब चलती है तो कष्ट होता है, जिसका नाम बढ़ा है वह हमेशा यह ख्याल रखता है कि मेरे यश में कमी न आये, मेरा यश कहीं मिट न जाये, तो वह उस शल्य के मारे धर्म से दूर हो जाता है ।
(112) शांति का आधार अंतस्तत्त्व―शांति मिलेगी तो अपने आपके आत्मा की दृष्टि करने से मिलेगी, अन्य प्रकार से नहीं, यह बात सुनने को मंदिर में मिलती है, यह बात निरखने को मूर्ति में मिलती है इसलिए हम दर्शन करते हैं । कहीं यहाँ मंदिर के ईंट, भींट, फर्श आदि से धर्म न मिलेगा । कहीं किसी स्थान से धर्म नहीं मिला करता किंतु वह स्थान धर्म का साधन है । उस धर्मस्थान पर रहकर धर्म का काम करगे तो धर्म मिलेगा, उस स्थान पर भी यदि धर्म का कोई काम न करे तो कोई जगह में आने भर से शांति नहीं मिलती । और, कभी थोड़ा मंदिर की जगह में बैठने से भी शांति मिलती है तो वह भी धर्म के प्रताप से ही मिलती है, जगह के प्रताप से नहीं । वहाँ जाकर भी धर्म के भाव थोड़े हुए तो थोड़ी शांति, अधिक हुए तो अधिक शांति मिलती है, तो शांति अपने धर्मभाव से मिलती है ।
(113) धर्मलाभ के लिये पापविरति की अनिवार्यता―धर्म को पाने के लिए पहले यह आवश्यक है कि पापों को छोड़ा जाये । कोई पाप भी करता रहे और धर्म भी चाहता रहे, ये दो बातें नहीं हो सकती । जैसे एक म्यान में दो तलवार नहीं सभा सकती, ऐसे ही धर्म और पाप ये दोनों एक साथ रह नहीं सकते । अगर धर्म करना हो तो पाप छोड़ना ही होगा । चूंकि मोक्ष पुण्यपूर्वक होता, पुण्य से मोक्ष नहीं होता, पर पुण्य होकर भाव शुद्ध हों और वीतराग दशा में आये तो पुण्य छूटकर मोक्ष हो, मगर पुण्य में आये बिना मोक्ष नहीं होता और पुण्य के छोड़े बिना मोक्ष नहीं होता । ये दो बात कैसे कही? अगर कोई पुण्य के मार्ग में न चले तो वह उस मार्ग को पा नहीं सकता कि जिस मार्ग से चलकर वह अपने घर पहुंचे । जैसे मानो कोई एक छोटी गली गई है, और वह एक बड़ी सड़क से मिली है, उस बड़ी सड़क से चलकर मानो आपको किसी नगर पहुंचना है, अब उस नगर में पहुंचने के लिए, वह सड़क तो धीरे-धीरे छूटती ही जायेगी । उस सड़क के छोड़े बिना उस नगर में नहीं पहुंचा जा सकता, तो ऐसे ही समझो कि मुझे पुण्य मार्ग से चलकर मोक्ष प्राप्त करना है तो धीरे-धीरे वह पुण्य छूटता जायेगा, शुद्ध भाव बढ़ता जावेगा तभी तो मोक्ष मिल पायेगा । पुण्य के किये बिना व पुण्य के छोड़े बिना मोक्ष तो न मिल पायेगा । बताओ धर्म नाम है क्या? तो जहाँ रागद्वेष न रहे और केवल ज्ञान में ज्ञान का अनुभव रहे उसका नाम धर्म है, और पुण्य नाम किसका है? तो अरहंत सिद्ध भगवान में भक्ति करना, धर्मानुराग करना, प्रभावना करना यह सब पुण्य कहलाता है । तो पुण्य में जिसको पुण्य न करना आये उसको धर्म करना न आ पायेगा, मगर मोक्ष मिलेगा धर्म से ही, पुण्य से नहीं । इतना अंतर है इस कारण से कि चूंकि मोक्ष पुण्यपूर्वक होता है । यहाँ पूर्वक का अर्थ पहले होता है यह लेना ।
(114) मोक्षमार्ग में व्रतों की परिष्कृतता―जिस पुण्यपूर्वक मोक्ष होता है उस पुण्य भाव को बताने के लिए यह सूत्र कहा गया है, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन 5 पापों से विरक्त होना व्रत है । देखिये―जैसे भोजन का नाम लेने मात्र से पेट नहीं भरता, खाने से पेट भरता ऐसे ही धर्म की बातें करने मात्र से अपना उद्धार नहीं होता, किंतु जो धर्म का स्वरूप है उसे करें तो उद्धार होगा । तो अपने आपमें यह खोज कीजिए कि हम रागद्वेष छोड़कर ज्ञान के सही मार्ग में कितना चल पाते हैं और धन वैभव कुटुंब परिजन आदि में, यहाँ वहाँ की फिजूल की बातों में हम कितना दिल बसाया करते हैं, यह हिसाब जरूर परखना चाहिए । अगर हम राग में, विषयों में ही फँसे रहकर अपना जीवन बिताते हैं तो वह जीवन बेकार समझिये । क्योंकि वे सब बातें तो पशु पक्षी के भव में भी मिल जाती । बताओ एक गाय को अपने बछड़े से कम प्यार होता है क्या? नहीं होता, तब फिर बताओ इस मनुष्य भव में आकर ऐसा कौन सा अपूर्व काम कर लिया जो किसी अन्य भव में नहीं किया? जो आत्मा का स्वरूप जानेगा, पाप उसी के अच्छी तरह कटेंगे । एक बनावटी ढंग से या जबरदस्ती के ढंग से पाप छोड़ने से पाप न छूटेंगे और एक आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होने के बाद जो एक सहज वैराग्य जगता है उसके कारण जो पाप छूटते हैं वे मूल से पाप छूटते । जैसे किसी बच्चे से कोई कहे कि रे बच्चे तू क्रोध न करने का नियम ले-ले और वह कहे कि हम यह नियम न निभा पायेंगे, फिर भी कोई जबरदस्ती करे । मानो क्रोध के समय उसके मुख में पानी भर दे, वह कुछ बोल न सके तो भी बताओ उसका क्रोध दूर हो गया क्या? हाँ इतनी बात तो है कि यह अंतर आ जायेगा कि वह अपने क्रोध की बात को मुख से बोल न पायेगा, जिससे लड़ाई न हो पायेगी, मगर भीतर में चाहें कि उसके क्रोध न रहे तो यह बात हो नहीं सकती, क्योंकि उसके मन में संस्कार तो बना ही है । उस संस्कार के कारण क्रोध तो उसे आयेगा ही । और, जिस समय उसको यह ज्ञान होगा कि मेरे आत्मा का स्वरूप कषाय करने का है ही नहीं, अविकार स्वरूप हूँ मैं, ज्ञानमात्र हूँ मैं, तो वह अपने ज्ञान की उपासना के बल से क्रोध को जड़ से उखाड़ फेंकता है । तो जबरदस्ती के त्याग से मूलत: पाप नहीं मिटते, किंतु आत्मा का ज्ञान होने पर फिर त्याग हो तो मूल से पाप मिटते हैं । फिर भी इतना फर्क हो सकता है कि किसी से जबरदस्ती भी मनाई की करें कि तुम छोड़ दो तो कुछ दिन को तो मान लो त्यागे रहा वह चीज, संकोचवश उसका ग्रहण वह न कर सका, मगर बाद में वह उसका ख्याल भूल सकता है और वह फिर उसी मार्ग में लग सकता है । तब भी वह सच मार्ग में तो तब लग सकता है जब कि उसको आत्मा का ज्ञान हो । इसलिए आत्मा का धन ज्ञान है, दूसरा कोई वास्तविक धन आत्मा का नहीं है ।
