03-28-2016, 07:11 AM
तत्वार्थ सूत्र(आचर्यश्री उमास्वामी जी रचित) अध्याय ७ - शुभ आस्रव
इस अध्याय में उमास्वामी आचार्यश्री ३९ ,सूत्रों के माध्यम से तीसरे 'आस्रव' तत्व के शुभ आस्रव के उपायों;पंच पापो से अपने को सुरक्षित रखने के लिए व्रतों ,उनकी भावनाओं और उनमें लगने वाले अतिचारों पर उपदेश देते हुए प्रथम सूत्र में व्रतों के लक्षण बताते हुए कहते है-
व्रत का लक्षण -
हिंसाऽनृतस्तेयाबृह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् !१!
संधि विच्छेद:-{(हिंसा+अनृत+स्तेय+अबृह्म+परिग्रहे+)भ्य:+विरति:}+व्रतम्
हिंसाभ्य:विरति:+अनृतभ्य:विरति:+स्तेयभ्य:विरति:+अबृह्मभ्य:विरति:+परिग्रहेभ्य:विरति:+व्रतम्!
शब्दार्थ-हिंसाभ्य:-हिन्सा का,विरति:-त्याग,अनृतभ्य:-झूठ का,विरति:-त्याग,स्तेयभ्य:-चोरी का,विरति- त्याग,अबृह्मभ्य:-अब्रहम/कुशील का,विरति-त्याग,परिग्रहेभ्य:-परिग्रहों का,विरति-त्याग,व्रतम्-व्रत है!
अर्थ-हिंसा,झूठ,चोरी,कुशील और परिग्रहो;पंच पापों का जीवनपर्यन्त बुद्धिपूर्वक त्याग व्रत है!इनके त्याग से क्रमशपंचव्रत;अहिंसाव्रत,सत्यव्रत,अचौर्यव्रत बृह्मचर्यव्रत और अपरिग्रहव्रत,५ व्रत होते है!
विशेष-१-पंचव्रतों में अहिंसाव्रत प्रधान है इसलिए,सूत्र में सर्वप्रथम रखा है क्योकि शेष चारो;अहिंसा की रक्षा के लिए खेत की बाढ़ के समान है!
शंका-व्रत संवर का कारण होते है,यहाँ आस्रव का कारण क्यों लिया?
समाधान-संवर निवृत्ति रूप होता है,जबकि व्रत यहाँ प्रवृत्तिरूप कहा है क्योकि यहाँ हिंसादि त्यागकर, अहिंसा रूप प्रवृत्ति की चर्चा हो रही है,वह शुभआस्रव का कारण है!इन व्रतों का अभ्यास/प्रवृत्ति भली भांति करने वाले ही संवर भी कर पाते है!मात्र निवृत्ति की चर्चा संवर का कारण होता !
व्रतों के भेद -
देशसर्वतोऽणुमहती !२!
संधिविच्छेद-देश+सर्वत:+अणु+महती
शब्दार्थ-देशत:-एकदेश/आंशिक त्याग-अणुव्रत,सर्वत:-सर्वदेश/सकल/पूर्णतया त्याग,महती-महाव्रत है !
अर्थ-व्रतों के दो भेद है!पांच पापों हिंसा,असत्य,चोरी,कुशील और परिग्रह का आंशिक रूप से त्याग अणुव्रत और सकल/पूर्णतया त्याग महाव्रत है!
भावार्थ-पञ्च पापों के एक देश त्याग से अणुव्रत और पूर्णतया त्याग से महाव्रत कहलाते है!
जैसे हिंसा के एक देश त्याग में-मात्र त्रसजीवों की हिंसा का त्याग करने से अहिंसाणु व्रत किन्तु पूर्णतया-स्थावर जीवों की भी हिंसा का त्याग करने से अहिंसामहाव्रत कहलाता है,यह महान कार्य महानपुरषों द्वारा होता है इन का एकदेश पालकजीवों का पंचम देशविरतगुणस्थान,प्रतिमाधरियों से आर्यिका माता जी का और सर्वदेश पालक का,छठा-प्रमत /सातवाँ अप्रमत्त गुणस्थान,महान मुनिराजों का होता है!इन गुणस्थानों में इनका पालन करने से जीव की असंख्यातगुणी निर्जरा,प्रतिसमय होती है अर्थात संसार बंधन शिथिल पड़ता है!इसलिए इनका पालन अत्यंत महत्वपूर्ण है!
