प्रवचनसारः गाथा -45, 46 तीर्थंकर अरिहंत भगवान की विशेषताएँ
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार


गाथा -45 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -46 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया।
मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग ति मदा // 45 //

अन्वयार्थ - (अरहंता) अरहन्त भगवान (पुण्णफला) पुण्य फल वाले हैं (पुणो हि) और (तेसिं किरिया) उनकी क्रिया (ओदइया) औदयिकी है, (मोहादीहिं विरहिदा) मोहादि से रहित है, (तम्हा) इसलिये (सा) वह (खाइगं) क्षायिकी (त्ति मदा) मानी गई है।

आगे अरहंतोंके पुण्यकर्मका उदय बंधका कारण नहीं है, यह कहते हैं- [अर्हन्तः ] सर्वज्ञ वीतरागदेव [पुण्यफला:] तीर्थकरनामा पुण्यप्रकृतिके फल हैं, अर्थात् अरहंत पद तीर्थकरनाम पुण्यकर्मके उदयसे होता है / [पुनः] और [तेषां] उनकी [क्रिया] काय तथा वचनकी क्रिया [हि] निश्चयसे [औदयिकी] कर्मके उदयसे है। परंतु [सा] वह क्रिया [मोहादिभिः ] मोह, राग, द्वेषादि भावोंसे [विरहिता] रहित है। [तस्मात् ] इसलिये [क्षायिकी] मोहकर्मके क्षयसे उत्पन्न हुई है, [इति मता] ऐसी कही गई है / भावार्थ-अरहंत भगवानके जो दिव्यध्वनि, विहार आदि क्रियायें हैं, वे पूर्व बँधे कर्मके उदयसे हैं / वे आत्माके प्रदेशोंको चलायमान करती हैं, परंतु राग, द्वेष, मोह भावोंके अभावसे आत्माके चैतन्य विकाररूप भावकर्मको उत्पन्न नहीं करतीं। इसलिये औदयिक , और आगे नवीन बंधमें कारणरूप नहीं है, पूर्वकर्मके क्षयमें कारण हैं / तथा जिस कर्मके उदयसे वह क्रिया होती है, उस कर्मका बंध अपना रस (फल) देकर खिर जाता है, इस अपेक्षा अरहंतोंकी क्रिया कर्मके क्षयका कारण है / इसी कारण उस क्रियाको क्षायिकी भी कहते हैं, अर्थात् अरहंतोंकी दिव्यध्वनि आदि क्रिया नवीन बंधको करती नहीं हैं, और पूर्व बंधका नाश करती है, तब क्यों न क्षायिकी मानी जावे ? अवश्य मानने योग्य है / इससे यह बात सिद्ध हुई, किं केवलीके बंध नहीं होता, क्योंकि कर्मका फल आत्माके भावोंको घातता नहीं / मोहनीयकर्मके होनेपर क्रिया आत्मीकभावोंका घात करती है, और उसके अभावसे क्रियाका कुछ भी बल नहीं रहता |



गाथा -46 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -47 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

जदि सो महो व असुहोण हवदि आदा सयं सहावेण /
संसारो वि ण विजदि सव्वेसिं जीवकायाणं // 46 //


अन्वयार्थ -  (जदि) यदि (यह माना जाये कि) (सो आदा) आत्मा (सयं) स्वयं (सहावेण) स्वभाव से (सुहो व असुहो) शुभ या अशुभ (ण हवदि) नहीं होता (शुभाशुभ भाव में परिणमित ही नहीं होता) (सव्वेसिं जीवकायाणं) तो समस्त जीव निकायों के (संसारो वि) संसार भी (ण विज्ञदि) विद्यमान नहीं है, (ऐसा सिद्ध होगा)।

आगे कहते हैं, कि जैसे केवलीके परिणामोंमें विकार नहीं है, वैसे अन्य जीवोंके परिणामोंमें विकारोंका अभाव भी नहीं है- यदि] जो [सः] वह आत्मा [स्वभावेन] अपने स्वभावसे [स्वयं] आप ही [शुभः] शुभ परिणामरूप [वा] अथवा [अशुभः] अशुभ परिणामरूप [न भवति] न होवे, [तदा] तो [ सर्वेषां] सब [जीवकायानां] जीवोंको [संसार एवं] संसार परिणति ही [न विद्यते] नहीं मौजूद होवे / भावार्थ-आत्मा परिणामी है / जैसे स्फटिकमणि काले, पीले, लाल फूलके संयोगसे उसीके आकार काला, पीला, लालरूप परिणमन करता है, उसी प्रकार यह आत्मा अनादिकालसे परद्रव्यके संयोगसे राग, द्वेष, मोहरूप अज्ञान भावोंमें परिणमन करता है / इस कारण संसार भाव है। यदि आत्माको ऐसा ( परिणामी) न मानें, तो संसार ही न होवे, सभी जीव अनादिकालसे लेकर मोक्षस्वरूपमें स्थित (ठहरे ) कहलावें, परन्तु ऐसा नहीं है / इससे सारांश यह निकला, कि केवली शुभाशुभ भावरूप परिणमन नहीं करते हैं, बाकी सब संसारी जीव शुभ, अशुभ भावोंमें परिणमते हैं |


