उत्तम संयम धर्म
काय-छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री-मन वश करो।
संयम-रतन संभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं।।
उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजें अघ तेरे।
सुरग-नरक-पशुगति में नाहीं, आलस-हरन करन सुख ठाहीं।।
ठाहीं पृथी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो।
सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो।।
जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग-कीच में।
इक घरी मत विसरो करो नित, आव जम-मुख बीच में।।
अर्थ:
पंडित जी लिखते हैं, “छः काय (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा त्रस {दोइन्द्रीय, तीनिन्द्रीय, चारिन्द्रीय, पंचेन्द्रिय}) के जीवों की रक्षा करना चाहिए तथा पंचेन्द्रिय और मन को वश (काबू) में करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।”
“इस प्रकार, अपने संयम धर्म की रक्षा करना चाहिए क्योंकि इस जग में हमारे उपयोग (ध्यान, attention) लूटने के लिये कई विषय रूपी चोर घूम रहे हैं।”
[ऐसा कह कर पंडित जी यह स्पष्ट कर रहे हैं, कि अपने आत्मा को छोड़कर दूसरे विषयों/वस्तुओं के जानने के भाव हेय अर्थात छोड़ने योग्य हैं। क्योंकि जब यह जीव दूसरी वस्तुओं को जानने जाता है, तो वहाँ अपनापन/परायापन स्थापित कर के राग-द्वेष करता है, और पश्चात दुखी होता है।
तो, दुख से बचने का उपाय, तथा सुख प्रगट करने का उपाय, परद्रव्यों (दूसरी वस्तुओं) की ओर से उपयोग हटाकर अपने में लाना है। इसके लिए इन पांच इंद्रियों के विषयों से चित्त/मन/उपयोग/attention को हटाने का सुझाव दिया है।]
आगे पंडित जी लिखते हैं, “अरे मेरे मन! अब तो उत्तम संयम को धारण कर, जिससे तेरे भव-भव में बंधे गए पापों का/कर्मों का अभाव हो जाएगा।”
“कैसा है वह संयम?, कि न तो स्वर्ग गति में है, न ही नरक गति में है और न ही तिर्यंच (पशु) गति में है।”
तथा, “आलस को हरने अर्थात नाश करने वाला तथा सुख में स्थापित करने वाला (सुख दिलाने/प्रगट करने वाला) है।”
और फरमाते हुए पंडित जी लिखते हैं, “स्थावर अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति काय/कायिक जीवों की तथा त्रस अर्थात द्वीन्द्रीय, त्रीन्द्रीय, चतुरेन्द्रीय एवं पंचेन्द्रिय जीवों की रक्षा करने का भाव प्राणी संयम कहलाता है तथा पंचेन्द्रिय अर्थात स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण एवं मन के विषयों से अपने उपयोग (ध्यान/मन) को हटाकर आत्मा में स्थिर करना वह इन्द्रिय संयम कहलाता है।”
“यह संयम इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसके बिना जिनराज अर्थात तीर्थंकर आदि भी इस संसार से पार नहीं होते और जिसके बिना यह जीव जगत-रूपी कीचड़ में पड़ा रहता है, भ्रमता/रुलता रहता है, ऐसे संयम को आयु रूपी यमराज के मुँह में जाने से पहले ही, बिना एक घड़ी/क्षण गँवाए प्रगट करना चाहिए, उसका पालन करना चाहिए।”
इस प्रकार, संयम वह ‘दुख’ का नहीं ‘सुख’ का मार्ग है, यह पंडित जी इन पंक्तियों के द्वारा समझाते हैं।
तथा समझाते हैं, कि मात्र बाहर शरीर से उपवास कर लेना, भगवान की पूजा-भक्ति कर लेना अथवा दानादि दे देना, वह मात्र धर्म नहीं है। वह धर्म तो आत्मा का स्वभाव है, तो उसका आश्रय लेने से ही प्रगट होगा।
तथा ये उपवासादि क्रियाएँ उस आत्मा तक पहुंचाने के लिए ही हैं, कि शरीर, धन, परिवार से मोह हटाकर उसकी ओर अपना उपयोग ले जायें और सुख का अनुभव करें। मात्र क्रियाओं के कर लेने से धर्म होता तो अजीव वस्तुओं को भी धर्म होता क्योंकि वो तो निरन्तर ही उपवास करती हैं।
तथा, इन क्रियाओं को करने पर भी कई जीव दुखी देखे जाते हैं; जबकि, धर्म तो सुख का कारण है।
अतः, क्रियाओं से दृष्टि हटाकर, आत्मा के पास दृष्टि का आना ही वास्तविक ‘उत्तम संयम धर्म’ है और वही प्रगट करने योग्य है।
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