(115) सुख शांति का आधार विकारपरिहारक ज्ञानबल―सुख शांति से रहना है तो ज्ञान के बल से रहा जा सकता है, कोई दूसरा बल काम न देगा । मोक्ष में भी कोई जायेगा तो वह ज्ञान के बल से ही जायेगा, किसी दूसरे के बल से नहीं । जो बहुत तपश्चरण होते हैं―बैठ गए गर्मी में सर्दी में तो उन तपश्चरणों में आत्मा को ज्ञान में लीन होने का एक उपाय बनता है, मगर देह तपन से मोक्ष हो जाये सो बात नहीं । गर्मी में बैठकर तपश्चरण किया तो उस स्थिति में आत्मा को ज्ञान प्रेरणा मिलती है । विषयों से वैराग्य जगा उससे मोक्ष मार्ग मिला । सो भैया, करना तो सब पड़ेगा बाह्य व्यवहार चारित्र, मगर भीतर में अंतरात्मा में जोर देते हुए जो ज्ञान में चलेगा उसको मोक्ष की प्राप्ति होगी । जब ज्ञान ही नहीं है तो फिर क्या करेगा? इसलिए आत्मा का जैसे ज्ञान मिले, ज्ञान भी वास्तविक वह जो कि विषयविरतिसमृद्ध हो ऐसा ज्ञान मिले उस उपाय में लगना चाहिए और उसका उपाय क्या है? तो मुख्य उपाय उसके हैं दो―1-स्वाध्याय और 2-सत्संग । इन दो साधनों के सहारे से ज्ञान में चलने की प्रेरणा मिलेगी । इन दो साधनों से अपने आपको जीवन में बढ़ावे और ये जो बाहरी संग प्रसंग है घर द्वार, स्त्री पुत्रादिक ये तो मरने पर छूटेंगे ही, ये साथ तो देंगे नहीं आगे । ज्ञान और वैराग्य का जो संस्कार यहाँ बना लेंगे वह अपना साथ देगा । यहाँ के कोई भी बाहरी समागम साथ न देंगे । जब ऐसा तथ्य है तो कुछ अपने आप पर दया करके अपने हित के लिए कुछ सोचना चाहिए कि हम एकदम बाहर के पदार्थों में ही ध्यान लगा लगाकर जो अपना जीवन गुजार रहे हैं इससे मेरे को नुकसान ही होगा, फायदा कुछ नहीं, क्योंकि जिन बाहरी पदार्थों को हम अपना रहे वे कोई साथ न निभायेंगे । तो अपने सहज आत्मतत्त्व को पाने के लिए उन 5 पापों से विरक्त होना जरूरी है सो इन 5 पापों से विरक्त होने की बात इस सूत्र में कही जायेगी । भावहिंसा―किसी का बुरा न विचारें, किसी का बिगाड़ करने का यत्न न करें, किसी की झूठी बात न बोलें, किसी की चीज न चुरायें, किसी परस्त्री अथवा परपुरुष पर गंदे विचार न बनायें, बाह्य परिग्रहों की तृष्णा मत करें, इस प्रकार इन 5 प्रकार के पापों से जो विरक्त होना है उसे व्रत कह लीजिए । चारित्रमोहनीय के उपशम या क्षय या क्षयोपशम के निमित्त से होने वाले औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक चारित्र के आविर्भाव से जो एक विरतिभाव उत्पन्न होता है, विषयों से अत्यंत पृथक्पना होता है उसको विरति कहते हैं । व्रत नाम है संकल्पपूर्वक नियम करना, जैसे कि यह ऐसा ही है, यह ही है, यो ही करना चाहिए इस प्रकार के तीव्र आशय से जो अन्य बातों से निवृत्त होना है उसका नाम नियम है । तो दृढ़ संकल्प से किया हुआ शुभ प्रवर्तन सब जगह व्रत नाम पाता है ।
(116) बुद्धि से अपाय होने पर हिंसादिकों में ध्रुवत्व की विवक्षा के कारण प्रथम पद में अपादानकारकत्व की उपपत्ति―इस सूत्र में 3 पद हैं जिसमें प्रथम पद अपादानकारक में है याने इन पापों से । सो उसके विषय में यहाँ शंका होती है कि अपादान कारक वहाँ लगाया जाता है जहाँ वस्तु ध्रुव हो और उससे कोई चीज अलग होती हो । तो जब हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये पाप ध्रुव तो हैं नहीं, ये तो खोटे परिणाम हैं, अध्रुव हैं, क्षण में होते हैं, विलीन होते हैं, तो जब क्षणिक हैं वे तो उनसे कुछ अपाय न हुआ इस कारण अपादान कारक यहाँ न लगाना चाहिए । यदि कोई इस शंका का समाधान यह करे कि हिंसा आदिक पापों में परिणत आत्मा ही हिंसा आदिक नाम पाता है क्योंकि हिंसा आदिक आत्मा के परिणाम हैं, सो वे कुछ आत्मा से अलग वस्तु नहीं है, तो यों पर्यायदृष्टि करने से हिंसा आदिक में ध्रुवपने की कल्पना कर ली जायेगी और इस प्रकार उनसे विरति करना व्रत है यह अर्थ बन जायेगा । सो कहते हैं कि इस प्रकार भी अपादान कारक नहीं बनता, फिर कैसे बनता है कि बुद्धि में उन्होंने हिंसा आदिक पापों को एक मान लिया कुछ ध्रुव के ढंग का, फिर उससे विरति हुई, यों अपादानकारक हो जायेगा । हिंसा आदिक परिणामों को आत्मा ही मानकर अपादान न बन सकता था क्योंकि आत्मा तो नित्य है, हिंसा आदिक अनित्य हैं मगर बुद्धि में किसी चीज को ध्रुव रूप से कल्पना करके अपादान कारक बन जाता है । जैसे यह कहना कि यह धर्म से विरक्त होता है । कोई पुरुष धर्म को नही मानता तो उसको कहते हैं कि यह तुच्छ बुद्धि वाला मनुष्य धर्म से विरत रहता है, तो ऐसा वाक्य बोलने में धर्म शब्द में पंचमी विभक्ति आ गई है । अपादान बन गया, कैसे कि उसकी बुद्धि में धर्म के प्रति यह भाव जग रहा कि धर्म तो दुष्कर है, कठिनाई से किया जाता है और फल भी इसका श्रद्धा मात्र गम्य है । इस तरह से एक धर्मभाव के प्रति बोलने के मुड़ में ध्रुवत्व की कल्पना करना, उसमें इदं का प्रयोग करके ध्रुव मानकर अपादान कारक बना लिया जाता है, इसी प्रकार इन हिंसा आदिक परिणामों के प्रति ऐसी बुद्धि हुई । यह बुद्धिमान मनुष्य यों देखता है कि ये हिंसा आदिक परिणाम पाप के कारण हैं और पापकर्म में प्रवृत्ति करने वाले पुरुष को यहाँ भी राजा लोग दंड देते हैं और वह परलोक में नाना प्रकार के दुःख प्राप्त करता है । सो अपनी बुद्धि से ऐसा उसे पा करके उसे मानो ध्रुवरूप मानकर उससे बात करके यों ध्रुव समझकर वहाँ से अपादान बन जाता है तो बुद्धि के द्वारा ही इसमें ध्रुवपने की विवक्षा होने से अपादानपना इस सूत्र के प्रथम पद में बन गया ।
(117) अहिंसा व्रत की प्रधानता होने से अहिंसाव्रत का प्रथम निर्देशन एवं विरति की सामान्यैकरूपता―अब इन 5 नामों में सबसे पहले अहिंसा व्रत कहा है । सो सबसे पहले कहने का प्रयोजन यह है कि अहिंसा व्रत प्रधान है । शेष के जो चार व्रत हैं―सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह सो ये भी अहिंसा का पालन करने वाले ही हैं । जैसे कि खेती में मुख्य बात है अनाज पैदा करने की । उसका ही पालन किया जाता है, उसकी ही प्रधानता है, पर बाड़ जो लगायी जाती है वह उस अनाज की रक्षा के लिए लगायी जाती है, ऐसे ही मोक्षमार्ग में चलने के लिए, उसके पालन के लिए, उसको निर्दोष निभाने के लिए सत्य आदिक व्रत कहे गए हैं । इस सूत्र में विरति शब्द दिया गया है, उसका प्रत्येक के साथ योग किया जायेगा । जैसे हिंसा से विरति, झूठ से विरति, चोरी से विरति, अब्रह्मचर्य से विरति और परिग्रह से विरति । यहाँ विरति शब्द सबके साथ लगाया गया, ऐसा सुनकर एक शंकाकार कहता है कि जब विरति अनेक हो गईं, 5 पापों से विरतियां कराई गई तो विरति शब्द में बहुवचन का प्रयोग होना चाहिए था, एकवचन का प्रयोग क्यों कहा गया है? जैसे कि गुड़, तेल, चावल आदिक पकाये जाने योग्य हैं, उनके भेद से विकास के भेद कर दिए जाते हैं । जैसे कहते हैं कि दो पाक हो गये, तीन पाक हो गये, ऐसे ही छोड़ने योग्य जो हिंसा आदिक भेद हैं उनसे जो त्याग कराया गया है सो भेदविवक्षा उत्पन्न हो गई इस कारण विरति शब्द को बहुवचन में प्रयुक्त करना चाहिए? