श्रावक ग्रह्स्थ को व्रती बनने के लीये आवश्यक ११ प्रतिमायें
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श्रावक १२ व्रतों को लेकर, अपने क्रम से बढते हुए, चारित्रिक उत्थान के लिए प्रतिमाये धारण करते है तथा क्षुल्लक,ऐलक/क्षुल्लिका,आर्यिकामाता जी बनता है! श्रावक के इस धीरे धीरे बढ़ते हुए चारित्रिक उत्थान की भिन्न भिन्न अवस्थाओं -(stages) के क्रम को प्रतिमाये कहते है!

प्रतिमाओं के भेद-

प्रतिमाओं को ११ खंडो मे बांटा गया है! इनमे क्रम से पहली,दूसरी ----११वॆ प्रतिमा ली जाती है!प्रतिमाओं की संख्या से ज्ञात होता है की ब्रह्मचारी भैया /ब्रह्मचारिणी बहन जी चारित्र की अपेक्षा कितने ऊपर पहुँच गए है!
सच्चे देव,शास्त्र,गुरु और सात तत्व, नवपदार्थों पर दृढ एवं सच्चा श्रद्धान रखने वाले सम्यगदृष्टि,प्रतिमा धारण करते है! वे धीरे-धीरे शास्त्रों के अनुसार आत्मा को शुद्ध करने के उपायों को अपने आचरण में धीरे धीरे उतारना शुरू कर आगे बढ़ने लगते है!जीव को समय्ग्दर्शन हुआ,फिर वह पहली प्रतिमा लेते है!
प्रतिमाये स्वयं नहीं ली जाती,किसी गुरु महाराज/आर्यिका माताजी के पास जाकर निवेदन कर कि "मै महाराज जी मै चाहता/ चाहती हूँ की मेरे जीवन में कुछ चारित्र का विकास हो जाए इसलिए आप मुझे एक,दो-तीन...... प्रतिमा कुछ भी दे दीजिये!", कर प्रतिमा ली जाती है !वे परिक्षण करेंगे,आप से कुछ प्रश्न द्वारा ज्ञात करेंगे की आपको इन प्रतिमाओ का स्वरुप और इन प्रतिमाओं में क्या करना होता है?आप इसको जानते है या नहीं,आपको इसके विषय में समझायेंगे,यदि वे संतुष्ट होगे की आपमें प्रतिमा धारण करने की योग्यता है तब आपको योग्यता अनुसार प्रतिमा दे देंगे! प्रतिमाओं का पालन एक बार लेने पर जीवन पर्यन्त करना होता है!दूसरी प्रतिमा,पहली प्रतिमा के साथ ही ली जाती है!ऐसा असंभव है,चौथी का पालन,१,२,३ प्रतिमाओं के पालन के बिना नहीं होता है!कोई सातवी प्रतिमा लेता है तो १ से ६ तक का पालन उसमे गर्भित होता है!

