06-03-2016, 05:53 AM
सम्यक्त्व के पच्चीस दोष तथा आठ गुण -
वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट अनायतन त्यागों ;
शंकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो।
अष्ट अंग अरू दोष पचीसों, तिन संक्षेपै कहिये;
बिन जाने तैं दोष गुननकों, कैसे तजिये गहिये।
आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन (अधर्म-स्थान) और आठ शंकादि दोष; इस प्रकार सम्यक्तत्व के पच्चीस दोष होते हैं। कोई भी जीव अपने अंदर रह रहे दोषों को जाने और समझे बिना उन दोषों को कैसे छोड़ सकता है, तथा अपनी आत्मा में विराजमान अनंत गुणों को कैसे गृहण कर सकता है? अतः सम्यक्त्व के अभिलाषी जीव को सम्यक्त्व के इन पच्चीस दोषों को त्याग करके चैतन्य परमात्मा में मन लगाना चाहिये। -
जीव के मद के आठ दोष -
पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तौ मद ठानै:;
मद न रूपकौ मद न ज्ञानकौ, धन बलकौ मद भानै।
तपकौ मद न मद जु प्रभुताकौ, करै न सो निज जानै;
मद धारैं तौ यही दोष वसु समकितकौ मल ठानै।
(1) कुल-मद - इस संसार में पिता के गोत्र को कुल और माता के गोत्र को जाति कहते हैं। जिस व्यक्ति के पितृपक्ष में पिता आदि राजादि पुरूष होने से उसको मैं राजकुमार हूँ, इस तरह का अभिमान हो जाता है, उसे कुल-मद कहते हैं।
(2) जाति-मद - मामा आदि मातृपक्ष मे राजादि प्रतापी पुरूष होने का अभिमान करना, सो जाति-मद है
(3) रूप-मद - शारीरिक सौन्दर्य का मद करना, सो रूप-मद होता हैं।
(4) ज्ञान-मद - अपनी विद्या या ज्ञान का अभिमान करना, सो ज्ञान-मद होता है।
(5) धन-मद - अपनी धन-सम्पति का अभिमान करना, सो धन-मद होता है।
(6) बल-मद - अपनी शारीरिक शक्ति का गर्व करना, सो बल-मद होता है।
(7) तप-मद - अपने व्रत-उपवासादि तप का गर्व करना, सो तप-मद होता है।
(8) प्रभुता-मद – अपने बड़प्पन और प्रभुता का गर्व करना सो प्रभुता-मद कहलाता है। इस तरह कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, बल, तप और प्रभुता; यह आठ मद-दोष कहलाते हैं। जो जीव इन आठ मदों का गर्व नहीं करता है, वही आत्मा का ज्ञान कर सकता है। यदि वह इनका गर्व करता है, तो ये मद सम्यकदर्शन के आठ दोष बनकर उसे दूषित करते हैं। छह अनायतन तथा तीन मूढ़ता दोष –
कुदेव-कुगुरू-कुवृष सेवक की नहिं प्रशंस उचरै है;
जिनमुनि जिनश्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हैं न नमन करै है।
कुगुरू, कुदेव, कुधर्म; कुगुरूसेवक, कुदेवसेवक तथा कुधर्मसेवक; यह छह अनायतन सच्चे जैन धर्म के अस्थान, कुस्थान या दोष कहलाते हैं। उनकी भक्ति, विनय और पूजनादि तो दूर रही, किन्तु सम्यकद्रष्टि जीव उनकी प्रशंसा भी नहीं करता है; क्योंकि उनकी प्रशंसा करने से भी सम्यक्त्व में दोष लगता है। सम्यकद्रष्टि जीव जिनेन्द्रदेव, वीतरागी मुनि और जिनवाणी के अतिरिक्त कुदेव और कुशास्त्रादि को किसी भी भय, आशा, लोभ और स्नेह आदि के कारण नमस्कार नहीं करता है, क्योंकि उन्हें नमस्कार करने मात्र से भी सम्यक्त्व दूषित हो जाता है। कुगुरू-सेवा, कुदेव-सेवा तथा कुधर्म-सेवा यह तीन भी सम्यक्त्व के मूढ़ता नामक दोष होते हैं।
सम्यक्त्व आठ अंग (गुण) और शंकादि आठ दोषों का लक्षण –
जिन वच में शंका न धार वृष, भव-सुख-वांछा भानै;
मुनि-तन मलिन न देखे घिनावै, तत्व-कुतत्व पिछानै।