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि ऐसी आशंका न करना, क्योंकि यहाँ पर उन 5 पापों के विषय से विरक्त होना, इससे कोई सामान्य को ही ग्रहण करना है । इस विषय के भेद से विरति में भी भेद है ऐसी विवक्षा नहीं है । यहाँ जैसे कि गुड़, तेल, चावल आदिक का पाक होता है यहाँ सामान्य की जब विवक्षा होती है तो पाक शब्द में भी तो एक वचन कर लिया जाता है, तो ऐसे ही 5 पापों से वैराग्य होता है तो उस वैराग्य सामान्य की विवक्षा है इस कारण विरति शब्द में एकवचन लगाना न्याययुक्त है । इस ही कारण सर्वसावद्यनिवृत्तिरूप सामायिक की अपेक्षा व्रत एक है और जब भेद की विवक्षा करें तो वह व्रत 5 प्रकार का है ।
(118) व्रतों के परिस्पंददर्शन के कारण संवररूपपना न होकर व्रती की संवरपात्रता होने के कारण संवरपरिकर्मपना―यहां शंकाकार कहता है कि इन व्रतों का अर्थात् 5 पापों से निवृत्त होना व्रत है, इस बात का आस्रव के प्रकरण में बोलना अनर्थक है, क्योंकि इसका तो संवर में अंतर्भाव हो जायेगा, सो जब संवर तत्त्व का अध्याय चलेगा तो उसमें यह स्वयं आ ही जाता है और कोई यदि ऐसा समाधान करने की कोशिश करे कि यह तो केवल कहने मात्र की बात है कि व्रतों का अंतर्भाव हो जाता है, तो सुनो―संवर के अध्याय में दस धर्मों का वर्णन आता है उन क्षमा आदिक दस धर्मों में एक संयमधर्म भी है । उस उत्तम संयम में अहिंसा आदिक पांचों व्रतों का अंतर्भाव हो जाता है या सत्य आदिक धर्म हैं उनमें अंतर्भाव हो जाता है । फिर यहाँ आस्रव के प्रकरण में कहना अनर्थक है । यदि कोई ऐसा समाधान दे कि भले ही संयम में अंतर्भाव हो जाता है पर यह व्रत का विस्तार बता दिया, संयम किस प्रकार से होता है उसके विस्तार में यहाँ कथन कर दिया तो यह भी उत्तर उनका ठीक नहीं है, क्योंकि संयम में जिसका अंतर्भाव है उसका यदि विस्तार करना है तो विस्तार वहां ही किया जा सकता है जिसमें कि इसका अंतर्भाव है, पर संवर का प्ररूपण करने वाले अध्याय में ये व्रत बताये जाते, यों संयम में अंतर्भाव माना जा रहा है, सो यहाँ व्रतों का कहना अनर्थक रहा ना । अब उक्त शंका के समाधान में कहते हैं कि ये जो 5 व्रत हैं ये संवर नाम नहीं पा सकते, क्योंकि इन व्रतों में परिस्पंद देखा जाता है, कोई प्रवृत्ति देखी जाती है । अशुभ से हटकर शुभ में प्रवृत्ति हो रही यह बात व्रतों में पायी जाती और संवर में परिस्पंद का भाव रहता है । कोई मनुष्य आरंभ का त्याग करता है तो इसके मायने है सत्य बोलता है, चोरी का त्याग किया, बिना दी हुई चीज का ग्रहण करना छोड़ दिया, मतलब दिया हुआ ही ग्रहण करता है । तो इस तरह इन 5 व्रतों में परिस्पंद पाया जा रहा है इस कारण से इसका संवर में अंतर्भाव नहीं होता । यह आश्रवरूप है, और है शुभ आस्रव, मगर संवररूप नहीं बन पाते हैं । दूसरी बात यह है कि गुप्ति आदिक संवरों का वर्णन आगे किया जायेगा, उससे इन व्रतों को भी संवरार्थ समझ लीजिए । याने व्रत विधान करके ऐसी पात्रता उत्पन्न की गई कि अब वे गुप्ति आदिक संवर को कर सकेंगे इस कारण से इन व्रतों का पृथक वर्णन करना सही है ।
(119) रात्रिभोजनविरति का अहिंसाव्रत में अंतर्भाव―एक शंकाकार कहता है कि रात्रिभोजन से विरति होना यह भी तो एक व्रत है और छठवां अणुव्रत है, इस नाम से कहीं कथन भी किया जाता है सो उस रात्रिभोजनविरति का भी इस सूत्र में नाम दिया जाना चाहिए था । जैसे हिंसा से विरति, झूठ से विरति आदिक कहा गया ऐसे ही रात्रिभोजन से विरति यह भी कहना चाहिए । तो इसके उत्तर में कहते हैं कि रात्रिभोजनविरति का अहिंसा व्रत की भावना में अंतर्भाव हो जाता है । कोई प्रश्न कर सकता है कि भावनाओं में तो रात्रिभोजनविरति का नाम नहीं दिया गया । भावना भी प्रत्येक व्रत की 5-5 कही गईं, किंतु वहाँ किसी भी व्रत की भावना में रात्रिभोजनविरति नहीं दिया गया । तो शंंका यों न करना चाहिए कि अहिंसा व्रत की भावनाओं में आलोकितपानभोजन ये शब्द दिये गए हैं, सो आलोकितपानभोजन का क्या अर्थ है? देख करके भोजन करना । सो इस शब्द से ही रात्रिभोजनविरति की बात आ जाती है, क्योंकि रात्रि में अंधकार रहता है, वहाँ भोजन आदिक साफ दिखाई नहीं दे सकते इसलिए उसका त्याग स्वयं ही बन गया । इस पर एक प्रश्नकर्ता कहता है कि अगर दीपक आदिक जला दिए जाये, प्रकाश किया जाये तो रात्रि में भी देख करके भोजनपान हो जायेगा, जैसे कि देखकर भोजन करने की दृष्टि से दिन में भोजन करना बताया जा रहा है तो दीपक हंडा आदिक का जहाँ अच्छा प्रकाश हो वहाँ भी तो भोजनपान सब दिखता है । तब रात्रि में भोजन कर लिया जाना चाहिए? तो यह प्रश्न भी ठीक नहीं है, क्योंकि दीपक आदिक करने पर अनेक आरंभ के दोष आते हैं । अग्नि आदिक का साधन जुटाना आदिक दोष होते हैं, तो इस पर फिर वही प्रश्नकर्ता कहता है कि यदि दूसरा कोई पुरुष दीपक जला दे और इस तरह उसका आरंभ किए बिना दीपक का उजेला मिल जाये तब तो रात्रिभोजन कर लिया जाना चाहिए वहाँ तो दोष न होता होगा? तो इसके उत्तर में कहते हैं कि यह भी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ भली प्रकार आना जाना आदिक असंभव हैं । हां सूर्य के प्रकाश से, अपने ज्ञान के प्रकाश से, इंद्रिय के प्रकाश से जो मार्ग अच्छी तरह से परीक्षित है, दूर तक देखा जा सकता है, ऐसे देश और काल में चर्या करके साधु लोग आहार लेवें ऐसे आगम में उपदेश किया गया है, यह विधि रात्रि में तो नहीं बनती है, रात्रि में तो मलिनता बनती है, रात्रि में आने जाने का कार्य भी नहीं बन सकता हे अतएव रात्रि में भोजनपान करना आलोकितभोजनपान में नहीं आता ।