१-दर्शन प्रतिमा-

दर्शन प्रतिमा धारक जीव, सम्यगदृष्टि, अन्याय, अनीति और अभक्ष्य का त्यागी होता है! वह अपने व्यापार में अन्याय नहीं करता,नीति पूर्वक कार्य करता है,कोई मिलावट,हिंसक वस्तु आदि का व्यापार नहीं करता,स्वयम अभक्ष्य का त्यागी होता है! जो जीव यह प्रतिमा लेता है वह सप्तव्यसन का निर्दोष रूप से त्यागी होता है! जैसे सप्त व्यसन के त्याग में 1-जुए का त्याग करने से वह लौटरी,शेयर,आदि का व्यापार नहीं कर सकता क्योकि ऐसा करने से सप्त व्यसन त्याग दूषित हो जायेगा!2-मांस त्याग मे, प्रतिमा धारण करने से पूर्व सिर्फ मांस का त्यागी था, किन्तु अब उसे बाज़ार की बनी समस्त वस्तुओं का त्याग आजीवन करना होगा! क्योकि उसमे सब कुछ अशुद्ध है,त्रस जीव उसमे पड़े है,त्रस जीवों का शरीर मांस होता है,वह उनका भक्षण नहीं करेगा! डेरी का दूध नहीं पीएगा! अन्यथा मांस त्याग में दोष लगेगा! 3-मदिरा-अभी तक वह शराब नहीं लेता था किन्तु प्रतिमा धारण करने के बाद वह डोक्टर की एलोपैथी दवाई,वैद्य से आस्रव अरिष्ट आदि नहीं लेगा,कोल्ड ड्रिंक का त्यागी होगा! 4-वैश्यगमन का त्यागी है-तब नाच गाने नहीं देखेगा! 5-शिकार - नहीं खेलेगा! जिन चटाई,चादरों पर पशु पक्ष्यों का चित्र बना है उन पर प्रतिमा धारी नहीं बैठेगा! 6- किसी प्रकार की कोई चोरी नहीं करेगा, यदि वह कोई मकान खरीदता है और उसमे कोई गढा हुआ माल निकलता है तो उसे स्वीकार नहीं करेगा!पर स्त्री सेवन से पूर्णतया दूर रहेगा! उनसे एकान्त में बात करने का त्यागी होगा,उसकी शैया पर नहीं बैठेगा, अर्थात सप्त व्यसन के त्याग का निर्दोष रूप से पालन करेगा!
वह अष्ट मूल गुण निर्दोष रूप से धारण करेगा! जैसे मद्य,मांस,मदिरा के त्याग मे यदि किसी वस्तु मे मधु,मांस,मदिरा मिला है तो उसको भी ग्रहण नहीं करेगा !पञ्च उदंबर फलों का बिलकुल त्याग करेगा! उनका सुखा कर भी भक्षण नहीं करेगा!
पहली दर्शन प्रतिमा में सम्यग्दृष्टि जीव,निर्दोष सप्त व्यसन का त्यागी,निर्दोष अष्ट मूल गुणों का धारक,बाज़ार की बनी वस्तुओं के भक्षण का,मित्र के घर खाने का,त्यागी होता है! आटा ,मसाले , मर्यादित का सेवन करता है! अमर्यादित वस्तुओं में जीवों की उत्पत्ति शुरू हो जाती,जिससे मांस खाने का दोष लगेगा,इसलिए वे त्याज्य है! आटे की मर्यादा सर्दी में ७दिन ,गर्मी में ५ दिन और बरसात में ३ दिन बताई है!नमक बाज़ार का नही वरन सेंधा नमक का प्रयोग करेगा!
वह नल,हैण्डपम्प,बोरिंग के पानी का प्रयोग नहीं करेगा! कुए के पानी का प्रयोग करेगा! वर्तमान में पानी के प्रयोग पर साधुऔ की दो परम्पराय है!कुछ साधु केवल कुए के पानी के साथ ही पहली प्रतिमा देते है और कुछ बोरिंग और हैंडपंप के पानी के साथ,पहली प्रतिमा दे देते है! इसमें पानी छना हुआ ही मर्यादित पानी का (अर्थात ४८ मिनट बाद प्रयोग करने से पानी पुन:छानना होगा!),प्रयोग करना होता है!
