05-29-2023, 12:25 PM
अतोऽन्यत पापम् ।।8-26।।
पापप्रकृतियों के नामों का निर्देशन―पुण्यप्रकृतियों के सिवाय शेष की सब प्रकृतियां पापप्रकृतियां कहलाती हैं । ये पाप प्रकृतियाँ 82 हैं, ज्ञानावरण की प्रकृतियाँ 5, दर्शनावरण की प्रकृतियां 9, मोहनीयकर्म की प्रकृतियाँ 26, अंतराय कर्म की प्रकृतियां 5, ये समस्त घातिया कर्म पाप प्रकृतियां कहलाती हैं । यहां मोहनीयकर्म की 26 प्रकृतियां कही गई हैं । सो बंध की अपेक्षा वर्णन होने से 26 कही गई हैं । मोहनीय की कुल प्रकृतियां 28 होती हैं, जिनमें सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति उन दो प्रकृतियों का बंध नहीं होता । किंतु प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्रथम क्षण में मिथ्यात्व के टुकड़े होकर ये दो प्रकृतियां बनकर सत्ता में आ जाती हैं । इन घातिया कर्मों के अतिरिक्त अघातिया कर्मों में जो पापप्रकृतियां हैं उनके नाम ये हैं । नरकगति, तिर्यंचगति, एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चतुरिंद्रिय जाति, अंत के 5 संस्थान, अंत के 5 संहनन, अप्रशस्त वर्ण, अप्रशस्त गंध, अप्रशस्त रस, अप्रशस्त स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, अपघात, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति ये 34 नामकर्म की प्रकृतियां पापप्रकृतियां हैं । नामकर्म प्रकृतियों के अतिरिक्त असातावेदनीय, नरकायु, और नीचगोत्र ये भी पापप्रकृतियां हैं ।
प्रथम से सप्तम गुणस्थान तक में सत्त्वयोग्य प्रकृतियों का निर्देशन―सब प्रकृतियों का बंध होकर ये सत्ता में स्थित हो जाते हैं, सिर्फ सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्प्रकृति अन्य विधियों से सत्त्व में 148 प्रकृतियां मानी गई हैं उनमें से पहले गुणस्थान में 148 प्रकृतियों का सत्त्व रह सकता है । यह सब नाना जीवों की अपेक्षा कथन है । दूसरे गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति आहारक शरीर आहारक अंगोपांग इनका सत्त्व नहीं है । जिन जीवों के इनका सत्त्व होता है वे दूसरे गुणस्थान में आते ही नहीं हैं । इस प्रकार दूसरे गुणस्थान में 3 कम होने से 145 प्रकृतियों का सत्त्व है । तीसरे गुणस्थान में 147 प्रकृतियों का सत्त्व है । यहाँ तीर्थंकर का सत्त्व नहीं । चौथे गुणस्थान में 148 प्रकृतियां सत्व में पायी जा सकती है । 5वें गुणस्थान में 147 की सत्ता हैं । एक नरकायु का सत्त्वविच्छेद चौथे गुणस्थान में हो चुकता है । छठे गुणस्थान में 146 की सत्ता है । तिर्यंचायु का सत्त्वविच्छेद 5 वें गुणस्थान में हो जाता है । 7 वें गुणस्थान में स्वस्थान और सातिशय ऐसे दो भेद हैं, जिनमें स्वस्थान में 146 का सत्त्व हो सकता है परंतु सातिशय में यदि क्षपक श्रेणी पर जाने वाला जीव है तो उसके सम्यक्त्व घातक 7 प्रकृतियों का क्षय हो चुका है । इस कारण ये 7 प्रकृतियां एक देवायु, इनका सत्त्व न मिलेगा क्योंकि उसे मोक्ष जाना है । यदि वह उपशम श्रेणी पर चढ़ेगा तो उसके 146 प्रकृतियों का सत्त्व हो सकता है ।
आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक के सत्त्व वाली प्रकृतियों का निर्देशन―अब सप्तम गुणस्थान से ऊपर दो श्रेणियां हो गई । (1) उपशम श्रेणी और (2) क्षपकश्रेणी । उपशम श्रेणी में 146 प्रकृतियों का सत्त्व है, पर जो कोई जीव ऐसे हैं कि जिनके क्षायिक सम्यक्त्व तो है पर उपशम श्रेणी मारी है तो उसके 139 प्रकृतियों का सत्त्व रहेगा । क्षपक श्रेणी में 8 वें गुणस्थान वाले जीव के 138 प्रकृतियों का सत्त्व है । इनके 3 तो आयु नहीं हैं और 7 सम्यक्त्व घातक प्रकृतियां नहीं हैं । 9 वें गुणस्थान के पहले भाग में 138 प्रकृतियों का सत्त्व है । उस भाग में 16 प्रकृतियों क्षय हो जाता है । अत: 9वें के दूसरे भाग में 122 प्रकृतियों का सत्त्व है । 16 प्रकृतियों के नाम ये है―नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, उद्योत आतप, एकेंद्रिय, साधारण, सूक्ष्म व स्थावर । इन 16 प्रकृतियों का सत्त्व विच्छेद होने से नवमें गुणस्थान के दूसरे भाग में 122 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । इस दूसरे भाग में 122 प्रकृतियों का सत्व रहता है । इस दूसरे भाग में 8 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है । अत: तीसरे भाग में 114 प्रकृतियों का सत्व रहता है । ये 8 प्रकृतियां अप्रत्याख्यानावरण 4 और प्रत्याख्यानावरण 4 हैं । इस तीसरे भाग में नपुंसकवेद का क्षय हो जाने से चौथे भाग में 113 प्रकृतियों का सत्त्व है । यहां स्त्रीवेद का क्षय हो जाने से 5 वें भाग में 112 प्रकृतियों का सत्त्व है । इस भाग में 6 नोकषायों का क्षय हो जाने से 9वें गुणस्थान के छठे भाग में 106 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । इस भाग में पुरुषवेद का क्षय हो जाने से 7 वें भाग में 105 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । यहां संज्वलन क्रोध का क्षय हो जाने से 8वें भाग में 104 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । इस भाग में संज्वलन मान का क्षय होने से 9 वें भाग में 103 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । 9वें गुणस्थान के अंतिम भाग में संज्वलन माया का क्षय हो जाने से 10वें गुणस्थान में 102 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । दसवें गुणस्थान में संज्वलन लोभ का क्षय हो जाने से 12 वें गुणस्थान में 101 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । यहाँ 16 प्रकृतियों का क्षय हो जाने से 13 वे गुणस्थान में 85 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । ये 16 प्रकृतियाँ ये हैं―निद्रा, प्रचला, ज्ञानावरण की 5, अंतराय की 5, दर्शनावरण की 4 याने चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण व केवलदर्शनावरण । 14वें गुणस्थान में भी 85 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । यहाँ उपात्य समय में 72 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है वे 72 प्रकृतियाँ ये है―शरीरनामकर्म से स्पर्शनामकर्म पर्यंत 50, स्थिरिद्विक, शुभद्विक, स्वरद्विक, देवद्विक, विहायोगतिद्विक, दुर्भग, निर्माण, अयशकीर्ति, अनादेय, प्रत्येक अपर्याति, अगुरुचतुष्क, अनुदित वेदनीय 1, तथा नीच गोत्र । अयोगकेवली के अंतिम समय में 13 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । इनके क्षय होने पर ये प्रभु सिद्ध हो जाते हैं । इस प्रकार बद्ध प्रकृतियों की सत्ता का कथन हुआ ।
बंधपदार्थ का परिचयोपाय बताकर समाप्ति की अहम अध्याय की सूचना―यह बंधपदार्थ अवधिज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी व केवलज्ञानी आत्मा के द्वारा प्रत्यक्षगम्य है, वीतराग सर्वज्ञ आप्त द्वारा उपदिष्ट आगम द्वारा गम्य है व विपाकानुभव आदि साधनों से अनुमानगम्य है । इस प्रकार बंधपदार्थ का वर्णन इस अष्टम अध्याय में समाप्त हुआ ।
