तत्वार्थ सुत्र अध्याय ८ भाग ८
#2

क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन

ततश्च निर्जरा ।।8-23।।

साधारण निर्जरा का वर्णन―पहले बँधी हुई कर्म प्रकृतियों के परित्याग का नाम निर्जरा है, जिन कर्म प्रकृतियों का बंध हुआ था वे अंत में निकलते समय आत्मा को पीड़ा अथवा अनुग्रह देकर आत्मा से झड़ जाती है अर्थात् वे कर्मरूप नहीं रहतीं । जैसे कि जो भी भोजन किया वह भोजन अपनी स्थिति तक पेट में रहता है, पीछे निकलकर नि:सार हो जाता है, मलरूप में अलग हो जाता है इसी तरह कर्मप्रकृतियां स्थिति को पूर्ण करने पर फल दे करके नि:सार हो जाती हैं । वह निर्जरा दो प्रकार की कही गई―(1) विपाकजा और (2) अविपाकजा । इस संसार मोहसमुद्र में जहाँ चारों गतियों में जीव भ्रमण कर रहा है उस परिभ्रमण करने वाले जीव के शुभ और अशुभ कर्म का विपाक होने पर या उदीरणा होने पर वह फल दे करके झड़ जाये इसको कहते हैं विपाकजा निर्जरा । जैसी भी उन कर्मों में फलदान शक्ति है, सातारूप हो, असातारूप हो उसके उस प्रकार से अनुभाग किये जाने पर स्थिति के क्षय से वे सब कर्म झड़ जाते हैं । सो यह विपाकजा निर्जरा संसारी जीवों के अनादिकाल से चल रही है । इस निर्जरा से तो इस जीव ने कष्ट ही पाया, इससे इसको मुक्ति का मार्ग नहीं मिल पाता । दूसरा है अविपाकजा निर्जरा । किसी कर्मप्रकृति की स्थिति तो पूरी नहीं हो रही, परस्थिति पूरी होने से पहले ही ज्ञानबल से, पुरुषार्थ से, तपश्चरण से उस प्रकृति को ही उदीरणा में लेकर उदयावलि में प्रवेश कराकर उसका फल जब भोगा जाता है तो वह अविपाकजा निर्जरा कहलाती है । जैसे आम का फल अपनी स्थिति पर स्वयं डाल में पक जाता है किंतु किसी आम्रफल को पकने से पहले ही गिरा दिया जाये और उसे भूसा, मसाला आदि में रखकर पका लिया जाये तो पहले ही पका दिया, इसी प्रकार कर्मप्रकृतियाँ पहले ही खिरा दी गई, इसे अविपाक निर्जरा कहते हैं ।

प्रकृतसूत्रसंबंधित कुछ शब्दानुशासित तथ्यों पर प्रकाश―इस सूत्र में च शब्द दिया है जिससे दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि निर्जरा स्थिति पूर्ण होने पर भी होती है और तपश्चरण आदिक के बल से भी होती है । यहाँ शंकाकार कहता है कि 9वें अध्याय में संवर के प्रकरण में सूत्र आयेगा निर्जरा बताने वाला । सूत्र में यह भी जोड़ दिया जाये अथवा संवर यह शब्द जोड़ दिया जाये तो एक सूत्र न बनाना पड़ेगा । इसके उत्तर में कहते हैं कि यहाँ इस सूत्र में लिखने से लाघव होता है । अगर आगे इस निर्जरा शब्द में ग्रहण करते तो वहाँ फिर से विपाकोनुभव: इतना शब्द और लिखना पड़ता । यहाँ शंकाकार का एक अभिप्राय यह है कि जैसे पुण्य और पाप को पृथक् ग्रहण नहीं किया, क्योंकि पुण्य और पाप का बंध में अंतर्भाव कर लिया, उसी प्रकार निर्जरा का भी बंध में अंतर्भाव कर लिया जाये अर्थात् अनुभवबंध में निर्जरा का अंतर्भाव कर लिया जाये तो निर्जरा का फिर पृथक् ग्रहण न करना पड़ेगा । इसका समाधान यह है कि यहाँ अनुभव का अभी शंकाकार ने अर्थ नहीं समझा । फल देने की सामर्थ्य का नाम अनुभव है, और फिर अनुभव किया गया पुद्गल का जिनमें कि शक्ति पड़ी थी, उनकी निवृत्ति हो जाना निर्जरा है । अनुभव में और निर्जरा में अर्थभेद है, इसी कारण सूत्र में ततः शब्द दिया है पंचमी अर्थ में, अर्थात् अनुभव से फिर निर्जरा होती है । यही शंकाकार कहता है कि लाघव के लिए इस ही सूत्र में तपसा शब्द और डाल दिया जाये तो सूत्र बन जायेगा ततोनिर्जरा तपसा च और फिर आगे सूत्र न कहना पड़ेगा । समाधान―सूत्र दोनों जगह कहना आवश्यक है । यहाँ तो विपाक भोगने की मुख्यता से वर्णन चल रहा है । कर्म उदय में आये, स्थिति पाकर झड़े, फल देकर निकले, इसका नाम निर्जरा है । साथ ही तप से भी निर्जरा होती है, ऐसा बताने के लिए च शब्द जोड़ दिया और 9वें अध्याय के संवर के प्रकरण में जो तपसा निर्जरा च सूत्र आया है उसकी मुख्यता संवर में है । तो तप से संवर होता है और निर्जरा भी होती है । तो संवर की प्रधानता बताने के लिए वहां भी सूत्र कहना आवश्यक है ।