निज गुण अरू पर औगुण ढांके, वा निजधर्म बढ़ावे;
कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-परको सु दिढावै।
धर्मी सों गौ-वच्छ-प्रीति सम, कर जिनधर्म दिपावै;
इन गुणतै विपरीत दोष, तिनकों सतत खिपावै।
नि:शंकित अंग –
सच्चा धर्म या तत्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है तथा अन्य प्रकार से नहीं हो सकता है; इसप्रकार यथार्थ तत्वों में अपार, अचल श्रद्धा होना, सो नि:शंकित अंग कहलाता है।
अहो, अव्रती सम्यकद्रष्टि जीव भोगों को कभी उचित नहीं मानते हैं; किन्तु जिस प्रकार कोर्इ बन्दी इच्छा न होने पर भी कारागृह में घनघोर दु:खों को सहन करता है, उसी प्रकार अव्रती सम्यकद्रष्टि जीव अपने पुरूषार्थ की निर्बलता से गृहस्थदशा में रहते हैं, किन्तु रूचिपूर्वक भोगों की इच्छा नहीं करते हैं; इसलिए उन्हें नि:शंकित और नि:कांक्षित अंग होने में कोर्इ भी बाधा या रुकावट नहीं आती है।
नि:कांक्षित अंग –
धर्म का पालन करके उसके बदले में सांसरिक सुखों की इच्छा न करना उसे नि:कांक्षित अंग कहते है।
निर्विचिकित्सा अंग –
मुनिराज अथवा अन्य किसी धर्मात्मा के शरीर को मैला देखकर घृणा न करना, उसे निर्विचिकित्सा अंग कहते है।
(4) अमूढ़द्रष्टि अंग –
सच्चे और झूठे तत्वों की परीक्षा करके मूढ़ताओं तथा अनायतनों में न फँसना, वह अमूढ़द्रष्टि अंग है।
(5) उपगूहन अंग –
अपनी प्रशंसा कराने वाले गुणों को तथा दूसरे की निंदा कराने वाले दोषों को ढंकना और आत्मधर्म को बढ़ाना (निर्मल रखना) सो उपगूहन अंग होता है। संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम सम्यकद्रष्टि को होते हैं। -छढाला
वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट अनायतन त्यागों ;
शंकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो।
अष्ट अंग अरू दोष पचीसों, तिन संक्षेपै कहिये;
बिन जाने तैं दोष गुननकों, कैसे तजिये गहिये।
आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन (अधर्म-स्थान) और आठ शंकादि दोष; इस प्रकार सम्यक्तत्व के पच्चीस दोष होते हैं। कोई भी जीव अपने अंदर रह रहे दोषों को जाने और समझे बिना उन दोषों को कैसे छोड़ सकता है, तथा अपनी आत्मा में विराजमान अनंत गुणों को कैसे गृहण कर सकता है? अतः सम्यक्त्व के अभिलाषी जीव को सम्यक्त्व के इन पच्चीस दोषों को त्याग करके चैतन्य परमात्मा में मन लगाना चाहिये। -
जीव के मद के आठ दोष -
पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तौ मद ठानै:;
मद न रूपकौ मद न ज्ञानकौ, धन बलकौ मद भानै।
तपकौ मद न मद जु प्रभुताकौ, करै न सो निज जानै;
मद धारैं तौ यही दोष वसु समकितकौ मल ठानै।
(1) कुल-मद - इस संसार में पिता के गोत्र को कुल और माता के गोत्र को जाति कहते हैं। जिस व्यक्ति के पितृपक्ष में पिता आदि राजादि पुरूष होने से उसको मैं राजकुमार हूँ, इस तरह का अभिमान हो जाता है, उसे कुल-मद कहते हैं।
(2) जाति-मद - मामा आदि मातृपक्ष मे राजादि प्रतापी पुरूष होने का अभिमान करना, सो जाति-मद है
(3) रूप-मद - शारीरिक सौन्दर्य का मद करना, सो रूप-मद होता हैं।
(4) ज्ञान-मद - अपनी विद्या या ज्ञान का अभिमान करना, सो ज्ञान-मद होता है।
(5) धन-मद - अपनी धन-सम्पति का अभिमान करना, सो धन-मद होता है।