(120) दिन में लाकर रात्रि में भोजन करने पर भी अनेक पापारंभों की विडंबना―अब यहां वही प्रश्नकर्ता कहता है कि दिन में तो भोजन ला दिया जाये और रात्रि में भोजन कर लिया जाये, इसमें तो आरंभ नहीं हुआ । तो इसके उत्तर में भी यही समझना कि प्रदीप आदिक का समारंभ तो हो ही गया और यह संयम का साधन नहीं है कि ला करके भोजन करना । संयमी जीव जो कि परिग्रहरहित है, हस्तपात्र में ही जो आहार लेता है उसको कहीं से भोजन लाना कैसे संभव हो सकता? यदि कुछ पात्र रख लिए जायें तो उसमें अनेक पाप लगते हैं । एक तो दीनता का भाव होता सो दीन चर्या बन जाने से फिर तो निवृत्ति परिणाम संभव ही नहीं हो सकता । जिसके अति दीनवृत्ति आ गई उसके पूर्ण निवृत्ति के परिणाम नहीं हो सकते, क्योंकि सर्व पापों का जहाँ त्याग किया गया वहां उस पात्र को जब ग्रहण कर लिया, बर्तन रख लिया तो पात्र का परिग्रह तो रहा ही रहा, पात्र से लाकर परीक्षा करके भोजन भी करे कोई तो उस साधु को लाना, धरना, अलग करना आदिक से होने वाले गुण दोष भी तो सोचने पड़ते हैं और जो आहार लाया गया उसके लाने में भी और छोड़ने में भी अनेक दोष होते हैं । तो जैसे सूर्य में प्रकाश में सर्व पदार्थ स्पष्ट दिखते हैं दाता, भूमि, जल, भोजन पान, गिरना रखना आदिक, उस तरह से रात्रि को चंद्र के प्रकाश में नहीं दिखते, इस कारण दिन में ही भोजन करना निर्दोष आचरण है । यह रात्रिभोजन का त्याग अहिंसा व्रत की आलोकितपानभोजन नाम की भावना में अंतर्भूत हो जाता है ।
(121) प्रसंगविवरण―उक्त प्रकार व्रत 5 रहे । 5 पापों के त्याग में 5 व्रत हुए । ये पांचों व्रत शुभभाव हैं और शुभभाव होने से शुभास्रव के कारण हैं । 7वें अध्याय में शुभ आस्रव की बात कही जा रही है । जैसे पहले अध्याय में ज्ञान के उपाय बताये गए तो दूसरे तीसरे चौथे अध्याय में जीवतत्त्व का वर्णन हुआ । तो छठवें और 7वें अध्याय में आस्रव तत्त्व का वर्णन है । छठवें अध्याय में तो आस्रव का सामान्य कथन है । उसमें जुदे-जुदे शुभ अशुभ की बात की गई है, उसका मात्र संकेत ही दिया गया है । 7वें अध्याय में शुभ आस्रव की बात कही जा रही है । इस प्रकार 5 पापों से विरक्त होना व्रत है यह इस सूत्र का तात्पर्य हुआ । सप्तम अध्याय के इस प्रथम सूत्र में सामान्यतया 5 प्रकार के विषयों से विरक्ति होनेरूप व्रत का कथन है । सो वे समस्त व्रत विरति के आश्रय की विवक्षा में दो ही प्रकार बन सकते हैं कि या तो वहाँ पूरी विरक्ति है या थोड़ी विरक्ति है । सो उन ही दो प्रकारों को अब सूत्र में बताते हैं ।
हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् ।। 7-1 ।।
(107) पंच व्रत और उनकी शुभास्रवहेतुता―छठे अध्याय तक जीव, अजीव व आस्रव पदार्थ का वर्णन हुआ था, किंतु वह आस्रव का सामान्य वर्णन था और उसमें 108 तरह के सांपरायिक आस्रव बताये गए । जीवाधिकार आस्रव 108 प्रकार के होते हैं और इसी कारण माला में 108 दाने माने गए हैं, उसका आशय यह है कि एक बार भगवान का नाम लिया तो मेरा यह पाप खत्म हो जाये तो वे सब आस्रव दो प्रकार के होते है―(1) पुण्य और (2) पाप । तो पहले जो आस्रव का वर्णन हुआ वह सामान्य वर्णन था तथा कुछ वर्णन पापास्रव की प्रधानता से भी था जैसे चारों घातिया कर्मों का अलग-अलग वर्णन सूत्रों में था । इन घातिया कर्मों में विशेष अधिक पापानुभागी कर्म मोहनीय कर्म है उसके आस्रवों के भी कारण बताये गये थे । उन विवरणों से यह शिक्षा दी गई थी कि ऐसे-ऐसे पापकार्यों से बचने का पूरा ध्यान रखना चाहिये । तीर्थंकरप्रकृति, सातावेदनीय, शुभ नामकर्म, उच्चगोत्र जैसे पुण्यकर्मों के आस्रव के भी कारण बताये गये थे जिनसे सद्भावनाओं की शिक्षा मिली थी । अब व्रत संयम भाव के होने पर होने वाले पुण्य आस्रव का वर्णन किया जा रहा है । पाप से पुण्य प्रधान है, मोक्ष पुण्य पूर्वक होता है, पाप करके कोई मोक्ष नहीं गया, पुण्य करके पुण्य को छोड़कर शुद्ध भाव में आकर मोक्ष हुआ करता है । साक्षात् तो पुण्य से भी मोक्ष नहीं होता, पुण्य करने से तुरंत मोक्ष नहीं होता । पुण्य करने वाले की ऐसी पात्रता रहती है कि वह मोक्ष के मार्ग में लग जायेगा, तो जब मोक्षमार्ग में लगा और बढ़ा तो उसका पुण्य भी छूट गया । पाप तो पहले छूट गया था, अब पुण्य भी छूट गया, अब उसके शुद्धोपयोग आ गया और शुद्धोपयोग से मोक्ष होता है । तो मतलब यह है कि मोक्ष पुण्य पूर्वक होता है इस कारण से पुण्य के आस्रव बताना चाहिए कौन सा हमारा परिणाम है जिससे पुण्य का आस्रव होता है । उसका वर्णन करने के लिए सप्तम अध्याय के प्रारंभ में यह सूत्र कहा है―‘‘हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् ।’’
(108) शांतिलाभ के लिये धर्मलाभ की अनिवार्यता―हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 पापों से विरक्त होना व्रत कहलाता है । कोई नास्तिक लोग ऐसा भी सोच सकते हैं कि मनुष्य जीवन पाया तो मौज से बिताओ । व्रत, तप, कष्ट करके करने से क्या फायदा है? कोई लोग ऐसा सोच सकते हैं और उनकी दृष्टि में धर्म का कोई महत्त्व नहीं है । लेकिन निष्पक्ष रूप से सोचा जाये तो हर एक कोई जीवन में शांति चाहता है, सो यह खूब नजर करके देख लो कि किसी पर पदार्थ में, किसी विषय में किसी के आधीन बनकर रहने में शांति मिलती है या सब बखेड़ों को दूर करके आराम से बैठने में शांति मिलती है, तो अपने अपने अनुभव सभी बतायेंगे कि दूसरे के आधीन रहने में शांति नहीं मिलती और जो विषयों के आधीन रहेंगे वे परतंत्र रहेंगे । तो परतंत्रता में शांति नहीं है, स्वतंत्रता में शांति है और स्वतंत्रता भी कैसी? देखिये हम आप सबका परिणाम धर्म के लिए चाहता तो है पर धर्म का जो मूल स्रोत है, कहां से धर्म निकलता है और किसका सहारा लेने से धर्म निकलता है इसका ज्ञान न होने से धर्म के नाम पर परिश्रम बहुत कर डालते हैं और शांति नहीं मिलती । उसका कारण क्या है कि अभी तक धर्म का स्रोत नहीं जाना कि धर्म धरा कहां है? हम यह ख्याल करते हैं कि धर्म हमें मंदिर से मिल जायेगा, अमुक चीज से मिल जायेगा, केवल इतना ख्याल है । किंतु, ध्यान यह होना चाहिये कि धर्मस्वरूप तो हमारा आत्मा है । आत्मा का स्वभाव ज्ञान है वही धर्मस्वरूप है और इसी धर्मस्वरूप आत्मा का जिन्होंने सहारा लिया है वे अरहंत सिद्ध भगवान हुए हैं ।