नवम अध्याय के संवर प्रकरण में निर्जरासंबंधित सूत्र को पृथक् कहने के तथ्यों पर प्रकाश―यहां फिर शंका होती है कि आगे क्षमा, मार्दव आदिक दस लक्षण धर्म कहे गए हैं, उनमें तप भी आया है । उत्तम तप भी तो धर्म का अंग है और तप में ध्यान आता है सो यह उत्तम तप संवर का कारण हो गया, सो आगे खुद कहेंगे । तो तप से संवर होता है यह बात अपने आप उससे ही सिद्ध हो जायेगी । और यही जो सूत्र बनाया है सो निर्जरा का कारण बताया है कि निर्जरा सविपाक निर्जरा अविपाक निर्जरा दो प्रकार की होती है―फल देकर झड़े वह भी निर्जरा है । तो वह सब बात युक्ति से ठीक हो जाती है । शंका―तब आगे 9वें अध्याय में तप को ग्रहण करना निरर्थक है । उत्तर―कहते हैं कि वहां पुन: तप को ग्रहण करके पृथक् सूत्र बनाया सो प्रधानता बताने के लिए बनाया गया । जितने संवर और निर्जरा के कारण हैं उन सब कारणों में तप प्रधान कारण है । क्षमा, मार्दव आदिक सभी कारण बताये गए । गुप्ति, समिति आदिक सभी बताये गए हैं मगर संवर के कारणों में तप की प्रधानता है और तब ही रूढ़ि में भी यही बात है कि तपश्चरण करने से मोक्ष होता है । संवर होता है, निर्जरा होती है इसी कारण इस प्रकृत सूत्र में तप का शब्द रखने से गारव हो जाता है याने शब्द अधिक बढ़ जाते हैं । जरूरत नहीं होती इसलिए इस सूत्र में तप शब्द को ग्रहण नहीं किया किंतु च शब्द से तप को गौणरूप में लिया, क्योंकि यह अनुभाग बंध का प्रकरण है ।