विशेष-(अणु-महाव्रत)
१-अहिंसाव्रत-संसारी जीव षट प्रकार,५ स्थावर और एक त्रस के है ,इनमे केवल त्रस जीवों की हिंसा /घात त्याग अणु अहिंसाव्रत है;स्थावर व त्रस दोनों की हिंसा/घात का त्याग महा(अहिंसा) व्रत है!कषायों के वशी भूत दस प्राणों का घात करना हिंसा है !
२-सत्य व्रत-स्थूल असत्य का त्याग सत्य अणु व्रत है जैसे किसी घटना को जस की तस कहना , बिनाविचार किये की उस सत्य से किसी का घात भी हो सकता है!सूक्ष्म असत्य का त्याग,सत्य महाव्रत है जैसे ऐसे सत्य भी नहीं बोलना जिससे किसी जीव का घात हो जाए!कषायिक भाव पूर्वक अन्यार्थ भाषण करना असत्य है !
३-अचौर्यव्रत-किसी की वस्तु उसकी आज्ञा बिना ले लेना /गिरी हुई वस्तु उठाना आदि चोरी है!स्थूल चोरी का त्याग अचौर्य अणुव्रत है जैसे किसी से पुस्तक/वस्तु उसके पीछे उसके बैग से निकालना , इच्छा के विरुद्ध किसी को दान देने के लिए बाध्य करना, सरकारी राजस्व(टैक्सों ) की चोरी करना आदि!सूक्ष्म चोरी का भी त्याग अचौर्य महाव्रत है,जैसे हाथ धोने के लिए मिटटी भी किसी के द्वारा दिए बिना नहीं लेना! कषाय के वशीभूत किसी का धन सम्पत्ति हड़पना चोरी है
४-बृह्मचर्य व्रत-अबृह्म/कुशील का स्थूल रूप से त्याग अणु बृह्मचर्य व्रत है जैसे अपनी विवा हितपत्नी/पति से वासनात्मक संबंध छट्टी प्रतिमाधारी तक रखना!सूक्ष्म रूप त्याग में स्त्री/पुरुष मात्र से संबंध नहीं रखना बृह्मचर्य महाव्रत है !इसमें विपरीत लिंगी एक दुसरे के आसान/चादर पर भी नहीं बैठते,वे अपनी आत्मा में ही रमण करते है! कषाय वश किसी के साथ जबरदस्ती संबंध बनना अब्रह्म/कुशील है!
५-अपरिग्रह व्रत-किसी वस्तु रुपया पैसे जमीन जयदाद आदि होना परिग्रह नहीं है अपितु उसमे ममत्व बुद्धि होना कि यह मेरा है 'परिग्रह' है!क्योकि कोई भी वस्तु सदैव हमारे पास नहीं रहेगी/नहीं होगी वह किसी शुभ/अशुभ कर्म के उदय से है/नहीं है! इसलिए हमारे में परिग्रह के त्याग का भाव स्वेच्छा से होना चाहिए !परिग्रह का स्थूल त्याग अणु अपरिग्रह व्रत है जैसे अपने लाभ भोगोपभोग की सामग्री की एक सीमा निर्धारित क्र उस सीमा का उल्लंघन नहीं करना! परिग्रह का सूक्ष्मत: त्याग अपरिग्रह महाव्रत मुनिराज के होता है जिनके पास पिच्छी कमंडल और शस्त्र के अतिरिक्त अन्य कोई षगरह नहीं होता
उक्त पांचों व्रतों को यथाशक्ति पालन करने से ही हमे कल्याणकारी पथ मिलेगा! अत: इनको अपने जीवन में अंगीकार करना चाहिए
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इस अध्याय में उमास्वामी आचार्यश्री ३९ ,सूत्रों के माध्यम से तीसरे 'आस्रव' तत्व के शुभ आस्रव के उपायों;पंच पापो से अपने को सुरक्षित रखने के लिए व्रतों ,उनकी भावनाओं और उनमें लगने वाले अतिचारों पर उपदेश देते हुए प्रथम सूत्र में व्रतों के लक्षण बताते हुए कहते है-
व्रत का लक्षण -
हिंसाऽनृतस्तेयाबृह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् !१!