पानी की जिव्वानी को भी वही डालेगा जहाँ से जल लाया होगा! आचार्य विद्यासागर जी महाराज, कुए के पानी का नियम लिए बिना,पहली प्रतिमा नहीं देते,क्योकि कुए के पानी मे तो जिव्वानी में आये त्रस जीवों को कुए मे वापिस पहुंचा देते है किन्तु बोरिंग/पंप के पानी मे जिव्वानी के त्रस जीव उसी स्थान पर कैसे पहुंचेंगे!
कुए से पानी निकलकर छाना,छनकर उस बिन छलनी को बाल्टी में लिया,कड़े वाली बाल्टी ली, और उस बाल्टी की जिव्वानी पुन: उस कुए में डाल दी,यह सही तरीका है!यदि ऐसा करते है तो जीवों के रक्षा होगी अन्यथा नहीं!बोरिंग के पानी में,जब बोरिंग का मोटर चलता है तब पानी के ऊपर आते आते तीव्र प्रेशर और घर्षण से त्रस जीवों का घात होता है,जबकि कुए से बाल्टी में पानी बिना किसी घर्षण और प्रेशर के ऊपर आ जाता है इसलिए उसमे त्रस जीवों का घात नहीं होता! ट्यूब वेल और पम्प के पानी का निषेध इसीलिए किया गया है क्योकि १-उनमे त्रस जीवों का घात होता है और दूसरा जिव्वानी उसी स्थान पर हम पहुंचा नहीं सकते! वर्तमान,में कुछ महाराजों ने कुए के अन उपलब्धता के कारण कुए के पानी की छुट दे दी है अत उनके अनुसार बोरिंग अथवा हैण्ड पंप के पानी का प्रयोग उन महाराजो के साथ चर्चा करके तदनुसार प्रतिमाधारी प्रयोग करे!
पानी सुबह निकालकर,छानेगा,उबालेगा जिससे उसकी मर्यादा २४ घंटे की हो जाती है!इसी पानी को २४ घंटे तक पीएगा!
पहली दो प्रतिमाये ही कुछ कठिन है उसके बाद की मे कोई विशेष कठनाई नहीं होती!
रात्रि मे वह चारो प्रकार के आहार का त्याग करेगा! खाद्य,स्वाद्य,पेय,चाट्य वस्तुओं का रात्रि में त्याग करेगा! सूर्यास्त से ४५ मिनट पहले अर्थात यदि सूर्यास्त का समय ६.३० बजे है तो ५.४५ तक प्रतिमाधारी भोजन,दवाई इत्यादि सब कुछ लेकर कुल्ला कर लेगा! हम सुबह से शाम तक सभी अशुद्ध वस्तुओं काप्रयोग करते है!हमारा नहाने का पानी,पीने का पानी,दूध, हमारा निवर्तने का ढंग,मंजन,पे स्ट,सब अशुद्धि का भण्डार है!चौके मे आटा,मसाले सभी तो अमर्यादित अशुद्ध है! इन सबकी शुद्धि पहली प्रतिमा से हो जाती है!पहले प्रतिमा बहुत महत्त्व पूर्ण है क्योकि इसे धारण करते ही जीव का पांचवां गुणस्थान हो जाता है!चौथे गुणस्थान मे जो निर्जरा २४ घंटे में नहीं होती ,अब प्रति समय निर्जरा होती है! यह प्रतिमा शुरू शुरू में कठिन लगती है किन्तु अभ्यास करने से अत्यंत सरल लगने लगती है!
पहली दर्शन प्रतिमा मे बीमार होने पर इलाज़ कराने का प्रावधान है -
प्रतिमा धारियों का क्या साधों का भी इलाज़ होता है!देश में अनेक वैद्य है जो शुद्ध दवाइयों से इलाज़ करते है!वे साधों और व्रतियों के लिए दवाई बनाते भी है और सूचित करने पर आपके पास भिजवा भी देतें है!शुद्ध दवाई से इलाज़ कराने का कोई प्रतिबन्ध नहीं है!कैप्सूल नॉन वेजीटेरियन है इसलिए उसका निषेध है!उनमे बाहरी दवाइयों की शुद्धता का ज्ञान नहीं है,इसलिए उन्हें नहीं ले सकते!यदि दवाइयों की शुद्धता पता हो तो दवाई लेना का निषेध नहीं है! होम्योपैथिक दवाई अल्कोहल बेस होती है, उनके प्रयोग का निषेध है!प्राकृतिक चिकत्सा,तेल आदि से मालिश तो करवा ही सकते है !