घातिया कर्म की प्रकृतियों की मूल विशेषतावों का वर्णन―वे कर्मप्रकृतियां दो प्रकार की होती हैं―(1) घातिया कर्म, (2) अघातिया कर्म । जो आत्मा के गुणों को पूरी तरह से घात दे सो तो घातियाकर्म है और जो गुणों को तो न घाते किंतु गुणों के घातने वाले कर्म के सहायक बनें, नोकर्म सत् बनें उन्हें अघातिया कर्म कहते हैं । घातिया कर्म 4 हैं―(1) ज्ञानावरण, (2) दर्शनावरण, (3) मोहनीय और (4) अंतराय । ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञानगुण को घातता है । दर्शनावरण आत्मा के दर्शन गुण को घातता है । मोहनीय कर्म आत्मा के सम्यक्त्व गुण व सम्यक्चारित्र व आनंद गुण को घातता है । अंतरायकर्म आत्मा की दान आदिक शक्तियों का उपघात करता है । घातियाकर्म भी दो प्रकार के हैं―( 1) सर्वघाती और (2) देशघाती । सर्वघाती प्रकृतियाँ उन्हें कहते हैं जिनके उदय से उस गुण का पूरा घात हो जिस गुण का आवरण करने वाला सर्वघाती है । ये सर्वघाती प्रकृतियाँ 20 होती हैं―केवलज्ञानावरण―यह प्रकृति केवलज्ञान का घात करती है । निद्रानिद्रा―इस प्रकृति के उदय से दर्शनगुण का घात होता है । प्रचलाप्रचला―स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, केवलदर्शनावरण―इन प्रकृतियों के उदय से आत्मा के दर्शनगुण का घात होता है । 12 कषायें― अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, ये 12 प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं । अनंतानुबंधी के उदय से सम्यक्त्व गुण का घात होता है और पूरा ही घात होता है तब ही सर्वघाती हैं याने रंच भी सम्यक्त्व प्रकट नहीं हो सकता । अप्रत्याख्यानावरण के उदय में अणुव्रत का घात होता है । रंच भी अणुव्रत नहीं हो सकता । प्रत्याख्यानावरण के उदय में महाव्रत का घात होता है अर्थात् रंच भी महाव्रत नहीं हो सकता, और दर्शनमोहनीय भी सर्वघाती प्रकृति है, इससे सम्यक्त्व गुण प्रकट नहीं होता । इस प्रकार सर्वघाती प्रकृतियां 20 हैं―देशघाती प्रकृति इस प्रकार है । ज्ञानावरण की 4, मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मन:पर्ययज्ञानावरण, इनका क्षयोपशम होता है और क्षयोपशम के समय वह ज्ञान व्यक्त होने से रह जाता है, परंतु कुछ रहता है, क्योंकि यह सर्वघाती प्रकृति नहीं है । दर्शनावरण की तीन प्रकृतियां―चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण, इनके क्षयोपशम में कुछ ज्ञान होता है कुछ नहीं रहता । अंतराय की 5 प्रकृतियाँ इनका क्षयोपशम होता है । कुछ दानशक्ति प्रकट है कुछ नहीं प्रकट है, कुछ लाभ शक्ति प्रकट है कुछ नहीं, इस कारण वे देशघाती संज्वलन की चार कषायें, इनके रहते हुए संयम नहीं बिगड़ता, फिर भी संयम में कमी रहती है जिससे यथाख्यातचारित्र नहीं बनता । 9 नो कषाय ये भी देशघाती प्रकृति हैं । इनके काल में भी कुछ ज्ञान रहता, कुछ नहीं रहता । ये घातियाकर्म की प्रकृतियां हैं ।

अघातिया कर्मों की प्रकृतियों की मूल विशेषतायें―घातिया प्रकृतियों के सिवाय शेष बची सब अघातिया कर्म की प्रकृतियां हैं । वहां यह विभाग जानना चाहिए कि कुछ नामकर्म की प्रकृतियां पुद्गल में फल देती हैं और उनको पुद्गल विपाकी प्रकृति कहते हैं । ऐसी प्रकृति शरीर नामकर्म से लेकर स्पर्श पर्यंत तो पिंड प्रकृतियां हैं । शरीर, बंधन, संघात, संस्थान, संहनन, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श ये नामकर्म की प्रकृतियाँ पुद्गल विपाकी हैं याने इनके उदय में फल पुद्गल पर पड़ता है याने कुछ प्रभाव पुद्गल पर आता है । शरीरनामकर्म के उदय से शरीर की ही तो रचना हुई, पुद्गल में ही तो फल मिला । ऐसे ही सबका अर्थ समझिये―और उनके अतिरिक्त अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ निर्माणनामकर्म, ये सब पुद्गल विपाकी प्रकृतियाँ हैं, इनका असर पुद्गल में होता है । कर्मप्रकृतियों में क्षेत्रविपाकी प्रकृतियां चार हैं―(1) आनुपूर्वी वाली, क्योंकि आनुपूर्वी के उदय में विग्रहगति में पूर्ण आकार रहता है । तो मरण के बाद जन्म लेने के पहले जो विग्रहगति का क्षेत्र है उस क्षेत्र में इसका फल मिला कि पूर्व शरीर के आकार रहे । आयुकर्म भवविपाकी प्रकृति है । नरकायु के उदय में नरकभव में उत्पन्न होता, तिर्यक् आयु के उदय में तिर्यंच भव में उत्पन्न होता, ऐसे ही सबकी बात जानना । चूंकि भव पर प्रभाव करने वाली हैं ये प्रकृतियां, इस कारण चारों आयुकर्म भवविपाकी प्रकृति हैं । कुछ प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं याने जीव में फल देने के कारणभूत हैं । जैसे गति, जाति इनमें उत्पन्न होने से जीव अपने आपमें ही कमजोरी महसूस करता और अपने में ही अपना अनुरूप भाव करता है । सो ये जीवविपाकी प्रकृतियां हैं । इस तरह अनुभाग बंध का वर्णन किया ।


