तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग २
#1

हीनाधिक साम्प्रायिक आस्रव के कारण-तीव्रमंदज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेष:!!६!!
संधिविच्छेद-तीव्र+मंद+ज्ञात+अज्ञात भाव+अधिकरण+वीर्य+विशेषेभ्य+तद्विशेष:
शब्दार्थ:-तीव्रभाव,मंदभाव,ज्ञातभाव,अज्ञातभाव,आधारविशेष और वीर्यविशेष से तद्विशेष:-उस( साम्प्रायिक आस्रव) में विशेषता ( हिनाधिक्ता) होती है  


अर्थ-साम्परायिक आस्रव में विशेषता (हीनाधिक्ता),जीव के तीव्रभाव,मंदभाव,ज्ञातभाव,अज्ञातभाव अधिकरण विशेष और वीर्यविशेष से आती है!
भावार्थ-जीव के किसी कार्य में तीव्र राग-द्वेष ,कषाय से अधिक और मंद राग-द्वेष,कषाय से कम आस्रव होता है!
१-तीव्र/मंदभाव:-कोई जीव,नन्दीश्वर द्वीप/पंञ्चमेरु की पूजन, इनके अर्थ/विषय जाने बिना कर रहा है तो उनका,उस जीव की अपेक्षा कम मन लगेगा जिसको इनके अर्थ/विषय का ज्ञान है,ऐसे जीव के पुण्यकर्म का आस्रव,मन लगाकर पूजन करने वाले की अपेक्षा कम होगा!मन लगाकर पूजा करने वाले के नेत्रों के समक्ष नन्दीश्वर द्वीप/पञ्चमेरु के जिनालय बनने से वह भक्ति में डूब जायेगा जिससे उस के पुण्यकर्मों का आस्रव उत्कृष्टकोटि का होगा!इस प्रकार तीव्र और मंद भाव के आधार से परिणामों में विशेषता आने से ,तदानुसार आस्रव होता है!

२-ज्ञात/अज्ञातभाव:-कोई क्रिया ज्ञानता या अज्ञानता पूर्वक करी है,दोनों में भिन्न प्रकार का आस्रव होगा!जैसे किसी ने बाज़ार से अंडे से निर्मित आईस क्रीम के सेवन किया ,जब तक उसे ज्ञान नहीं है की उसमे अंडा है तब तक उसके,जानने के बाद सेवन करने की अपेक्षा,पापकर्म का कम आस्रव होगा!अज्ञातभाव से हिन्सा कम होती है,आस्रव कम होता है,ज्ञात भाव से जान बूझकर कार्य करने पर हिंसा बहुत होती है,आस्रव बहुत होता है!
३-अधिकरणविशेष-आस्रव के आधार को अधिकरण/प्रयोजन कहते है!किसी तीर्थ पर जाकर साफ़ सुथरी नई धोती,शुद्ध सामग्री,साफ़-सुथरे,चमकते चांदी के बर्तनों में अत्यंत भक्तिभाव से पूजन करने पर पुण्य आस्रव,अपेक्षाकृत,अशुद्ध सामग्री,गंदे टूटे-फूटे स्टील के बर्तनों में,गन्दी धोती पहन कर साधारण भक्तिभाव होने के कारण,अधिक होगा, क्योकि अधिकरण अर्थात आधार की विशेषता से पुण्य के आस्रव में अंतर होता है!
-वीर्य विशेष- द्रव्य की शक्ति विशेष को वीर्य कहते है!पंच पापो ,पंचइन्द्रियों विषयों ,चार कषायों,२५ क्रियाओं  की वीर्य/शक्ति अधिक से पुण्य/पाप का  अधिक और कम शक्ति से कम पुण्य पापका आस्रव होगा !वर्तमान  में हम सब  का असंप्रप्तासृपाटिका संहनन हैहम अधिकतम तीसरे नरक तक जाने योग्य पापकर्म का आस्रव कर सकते है और यदि वज्रऋषभनारांच संहनन होता तब सातवे नरक तक जा ने योग्य पाप कर्म का आस्रव कर सकते हम असंप्रप्तासृपाटिका संहनन के साथ अधिकतम  वे स्वर्ग तक जाने योग्य पुण्य कर्म का आस्रव कर सकते किन्तु  वज्रऋषभनारांच सहनं के साथ सर्वार्थसिद्धी और मोक्ष तक जाने योग्य पुण्य का आस्रव कर सकतेअतवीर्य विशेष से भी आस्रव में विशेषता-अंतर होता है!
विशेष- हमें शुभ कार्य में तीव्र भाव और अशुभ कार्यों में मंद भाव रखना चाहिए जिससे क्रमश पुण्य का  अधिक और पाप का कम आस्रव हो !
सम्प्रायिक आस्रव किसके आधार से होता है? यह बताने के लिए निम्न सूत्र खा है !