(109) धर्मसाधनों की धर्मदृष्टिप्रयोजकता―हम मंदिर इसलिए जाते कि हम अरहंत सिद्ध भगवान के गुण सोचेंगे और उससे हमको अपने आत्मा की खबर मिलेगी और आत्मा का कुछ सहारा लेंगे तो हमें धर्म मिलेगा सो यह दृष्टि तो नहीं है, पर सीधी दृष्टि यह है कि हमको इस मंदिर से धर्म मिलेगा याने मंदिर की भींतों से या मंदिर की मूर्ति से । अरे धर्म तो आत्मा को मिलेगा उस आत्मा के स्वरूप से ही, पर वह मिले कैसे? तो उस आत्मस्वरूप की सुध करने के लिए हम भगवान के मंदिर में जायेंगे और वहाँ भगवान के स्वरूप को विचारेंगे तो हमारे यहाँ वहां के ख्याल सब दूर हो जायेंगे और उस समय जो हमको अपने आत्मा का स्पर्श होगा उससे आनंद जगेगा । आनंद हमेशा अपने आत्मा से ही जगेगा, दूसरे पदार्थ से जगेगा नहीं । भगवान की भक्ति करते समय भी जितना आनंद जग रहा है वह भगवान से निकलकर नहीं जग रहा है किंतु इस आत्मा में से उठ उठकर जग रहा है । तो इसकी जिसको खबर हो जाये उसे अपने आप में आनंद मिलेगा और जिसको अपनी ही खबर नहीं है उसे आनंद कहां से मिलेगा? तो यह तथ्य निकला कि आत्मा इस जीवन में सुख शांति चाहता है । तो परलोक है या नहीं इस, बात को भी छोड़ दो, पर इस समय हमको शांति मिलने का ढंग क्या है यह तो समझ लो।
(110) विषयों से विरति होने में ही सबको लाभ―कोई नास्तिक कहते कि न तो स्वर्ग है, न नरक है, हमें तो ये कहीं दिखते नहीं इसलिए क्यों धर्म करना, क्यों व्रत तप आदि करके कष्ट उठाना ? अच्छा तो चलो थोड़ी देर को उनकी ही बात मान लो स्वर्ग, नरक नहीं हैं, पर इस जीवन में भी तो सुख शांति चाहिए ना? तो निर्णय करो कि संसार के ये पदार्थ जो हमारी इंद्रिय के विषयभूत हैं इनकी गुलामी करने में आकुलता होती कि सुख मिलता? कोई बता देंगे कि आकुलता मिलती है, सुख शांति नहीं मिलती तो इस ही जीवन को शांत बनाने के लिए आवश्यक है कि विषयों का मोह छोड़े । अभी यह हम उसको कह रहे जो कि परलोक नहीं मानते और अगर परलोक आया तो आगे जाकर सुख शांति पायेंगे । अगर मान लो परलोक है नहीं तो इस जीवन में तो सुख शांति से रह लेंगे । हर दृष्टियों से विषयों की प्रीति छोड़ना सुख शांति के लिए आवश्यक है । नहीं तो देखो विषयों में रमते-रमते जिंदगी गुजर जाती ओर जैसे-जैसे जिंदगी गुजरती है वैसे ही वैसे यह अपने को रीता अनुभव करता है कि मेरे को कुछ नहीं मिला, मेरे को कुछ नहीं रखा । तो अगर विषयों से सुख होता तो जिंदगी भर विषय भोगे वे सब जोड़ जोड़कर आज कुछ सुख का भंडार रहता, पर बात तो इससे उल्टी दिख रही । ज्यों-ज्यों जिंदगी बीतती जा रही, वृद्धावस्था में आते हैं त्यों-त्यों और भी दुःखी होते हैं । इससे सिद्ध होता है कि पदार्थों में सुख नहीं भरा है । सुख मिलेगा तो अपने आत्मा में । मिलेगा, आत्मा के आलंबन से मिलेगा ।
(111) माया के प्रति आस्था का कारण व्यामोह स्वप्न―यहां तो अज्ञान छाया है सो यह जीव इस दिखने वाली दुनिया को सच मान रहा । जैसे कि सोते हुए में कोई स्वप्न आ जाये तो स्वप्न में देखी हुई बात सच मालुम होती है ऐसे ही मोह की नींद में जो ये घटनायें दिख रही हैं वे सब सच मालूम हो रही हैं । यह मानता है कि मेरा नाम फैलेगा, यश फैलेगा, कीर्ति चलेगी, मेरा बड़प्पन चलेगा मगर इस मायामयी दुनिया में यश किसका नाम है? अनंते चौबीस तीर्थंकर अब तक हो चुके, समय की कोई आदि तो नहीं है, अब तक कितने ही चौथे काल व्यतीत हो चुके उस काल में 24 तीर्थंकर होते आये, बताओ आज उनके नाम भी कोई जानता है क्या? उनकी तो बात छोड़ो, आज के ही 24 तीर्थंकरों के नाम कोई नहीं जानते, बिरले ही लोग जानते, तो काहे का नाम । अब वे भगवान सिद्ध होते हैं तो हम उन्हें जाने या न जाने, वे तो अपने अनंत आनंद में लीन हैं, उनमें कुछ फर्क नहीं पड़ता । तो बताओ यश नामवरी न रहने से कोई दुःख होता है क्या? बल्कि यश नामवरी जब चलती है तो कष्ट होता है, जिसका नाम बढ़ा है वह हमेशा यह ख्याल रखता है कि मेरे यश में कमी न आये, मेरा यश कहीं मिट न जाये, तो वह उस शल्य के मारे धर्म से दूर हो जाता है ।
(112) शांति का आधार अंतस्तत्त्व―शांति मिलेगी तो अपने आपके आत्मा की दृष्टि करने से मिलेगी, अन्य प्रकार से नहीं, यह बात सुनने को मंदिर में मिलती है, यह बात निरखने को मूर्ति में मिलती है इसलिए हम दर्शन करते हैं । कहीं यहाँ मंदिर के ईंट, भींट, फर्श आदि से धर्म न मिलेगा । कहीं किसी स्थान से धर्म नहीं मिला करता किंतु वह स्थान धर्म का साधन है । उस धर्मस्थान पर रहकर धर्म का काम करगे तो धर्म मिलेगा, उस स्थान पर भी यदि धर्म का कोई काम न करे तो कोई जगह में आने भर से शांति नहीं मिलती । और, कभी थोड़ा मंदिर की जगह में बैठने से भी शांति मिलती है तो वह भी धर्म के प्रताप से ही मिलती है, जगह के प्रताप से नहीं । वहाँ जाकर भी धर्म के भाव थोड़े हुए तो थोड़ी शांति, अधिक हुए तो अधिक शांति मिलती है, तो शांति अपने धर्मभाव से मिलती है ।
(113) धर्मलाभ के लिये पापविरति की अनिवार्यता―धर्म को पाने के लिए पहले यह आवश्यक है कि पापों को छोड़ा जाये । कोई पाप भी करता रहे और धर्म भी चाहता रहे, ये दो बातें नहीं हो सकती । जैसे एक म्यान में दो तलवार नहीं सभा सकती, ऐसे ही धर्म और पाप ये दोनों एक साथ रह नहीं सकते । अगर धर्म करना हो तो पाप छोड़ना ही होगा । चूंकि मोक्ष पुण्यपूर्वक होता, पुण्य से मोक्ष नहीं होता, पर पुण्य होकर भाव शुद्ध हों और वीतराग दशा में आये तो पुण्य छूटकर मोक्ष हो, मगर पुण्य में आये बिना मोक्ष नहीं होता और पुण्य के छोड़े बिना मोक्ष नहीं होता । ये दो बात कैसे कही? अगर कोई पुण्य के मार्ग में न चले तो वह उस मार्ग को पा नहीं सकता कि जिस मार्ग से चलकर वह अपने घर पहुंचे । जैसे मानो कोई एक छोटी गली गई है, और वह एक बड़ी सड़क से मिली है, उस बड़ी सड़क से चलकर मानो आपको किसी नगर पहुंचना है, अब उस नगर में पहुंचने के लिए, वह सड़क तो धीरे-धीरे छूटती ही जायेगी । उस सड़क के छोड़े बिना उस नगर में नहीं पहुंचा जा सकता, तो ऐसे ही समझो कि मुझे पुण्य मार्ग से चलकर मोक्ष प्राप्त करना है तो धीरे-धीरे वह पुण्य छूटता जायेगा, शुद्ध भाव बढ़ता जावेगा तभी तो मोक्ष मिल पायेगा । पुण्य के किये बिना व पुण्य के छोड़े बिना मोक्ष तो न मिल पायेगा । बताओ धर्म नाम है क्या? तो जहाँ रागद्वेष न रहे और केवल ज्ञान में ज्ञान का अनुभव रहे उसका नाम धर्म है, और पुण्य नाम किसका है? तो अरहंत सिद्ध भगवान में भक्ति करना, धर्मानुराग करना, प्रभावना करना यह सब पुण्य कहलाता है । तो पुण्य में जिसको पुण्य न करना आये उसको धर्म करना न आ पायेगा, मगर मोक्ष मिलेगा धर्म से ही, पुण्य से नहीं । इतना अंतर है इस कारण से कि चूंकि मोक्ष पुण्यपूर्वक होता है । यहाँ पूर्वक का अर्थ पहले होता है यह लेना ।