पापप्रकृतियों के नामों का निर्देशन―पुण्यप्रकृतियों के सिवाय शेष की सब प्रकृतियां पापप्रकृतियां कहलाती हैं । ये पाप प्रकृतियाँ 82 हैं, ज्ञानावरण की प्रकृतियाँ 5, दर्शनावरण की प्रकृतियां 9, मोहनीयकर्म की प्रकृतियाँ 26, अंतराय कर्म की प्रकृतियां 5, ये समस्त घातिया कर्म पाप प्रकृतियां कहलाती हैं । यहां मोहनीयकर्म की 26 प्रकृतियां कही गई हैं । सो बंध की अपेक्षा वर्णन होने से 26 कही गई हैं । मोहनीय की कुल प्रकृतियां 28 होती हैं, जिनमें सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति उन दो प्रकृतियों का बंध नहीं होता । किंतु प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्रथम क्षण में मिथ्यात्व के टुकड़े होकर ये दो प्रकृतियां बनकर सत्ता में आ जाती हैं । इन घातिया कर्मों के अतिरिक्त अघातिया कर्मों में जो पापप्रकृतियां हैं उनके नाम ये हैं । नरकगति, तिर्यंचगति, एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चतुरिंद्रिय जाति, अंत के 5 संस्थान, अंत के 5 संहनन, अप्रशस्त वर्ण, अप्रशस्त गंध, अप्रशस्त रस, अप्रशस्त स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, अपघात, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति ये 34 नामकर्म की प्रकृतियां पापप्रकृतियां हैं । नामकर्म प्रकृतियों के अतिरिक्त असातावेदनीय, नरकायु, और नीचगोत्र ये भी पापप्रकृतियां हैं ।
प्रथम से सप्तम गुणस्थान तक में सत्त्वयोग्य प्रकृतियों का निर्देशन―सब प्रकृतियों का बंध होकर ये सत्ता में स्थित हो जाते हैं, सिर्फ सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्प्रकृति अन्य विधियों से सत्त्व में 148 प्रकृतियां मानी गई हैं उनमें से पहले गुणस्थान में 148 प्रकृतियों का सत्त्व रह सकता है । यह सब नाना जीवों की अपेक्षा कथन है । दूसरे गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति आहारक शरीर आहारक अंगोपांग इनका सत्त्व नहीं है । जिन जीवों के इनका सत्त्व होता है वे दूसरे गुणस्थान में आते ही नहीं हैं । इस प्रकार दूसरे गुणस्थान में 3 कम होने से 145 प्रकृतियों का सत्त्व है । तीसरे गुणस्थान में 147 प्रकृतियों का सत्त्व है । यहाँ तीर्थंकर का सत्त्व नहीं । चौथे गुणस्थान में 148 प्रकृतियां सत्व में पायी जा सकती है । 5वें गुणस्थान में 147 की सत्ता हैं । एक नरकायु का सत्त्वविच्छेद चौथे गुणस्थान में हो चुकता है । छठे गुणस्थान में 146 की सत्ता है । तिर्यंचायु का सत्त्वविच्छेद 5 वें गुणस्थान में हो जाता है । 7 वें गुणस्थान में स्वस्थान और सातिशय ऐसे दो भेद हैं, जिनमें स्वस्थान में 146 का सत्त्व हो सकता है परंतु सातिशय में यदि क्षपक श्रेणी पर जाने वाला जीव है तो उसके सम्यक्त्व घातक 7 प्रकृतियों का क्षय हो चुका है । इस कारण ये 7 प्रकृतियां एक देवायु, इनका सत्त्व न मिलेगा क्योंकि उसे मोक्ष जाना है । यदि वह उपशम श्रेणी पर चढ़ेगा तो उसके 146 प्रकृतियों का सत्त्व हो सकता है ।
आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक के सत्त्व वाली प्रकृतियों का निर्देशन―अब सप्तम गुणस्थान से ऊपर दो श्रेणियां हो गई । (1) उपशम श्रेणी और (2) क्षपकश्रेणी । उपशम श्रेणी में 146 प्रकृतियों का सत्त्व है, पर जो कोई जीव ऐसे हैं कि जिनके क्षायिक सम्यक्त्व तो है पर उपशम श्रेणी मारी है तो उसके 139 प्रकृतियों का सत्त्व रहेगा । क्षपक श्रेणी में 8 वें गुणस्थान वाले जीव के 138 प्रकृतियों का सत्त्व है । इनके 3 तो आयु नहीं हैं और 7 सम्यक्त्व घातक प्रकृतियां नहीं हैं । 9 वें गुणस्थान के पहले भाग में 138 प्रकृतियों का सत्त्व है । उस भाग में 16 प्रकृतियों क्षय हो जाता है । अत: 9वें के दूसरे भाग में 122 प्रकृतियों का सत्त्व है । 16 प्रकृतियों के नाम ये है―नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, उद्योत आतप, एकेंद्रिय, साधारण, सूक्ष्म व स्थावर । इन 16 प्रकृतियों का सत्त्व विच्छेद होने से नवमें गुणस्थान के दूसरे भाग में 122 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । इस दूसरे भाग में 122 प्रकृतियों का सत्व रहता है । इस दूसरे भाग में 8 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है । अत: तीसरे भाग में 114 प्रकृतियों का सत्व रहता है । ये 8 प्रकृतियां अप्रत्याख्यानावरण 4 और प्रत्याख्यानावरण 4 हैं । इस तीसरे भाग में नपुंसकवेद का क्षय हो जाने से चौथे भाग में 113 प्रकृतियों का सत्त्व है । यहां स्त्रीवेद का क्षय हो जाने से 5 वें भाग में 112 प्रकृतियों का सत्त्व है । इस भाग में 6 नोकषायों का क्षय हो जाने से 9वें गुणस्थान के छठे भाग में 106 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । इस भाग में पुरुषवेद का क्षय हो जाने से 7 वें भाग में 105 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । यहां संज्वलन क्रोध का क्षय हो जाने से 8वें भाग में 104 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । इस भाग में संज्वलन मान का क्षय होने से 9 वें भाग में 103 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । 9वें गुणस्थान के अंतिम भाग में संज्वलन माया का क्षय हो जाने से 10वें गुणस्थान में 102 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । दसवें गुणस्थान में संज्वलन लोभ का क्षय हो जाने से 12 वें गुणस्थान में 101 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । यहाँ 16 प्रकृतियों का क्षय हो जाने से 13 वे गुणस्थान में 85 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । ये 16 प्रकृतियाँ ये हैं―निद्रा, प्रचला, ज्ञानावरण की 5, अंतराय की 5, दर्शनावरण की 4 याने चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण व केवलदर्शनावरण । 14वें गुणस्थान में भी 85 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । यहाँ उपात्य समय में 72 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है वे 72 प्रकृतियाँ ये है―शरीरनामकर्म से स्पर्शनामकर्म पर्यंत 50, स्थिरिद्विक, शुभद्विक, स्वरद्विक, देवद्विक, विहायोगतिद्विक, दुर्भग, निर्माण, अयशकीर्ति, अनादेय, प्रत्येक अपर्याति, अगुरुचतुष्क, अनुदित वेदनीय 1, तथा नीच गोत्र । अयोगकेवली के अंतिम समय में 13 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । इनके क्षय होने पर ये प्रभु सिद्ध हो जाते हैं । इस प्रकार बद्ध प्रकृतियों की सत्ता का कथन हुआ ।
बंधपदार्थ का परिचयोपाय बताकर समाप्ति की अहम अध्याय की सूचना―यह बंधपदार्थ अवधिज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी व केवलज्ञानी आत्मा के द्वारा प्रत्यक्षगम्य है, वीतराग सर्वज्ञ आप्त द्वारा उपदिष्ट आगम द्वारा गम्य है व विपाकानुभव आदि साधनों से अनुमानगम्य है । इस प्रकार बंधपदार्थ का वर्णन इस अष्टम अध्याय में समाप्त हुआ ।