संधि विच्छेद:-{(हिंसा+अनृत+स्तेय+अबृह्म+परिग्रहे+)भ्य:+विरति:}+व्रतम्
हिंसाभ्य:विरति:+अनृतभ्य:विरति:+स्तेयभ्य:विरति:+अबृह्मभ्य:विरति:+परिग्रहेभ्य:विरति:+व्रतम्!
शब्दार्थ-हिंसाभ्य:-हिन्सा का,विरति:-त्याग,अनृतभ्य:-झूठ का,विरति:-त्याग,स्तेयभ्य:-चोरी का,विरति- त्याग,अबृह्मभ्य:-अब्रहम/कुशील का,विरति-त्याग,परिग्रहेभ्य:-परिग्रहों का,विरति-त्याग,व्रतम्-व्रत है!
अर्थ-हिंसा,झूठ,चोरी,कुशील और परिग्रहो;पंच पापों का जीवनपर्यन्त बुद्धिपूर्वक त्याग व्रत है!इनके त्याग से क्रमशपंचव्रत;अहिंसाव्रत,सत्यव्रत,अचौर्यव्रत बृह्मचर्यव्रत और अपरिग्रहव्रत,५ व्रत होते है!
विशेष-१-पंचव्रतों में अहिंसाव्रत प्रधान है इसलिए,सूत्र में सर्वप्रथम रखा है क्योकि शेष चारो;अहिंसा की रक्षा के लिए खेत की बाढ़ के समान है!
शंका-व्रत संवर का कारण होते है,यहाँ आस्रव का कारण क्यों लिया?
समाधान-संवर निवृत्ति रूप होता है,जबकि व्रत यहाँ प्रवृत्तिरूप कहा है क्योकि यहाँ हिंसादि त्यागकर, अहिंसा रूप प्रवृत्ति की चर्चा हो रही है,वह शुभआस्रव का कारण है!इन व्रतों का अभ्यास/प्रवृत्ति भली भांति करने वाले ही संवर भी कर पाते है!मात्र निवृत्ति की चर्चा संवर का कारण होता !
व्रतों के भेद -
देशसर्वतोऽणुमहती !२!
संधिविच्छेद-देश+सर्वत:+अणु+महती
शब्दार्थ-देशत:-एकदेश/आंशिक त्याग-अणुव्रत,सर्वत:-सर्वदेश/सकल/पूर्णतया त्याग,महती-महाव्रत है !
अर्थ-व्रतों के दो भेद है!पांच पापों हिंसा,असत्य,चोरी,कुशील और परिग्रह का आंशिक रूप से त्याग अणुव्रत और सकल/पूर्णतया त्याग महाव्रत है!
भावार्थ-पञ्च पापों के एक देश त्याग से अणुव्रत और पूर्णतया त्याग से महाव्रत कहलाते है!
जैसे हिंसा के एक देश त्याग में-मात्र त्रसजीवों की हिंसा का त्याग करने से अहिंसाणु व्रत किन्तु पूर्णतया-स्थावर जीवों की भी हिंसा का त्याग करने से अहिंसामहाव्रत कहलाता है,यह महान कार्य महानपुरषों द्वारा होता है इन का एकदेश पालकजीवों का पंचम देशविरतगुणस्थान,प्रतिमाधरियों से आर्यिका माता जी का और सर्वदेश पालक का,छठा-प्रमत /सातवाँ अप्रमत्त गुणस्थान,महान मुनिराजों का होता है!इन गुणस्थानों में इनका पालन करने से जीव की असंख्यातगुणी निर्जरा,प्रतिसमय होती है अर्थात संसार बंधन शिथिल पड़ता है!इसलिए इनका पालन अत्यंत महत्वपूर्ण है!
