सोलह - कारण भावना (Solah -karan bhawana)
#1

सोलह - कारण भावना :-

  जिन्हे बार बार भाया जाये अर्थात चिन्तवन किया जायें वे भावना कहलाती हैं।सोलह भावनाऐं ही तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण हैं, अतः इन्हें सोलह कारण भावनाऐं कहते हैं। इन १६ भावनाओं में प्रथम भावना दर्शन विशुध्दि है। इस भावना का भाना परमावश्यक है।यदि यह भावना नहीं है तो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं हो सकता है। इसके साथ कुछ अन्य (या सभी शेष १५ ) भावनायें और हो तो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है।
ये १६ भावनायें निम्नानुसार हैं :-

१. दर्शन विशुध्दि भावना :- सम्यक् दर्शन  का अत्यन्त निर्मल व दृढ होना, २५ दोष रहित विशुध्द सम्यक् दर्शन को धारण करना।

२. विनय-सम्पन्नता भावना :- सच्चे देव,शास्त्र,गुरु और रत्न-त्रय का हृदय से सम्मान करना।

३. शील-व्रत अनतिचार भावना :-सम्यक् सहित ज्ञान की प्रकृति को शील कहा जाता है। शील व व्रतों का निर्दोष पालन करना तथा उनमें अतिचार नहीं लगाना।

४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना :- अभीक्ष्ण का अर्थ सदा या निरन्तर है।ज्ञान के अभ्यास में सदा लगे रहना ।

५. अभीक्ष्ण संवेग भावना :- दुःखमय संसार के आवागमन से सदा डरते रहना - धर्म और धर्म के फल में सदा अनुराग रखना।

६. शक्तिस्त्याग भावना :- अपनी शक्ति के अनुसार आहार आदि का दान देना।

७. शक्तिस्तप भावना :- अपनी शक्ति के अनुसार अंतरंग व बाह्य तप करना।

८.  साधु समाधि भावना :- साधुओं का उपसर्ग दूर करना।

९.  वैयावृत्यकरण भावना :- रोगी,वृध्द,साधु-त्यागी की सेवा सुश्रुसा करना,उनके कष्टों को  औषधि आदि निर्दोष विधि से दूर करना।

१०. अरहन्त भक्ति भावना :-  अरहन्त की भक्ति करना, अरहन्त द्वारा कहे गये अनुसार आचरण करना और उनके  गुणों में अनुराग रखते हुए ऐसे गुण स्वयं को प्राप्त हों; ऐसी भावना भाना ।

११.आचार्य भक्ति भावना :- आचार्य परमेष्ठी की भक्ति करना,उनके गुणों में  अनुराग रखना एवं ऐसे गुण हमें भी प्राप्त हों ऐसी भावना सदैव रखना ।

१२. बहुश्रुत भक्ति भावना :- जो मुनि द्वादशांग के पारगामी हैं , वे बहुश्रुत कहलाते हैं ।चूंकि  शास्त्रों में पारंगत उपाध्याय परमेष्ठी हैं, अतः इस भावना का तात्पर्य उपाध्यायों का आदर करना,उनके अनुरूप प्रवृति करना,ऐसे ही गुण हमें प्राप्त हों ऐसी भावना  सदैव बनाये रखना, बहुश्रुत भक्ति भावना है।

१३.प्रवचन - भक्ति भावना :-केवली भगवान के प्रवचन में अनुराग रखना अर्थात वीतरागी द्वारा प्रणीत आगम (जिनवाणी) की भक्ति करना एवं तदनुसार आचरण करते हुए ऐसी शक्ति स्वयं में प्रकट हो ऐसी भावना का चिन्तवन करना।

१४॰ आवश्यक अपरिहाणि भावना :- अपरिहाणि का अर्थ " न छोड़े जाने योग्य “ है।  इस प्रकार छः आवश्यक क्रियाओं को यथासमय सावधानी पूर्वक करना इस भावना में में आता है।

१५. मार्ग प्रभावना भावना :- ज्ञान, ध्यान,तप,पूजा आदि के  माध्यम से जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताये गये धर्म  (अर्थात जैन धर्म) को प्रकाशित करना,फेलाना मार्ग प्रभावना भावना है।विद्यालय व औषधालय खुलवाना ,असहाय व्यक्तियों की सहायता करना आदि कल्याण कारी कार्य भी इस भावना में आते हैं ।

१६. प्रवचन वात्सल्य भावना :-साधर्मी बन्धुओं से अगाध प्रेम भाव रखना।
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#2

Thanks for the great information. Please explain सम्यक् दर्शन का अत्यन्त निर्मल व दृढ होना, २५ दोष रहित विशुध्द सम्यक् दर्शन को धारण करना . What are these 25 dosh?
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#3