2 व्रत प्रतिमा-

पहली प्रतिमा धारण कर खाना-पीना ठीक होने के पश्चात्
दूसरी व्रत प्रतिमा -में,श्रावक ५ अणुव्रत-अहिंसा अणुव्रत,सत्याणुव्रत,अचौर्य अणुव्रत,ब्रह्मचर्य अणुव्रत,परिमाणपरिग्रह अणुव्रत,३ गुणव्रत-दिगव्रत,देशव्रत,अनर्थदंड व्रत और चार शिक्षा व्रत-सामयिकी,प्रोषधोपवास,भोगोपभोग परिमाण और अतिथि संविभाग,१२ व्रतों को जीवन पर्यन्त के लिए धारण करता है! इन १२ व्रतों के धारण करने से श्रावककी दूसरी व्रत प्रतिमा पूर्ण होती है!
इस प्रतिमा में लिए गए नियमों को संकुचित तो किया जा सकता है किन्तु बढाया नहीं किया जा सकता अन्यथा व्रत भंग का दोष लग जाता है!

३-सामायिक प्रतिमा-

इसमें नियम से तीन बार,प्रात: सूर्योदय के समय,मध्यनाह-१२ बजे और सांय सूर्यास्त के समय प्रतिमा धारी जघन्य से २ घड़ी.मध्यम से ३ घड़ी और उत्कृष्टता से ४ घड़ी नियम से सामयिकी विधिपूर्वक करने का नियम लेता है! सर्व प्रथम चारों दिशाओं मे आवर्त ,नवकार मन्त्र का पाठ खड़े होकर करता है,वंदना और नमोस्तु करता है फिर किसी उत्तर अथवा पूर्व दिशा की ऒर मुह कर, बैठ स्व आत्म चिंतन करता है,अपने दोषों का चिंतन करता है,अपनी आलोचना करता है,भावनाए आदि सामयिकी के निश्चित समय तक भाता है! यह सामायिक प्रतिमा का स्वरुप है!
दूसरी प्रतिमा धारी के शिक्षाव्रत, की सामायिकव्रत मे नियम से उसको नित्य तीनो समय सामयिकी करना आवश्यक नहीं है क्योकि उसका नियम नहीं होता,वह सिर्फ अभ्यास के लिए करता है!जबकि तीसरी सामयिकी प्रतिमा मे,प्रतिमाधारी को तीन समय प्रात: सूर्यास्त के समय मध्यान्ह: १२ बजे और सांय सूर्यास्त के समय विधि पूर्वक सामयिकी करना २,३,या ४ घड़ी नित्य करने का नियम होने के कारण आवश्यक है!

४-प्रोषध प्रतिमा-

तीनों प्रतिमाओं के बाद यह प्रतिमा ली जाती है! जब दूसरी प्रतिमा ली गयी थी तब वह प्रोषध उपवास अर्थात माह मे दो अष्टमी और दो चतुर्दशी को, इनसे पूर्व और पश्चात दो दिन एकासन और उसी दिन उपवास करता था! वहां वह इस व्रत का अभ्यास करता है अर्थात कभी नहीं भी कर पाए तो चल जाता था किन्तु चौथी प्रोषध प्रतिमा धारी को तो नियम से ये प्रोषध उपवास करने ही है! सप्तमी /तेरस और नवमी/अमावस्या-पूर्णिमा को एकसन्न और अष्टमी/चतुर्दशी को उपवास करना ही होगा! यदि उसकी इतनी सामर्थ्य नहीं हो तो अष्टमी/चतुर्दशी को तो उपवास अवश्य ही रखेगा!