(114) मोक्षमार्ग में व्रतों की परिष्कृतता―जिस पुण्यपूर्वक मोक्ष होता है उस पुण्य भाव को बताने के लिए यह सूत्र कहा गया है, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन 5 पापों से विरक्त होना व्रत है । देखिये―जैसे भोजन का नाम लेने मात्र से पेट नहीं भरता, खाने से पेट भरता ऐसे ही धर्म की बातें करने मात्र से अपना उद्धार नहीं होता, किंतु जो धर्म का स्वरूप है उसे करें तो उद्धार होगा । तो अपने आपमें यह खोज कीजिए कि हम रागद्वेष छोड़कर ज्ञान के सही मार्ग में कितना चल पाते हैं और धन वैभव कुटुंब परिजन आदि में, यहाँ वहाँ की फिजूल की बातों में हम कितना दिल बसाया करते हैं, यह हिसाब जरूर परखना चाहिए । अगर हम राग में, विषयों में ही फँसे रहकर अपना जीवन बिताते हैं तो वह जीवन बेकार समझिये । क्योंकि वे सब बातें तो पशु पक्षी के भव में भी मिल जाती । बताओ एक गाय को अपने बछड़े से कम प्यार होता है क्या? नहीं होता, तब फिर बताओ इस मनुष्य भव में आकर ऐसा कौन सा अपूर्व काम कर लिया जो किसी अन्य भव में नहीं किया? जो आत्मा का स्वरूप जानेगा, पाप उसी के अच्छी तरह कटेंगे । एक बनावटी ढंग से या जबरदस्ती के ढंग से पाप छोड़ने से पाप न छूटेंगे और एक आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होने के बाद जो एक सहज वैराग्य जगता है उसके कारण जो पाप छूटते हैं वे मूल से पाप छूटते । जैसे किसी बच्चे से कोई कहे कि रे बच्चे तू क्रोध न करने का नियम ले-ले और वह कहे कि हम यह नियम न निभा पायेंगे, फिर भी कोई जबरदस्ती करे । मानो क्रोध के समय उसके मुख में पानी भर दे, वह कुछ बोल न सके तो भी बताओ उसका क्रोध दूर हो गया क्या? हाँ इतनी बात तो है कि यह अंतर आ जायेगा कि वह अपने क्रोध की बात को मुख से बोल न पायेगा, जिससे लड़ाई न हो पायेगी, मगर भीतर में चाहें कि उसके क्रोध न रहे तो यह बात हो नहीं सकती, क्योंकि उसके मन में संस्कार तो बना ही है । उस संस्कार के कारण क्रोध तो उसे आयेगा ही । और, जिस समय उसको यह ज्ञान होगा कि मेरे आत्मा का स्वरूप कषाय करने का है ही नहीं, अविकार स्वरूप हूँ मैं, ज्ञानमात्र हूँ मैं, तो वह अपने ज्ञान की उपासना के बल से क्रोध को जड़ से उखाड़ फेंकता है । तो जबरदस्ती के त्याग से मूलत: पाप नहीं मिटते, किंतु आत्मा का ज्ञान होने पर फिर त्याग हो तो मूल से पाप मिटते हैं । फिर भी इतना फर्क हो सकता है कि किसी से जबरदस्ती भी मनाई की करें कि तुम छोड़ दो तो कुछ दिन को तो मान लो त्यागे रहा वह चीज, संकोचवश उसका ग्रहण वह न कर सका, मगर बाद में वह उसका ख्याल भूल सकता है और वह फिर उसी मार्ग में लग सकता है । तब भी वह सच मार्ग में तो तब लग सकता है जब कि उसको आत्मा का ज्ञान हो । इसलिए आत्मा का धन ज्ञान है, दूसरा कोई वास्तविक धन आत्मा का नहीं है ।
(115) सुख शांति का आधार विकारपरिहारक ज्ञानबल―सुख शांति से रहना है तो ज्ञान के बल से रहा जा सकता है, कोई दूसरा बल काम न देगा । मोक्ष में भी कोई जायेगा तो वह ज्ञान के बल से ही जायेगा, किसी दूसरे के बल से नहीं । जो बहुत तपश्चरण होते हैं―बैठ गए गर्मी में सर्दी में तो उन तपश्चरणों में आत्मा को ज्ञान में लीन होने का एक उपाय बनता है, मगर देह तपन से मोक्ष हो जाये सो बात नहीं । गर्मी में बैठकर तपश्चरण किया तो उस स्थिति में आत्मा को ज्ञान प्रेरणा मिलती है । विषयों से वैराग्य जगा उससे मोक्ष मार्ग मिला । सो भैया, करना तो सब पड़ेगा बाह्य व्यवहार चारित्र, मगर भीतर में अंतरात्मा में जोर देते हुए जो ज्ञान में चलेगा उसको मोक्ष की प्राप्ति होगी । जब ज्ञान ही नहीं है तो फिर क्या करेगा? इसलिए आत्मा का जैसे ज्ञान मिले, ज्ञान भी वास्तविक वह जो कि विषयविरतिसमृद्ध हो ऐसा ज्ञान मिले उस उपाय में लगना चाहिए और उसका उपाय क्या है? तो मुख्य उपाय उसके हैं दो―1-स्वाध्याय और 2-सत्संग । इन दो साधनों के सहारे से ज्ञान में चलने की प्रेरणा मिलेगी । इन दो साधनों से अपने आपको जीवन में बढ़ावे और ये जो बाहरी संग प्रसंग है घर द्वार, स्त्री पुत्रादिक ये तो मरने पर छूटेंगे ही, ये साथ तो देंगे नहीं आगे । ज्ञान और वैराग्य का जो संस्कार यहाँ बना लेंगे वह अपना साथ देगा । यहाँ के कोई भी बाहरी समागम साथ न देंगे । जब ऐसा तथ्य है तो कुछ अपने आप पर दया करके अपने हित के लिए कुछ सोचना चाहिए कि हम एकदम बाहर के पदार्थों में ही ध्यान लगा लगाकर जो अपना जीवन गुजार रहे हैं इससे मेरे को नुकसान ही होगा, फायदा कुछ नहीं, क्योंकि जिन बाहरी पदार्थों को हम अपना रहे वे कोई साथ न निभायेंगे । तो अपने सहज आत्मतत्त्व को पाने के लिए उन 5 पापों से विरक्त होना जरूरी है सो इन 5 पापों से विरक्त होने की बात इस सूत्र में कही जायेगी । भावहिंसा―किसी का बुरा न विचारें, किसी का बिगाड़ करने का यत्न न करें, किसी की झूठी बात न बोलें, किसी की चीज न चुरायें, किसी परस्त्री अथवा परपुरुष पर गंदे विचार न बनायें, बाह्य परिग्रहों की तृष्णा मत करें, इस प्रकार इन 5 प्रकार के पापों से जो विरक्त होना है उसे व्रत कह लीजिए । चारित्रमोहनीय के उपशम या क्षय या क्षयोपशम के निमित्त से होने वाले औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक चारित्र के आविर्भाव से जो एक विरतिभाव उत्पन्न होता है, विषयों से अत्यंत पृथक्पना होता है उसको विरति कहते हैं । व्रत नाम है संकल्पपूर्वक नियम करना, जैसे कि यह ऐसा ही है, यह ही है, यो ही करना चाहिए इस प्रकार के तीव्र आशय से जो अन्य बातों से निवृत्त होना है उसका नाम नियम है । तो दृढ़ संकल्प से किया हुआ शुभ प्रवर्तन सब जगह व्रत नाम पाता है ।