 सम्यक्त्वरहित गुणस्थानों में उदययोग्य प्रकृतियों का निर्देश―अनुभागबंध से बंधी हुई प्रकृतियां अपनी स्थिति पूर्ण करनेपर या कदाचित् पहले उदय में आने पर इसका फल मिलता है, जिसे कहते हैं कर्म उदय में आयेंगे और फल मिलेगा । सो इन 148 प्रकृतियों का भी उदय हो सकता है, एक साथ सबका उदय नहीं होता, क्योंकि अनेक प्रकृतियां सप्रतिपक्ष हैं । अब उन 148 प्रकृतियों में 10 तो बंधन और संघात के गर्भित किया और 20 स्पर्शादिक प्रकृतियों में 4 मूल रखकर 16 ये कम किया तो यों 26 कम हो जाने से उदय योग्य प्रकृतियों की गणना, चर्चा 122 प्रकृतियों में की जाती है । इन 122 उदययोग्य प्रकृतियों में इस प्रथम गुणस्थान में 117 प्रकृतियों का उदय रहता है । जब मिथ्यादृष्टि कहा तो सभी प्रकार के मिथ्यादृष्टि ग्रहण कर लेते, चाहे वे यथासंभव किसी मार्गणा के हों, प्रथम गुणस्थान में तीर्थंकर आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति इन 5 प्रकृतियों का उदय नहीं होता । इसके आगे उदय हो सकेगा, इसलिए इसको अनुदय में शामिल किया । और पहले गुणस्थान में 5 प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति होती है । वे 5 प्रकृतियां हैं―मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण । इनका अब इसके आगे के किसी भी गुणस्थान में उदय न हो सकेगा । अतएव इसका नाम है उदयव्युच्छित्ति । यहाँ एक बात और विशेष समझना कि प्राय: जिस गुणस्थान में जिन प्रकृतियों का बंध नहीं कहा गया तो मरकर वह जिस गति में न जायेगा वैसा उदय न आ पायगा, ऐसा समन्वय होता है । तो प्रथम गुणस्थान के उदययोग्य 117 प्रकृतियों में पहले 5 अनुदय की और 5 उदयव्युच्छित्ति के हटने से तथा नरकगत्यानुपूर्वी का उदय न होने से 11 प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं । इस प्रकार दूसरे गुणस्थान में 111 प्रकृतियों का उदय होता है । दूसरे गुणस्थान में 9 प्रकृतियों को उदयव्युच्छित्ति होती है । वे 9 प्रकृतियाँ हैं―अनंतानुबंधी चार, एकेंद्रिय, स्थावर, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय इनका उदय आगे के गुणस्थानों में न आयेगा । इससे सिद्ध है कि इसका उदय दूसरे गुणस्थान से रहता है । तब ही तो एकेंद्रिय जीव के दो गुणस्थान बताये गए । भले ही पंचेंद्रिय जीव दूसरे गुणस्थान में मरकर एकेंद्रिय में जाये तो उसके अपर्याप्त में दूसरा गुणस्थान मिलेगा, पर मिला तो सही । यही बात दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय जीवों में अपर्याप्त अवस्था में इसका दूसरा गुणस्थान हो सकता है । मिश्र में दूसरे गुणस्थान में उदय वाली 111 प्रकृतियों में से 9 प्रकृतियाँ कम हो गई तब 102 बचनी चाहिएँ, लेकिन तीसरे गुणस्थान में किसी भी आनुपूर्वी का उदय नहीं होता, क्योंकि इस गुणस्थान में मरण नहीं है, अतएव आनुपूर्वी तो तीन कम हो गए । नरकगत्यानुपूर्वी अनुदय के कारण दूसरे के गुणस्थान में भी न थी और सम्यग्मिथ्यात्व का उदय बन गया । इस प्रकार 100 प्रकृतियाँ तीसरे गुणस्थान में उदय में रहती हैं ।

