प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 19,20 किस कारण से पुद्गल का सम्बन्ध होता है ?
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श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार

गाथा -19 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -121 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )

एवंविधं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं ।
सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लहदि ॥19॥



आगे द्रव्यके द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयकी विवक्षासे 'सत उत्पाद' और 'असत् उत्पाद' ऐसा दो प्रकारका उत्पाद होता है, सो उन दोनोंका अविरोध दिखलाते है-[एवंविधं] इस प्रकारसे [द्रव्यं] द्रव्य [स्वभावे] स्वभावमें [द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्यां] द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयोंकी विवक्षासे [सदसद्भावनिबद्धं] सत् और असत् इन दो भावोंसे संयुक्त [प्रादुर्भावं] उत्पादको [सदा] हमेशा [लभते] प्राप्त होता है। 
भावार्थ-अनादि अनंत द्रव्य अपने परिणाम स्वभावमें निरंतर उत्पन्न होता है, इसको 'उत्पाद' कहते हैं । इसे जब द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षासे कहते हैं, तब यों कहते हैं, कि द्रव्य जो जो पर्याय धारण करता है, उन उन पर्यायोंमें वही द्रव्य उत्पन्न होता है, जो पूर्वमें था, इसका नाम 'सद्भावउत्पाद' है । और जब पर्यायकी अपेक्षासे कहते हैं, तब यों कहते हैं कि द्रव्य जो जो पर्याय धारण करता है, उन उन पर्यायोंमें वही द्रव्य अवस्थाके पलटनेसे अन्य कहा जाता है, इसका नाम 'असद्भावउत्पाद' है। इन दोनों प्रकारके उत्पादको नीचे लिखे दृष्टान्तसे समझना चाहिये । जैसे-सोना अपने अविनाशी पीत स्निग्ध (चिकने) गुरुत्वादि गुणोंसे नाना कंकण कुंडलादि पर्यायोंको प्राप्त होता है। जो यहाँपर द्रव्यार्थिकनयसे विचार करें, तो कंकण कुंडलादि जितने पर्याय हैं, उन सबमें वही सोना उत्पन्न होता है, जो कि पहले था, न कि दूसरा । यह सोनेका सद्भावउत्पाद है। और जो उन्ही कंकण कुंडलादि पर्यायोंमें सोनेको पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे कहें, तो . जितने कंकण कुंडलादि पर्याय हैं, सबके सब क्रम लिये हुए हैं । इस कारण ऐसा कहा जावेगा, कि कंकण उत्पन्न हुआ, कुंडल उत्पन्न हुआ, मुद्रिका (अंगूठी) उत्पन्न हुई। ऐसा दूसरा दूसरा उत्पाद होता है, अर्थात् जो पूर्वमें नहीं था, वह उत्पन्न होता है, यह असद्भावउत्पाद है। इसी प्रकार द्रव्य अपने अविनाशी गुणोंसे युक्त रहकर अनेक पर्याय धारण करता है। सो उसे यदि द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षासे कहते हैं, तो जितने पर्याय हैं, उन सब पर्यायोंमें वही द्रव्य उत्पन्न होता है, जो पहले था, अन्य नहीं । यह सत्उत्पाद है । और यदि पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे कहते हैं, तो जितने पर्याय उत्पन्न होते हैं, वे सब अन्य अन्य ही हैं। पहले जो थे, वे नहीं हैं-यह असत् उत्पाद है। और जैसे पर्यायार्थिककी विवक्षामें जो असत्रूप कंकण कुंडलादि पर्याय उत्पन्न होते हैं, उनके उत्पन्न करनेवाली जो सुवर्णमें शक्ति है, वह कंकण कुंडलादि पर्यायोंको सुवर्ण द्रव्य करती है। सोनाकी पर्याय भी सोना ही है, क्योंकि पर्यायसे द्रव्य अभिन्न है । इसी प्रकार पर्याय विवक्षामें द्रव्यके जो असद्रूप पर्याय हैं, उनकी उत्पन्न करनेवाली शक्ति जो द्रव्यमें है, वह पर्यायको द्रव्य करती है। जिस द्रव्यके जो पर्याय हैं, वे उसी द्रव्यरूप हैं, क्योंकि पर्यायसे द्रव्य अभिन्न है। इसलिये पर्याय और द्रव्य दो वस्तु नहीं हैं, जो पर्याय है, वही द्रव्य है। और द्रव्यार्थिककी विवक्षासे जैसे सोना अपनी पीततादि शक्तियोंसे कंकण कुंडलादि पर्यायोमें उत्पन्न होता है, सो सोना ही कंकण कुंडलादि पर्यायमात्र होता है । अर्थात् जो सोना है, वही कंकण कुंडलादि पर्याय हैं, उसी प्रकार द्रव्य अपनी शक्तियोंसे अपने पर्यायोंमें क्रम से उत्पन्न होता है । जब जो पर्याय धारण करता है, तब उसी पर्यायमात्र होता है, अर्थात् जो द्रव्य है, वही पर्याय है। इसलिये सिद्ध हुआ कि असत्उत्पादमें जो पर्याय हैं, वे द्रव्य ही हैं, और सदुत्पादमें जो द्रव्य है, सो पर्याय ही हैं । द्रव्य और पर्याय आपसमें अभेदरूप हैं, परंतु नयके भेदसे भेदरूप हैं ॥