दूसरी प्रतिमा में,शिक्षाव्रत में ,प्रोषधोपवास आभ्यास रूप था ,नियम नहीं था वह एक दो बार नहीं रखे व्रत तो काम चल जाता था किन्तु चौथी प्रोषध प्रतिमा मे नियम से यह व्रत करने होते है,इसमें कोई छूट नहीं है!
इन चार प्रतिमाओं को नारकी और देव तो धारण कर ही नहीं सकते क्योकि इनके व्रत नहीं होते!तिर्यंच गति मे जीव संकल्प कर सकते है जैसे भगवान् महावीर के जीव ने सिह पर्याय में दो चरण ऋद्धि धारी मुनियों के उपदेश के फलस्वरूप सकल्प लिया था की वे आगे से अब हिंसा नहीं करेंगे , वे किसी को मार कर नहीं खायेंगे ! पानी भी सूर्य की धूप से गर्म हुआ ही पीयूँगा!किसी जीव की हिंसा नहीं करने का वह नियम ले सकता है ,किन्तु प्रतिमा धारण नहीं कर सकता! प्रतिमा धारण सिर्फ आर्यखंड का कर्मभूमिज मनुष्य ही कर सकता है क्यो कि भोग भूमि में व्रतों का धारण नहीं होता!
प्रतिमाओं के धारण करने से लाभ-
ये प्रतिमाये धारण करने से हमारी आत्मा से लगे कर्म बंध हलके हो जाते है! इन के द्वारा कर्मों की संवर और निर्जर प्रति समय नियम से होती है!यदि कोई महान क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव है,उसकी भी प्रति समय निर्जारा नहीं होती,यदाकदा हो जाती है !किन्तु पहली प्रतिमा धारी जीव के चाहे वह रोगी हो,दरिद्र हो,दुखी हो या सुखी हो उसकी प्रति समय कर्मों की निर्जरा नियम से होती ही है! उसके सोते,जागते,विश्राम करते हुए भी प्रति समय कर्मों की निर्जरा बराबर होती रहेगी क्योकि उसने व्रतों का संकल्प कर लिया! हमारा लक्ष्य कर्मो के आस्रव और बंध रुके,संवर और निर्जारा हो! यह लक्ष्य इन प्रतिमाओं के धारण से पूरा हो जाता है! इनके धारण करने से हम अभक्ष्यों, अशुद्ध भोजन के सेवन,और २४ घंटे होने वाली हिंसा आदि पापों से बच जाते है! इससे हमारा स्वास्थ्य भी अच्छा हो जाता है! इससे लाभ ही लाभ है इसलिए हमें इस जीवन को अव्रती के रूप मे तो त्यागना ही नहीं है! चाहे एक या दो प्रतिमा ही धारण करे! इस प्रकार हम अपने आप को अनेको पापों से बचा लेंगे !व्रती नियम से स्वर्ग जाते है!अत: हमें सकल्प पूर्वक प्रतिमा धारण करनी चाहिए!