अधिकरण/आस्रव का आधार
अधिकरणजीवाजीवाः ७
संधि विच्छेद -अधिकरण+जीव+अजीवाः

शब्दार्थ-अधिकरण-अधिकरण/आधार,जीव-जीव और अजीवाः-अजीव दो भेद है 
अर्थ -जीव और अजीव के अधिकरण/आश्रय से साम्प्रयिक आस्रव होता है!
भावार्थ-जीव के हिंसा/दयारूप भाव के आश्रय से आस्रव होता है तो वह जीवाधिकरण/भावाधिकरण कहलाता है!
अजीव द्रव्य रूप हिंसा आदि के साधन रूप होना अजीवाधिकरण/द्रव्याधिकरण कहलाता है!यह द्रव्य रूप आस्रव होता है!जैसे तलवार,कैची,फावड़ा,पिच्ची,कमंडलादि के आश्रय से आस्रव होता है!
विशेष-यद्यपि जीव और अजीव द्रव्य दो ही है किन्तु उनकी पर्याय अनेक है इसलिए सूत्र में बहुवचन 'जीवाजीवा:' कहा है मतलब है कि किसी एक पर्याय से युक्त द्रव्य अधिकरण होता है,केवल द्रव्य नहीं!
१२-३-१६


जीव के आधार से आस्राव के द्वार-
आद्यंसंरम्भ-समारम्भारम्भयोगकृत-कारितानुमत-कषायविशेषैस्त्रि स्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः!!८!!
संधिविच्छेद-आद्यं+संरम्भ+समारम्भ+आरम्भ+योग+कृत+कारित+अनुमत+कषाय+विशेषै:+ त्रि:+त्रि:+त्रि:+चतु:+च+ऐकश:

शब्दार्थ-आद्यं(सूत्र ७ में) पहिले अर्थात जीवाधिकरण;संरम्भ-किसी कार्य की योजना बनाना,समारम्भ-योजना को कार्यन्वित करने के लिए आवश्यक सामाग्री एकत्र करना,आरम्भ-कार्य को आरम्भ करना, योग-योग,कृत-स्वयं कार्य करना,कारित-अन्य द्वारा कार्य को करवाना,अनुमत-किसी अन्य द्वारा कार्य किये जाने पर अनुमोदना करना,कषाय-कषाय,विशेषै:-से आस्रव में विशेषता आती है ,इनके क्रमश: त्रि:-तीन.त्रि:-तीन,त्रि:-तीन,चतु:-चार,च-और ऐकश:-(इन्हे परस्पर मिलाने/गुणित करने) से ,जीवाधिकरण द्वारा आस्रव के द्वार है!अर्थात जीवधिकरण आस्रव इन परिणामों से होता है!
भावार्थ-जीव के आधार से होने वाले आस्रव से १०८ परिणामों होते है!इनसे बचने के लिय ही जाप की माला में १०८ दाने होते है! 
संरम्भ-जैसे शिविर लगाने की योजना बनाना संरम्भ है, 
समारम्भ-उसके लिए सामग्री एकत्रित करना समारंभ और ,
आरम्भ-शिविर प्रारम्भ हो जाना आरम्भ है!
ये तीनो,तीन योगों;मन,वचन,काय से होती है जैसे मन,वचन,शरीर से योजना बनाना!तीन प्रकार से कार्य करना-अर्थात 
कृत=स्वयं कार्य करना,
कारित=किसी अन्य से कार्य करवाना,
अनुमत=कार्यस्वयं नही करना किन्तु किसी अन्य द्वारा कार्य करने वाले की अनुमोद्ना करना !
चार-कषाय क्रोध,मान,माया,लोभ !इस प्रकार ( ३x ३x ३x ४ =१०८) परिणामों से जीव के जीवाधिकरण आस्रव होता है!