(116) बुद्धि से अपाय होने पर हिंसादिकों में ध्रुवत्व की विवक्षा के कारण प्रथम पद में अपादानकारकत्व की उपपत्ति―इस सूत्र में 3 पद हैं जिसमें प्रथम पद अपादानकारक में है याने इन पापों से । सो उसके विषय में यहाँ शंका होती है कि अपादान कारक वहाँ लगाया जाता है जहाँ वस्तु ध्रुव हो और उससे कोई चीज अलग होती हो । तो जब हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये पाप ध्रुव तो हैं नहीं, ये तो खोटे परिणाम हैं, अध्रुव हैं, क्षण में होते हैं, विलीन होते हैं, तो जब क्षणिक हैं वे तो उनसे कुछ अपाय न हुआ इस कारण अपादान कारक यहाँ न लगाना चाहिए । यदि कोई इस शंका का समाधान यह करे कि हिंसा आदिक पापों में परिणत आत्मा ही हिंसा आदिक नाम पाता है क्योंकि हिंसा आदिक आत्मा के परिणाम हैं, सो वे कुछ आत्मा से अलग वस्तु नहीं है, तो यों पर्यायदृष्टि करने से हिंसा आदिक में ध्रुवपने की कल्पना कर ली जायेगी और इस प्रकार उनसे विरति करना व्रत है यह अर्थ बन जायेगा । सो कहते हैं कि इस प्रकार भी अपादान कारक नहीं बनता, फिर कैसे बनता है कि बुद्धि में उन्होंने हिंसा आदिक पापों को एक मान लिया कुछ ध्रुव के ढंग का, फिर उससे विरति हुई, यों अपादानकारक हो जायेगा । हिंसा आदिक परिणामों को आत्मा ही मानकर अपादान न बन सकता था क्योंकि आत्मा तो नित्य है, हिंसा आदिक अनित्य हैं मगर बुद्धि में किसी चीज को ध्रुव रूप से कल्पना करके अपादान कारक बन जाता है । जैसे यह कहना कि यह धर्म से विरक्त होता है । कोई पुरुष धर्म को नही मानता तो उसको कहते हैं कि यह तुच्छ बुद्धि वाला मनुष्य धर्म से विरत रहता है, तो ऐसा वाक्य बोलने में धर्म शब्द में पंचमी विभक्ति आ गई है । अपादान बन गया, कैसे कि उसकी बुद्धि में धर्म के प्रति यह भाव जग रहा कि धर्म तो दुष्कर है, कठिनाई से किया जाता है और फल भी इसका श्रद्धा मात्र गम्य है । इस तरह से एक धर्मभाव के प्रति बोलने के मुड़ में ध्रुवत्व की कल्पना करना, उसमें इदं का प्रयोग करके ध्रुव मानकर अपादान कारक बना लिया जाता है, इसी प्रकार इन हिंसा आदिक परिणामों के प्रति ऐसी बुद्धि हुई । यह बुद्धिमान मनुष्य यों देखता है कि ये हिंसा आदिक परिणाम पाप के कारण हैं और पापकर्म में प्रवृत्ति करने वाले पुरुष को यहाँ भी राजा लोग दंड देते हैं और वह परलोक में नाना प्रकार के दुःख प्राप्त करता है । सो अपनी बुद्धि से ऐसा उसे पा करके उसे मानो ध्रुवरूप मानकर उससे बात करके यों ध्रुव समझकर वहाँ से अपादान बन जाता है तो बुद्धि के द्वारा ही इसमें ध्रुवपने की विवक्षा होने से अपादानपना इस सूत्र के प्रथम पद में बन गया ।
(117) अहिंसा व्रत की प्रधानता होने से अहिंसाव्रत का प्रथम निर्देशन एवं विरति की सामान्यैकरूपता―अब इन 5 नामों में सबसे पहले अहिंसा व्रत कहा है । सो सबसे पहले कहने का प्रयोजन यह है कि अहिंसा व्रत प्रधान है । शेष के जो चार व्रत हैं―सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह सो ये भी अहिंसा का पालन करने वाले ही हैं । जैसे कि खेती में मुख्य बात है अनाज पैदा करने की । उसका ही पालन किया जाता है, उसकी ही प्रधानता है, पर बाड़ जो लगायी जाती है वह उस अनाज की रक्षा के लिए लगायी जाती है, ऐसे ही मोक्षमार्ग में चलने के लिए, उसके पालन के लिए, उसको निर्दोष निभाने के लिए सत्य आदिक व्रत कहे गए हैं । इस सूत्र में विरति शब्द दिया गया है, उसका प्रत्येक के साथ योग किया जायेगा । जैसे हिंसा से विरति, झूठ से विरति, चोरी से विरति, अब्रह्मचर्य से विरति और परिग्रह से विरति । यहाँ विरति शब्द सबके साथ लगाया गया, ऐसा सुनकर एक शंकाकार कहता है कि जब विरति अनेक हो गईं, 5 पापों से विरतियां कराई गई तो विरति शब्द में बहुवचन का प्रयोग होना चाहिए था, एकवचन का प्रयोग क्यों कहा गया है? जैसे कि गुड़, तेल, चावल आदिक पकाये जाने योग्य हैं, उनके भेद से विकास के भेद कर दिए जाते हैं । जैसे कहते हैं कि दो पाक हो गये, तीन पाक हो गये, ऐसे ही छोड़ने योग्य जो हिंसा आदिक भेद हैं उनसे जो त्याग कराया गया है सो भेदविवक्षा उत्पन्न हो गई इस कारण विरति शब्द को बहुवचन में प्रयुक्त करना चाहिए? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि ऐसी आशंका न करना, क्योंकि यहाँ पर उन 5 पापों के विषय से विरक्त होना, इससे कोई सामान्य को ही ग्रहण करना है । इस विषय के भेद से विरति में भी भेद है ऐसी विवक्षा नहीं है । यहाँ जैसे कि गुड़, तेल, चावल आदिक का पाक होता है यहाँ सामान्य की जब विवक्षा होती है तो पाक शब्द में भी तो एक वचन कर लिया जाता है, तो ऐसे ही 5 पापों से वैराग्य होता है तो उस वैराग्य सामान्य की विवक्षा है इस कारण विरति शब्द में एकवचन लगाना न्याययुक्त है । इस ही कारण सर्वसावद्यनिवृत्तिरूप सामायिक की अपेक्षा व्रत एक है और जब भेद की विवक्षा करें तो वह व्रत 5 प्रकार का है ।
(118) व्रतों के परिस्पंददर्शन के कारण संवररूपपना न होकर व्रती की संवरपात्रता होने के कारण संवरपरिकर्मपना―यहां शंकाकार कहता है कि इन व्रतों का अर्थात् 5 पापों से निवृत्त होना व्रत है, इस बात का आस्रव के प्रकरण में बोलना अनर्थक है, क्योंकि इसका तो संवर में अंतर्भाव हो जायेगा, सो जब संवर तत्त्व का अध्याय चलेगा तो उसमें यह स्वयं आ ही जाता है और कोई यदि ऐसा समाधान करने की कोशिश करे कि यह तो केवल कहने मात्र की बात है कि व्रतों का अंतर्भाव हो जाता है, तो सुनो―संवर के अध्याय में दस धर्मों का वर्णन आता है उन क्षमा आदिक दस धर्मों में एक संयमधर्म भी है । उस उत्तम संयम में अहिंसा आदिक पांचों व्रतों का अंतर्भाव हो जाता है या सत्य आदिक धर्म हैं उनमें अंतर्भाव हो जाता है । फिर यहाँ आस्रव के प्रकरण में कहना अनर्थक है । यदि कोई ऐसा समाधान दे कि भले ही संयम में अंतर्भाव हो जाता है पर यह व्रत का विस्तार बता दिया, संयम किस प्रकार से होता है उसके विस्तार में यहाँ कथन कर दिया तो यह भी उत्तर उनका ठीक नहीं है, क्योंकि संयम में जिसका अंतर्भाव है उसका यदि विस्तार करना है तो विस्तार वहां ही किया जा सकता है जिसमें कि इसका अंतर्भाव है, पर संवर का प्ररूपण