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 45, 46

तीर्थंकर अरिहंत भगवान की विशेषताएँ

पूज्य मुनि श्री इस गाथा 045 के माध्यम से बताते हैं कि
* तीर्थंकर अरिहंत भगवान की सारी क्रियाएँ स्वभाव से होती हैं जिसके कारण उन्हें कर्म बंध नहीं होता है।
* यह तीर्थंकर भगवान के उत्कृष्ट पुण्य का फल होता है कि औदायिक भाव होने पर भी वह बंध का कारण नहीं बनता।
* मुनि श्री सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली में अंतर समझाते हुए तीर्थंकर भगवान के पुण्य का वर्णन कर रहे हैं।
* अतः पुण्य हेय नहीं है। पुण्य के फल से ही केवलज्ञान प्राप्त करने के उपरांत उनका तीर्थ चलता है। उनका सम्पूर्ण वैभव से सुशोभित होना, आकाश में गमन करना आदि क्रियाएँ उनके पुण्य से होती है।
* वे अहं और मम भाव से रहित होते हैं।

गाथा 046 में मुनि श्री बताते हैं कि यदि हम यह नहीं मानेंगे कि स्वभाव से संसारि आत्मा का परिणमन शुभ और अशुभ भावों से चलता है, तो वह आत्मा तो मुक्त ही कहलाएगा । यदि भीतर  आत्मा शुद्ध है तो मोक्ष जाने की ज़रूरत क्या है ?


Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha -45 
Attainment of the status of the Omniscient Lord – the Arhat (Tīrthańkara, Kevalī, Sarvajña) – is the fruit of the past meritorious karmas. In addition, the activities of the Arhat are
certainly due to the fruition of auspicious karmas. The activities of the Arhat do not take place due to the dispositions of delusion (moha), attachment (rāga) and aversion (dvesa).  His activities take place on complete destruction (ksaya) of the inimical (ghātī) karmas, including the deluding (mohanīya) karma.


Explanatory Note: 
Activities of the Arhat, like moving around and delivering the divine discourse, take place due to the fruition of karmas. These activities cause vibrations in the space-points of
the soul but due to the absence of dispositions of delusion (moha), attachment (rāga) and aversion (dvesa), do not cause bondage of fresh karmas; these just result in shedding of the past karmas. Thus, activities of the Arhat do not give rise to fresh bondage of karmas but, in fact, result in shedding of the past karmas. Without the presence of the deluding (mohanīya) karma, activities lose the strength of disturbing the purity of the soul. As per Tattvārthasūtra (2-4), the nine characteristics of the soul arising from destruction of the karmas are knowledge (jñāna), perception (darśana), gift (dāna), gain (lābha), enjoyment (bhoga), re-enjoyment (upabhoga), energy (vīrya), perfect faith
(saÉyaktva), and perfect conduct (cāritra). On destruction of knowledge- and perception-obscuring karmas arise perfect knowledge and perfect perception. On destruction of gift obstructing karmas arises the power of giving security to infinite multitude of living beings in form of fearlessness. On destruction of karmas that obstruct gain, the Omniscient does not take food. His body assimilates, every instant, infinite particles of extremely pure and subtle matter, beyond the reach of ordinary human beings, that give strength. This is the ‘gain’ derived from destruction of the karmas. On destruction of the karmas that obstruct enjoyment, there arises infinite enjoyment of unparalleled nature. The marvels of the showers of flowers etc. result from this. Owing to the disappearance, without remnant, of the obstructive karmas of re-enjoyment is manifested infinite re enjoyment. The manifestation of the throne, the fans, the canopies, and other splendours are examples of re-enjoyment. On destruction of the karmas that obstruct energy, the soul attains infinite energy. On destruction of these seven subtypes of karmas, the soul attains perfect faith and perfect conduct.  

Gath 46
The soul, by its nature, entertains auspicious- and inauspicious transformations; if such transformations were not present in the soul, it would not have trans-migratory existence.
Explanatory Note: 
The soul undergoes transformations. As the crystal transforms into the colour of the flower that is in union with it, in the same way, the soul, since beginningless time, transforms into ignorant dispositions of attachment (rāga), aversion (dvesa) and delusion (moha) due to its union with external objects. If this were not the case, all souls would establish permanently in the state of liberation. Since this is not the case, it is clear that the pure soul of the Omniscient Lord (the Arhat) does not entertain auspicious- and inauspicious-transformations; other souls do.

Taken from : Ācārya Kundakunda’s Pravacanasāra – Essence of the Doctrine by Vijay K. Jain
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -45,46
यद्यपि दिव्यध्वन्यादि क्रियायें औदयिकी है जिनजीके |

किन्तु मोहके बिना वहाँ वह क्षयंकरी होती नीके ॥
जिनवरजीकी तरह शुभ अशुभ अगर नहीं कोई होवे
तो फिर संसारावस्था में पड़ा कष्ट को क्यों जोवे ॥ २३ ॥ 


गाथा -45,46
सारांश: – मोहके न होनेसे श्री अरहन्त भगवान् अपने कम के उदयमें शुभ और अशुभ न होकर तटस्थ बने रहते हैं वैसे ही हम लोग भी यदि अपने मोहभाव को दबाकर अपने पूर्वोपार्जित शुभ तथा अशुभ कर्मों को मध्यस्थ भाव से सहन करते जावें और हर्ष विषाद न करें तो धीरे धीरे कर्मों से उऋण होकर अपने संसार भ्रमण का अभाव कर सकते हैं। जिस प्रकार श्री अरहंत देव ने कर बताया है परन्तु हम सबका तो यह हाल है कि

हम अपने शुभके उदयमें तो हर्षसे फूल जाते हैं और जब अशुभ का उदय आ जाता है तब उसे बुरा मानकर रोने लगते हैं। इसी दुर्ध्यान में अपनी आत्माको भूले हुए हैं। इसी कारण हमारा ज्ञान चञ्चल और वैभाविक बना हुआ है। किसी एक बात को भी यथार्थ रूप में नहीं जान रहा है किन्तु वीतराग भगवान्‌ का ज्ञान सब बातों को एक साथ जानने वाला होता है
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