५-सचित्त त्याग प्रतिमा-

चित्त=जीव,सचित्त=जीव सहित! पांचवी प्रतिमा में श्रावक जीव रहित वस्तुओं के सेवन का नियम लेता है! अभी तक वह सेव को तराश सेवन करता था! जिसमे असंख्यात सूक्ष्म जीव,सुई की नोक से भी छोटे,जो की माइक्रोस्कोप से भी दिखाई नहीं पड़ते, होते है! ऐसा जिनेन्द्र देव ने अपनी दिव्य-ध्वनि मे कहा,जिसे गंधरदेव ने द्वादशांग में गुथित किया और आचार्यों ने शास्त्रों में लिपिबद्ध किया,जिनके स्वाध्याय से हमें ज्ञान हुआ कि,वनस्पति में सुई की नोक से भी सूक्ष्म असंख्यात जीव होते है!पाचवी सचित्त त्याग प्रतिमाधारी सेव,अमरुद,केले,पानी आदि को अचित्त कर सेवन करेगा!पानी को छानने से,त्रस जीवों को हटाकर अभी तक वह पीता था,किन्तु पांचवी प्रतिमा धारण करने के बाद वह छने जल को उबाल कर,एकेंद्रिया जलकायिक जीवों रहित कर अर्थात अचित्त करके पीएगा!
पेड़ से टूटा फल/फूल अचित्त नहीं होते है!एक भक्त ने आचार्य श्री शांति सागर महाराज जी के समक्ष पेड़ से टूटे हुए पुष्प चढ़ाये,उन पुष्पों की एक-दो पंखुड़ी उनके शरीर पर गिर गयी जिसे उन्होंने अपनी पिच्छी से हटा दिया! भक्त ने प्रश्न किया महाराज मैंने तो यह पुष्प बड़ी भक्ति भाव से चढ़ाये है आप इन्हें अलग क्यों कर रहे है?महाराज ने उत्तर दिया "इन टूटी हुई पंखुड़ियों मे भी जीव है,ये सचित्त है,इनकी मेरे शरीर की गर्मी से हिंसा होगी इसलिए मैंने इन पंखुड़ियों को शरीर से पिच्छी द्वारा हटाया है!",जब आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज टूटे हुए फूल की पंखुड़ियों मे भी जीव बता रहे है तो वृक्ष से टूटे हुए फल में तो निश्चित रूप से जीव है ही!अत: वह अचित्त,जीव रहित नहीं हो सकता!
फल को अचित्त करने की विधि- सेव को गर्म पानी मे १० मिनट तक रखने से वह जीव रहित, अचित्त हो जाता है!फिर पांचवी प्रतिमाधारी सेव/फल का सेवन कर सकता!अंगूर,अमरुद,केले की सब्जी बना कर सेवन करेंगे!नारियल का पानी सचित्त है!उस के पानी में काली मिर्च,लोंग का चुरा और सौफ डालकर हिलाने से वह अचित्त हो जाता है!मुनि महाराज को भी ऐसे ही अचित्त कर फल/पेय/रस आदि देने चाहिए!अन्यथा उनका अहिंसा महाव्रत दूषित हो जाएगा,जिससे देने वाले को भी दोष पाप लगेगा! गन्ने के रस को निकालने में विशेष बात का ध्यान रखना है! गन्ने की गांठों मे अनंत जीव राशी होती है!मुनि महाराज को गन्ने का रस देने के लिए पहले गांठे हटाये फिर बीच की पोरी के छिल्लक को घिस कर हटाये तत्पश्चात उनका रस निकाल कर पीसी हुई लौंग,सौफ,और काली मिर्च के साथ हिलाकर अचित्त करे!तत्पश्चात मुनिमहाराज को रस दे! आम का रस निकलकर, कपडे से छान ले,क्योकि आम के छोटे से कण मे भी असंख्यात वनास्पतिकायिक जीव होते है! यह अचित्त हो जाता है! फलों को अचित्त करने से उनमे स्वाद नहीं रहेता किन्तु मुनिराज जीव हिंसा से बच जाते है जो की अधिक महत्त्व पूर्ण है,इसलिए फल/पेय/रस आदि अचित्त करना अत्यंत आवश्यक है!
मूलाचार में स्पष्ट लिखा है की साधक को रसना इन्द्रिय को संयमित करने के लिए अचित्त कर ही फल आदि का सेवन करना चाहिए!
सेव को अचित्त करने के लिए उस को १०-१५ मिनट गर्म पानी में रखने से उसमे उपस्थित एकेंद्रिय स्थावर जीवों की तो हिंसा हो गयी,वे तो उसी मे रह गए,तो क्या इस हिंसा का दोष हमें नहीं लगेगा?
पांचवी प्रतिमा धारी जीव,जीवों के भक्षण का त्यागी है,वह जीव सहित वस्तुओं को खाता नहीं है! उसे,पानी उबालने, भोजन बनाने में जीवों की हिंसा तो होगी, किंतु वह सिर्फ जीवों के सेवन का त्यागी होता है! अत: वह अचित्त,जीव रहित वस्तुओं का भक्षण करता है!
जिनका शरीर ही जल ही है वे जलकायिक जीव है,पानी को उबलने के बाद जल जीव, अर्थात जीव आत्माए उसमे से निकल जाते है उन जल जीव के निकलने के बाद शेष जल काय,जल ही रह जाता है! जलकायिक जीवों में हड्डी,मांस आदि कुछ नहीं होता!आचार्यों ने कहा है त्रस जीवों का शरीर मांस सहित रहता है,स्थावर जीवों का शरीर नहीं छूटा इसलिए मांस रहित कहलाता है! सेव को भी गर्म पानी मे १०-१५ मिनट रखने से उसमे जीव आत्माए निकल जाती है, उनके शरीर उस सेव मे नहीं शेष रहते!