 प्रमत्त सम्यग्दृष्टियों में उदययोग्य प्रकृतियों का निर्देश―तीसरे गुणस्थान में उदयव्युच्छित्ति एक सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की होती है तो 100 में एक कम करने से 99 हुए और यहाँ चार आनुपूर्वी व सम्यक्प्रकृति के उदय में आने लगे, इस तरह 5 प्रकृतियां उदय में बढ़ जाने से 104 प्रकृतियाँ हो जाती हैं । 

चौथे गुणस्थान में 17 प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद होता है । वे 17 प्रकृतियाँ ये है―अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, वैक्रियक शरीर, वैक्रियक अंगोपांग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, देवायु, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय, और अयशकीर्ति । तो चौथे गुणस्थान के उदय वाली उन 104 प्रकृतियों में से 17 कम हो जाने से 87 प्रकृतियों का उदय 5वें गुणस्थान में होता है । 

5वें गुणस्थान में उदय व्युच्छेद 8 प्रकार का है, वह है प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, तिर्यगायु, उद्योत, नीच गोत्र, तिर्यग्गति । यों 5वें गुणस्थान की 87 उदय वाली प्रकृतियों में से 8 प्रकृतियां घट जाने से तथा आहारक की दो उदय होने से 81 प्रकृतियों का उदय होता है ।

 प्रमादरहित गुणस्थानों में उदययोग्य प्रकृतियों का निर्देश―छठे गुणस्थान में उदयव्युच्छेद 5 प्रकृतिका है, वह है आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग, स्त्यानगृद्धि, निद्रा निद्रा, प्रचलाप्रचला । यों 81 में से प्रकृतियां घट जाने से 76 प्रकृतियों का उदय 7वें गुणस्थान में होता है । 


7वें गुणस्थान में 4 प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद होता है―सम्यक् प्रकृति, अंत के तीन संहनन । सो 76 में से चार घटाने से 8वें गुणस्थान में 72 प्रकृतियों का उदय है ।

8वें गुणस्थान में उदयव्युच्छेद 6 प्रकृतियों का है । वे हैं 6 नोकषाय हास्यादिक । उनके घटने से 66 प्रकृतियों का उदय 9वें गुणस्थान में रहता है । 

9वें गुणस्थान में 6 प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद है । नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया, ये 6 प्रकृतियां घट जाने से 

10वें गुणस्थान में 60 प्रकृतियों का उदय रहा । 10वें गुणस्थान में एक संज्वलन लोभ का उदयव्युच्छेद है । उसके घटने से 11वें गुणस्थान में 59 प्रकृतियों का उदय रहा । 

11 वें गुणस्थान में दो प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद है । वज्रवृषभनाराचसंहनन व नाराचसंहनन इनके घटने से 12वें गुणस्थान में 57 प्रकृतियों का उदय रहा । 

12वें गुणस्थान में 16 प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद हैं । 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अंतराय, निद्रा और प्रचला । इन 16 के घटने से तथा तीर्थंकरप्रकृति का उदय बढ़ जाने से 

13वें गुणस्थान में 42 प्रकृतियों का उदय है । 13वें गुणस्थान में 30 प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद है । वे 30 हैं―वेदनीय की एक, पहला संहनन, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुस्वर, प्रशस्त, अप्रशस्त विहायोगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तैजस शरीर, तैजस अंगोपांग, संस्थान 6, वर्णादिक 4, अगुरुलघुत्व आदिक 4 और प्रत्येक । 

इन 30 के घटने से 14वें गुणस्थान में 12 प्रकृतियों का उदय रहा । यहाँ यह बात जाहिर होती है कि 13वें गुणस्थान में शरीरादिक की उदयव्युच्छित्ति हुई, तो इसके मायने हैं कि 14वें गुणस्थान में इसका उदय न होने से शरीर ही न कुछ की तरह है । अंत में शेष 12 प्रकृतियों का भी उदय खत्म होने से ये सिद्ध भगवान बन जाते हैं । यहाँ तक प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध का वर्णन किया । अब अंतिम प्रदेशबंध कहा जा रहा है । उसमें सर्वप्रथम इतने प्रश्न आयेंगे कि प्रदेशबंध किस कारण से होता है, कब होता है, कैसे होता है, किस प्रभाव वाला है, कहां होता है और कितने परिमाण में होता है? इन सब प्रश्नों का उत्तर देने वाले सूत्र को कहते हैं―
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