09-20-2021, 10:54 AM
उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म
शील-बाड़ नौ राख, ब्रह्म-भाव अंतर लखो।
करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा।।
उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनो, माता-बहिन-सुता पहिचानो।
सहें बान- वरषा बहु सूरे, टिकें न नैन-बान लखि कूरे।।
कूरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें।
बहु मृतक सड़हिं मसान-माँहीं, काग ज्यों चोंचैं भरें।।
संसार में विष-बेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा।
‘द्यानत’ धरम दस पैंडि चढ़ि के, शिव-महल में पग धरा।।
अर्थ:
पंडित जी कहते हैं, “शील की रक्षा के लिए, नौ बाढ़ों का पालन करना चाहिए तथा अपना ब्रह्म स्वरूप अंतरंग में देखना चाहिए। तथा इनकी वृद्धि की भावना नित्य भानी चाहिए क्योंकि इससे ही यह मनुष्य भव सफल होगा।”
आगे लिखते हैं, “उत्तम ब्रह्मचर्य को सभी जीव अपने अंतरंग में धारण करें। जो भी आयु में अपने से बड़ी स्त्रियाँ हैं, उन्हें माता के समान; अपने समान आयु की स्त्रियों को बहिन के समान तथा अपने से छोटी स्त्रियों को बेटी के समान देखना चाहिए।”
तथा ब्रह्मचर्य का पालन कितना कठिन है, यह बताते हुए पंडित जी लिखते हैं, कि “यह जीव युद्ध क्षेत्र में तो बाणों की वर्षा को सहन कर लेता है परंतु स्त्रियों के नैनों से होने वाली क्रूर बाण वर्षा को सहन नहीं कर पाता।”
आगे लिखते हैं, “ऐसा यह जीव इस अपवित्र शरीर में उसी प्रकार काम के वश होकर राग करता है, उसमें मग्न होता है, जिस प्रकार शमशान घाट में मृत शरीरों को कौए नोंच-नोंच कर खाते हैं।”
फिर कहते हैं, “संसार में नारी के प्रति होने वाला राग विष (जहर) की बेल के समान है, जिसका त्याग तीर्थंकर मुनिराज जैसे महापुरुष भी करते हैं। तथा ऐसे उत्तम ब्रह्मचर्य को धारण कर के द्यानतराय जी शिव (मुक्ति) महल में प्रवेश करने की भावना भाते हैं।”
इस प्रकार, उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म का स्वरूप समझकर निश्चय ब्रह्मचर्य को प्रगट करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि तभी बाहर से होने वाला ब्रह्मचर्य व्यवहार नाम पाता है।
और इसके लिए व्यवहारिक ब्रह्मचर्य तो होना ही चाहिए। उसके हुए बिना निश्चय ब्रह्मचर्य प्रगट नहीं होता।
जिस प्रकार, ‘राजा का महल’ कहलाने के लिए, राजा का उस महल में रहना जरूरी है। परन्तु राजा भी उसी महल में आकर रहेगा जो उसके योग्य बना होगा। परंतु बिना राजा के आये वह महल ‘राजा का महल’ नाम नहीं पाएगा।
उसी प्रकार, निश्चय ब्रह्मचर्य वहीं प्रगट होगा, जहाँ पहले से व्यवहारिक ब्रह्मचर्य का पालन होता होगा। तथा वह व्यवहार ब्रह्मचर्य नाम, निश्चय ब्रह्मचर्य प्रगट होने के बाद ही पाएगा, बिना उसके नहीं।
इस प्रकार, ब्रह्मचर्य का स्वरूप समझ कर, ब्रह्म स्वरूप आत्मा में लीन होना ही दसलक्षण पर्व की सार्थकता है।
Read more at: https://forum.jinswara.com/t/daslakshan-...-arth/3016
शील-बाड़ नौ राख, ब्रह्म-भाव अंतर लखो।
करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा।।
उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनो, माता-बहिन-सुता पहिचानो।
सहें बान- वरषा बहु सूरे, टिकें न नैन-बान लखि कूरे।।
कूरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें।
बहु मृतक सड़हिं मसान-माँहीं, काग ज्यों चोंचैं भरें।।
संसार में विष-बेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा।
‘द्यानत’ धरम दस पैंडि चढ़ि के, शिव-महल में पग धरा।।
अर्थ:
पंडित जी कहते हैं, “शील की रक्षा के लिए, नौ बाढ़ों का पालन करना चाहिए तथा अपना ब्रह्म स्वरूप अंतरंग में देखना चाहिए। तथा इनकी वृद्धि की भावना नित्य भानी चाहिए क्योंकि इससे ही यह मनुष्य भव सफल होगा।”
आगे लिखते हैं, “उत्तम ब्रह्मचर्य को सभी जीव अपने अंतरंग में धारण करें। जो भी आयु में अपने से बड़ी स्त्रियाँ हैं, उन्हें माता के समान; अपने समान आयु की स्त्रियों को बहिन के समान तथा अपने से छोटी स्त्रियों को बेटी के समान देखना चाहिए।”
तथा ब्रह्मचर्य का पालन कितना कठिन है, यह बताते हुए पंडित जी लिखते हैं, कि “यह जीव युद्ध क्षेत्र में तो बाणों की वर्षा को सहन कर लेता है परंतु स्त्रियों के नैनों से होने वाली क्रूर बाण वर्षा को सहन नहीं कर पाता।”
आगे लिखते हैं, “ऐसा यह जीव इस अपवित्र शरीर में उसी प्रकार काम के वश होकर राग करता है, उसमें मग्न होता है, जिस प्रकार शमशान घाट में मृत शरीरों को कौए नोंच-नोंच कर खाते हैं।”
फिर कहते हैं, “संसार में नारी के प्रति होने वाला राग विष (जहर) की बेल के समान है, जिसका त्याग तीर्थंकर मुनिराज जैसे महापुरुष भी करते हैं। तथा ऐसे उत्तम ब्रह्मचर्य को धारण कर के द्यानतराय जी शिव (मुक्ति) महल में प्रवेश करने की भावना भाते हैं।”
इस प्रकार, उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म का स्वरूप समझकर निश्चय ब्रह्मचर्य को प्रगट करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि तभी बाहर से होने वाला ब्रह्मचर्य व्यवहार नाम पाता है।
और इसके लिए व्यवहारिक ब्रह्मचर्य तो होना ही चाहिए। उसके हुए बिना निश्चय ब्रह्मचर्य प्रगट नहीं होता।
जिस प्रकार, ‘राजा का महल’ कहलाने के लिए, राजा का उस महल में रहना जरूरी है। परन्तु राजा भी उसी महल में आकर रहेगा जो उसके योग्य बना होगा। परंतु बिना राजा के आये वह महल ‘राजा का महल’ नाम नहीं पाएगा।
उसी प्रकार, निश्चय ब्रह्मचर्य वहीं प्रगट होगा, जहाँ पहले से व्यवहारिक ब्रह्मचर्य का पालन होता होगा। तथा वह व्यवहार ब्रह्मचर्य नाम, निश्चय ब्रह्मचर्य प्रगट होने के बाद ही पाएगा, बिना उसके नहीं।
इस प्रकार, ब्रह्मचर्य का स्वरूप समझ कर, ब्रह्म स्वरूप आत्मा में लीन होना ही दसलक्षण पर्व की सार्थकता है।
Read more at: https://forum.jinswara.com/t/daslakshan-...-arth/3016