गाथा -20 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -122 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )

जीवो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो ।
किं दव्वत्तं पजहदि ण जहं अण्णो कहं हवदि ॥ 20॥


आगे सदुत्पादकों पर्यायसे अभेदरूप बतलाते हैं - [जीवः ] आत्मा [ भवन् ] द्रव्यस्वभावरूप परिणमन करता हुआ [ नरः ] मनुष्य वा [अमरः ] देव [वा ] अथवा [ परः ] अन्य अर्थात् नारकी, तिर्यंच, सिद्ध इन सब पर्यायरूप [ भविष्यति ] होवेगा, [पुनः ] और [ भूत्वा ] पर्यायस्वरूप होकर [ किं ] क्या [द्रव्यत्वं ] अपनी द्रव्यत्वशक्तिको [ प्रजहाति ] छोड़ सकता है? कभी नहीं, और जब [न जहत्] अपने द्रव्यत्वस्वभावको नहीं छोड़ सकता तो [ अन्यः कथं भवति ] अन्य स्वरूप कैसे हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता । भावार्थ -- यह जीवद्रव्य नारकी, तिर्थंच, देवता, मनुष्य, सिद्ध इन सबकी अनंत पर्यायोंको धारण करता है । यद्यपि यह जीव पर्यायोंसे अनेक स्वरूप हो गया है, तो भी अपने द्रव्यपने स्वभावको नहीं छोड़ता है। और जब अनेक पर्यायोंके धारण करनेपर भी अपनी द्रव्यत्व-शक्तिको  नहीं छोड़ता, तो अन्यरूप कभी नहीं हो सकता, जो नारकी था, वही तिथंच पर्यायमें है, वही मनुष्य हो नाता है, वही देवता तथा सिद्ध आदि पर्यायरूप हो जाता है। इन सब अवस्थाओंमें अविनाशी द्रव्य वही एक है, दूसरा नहीं । इसलिये सत्उत्पादकी अपेक्षा सब पर्यायोंमें वही अविनाशी वस्तु है, ऐसा सिद्ध हुआ 


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार

गाथा -19
एवं अनेकविध स्वीय स्वभाव वाला , होता सुसिद्ध जब द्रव्य स्वयं निराला ।
पर्याय द्रव्य नय से वह द्रव्य भाता , भाई अभावमय भावमयी सुहाता ll

अन्वयार्थ - ( एवं विधं ) इस प्रकार ( सहावे ) स्वभाव में अवस्थित ( दव्यं ) द्रव्य ( दव्वत्थपञ्जयत्थेहिं ) द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के द्वारा (सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भाव) सद्भावनिबद्ध और असद्भावनिबद्ध उत्पाद को (सदा लहदि ) सदा प्राप्त करता है ।



गाथा -20 

जीवत्व जीव धरता नर देव होता , तिर्यंच नारक तथा स्वयमेव होता ।
पै द्रव्य द्रव्यपन को जब ना तजेगा , कैसा भला परपना फिर वो भजेगा ।l

अन्वयार्थ - ( जीवो ) जीव ( भवं ) परिणमता हुआ ( णरो ) मनुष्य , ( अमरो ) देव ( वा ) अथवा ( परो ) अन्य कुछ ( भविस्सदि ) होगा , ( पुणो ) परन्तु ( भवीय ) मनुष्य देवादि होकर ( किं ) क्या वह ( दबत्तं पजहदि ) द्रव्यत्व को छोड़ देता है ? ( ण जहं ) सो द्रव्यत्व को नहीं छोड़ता । हुआ वह ( अण्णो कहं हवदि ) अन्य कैसे हो सकता है ?



Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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