(6) बल-मद - अपनी शारीरिक शक्ति का गर्व करना, सो बल-मद होता है।
(7) तप-मद - अपने व्रत-उपवासादि तप का गर्व करना, सो तप-मद होता है।
(8) प्रभुता-मद – अपने बड़प्पन और प्रभुता का गर्व करना सो प्रभुता-मद कहलाता है। इस तरह कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, बल, तप और प्रभुता; यह आठ मद-दोष कहलाते हैं। जो जीव इन आठ मदों का गर्व नहीं करता है, वही आत्मा का ज्ञान कर सकता है। यदि वह इनका गर्व करता है, तो ये मद सम्यकदर्शन के आठ दोष बनकर उसे दूषित करते हैं। छह अनायतन तथा तीन मूढ़ता दोष –
कुदेव-कुगुरू-कुवृष सेवक की नहिं प्रशंस उचरै है;
जिनमुनि जिनश्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हैं न नमन करै है।
कुगुरू, कुदेव, कुधर्म; कुगुरूसेवक, कुदेवसेवक तथा कुधर्मसेवक; यह छह अनायतन सच्चे जैन धर्म के अस्थान, कुस्थान या दोष कहलाते हैं। उनकी भक्ति, विनय और पूजनादि तो दूर रही, किन्तु सम्यकद्रष्टि जीव उनकी प्रशंसा भी नहीं करता है; क्योंकि उनकी प्रशंसा करने से भी सम्यक्त्व में दोष लगता है। सम्यकद्रष्टि जीव जिनेन्द्रदेव, वीतरागी मुनि और जिनवाणी के अतिरिक्त कुदेव और कुशास्त्रादि को किसी भी भय, आशा, लोभ और स्नेह आदि के कारण नमस्कार नहीं करता है, क्योंकि उन्हें नमस्कार करने मात्र से भी सम्यक्त्व दूषित हो जाता है। कुगुरू-सेवा, कुदेव-सेवा तथा कुधर्म-सेवा यह तीन भी सम्यक्त्व के मूढ़ता नामक दोष होते हैं।
सम्यक्त्व आठ अंग (गुण) और शंकादि आठ दोषों का लक्षण –
जिन वच में शंका न धार वृष, भव-सुख-वांछा भानै;
मुनि-तन मलिन न देखे घिनावै, तत्व-कुतत्व पिछानै।
निज गुण अरू पर औगुण ढांके, वा निजधर्म बढ़ावे;
कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-परको सु दिढावै।
धर्मी सों गौ-वच्छ-प्रीति सम, कर जिनधर्म दिपावै;
इन गुणतै विपरीत दोष, तिनकों सतत खिपावै।
नि:शंकित अंग –
सच्चा धर्म या तत्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है तथा अन्य प्रकार से नहीं हो सकता है; इसप्रकार यथार्थ तत्वों में अपार, अचल श्रद्धा होना, सो नि:शंकित अंग कहलाता है।
अहो, अव्रती सम्यकद्रष्टि जीव भोगों को कभी उचित नहीं मानते हैं; किन्तु जिस प्रकार कोर्इ बन्दी इच्छा न होने पर भी कारागृह में घनघोर दु:खों को सहन करता है, उसी प्रकार अव्रती सम्यकद्रष्टि जीव अपने पुरूषार्थ की निर्बलता से गृहस्थदशा में रहते हैं, किन्तु रूचिपूर्वक भोगों की इच्छा नहीं करते हैं; इसलिए उन्हें नि:शंकित और नि:कांक्षित अंग होने में कोर्इ भी बाधा या रुकावट नहीं आती है।
नि:कांक्षित अंग –
धर्म का पालन करके उसके बदले में सांसरिक सुखों की इच्छा न करना उसे नि:कांक्षित अंग कहते है।
निर्विचिकित्सा अंग –
मुनिराज अथवा अन्य किसी धर्मात्मा के शरीर को मैला देखकर घृणा न करना, उसे निर्विचिकित्सा अंग कहते है।
(4) अमूढ़द्रष्टि अंग –
सच्चे और झूठे तत्वों की परीक्षा करके मूढ़ताओं तथा अनायतनों में न फँसना, वह अमूढ़द्रष्टि अंग है।
(5) उपगूहन अंग –
अपनी प्रशंसा कराने वाले गुणों को तथा दूसरे की निंदा कराने वाले दोषों को ढंकना और आत्मधर्म को बढ़ाना (निर्मल रखना) सो उपगूहन अंग होता है। संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम सम्यकद्रष्टि को होते हैं। -छढाला