करने वाले अध्याय में ये व्रत बताये जाते, यों संयम में अंतर्भाव माना जा रहा है, सो यहाँ व्रतों का कहना अनर्थक रहा ना । अब उक्त शंका के समाधान में कहते हैं कि ये जो 5 व्रत हैं ये संवर नाम नहीं पा सकते, क्योंकि इन व्रतों में परिस्पंद देखा जाता है, कोई प्रवृत्ति देखी जाती है । अशुभ से हटकर शुभ में प्रवृत्ति हो रही यह बात व्रतों में पायी जाती और संवर में परिस्पंद का भाव रहता है । कोई मनुष्य आरंभ का त्याग करता है तो इसके मायने है सत्य बोलता है, चोरी का त्याग किया, बिना दी हुई चीज का ग्रहण करना छोड़ दिया, मतलब दिया हुआ ही ग्रहण करता है । तो इस तरह इन 5 व्रतों में परिस्पंद पाया जा रहा है इस कारण से इसका संवर में अंतर्भाव नहीं होता । यह आश्रवरूप है, और है शुभ आस्रव, मगर संवररूप नहीं बन पाते हैं । दूसरी बात यह है कि गुप्ति आदिक संवरों का वर्णन आगे किया जायेगा, उससे इन व्रतों को भी संवरार्थ समझ लीजिए । याने व्रत विधान करके ऐसी पात्रता उत्पन्न की गई कि अब वे गुप्ति आदिक संवर को कर सकेंगे इस कारण से इन व्रतों का पृथक वर्णन करना सही है ।
(119) रात्रिभोजनविरति का अहिंसाव्रत में अंतर्भाव―एक शंकाकार कहता है कि रात्रिभोजन से विरति होना यह भी तो एक व्रत है और छठवां अणुव्रत है, इस नाम से कहीं कथन भी किया जाता है सो उस रात्रिभोजनविरति का भी इस सूत्र में नाम दिया जाना चाहिए था । जैसे हिंसा से विरति, झूठ से विरति आदिक कहा गया ऐसे ही रात्रिभोजन से विरति यह भी कहना चाहिए । तो इसके उत्तर में कहते हैं कि रात्रिभोजनविरति का अहिंसा व्रत की भावना में अंतर्भाव हो जाता है । कोई प्रश्न कर सकता है कि भावनाओं में तो रात्रिभोजनविरति का नाम नहीं दिया गया । भावना भी प्रत्येक व्रत की 5-5 कही गईं, किंतु वहाँ किसी भी व्रत की भावना में रात्रिभोजनविरति नहीं दिया गया । तो शंंका यों न करना चाहिए कि अहिंसा व्रत की भावनाओं में आलोकितपानभोजन ये शब्द दिये गए हैं, सो आलोकितपानभोजन का क्या अर्थ है? देख करके भोजन करना । सो इस शब्द से ही रात्रिभोजनविरति की बात आ जाती है, क्योंकि रात्रि में अंधकार रहता है, वहाँ भोजन आदिक साफ दिखाई नहीं दे सकते इसलिए उसका त्याग स्वयं ही बन गया । इस पर एक प्रश्नकर्ता कहता है कि अगर दीपक आदिक जला दिए जाये, प्रकाश किया जाये तो रात्रि में भी देख करके भोजनपान हो जायेगा, जैसे कि देखकर भोजन करने की दृष्टि से दिन में भोजन करना बताया जा रहा है तो दीपक हंडा आदिक का जहाँ अच्छा प्रकाश हो वहाँ भी तो भोजनपान सब दिखता है । तब रात्रि में भोजन कर लिया जाना चाहिए? तो यह प्रश्न भी ठीक नहीं है, क्योंकि दीपक आदिक करने पर अनेक आरंभ के दोष आते हैं । अग्नि आदिक का साधन जुटाना आदिक दोष होते हैं, तो इस पर फिर वही प्रश्नकर्ता कहता है कि यदि दूसरा कोई पुरुष दीपक जला दे और इस तरह उसका आरंभ किए बिना दीपक का उजेला मिल जाये तब तो रात्रिभोजन कर लिया जाना चाहिए वहाँ तो दोष न होता होगा? तो इसके उत्तर में कहते हैं कि यह भी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ भली प्रकार आना जाना आदिक असंभव हैं । हां सूर्य के प्रकाश से, अपने ज्ञान के प्रकाश से, इंद्रिय के प्रकाश से जो मार्ग अच्छी तरह से परीक्षित है, दूर तक देखा जा सकता है, ऐसे देश और काल में चर्या करके साधु लोग आहार लेवें ऐसे आगम में उपदेश किया गया है, यह विधि रात्रि में तो नहीं बनती है, रात्रि में तो मलिनता बनती है, रात्रि में आने जाने का कार्य भी नहीं बन सकता हे अतएव रात्रि में भोजनपान करना आलोकितभोजनपान में नहीं आता ।
(120) दिन में लाकर रात्रि में भोजन करने पर भी अनेक पापारंभों की विडंबना―अब यहां वही प्रश्नकर्ता कहता है कि दिन में तो भोजन ला दिया जाये और रात्रि में भोजन कर लिया जाये, इसमें तो आरंभ नहीं हुआ । तो इसके उत्तर में भी यही समझना कि प्रदीप आदिक का समारंभ तो हो ही गया और यह संयम का साधन नहीं है कि ला करके भोजन करना । संयमी जीव जो कि परिग्रहरहित है, हस्तपात्र में ही जो आहार लेता है उसको कहीं से भोजन लाना कैसे संभव हो सकता? यदि कुछ पात्र रख लिए जायें तो उसमें अनेक पाप लगते हैं । एक तो दीनता का भाव होता सो दीन चर्या बन जाने से फिर तो निवृत्ति परिणाम संभव ही नहीं हो सकता । जिसके अति दीनवृत्ति आ गई उसके पूर्ण निवृत्ति के परिणाम नहीं हो सकते, क्योंकि सर्व पापों का जहाँ त्याग किया गया वहां उस पात्र को जब ग्रहण कर लिया, बर्तन रख लिया तो पात्र का परिग्रह तो रहा ही रहा, पात्र से लाकर परीक्षा करके भोजन भी करे कोई तो उस साधु को लाना, धरना, अलग करना आदिक से होने वाले गुण दोष भी तो सोचने पड़ते हैं और जो आहार लाया गया उसके लाने में भी और छोड़ने में भी अनेक दोष होते हैं । तो जैसे सूर्य में प्रकाश में सर्व पदार्थ स्पष्ट दिखते हैं दाता, भूमि, जल, भोजन पान, गिरना रखना आदिक, उस तरह से रात्रि को चंद्र के प्रकाश में नहीं दिखते, इस कारण दिन में ही भोजन करना निर्दोष आचरण है । यह रात्रिभोजन का त्याग अहिंसा व्रत की आलोकितपानभोजन नाम की भावना में अंतर्भूत हो जाता है ।
(121) प्रसंगविवरण―उक्त प्रकार व्रत 5 रहे । 5 पापों के त्याग में 5 व्रत हुए । ये पांचों व्रत शुभभाव हैं और शुभभाव होने से शुभास्रव के कारण हैं । 7वें अध्याय में शुभ आस्रव की बात कही जा रही है । जैसे पहले अध्याय में ज्ञान के उपाय बताये गए तो दूसरे तीसरे चौथे अध्याय में जीवतत्त्व का वर्णन हुआ । तो छठवें और 7वें अध्याय में आस्रव तत्त्व का वर्णन है । छठवें अध्याय में तो आस्रव का सामान्य कथन है । उसमें जुदे-जुदे शुभ अशुभ की बात की गई है, उसका मात्र संकेत ही दिया गया है । 7वें अध्याय में शुभ आस्रव की बात कही जा रही है । इस प्रकार 5 पापों से विरक्त होना व्रत है यह इस सूत्र का तात्पर्य हुआ । सप्तम अध्याय के इस प्रथम सूत्र में सामान्यतया 5 प्रकार के विषयों से विरक्ति होनेरूप व्रत का कथन है । सो वे समस्त व्रत विरति के आश्रय की विवक्षा में दो ही प्रकार बन सकते हैं कि या तो वहाँ पूरी विरक्ति है या थोड़ी विरक्ति है । सो उन ही दो प्रकारों को अब सूत्र में बताते हैं ।