स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए 'पर' की भी कोई आवश्यकता नहीं है।
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अध्यात्म योग 
आचार्य पूज्यपादस्वामी द्वारा विरचित इष्टोपदेश पर मुनि श्री प्रणम्यसागरजी के प्रवचनों का संग्रह, अतिशयक्षेत्र बिजोलियाजी, 2016
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः। तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥


आचार्य उस आत्मा को नमस्कार करते हैं जिसने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो।
आचार्य उस वीतरागता को नमस्कार करते हैं उस आत्मा को नमस्कार करते हैं जिसने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो, और जब स्वभाव की प्राप्ति की है तो इसी शब्द से स्पष्ट हो जाता है कि वह स्वभाव पहले से हमें प्राप्त नहीं है। हमें उसको प्राप्त करना है क्योंकि अगर वो पहले से प्राप्त होगा तो सबको ही प्राप्त होगा।

फिर तो हमको भी प्राप्त है, तुमको भी प्राप्त है, फिर हम किसको नमस्कार करेंगे? हमारे अन्दर भी वही है तुम्हारे अन्दर भी वही है, जब हममें और आपमें कुछ difference (अन्तर) होगा, तब ही हम आपको नमस्कार करेंगे। हम किस को नमस्कार करेंगे? तो आचार्य कहते हैं जिसने अपने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो। वह स्वभाव पहले से विद्यमान नहीं होता है, उसे प्राप्त किया जाता है। हमें कोई ऐसा अनावरण नहीं करना है कि जैसे आपने फोटो के सामने कपड़ा डाल रखा हो और उस कपड़े को हटा दिया, उस पर से आवरण हट गया और फोटो सामने आ गया। उसकी प्राप्ति का ढंग कुछ अलग है क्योंकि प्राप्त करने वाली चीज के लिए हमें कुछ मेहनत करनी पड़ती है। जो चीज ढकी हुई है उसको हटाने के लिए हमें कुछ मेहनत नहीं करनी पड़ती, उसके लिए तो हमें केवल रस्सी खिसकानी है या कपड़ा खिसका देना है। लेकिन स्वभाव इस तरह से प्राप्त नहीं होता है। आचार्य कहते हैं कि वह स्वभाव जिसके अन्दर पड़ा हुआ है और उस स्वभाव को जिसने अपने अन्दर ही प्राप्त किया है, उस स्वभाव की प्राप्ति उसने किसी दूसरे तरीके से नहीं की है, स्वयं से की है। स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए 'पर' की भी कोई आवश्यकता नहीं है। उसके लिए पर का अवलम्बन लेने की भी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि जो चीज स्वयं से प्राप्त होगी तो स्वयं में ही किसी कमी के कारण से हमको प्राप्त नहीं हुई, उस कमी को जब हम दूर कर देंगे तो वह स्वयं में से ही उभरेगी, स्वयं से ही प्राप्त होगी। अगर आप कहो कि किसी पत्थर/पाषाण के अन्दर से प्रतिमा को उकेरा जाता है तो वह उकेरने वाला क्या करता है? उसको कहीं बाहर से निकालता है या उसी पाषाण से निकालता है। कभी हम किसी पाषाण से प्रतिमा बनती हुई देखें तो हमें पता पड़ेगा कि उस पाषाण में से प्रतिमा स्वयं से बन रही हैं या कोई और चीज को लाकर उसमें रखी जाये तब बन रही है।

 जैसे पाषाण के अन्दर प्रतिमा छिपी हुई है वैसे ही हमारे अन्दर परमात्मा छिपा है


For more detail ... अध्यात्म योग गाथा 1 
English Translation .... Adhyatm Yog Gatha 1

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Manish Jain Luhadia 
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स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए 'पर' की भी कोई आवश्यकता नहीं है। - by Manish Jain - 10-01-2024, 04:01 AM

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