इन सोलह भावनाओं में से दर्शनविशुद्धि का होना आवश्यक है। सभी भावनाएं  मै से कोई भी एक होने से  भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है  तथा अपायविचय धर्मध्यान भी विशेषरूप से तीर्थंकर प्रकृति बंध के लिए कारण माना गया है। वैसे यह ध्यान तपो भावना में ही अंतर्भूत हो जाता है।

यह षोडशकारण पर्व वर्ष में तीन बार आता है। 


  1. भादों वदी एकम् से आश्विन वदी एकम् तक
  2. माघ वदी एकम् से फाल्गुन वदी एकम् तक 
  3. चैत्र वदी एकम् से वैशाख वदी एकम् तक

इस पर्व में षोडशकारण भावनाओं को भा करके परम्परा से तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया जा सकता है।
सोलह कारण भावनाएँ जीवन की श्रेष्ठतम भावनाओं में से एक है। जैन परम्परा में भावनाओं का बहुत महत्व है और यह कहा गया है-“यद भाव्यते, तद भवति।” मनुष्य जैसी भावना भाता है वैसा बन जाता है। सोलह कारण भावनाएँ तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध में हेतु भूत भावनाएँ हैं। आज हम तीर्थंकर बनने के लिए सोलह कारण भावना नहीं भाते, भविष्य में हमें तीर्थंकरों का सानिध्य मिले इसलिए भी सोलह कारण भावना भाई जाती है।
आप लोग सोलह कारण व्रत कर रहे हैं, बहुत सारे लोग सोलह कारण के बत्तीस उपवास कर रहे हैं, बहुत सारे लोग सोलह उपवास करते हैं, बहुत से लोग एक आहार-एक उपवास करते हैं; बहुत सारे लोग सोलह दिन में एक आसन करते हैं, बीच-बीच में उपवास करते हैं; बत्तीस दिन में एक आसन करते हैं और बीच-बीच में उपवास भी करते हैं; तो यह सोलह कारण भावना का एक तपस्या का रूप है, यह बाहरी रूप है, त्याग तप करना यह बाहरी रूप है। लेकिन इन दिनों उनकी जापों को करना चाहिए और सोलह कारण के स्वरूप को समझकर बार-बार उसका स्मरण करना चाहिए।

इन सोलह कारण भावनाओं में सबसे प्रधान या प्रमुख भावना है-दर्शन विशुद्धि! 
दर्शन विशुद्धि का मतलब- विश्व कल्याण की भावना से भरा हुआ, निर्मल सम्यक दर्शन! हमारे मन में सारे संसार के कल्याण की प्रगाढ़ भावना हो और निर्मल सम्यक दर्शन हो। संसार के कल्याण की भावना तो हो ही, हमारा सम्यक दर्शन निर्मल बना रहे, ऐसा प्रयास हमारा होना चाहिए। वही हमारे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में गिने जाने योग्य है। 
सम्यक दर्शन हमारा कैसे बने? 
  • देव-शास्त्र-गुरु के प्रति दृढ़ श्रद्धा हो; 
  • छः अनायतनों एवं तीन मूढ़ताओं से अपने आप को दूर करें; 
  • आठ अंग का पालन करें; 
  • आठ मद रहित पऋणति हो और 
  • साथ में तत्व के श्रद्धान के साथ आत्मा के प्रति अभिरुचि बढ़े।

मुनिश्री १०८ प्रमाणसागर जी महाराज बावनगजा जी बड़वानी, म.प्र. 
षोडश कारण भावना प्रवचन




1. दर्शन विशुद्धि - 



2. विनय सम्पन्नता -- जीवन में अकड़ नही विनम्रता रखो 


3. शीलव्रतेष्वनतीचार भावना - पापों से बचने के सरल उपाय 

4. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भावना - जानें क्या है सच्चा ज्ञान 
 


5.  अभीक्ष्णसंवेग भावना - जीवन को भय मुक्त करने के उपाय 

6. शक्तितस्त्याग -- जीवन का उद्धार संग्रह करने से नही त्यागने से होगा 


7. शक्तिस्तप -  तपस्या का प्रभाव और महिमा 



8. साधुसमाधि भावना - साधु पर आई विपत्ति को दूर करना श्रावक का कर्तव्य 


 9. वैयावृत्य भावना - जानें जीवन में किसकी सेवा जरुर करनी चाहिए 


10. 11. अरहन्त भक्ति , आचार्य भक्ति -

12. 13.  बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन - भक्ति -

14. आवश्यक अपरिहाणि - मुनि श्री क्षमासागर जी प्रवचन

15.16  मार्ग प्रभावना, प्रवचन वात्सल्य
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#4

11. आचार्य भक्ति भावना मुनि श्री क्षमासागर जी प्रवचन


12. प्रवचन भक्ति भावना मुनि श्री क्षमासागर जी प्रवचन

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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