विशेष-(अणु-महाव्रत)
१-अहिंसाव्रत-संसारी जीव षट प्रकार,५ स्थावर और एक त्रस के है ,इनमे केवल त्रस जीवों की हिंसा /घात त्याग अणु अहिंसाव्रत है;स्थावर व त्रस दोनों की हिंसा/घात का त्याग महा(अहिंसा) व्रत है!कषायों के वशी भूत दस प्राणों का घात करना हिंसा है !
२-सत्य व्रत-स्थूल असत्य का त्याग सत्य अणु व्रत है जैसे किसी घटना को जस की तस कहना , बिनाविचार किये की उस सत्य से किसी का घात भी हो सकता है!सूक्ष्म असत्य का त्याग,सत्य महाव्रत है जैसे ऐसे सत्य भी नहीं बोलना जिससे किसी जीव का घात हो जाए!कषायिक भाव पूर्वक अन्यार्थ भाषण करना असत्य है !
३-अचौर्यव्रत-किसी की वस्तु उसकी आज्ञा बिना ले लेना /गिरी हुई वस्तु उठाना आदि चोरी है!स्थूल चोरी का त्याग अचौर्य अणुव्रत है जैसे किसी से पुस्तक/वस्तु उसके पीछे उसके बैग से निकालना , इच्छा के विरुद्ध किसी को दान देने के लिए बाध्य करना, सरकारी राजस्व(टैक्सों ) की चोरी करना आदि!सूक्ष्म चोरी का भी त्याग अचौर्य महाव्रत है,जैसे हाथ धोने के लिए मिटटी भी किसी के द्वारा दिए बिना नहीं लेना! कषाय के वशीभूत किसी का धन सम्पत्ति हड़पना चोरी है
४-बृह्मचर्य व्रत-अबृह्म/कुशील का स्थूल रूप से त्याग अणु बृह्मचर्य व्रत है जैसे अपनी विवा हितपत्नी/पति से वासनात्मक संबंध छट्टी प्रतिमाधारी तक रखना!सूक्ष्म रूप त्याग में स्त्री/पुरुष मात्र से संबंध नहीं रखना बृह्मचर्य महाव्रत है !इसमें विपरीत लिंगी एक दुसरे के आसान/चादर पर भी नहीं बैठते,वे अपनी आत्मा में ही रमण करते है! कषाय वश किसी के साथ जबरदस्ती संबंध बनना अब्रह्म/कुशील है!
५-अपरिग्रह व्रत-किसी वस्तु रुपया पैसे जमीन जयदाद आदि होना परिग्रह नहीं है अपितु उसमे ममत्व बुद्धि होना कि यह मेरा है 'परिग्रह' है!क्योकि कोई भी वस्तु सदैव हमारे पास नहीं रहेगी/नहीं होगी वह किसी शुभ/अशुभ कर्म के उदय से है/नहीं है! इसलिए हमारे में परिग्रह के त्याग का भाव स्वेच्छा से होना चाहिए !परिग्रह का स्थूल त्याग अणु अपरिग्रह व्रत है जैसे अपने लाभ भोगोपभोग की सामग्री की एक सीमा निर्धारित क्र उस सीमा का उल्लंघन नहीं करना! परिग्रह का सूक्ष्मत: त्याग अपरिग्रह महाव्रत मुनिराज के होता है जिनके पास पिच्छी कमंडल और शस्त्र के अतिरिक्त अन्य कोई षगरह नहीं होता
उक्त पांचों व्रतों को यथाशक्ति पालन करने से ही हमे कल्याणकारी पथ मिलेगा! अत: इनको अपने जीवन में अंगीकार करना चाहिए
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