६-छट्ठी रात्रि भोजन व दिव्या मैथुन त्याग प्रतिमा-

छट्ठी प्रतिमा धरी मन, वचन,काय,कृत ,कारित,अनुमोदन से रात्रि भोजन का त्यागी होता है!वह रात्रि भोजन का स्वयं तो त्यागी होता ही है,किन्तु अन्य किसी को रात्रि में भोजन कराता भी नही है! उद्धारहण के लिए-छट्ठी प्रतिमाधारी, मां के बराबर के कमरे में रात्रि में बहु के साथ उसका बच्चा भूख के कारण रो रहा है, वह माँ बहू से यह भी नहीं कहेगी की बहू बच्चे को दूध पिला दे! क्योकि उसने छट्ठी प्रतिमा ली है जिसमे वह मन, वचन,काय से-कृत,कारित,अनोमोद्ना से किसी को रात्रि मे भोजन/पेय के लिए नहीं कहेगी !
रात्रि भोजन त्याग मे रात्रि भोजन का स्वयं त्याग किया जाता है किन्तु रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा में मन,वचन,काय,कृत,कारित,अनुमोदन से नव कोटि से, रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग किया जाता है!
इसी प्रतिमा का दूसरा नाम दिव्या मैथुन त्याग प्रतिमा भी है अर्थात प्रतिमाधारी दिन में मैथुन का सर्वथा त्याग करता है!

७-ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी-

व्रती,दूसरी प्रतिमा मे, ब्रह्मचर्य अणुव्रत लेते है,जिसमे वह अपनी पत्नी/पति के अतिरिक्त सभी को मां/पिता,बेटी/पुत्र,बहन/भाई तुल्य समझूंगा/समझूंगी! सातवी प्रतिमा मे वह प्रतिमाधारी अपनी पत्नी/पति सहित, समस्त स्त्रियों/पुरषों के साथ काम सेवन का त्याग करता/करती है! अब वह पत्नी/पति के साथ एक कमरे में भी नहीं रहेगा!सोने की बात तो बहुत दूर की है!

८-आरम्भ त्याग प्रतिमा-

आरम्भ का अर्थ है जिन व्यापार/नौकरी और घर गृहस्थी के कार्यों के करने से हिंसा होती है वे कार्य आरम्भ कहलाते है! इस प्रतिमा में,प्रतिमाधारी ऐसे समस्त कार्यों का त्याग करता है!वह नौकरी नहीं करता,व्यापार नहीं करता,मकान नहीं बनवा सकता !महिलाए घर का भोजन भी नहीं बनाती !वह केवल अपने लिए भोजन बना सकती है और उसी में से महाराज को आहार भी दे सकती है वह स्वयं के कपडे धोती है, किन्तु अन्यो के कपडे नहीं धोएगी !
आरम्भ त्यागी प्रतिमाधारी चौका लगाकर आहार कैसे देगा उसमे भी तो हिंसा होती है?
वह अपने लिए तो भोजन बनाएगा ही,उसी मे से अतिथि संविभाग व्रत का पालन करते हुए मुनि राज को पडगाह कर आहार देगा! वह घर के सब लोगो का भोजन नहीं बनाएगा!
उसे मंदिर में पूजा करनी है तो वह कुए से जल लाएगा ,उसे प्रसुक करेगा ,सामग्री बनाएगा और अभिषेक पूजा करेगा!स्नान भी करेगा !
आरम्भ त्याग प्रतिमाधारी वहां का उपयोग कर सकता है या नहीं?
बीसवी शताब्दी के चरित्र चक्रवर्ती श्री शांति सागर जी माहराज के चरित्र पर एक ग्रन्थ "चरित्र चक्रवर्ती" है उसके अनुसार आरम्भ का त्यागी आठवी प्रतिमाधारी वहान/कार/ बैलगाड़ी आदि मे नहीं बैठ सकता!उसको महाराज के साथ पैदल ही चलना होगा!कुछ क्षुल्लक महाराज भी आचार्य शान्तिसागर महाराज जी के आदेश का उल्लंघन कर के वाहनों /रेल गाडी में यात्रा करते है जो की गलत है! आठवी आरम्भ त्याग प्रतिमाधारी का वाहनों आदि मैं बैठना अनुचित है!
सारांश-पांचवी सचित त्याग प्रतिमाधारी अचित्त खाद्य/पेय का ही सेवन करेगा!
छट्ठी;रात्रि भोजन और दिव्या मैथुन त्याग, प्रतिमा मे ,प्रतिमाधारी रात्रि भोजन का मन,वचन,काय, कृत,कारित,अनुमोद्ना,नव प्रकार से त्यागी होता है तथा दिन में मैथुन का भी त्यागी होता है!
सप्तम ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी-,ब्रह्मचर्य अणुव्रत में अपनी स्त्री के अतिरिक्त समस्त स्त्री/पुरुष के साथ कामसेवन का त्यागी था किन्तु सप्तम प्रतिमाधारी अपनी स्त्री/पत्नी से भी कामसेवन का त्यागी होता है!सभी को माँ,बेटी,बहिन/ पिता,पुत्र और भाई के तुल्य मानता है!
अष्टम आरम्भ त्याग प्रतिमाधारी किसी प्रकार का आरम्भ जैसे नौकरी व्यापार,मकान बनवाना/घर गृहस्थी,खेती इत्यादि कुछ नहीं करता! उसके समस्त आरम्भ का त्याग होता है!आठवी प्रतिमाधारी,धीरे धीरे समस्त अरम्भो का त्याग करता हुआ अपने चारित्र का उत्थान करते हुए क्रम से क्षुल्लक,क्षुल्लिका,ऐलक,आर्यिका,मुनि बनने की ऒर बढ़ता है!
प्रतिमाओं का लेने का मन बने तो मुनि महाराज के पास जाकर ले अन्यथा कम से कम इतना तो भावना बनाये की,"हे भगवान्,कब ऐसा समय आये की मै इन प्रतिमा को धारणकर अपने जीवन को चारित्र से विकसित कर सकूँ !