शंका:-कृत,कारित,अनुमोदन में से किस में पाप/पुण्य का अधिक बंध  होगा ?
परिणामों की विशेषता अनुसार तीनों में से किसी में भी पाप/पुण्य का अधिक बंध हो सकता है!
उद्धाहरण के लिए
1-किसी ने चौका लगाने पर बड़े-बड़े मुनिमहाराजों ने आहार लेने पर उसे यदि घमंड हो गया "की बड़े से बड़े महाराज मेरे चौके में आते है,इनके मान कषाय की तीव्रता होने से,उस व्यक्ति के पुण्य का आस्रव अधिक होगा जो चौका तो नहीं लगा पा रहा है किन्तु वह भाव से इन चौका लगाने वाले सज्जन की अनुमोद्ना कर रहा है,कि 'आप कितने भाग्यशाली है,आपने कितना पुण्य किया है ,आपके घर कितने बड़े-बड़े मुनि महाराज आहार लेने आये है,मुझे ऐसे सौभाग्य कब प्राप्त होगा,मुझे भी ऐसा पुण्य मिले'!इस दृष्टांत नमें अनुमोद्ना करने वाले के अधिक पुण्य का आस्रव होगा !
2-पञ्च कल्याणक में किसी व्यक्ति ने सौधर्मेन्द्र की बोली २१,३१,५१ लाख में,अन्य किसी को बोली नहीं लेने देने और शहर में अपनई प्रतिष्ठा का डंका बजाने के भाव से लेता है तो मान कषाय  की वृद्धि के कारण इस से अधिक उस  व्यक्ति के पुण्य का बंध होगा जो केवल अनुमोदन कर रहा है कि ”इस बोली लेने वाले व्यक्ति ने अपने धन का कितना सदुपयोग किया है,वह कितना पुण्यशाली है,मेरे पुण्य का कब उदय होगा जब मैं भी अपने धन का ऐसा सदुपयोग कर पाऊंगा!” जिसके परिणामों में विशुद्धि अधिक है,कषाय कम है,उसके पुण्य का अधिक बंध होगा! जिसके पापरूप क्रियाएँ करते हुए परिणामों में तीव्रता है उसके पाप का बंध अधिक होगा!
सामान्यता कृत के सबसे अधिक,कारित के उससे कम और अनुमोद्ना करने वाले के सबसे कम पाप/पुण्य का बंध होता है !
किसी व्यक्ति ने मुनिराज के लिए आहार बड़ी भक्ति भाव से बनाया किन्तु महाराज इनके चौके में नहीं पधारे,तब भी इनके अनुमोद्ना के कारण पुण्य का बंध होगा !
जैसे कार्य मन,वचन काय से कृत,कारित अथवा अनुमोद्ना करेगे तदानुसार पुण्य/पाप का बंध कषायों की तीव्रता,मंदता,ज्ञात,अज्ञात भावों के अनुसार होता है!

टीवी पर  भैसे आदि की  लड़ाई जैसे हिंसात्मक दृश्य देख कर आनंदित होने पर,अनुमोद्ना के कारण,भी पाप बंध होता है!इसी प्रकार धार्मिक कथा,पञ्चकल्याणक आदि जैसे प्रोग्राम देखने, सुनने पर पुण्यबंध होता है!
टीवी पर अन्य मतियों के प्रवचन,धार्मिक कार्यक्रम देखने सुनने से मिथ्यात्व की पुष्टि होती है,अत: इन से हमें बचना चाहिए!हमें विवेकता पूर्वक,[b]सच्चे शास्त्रों (प्रथमानुयोग करुणानुयोग,चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग),[/b]सच्चे गुरु के प्रवचनों से जानकर  ही देखना सुनने का निर्णय करना चाहिए!
अशुद्ध महिला या खाते पीते समय धार्मिक कार्यक्रम देखने से पुण्य का आस्रव होगा या नहीं ?समाधान -अशुद्ध महिलाओं को टीवी पर भी भगवान् का अभिषेक, आरती,पूजा, पञ्चकल्याणक, साधुओं,विद्वानों के प्रवचन,पाठशाला नहीं देखनी है अन्यथा पापबंध होगा!ऐसी महि लाओं के यदि घर में कोई धार्मिक कार्यक्रम हो रहा हो और शब्द कान में पढ़ जाए तो क्या होगा, इसको रोका नहीं जा सकता!खाते-पीते धार्मिक कार्यक्रमों को देखने से भी पापबंध होता है! कार में धार्मिक कैसेट (जैसे भक्ताम्बर स्त्रोत्र जी/महाराज के प्रवचन) मनोयोग से नही सुनने पर उसका अपमान होने के कारण पाप का बंध होगा!
उपवास में असमर्थ व्यक्ति को ५-१० दिन उपवास करने वाले व्यक्ति से क्या कहना चाहिए ?
उसे, उपवास करने वाले की अनुमोद्ना इस भाव से करनी चाहिए कि मेरे भी वीर्य अन्तराय का क्षयोपशम हो जिससे मैं भी उपवास करने की क्षमता प्राप्त कर सकू! 
तत्वार्थ सूत्र/भक्ताम्बर स्रोत्र जी को बीमारी में भी,पूरे मनोयोग से सुनना चाहिए,तभी उनका सदुपयोग होगा अन्यथा उनका अपमान होने के कारण पापबंध होगा!खाना बनाते समय मेरी भावना, वैराग्य भावना,भजन आदि सुन सकते है किन्तु तत्वार्थासूत्र,भक्ताम्बर स्रोत्र,समयसार,आचार्यश्री के प्रवचन नहीं सुनने चाहिए अन्यथा पापबंध होता है!
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तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग २ - by scjain - 03-16-2016, 10:59 AM
RE: तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग २ - by Manish Jain - 09-24-2020, 08:18 AM
RE: तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग २ - by Manish Jain - 07-15-2023, 10:39 AM

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