09-30-2024, 08:57 AM
अध्यात्म योग
आचार्य पूज्यपादस्वामी द्वारा विरचित इष्टोपदेश पर मुनि श्री प्रणम्यसागरजी के प्रवचनों का संग्रह, अतिशयक्षेत्र बिजोलियाजी, 2016
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः। तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥
यस्य यानि जिन को, जिन किसी को इस सर्वनाम के द्वारा आचार्य देव का अभिप्राय यह प्रकट होता है कि वह हर उस आत्मा को नमस्कार करते हैं, हर उस आत्मा तक अपनी बात व अपने नमस्कार की ध्वनि को पहुँचा देते हैं जिस आत्मा ने ऐसा कर लिया हो, जो इसमें लिखा है। ‘स्वयं स्वभावाप्ति’ यानि जिस आत्मा ने स्वयं ही स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो। अपने स्वभाव की प्राप्ति कभी पर के द्वारा नहीं होती, स्वयं के द्वारा ही होती है। यह एक-एक शब्द बहुत गहराई तक हमको प्रेरित करता है। ‘स्वयं’ यानि स्वयं ही ‘स्वभावाप्ति’ यानि स्वभाव की प्राप्ति की है। इससे कोई मतलब नहीं कि वह आत्मा जैन है, ब्राह्मण है, अजैन है, क्षत्रिय है, उस आत्मा का नाम क्या है? इससे भी कोई मतलब नहीं कि वह महावीर भगवान की आत्मा है, आदिनाथ भगवान की आत्मा है, पारसनाथ भगवान की आत्मा है, जो कोई भी हो ‘यस्य’ बहुत बड़ा शब्द है चाहे उनको तुम ब्रह्मा कहो, चाहे शिव कहो, चाहे महेश्वर कहो, चाहे विष्णु कहो, चाहे जिन कहो, चाहे हरि-हर कहो सब मान्य है। इतनी व्यापकता इस जैन दर्शन की है कि अगर आप समझोगे तो आपका हृदय भी व्यापक हो जायेगा क्योंकि जब तक हमारी बुद्धि संकीर्ण रहती है तब तक हमारा हृदय भी संकीर्ण बना रहता है। बुद्धि के अन्दर व्यापकता आती है तो वह विचार के माध्यम से आती है, ज्ञान के माध्यम से आती है और वह ज्ञान हमें इन आचार्यों के द्वारा प्राप्त होता है जो कहते हैं कि हम हर किसी आत्मा को नमस्कार करने के लिए तैयार हैं।
आप इस ग्रंथ को पढ़ने बैठोगे तो कहोगे कि यह कैसे आचार्य हैं? जो हर किसी को नमस्कार करने के लिए तैयार है। शायद कहना चाहिए कि हम वर्द्धमान महावीर स्वामी को नमस्कार कर रहे हैं, हम पहले तीर्थंकर ऋषभदेव और पारसनाथ को नमस्कार कर रहे हैं लेकिन आचार्य भगवंत कह रहे हैं कि हम सभी को नमस्कार कर रहे हैं तो वो सब कैसे होने चाहिए? इसकी एक शर्त है, तुम उसका नाम कुछ भी दे दो चाहे पारसनाथ, हरि, हर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर हमें फर्क नहीं पड़ता है, हम तो ब्रह्मा, विष्णु को भी नमस्कार करेंगे लेकिन ‘स्वयं स्वभावाप्ति’ उन्हें अपने स्वभाव की प्राप्ति हो गई हो। बस इतनी सी शर्त है। आचार्य उस वीतरागता को नमस्कार करते हैं उस आत्मा को नमस्कार करते हैं जिसने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो.
स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए 'पर' की भी कोई आवश्यकता नहीं है।
For more detail ... अध्यात्म योग गाथा 1
English Translation .... Adhyatm Yog Gatha 1
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आचार्य पूज्यपादस्वामी द्वारा विरचित इष्टोपदेश पर मुनि श्री प्रणम्यसागरजी के प्रवचनों का संग्रह, अतिशयक्षेत्र बिजोलियाजी, 2016
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः। तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥
यस्य यानि जिन को, जिन किसी को इस सर्वनाम के द्वारा आचार्य देव का अभिप्राय यह प्रकट होता है कि वह हर उस आत्मा को नमस्कार करते हैं, हर उस आत्मा तक अपनी बात व अपने नमस्कार की ध्वनि को पहुँचा देते हैं जिस आत्मा ने ऐसा कर लिया हो, जो इसमें लिखा है। ‘स्वयं स्वभावाप्ति’ यानि जिस आत्मा ने स्वयं ही स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो। अपने स्वभाव की प्राप्ति कभी पर के द्वारा नहीं होती, स्वयं के द्वारा ही होती है। यह एक-एक शब्द बहुत गहराई तक हमको प्रेरित करता है। ‘स्वयं’ यानि स्वयं ही ‘स्वभावाप्ति’ यानि स्वभाव की प्राप्ति की है। इससे कोई मतलब नहीं कि वह आत्मा जैन है, ब्राह्मण है, अजैन है, क्षत्रिय है, उस आत्मा का नाम क्या है? इससे भी कोई मतलब नहीं कि वह महावीर भगवान की आत्मा है, आदिनाथ भगवान की आत्मा है, पारसनाथ भगवान की आत्मा है, जो कोई भी हो ‘यस्य’ बहुत बड़ा शब्द है चाहे उनको तुम ब्रह्मा कहो, चाहे शिव कहो, चाहे महेश्वर कहो, चाहे विष्णु कहो, चाहे जिन कहो, चाहे हरि-हर कहो सब मान्य है। इतनी व्यापकता इस जैन दर्शन की है कि अगर आप समझोगे तो आपका हृदय भी व्यापक हो जायेगा क्योंकि जब तक हमारी बुद्धि संकीर्ण रहती है तब तक हमारा हृदय भी संकीर्ण बना रहता है। बुद्धि के अन्दर व्यापकता आती है तो वह विचार के माध्यम से आती है, ज्ञान के माध्यम से आती है और वह ज्ञान हमें इन आचार्यों के द्वारा प्राप्त होता है जो कहते हैं कि हम हर किसी आत्मा को नमस्कार करने के लिए तैयार हैं।
आप इस ग्रंथ को पढ़ने बैठोगे तो कहोगे कि यह कैसे आचार्य हैं? जो हर किसी को नमस्कार करने के लिए तैयार है। शायद कहना चाहिए कि हम वर्द्धमान महावीर स्वामी को नमस्कार कर रहे हैं, हम पहले तीर्थंकर ऋषभदेव और पारसनाथ को नमस्कार कर रहे हैं लेकिन आचार्य भगवंत कह रहे हैं कि हम सभी को नमस्कार कर रहे हैं तो वो सब कैसे होने चाहिए? इसकी एक शर्त है, तुम उसका नाम कुछ भी दे दो चाहे पारसनाथ, हरि, हर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर हमें फर्क नहीं पड़ता है, हम तो ब्रह्मा, विष्णु को भी नमस्कार करेंगे लेकिन ‘स्वयं स्वभावाप्ति’ उन्हें अपने स्वभाव की प्राप्ति हो गई हो। बस इतनी सी शर्त है। आचार्य उस वीतरागता को नमस्कार करते हैं उस आत्मा को नमस्कार करते हैं जिसने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो.
स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए 'पर' की भी कोई आवश्यकता नहीं है।
For more detail ... अध्यात्म योग गाथा 1
English Translation .... Adhyatm Yog Gatha 1
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