९-परिग्रह परित्याग प्रतिमा का स्वरुप -

अपना चारित्रिक विकास करता हुआ, नौवी प्रतिमाधारी श्रावक, समस्त परिग्रहों का त्याग कर, केवल थोड़े से अत्यंत आवश्यकों का नियम से भोगोपभोग करता है,जैसे कपडे में ,३ धोती,3दुपट्टे,३ बनियान,१ तकिया,१ रुमाल आदि का ही भोगोपभोग करता है क्योकि उसको आठवीं प्रतिमा तक के परिग्रह पाप के कारण होने से बॊझ लगने लगते है इसलिए वह इनसे अपना पीछा छुड़ाना चाहता है!

१०- अनुमति त्याग प्रतिमा का स्वरुप -

दसवीं प्रतिमाधारी घर मे रह सकते है,किन्तु वे घर के समस्त कार्यों मे सलाह/अनुमति देने के त्यागी होते है क्योकि वह धीरे धीरे क्षुल्लक और मुनि बनने की ऒर अग्रसर हो रहे होते है! उनसे बच्चे मकान बनाने,व्यापारिक गति विधियों, बच्चों की विवाह के विषयआदि में सलाह भी मांगते है तो वह कहते है की मैंने अनुमति देने का भी त्याग कर दिया है,जैसे आपको उचित लगे वैसा करो!

११-वीं उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा धारी का स्वरुप -

उद्दिष्ट का अर्थ है उद्देश्य से, अर्थात उद्दिष्ट त्याग- अपने उद्देश्य से बनाये गए भोजन का त्याग करना! ग्यारवीं प्रतिमाधारी,अपने लिए किसी भी तरह का भोजन बनाने के लिए नहीं कहते! यदि कोई उनसे कह भी दे,कि "मैंने यह आपके लिए भोजन बनाया है" तो उसको वह ग्रहण नहीं करते क्योकि अपने उद्देश्य से बनायी गयी वस्तु के ग्रहण करने के वे त्यागी होते है! शास्त्रों के अनुसार,वे अपने लिए लाये गए दुपट्टे-धोती आदि को भी नहीं ग्रहण करते! इसीलिए यदि क्षुल्लक महाराज या क्षुल्लिका बहन जी को वस्त्र देने हो तो हमेशा अपने घर में पहले से लाकर रखने चाहिए, जिससे आप उनके आगमन पर उन्हें दे सके! उनके उद्देश्य से खरीदे हुए धोती-दुपट्टे नहीं होने चाहिए अन्यथा वे उद्दिष्ट हो जायेंगे जिनके ग्रहण करने के क्षुल्लक-क्षुल्लिका ,ऐलक महाराज,आर्यिका माता जी त्यागी होते है!
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