08-10-2022, 07:50 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -49 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -50 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि /
ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि // 49 //
अन्वयार्थ- (जदि) यदि (अणंतपज्जयं) अनन्त पर्याय वाले (एकं दव्वं) एक द्रव्य को (आत्मद्रव्य को) (अणंताणि दव्वजादाणि) तथा अनन्त द्रव्यसमूह को (जुगवं) एक ही साथ (ण विजाणदि) नहीं जानता (सो) तो वह (सव्वाणि) सब (अनन्त द्रव्यसमूह) को (किध जाणादि) कैसे जान सकेगा?
आगे कहते हैं, कि जो एकको नहीं जानता, वह सबको नहीं जानता—यदि] जो [अनन्तपर्यायं एकं द्रव्यं] अनन्त पर्यायवाले एक आत्म द्रव्यको [नैव जानाति] निश्चयसे नहीं जानता, [तदा] तो [सः] वह पुरुष [युगपत् ] एक ही बार [अनन्तानि] अंत रहित [सर्वाणि] संपूर्ण [द्रव्यजातानि] द्रव्योंके समूह [कथं] कैसे [जानाति] जान सकता है ? भावार्थ-आत्माका लक्षण ज्ञान है / ज्ञान प्रकाशरूप है, वह सब जीव-राशिमें महासामान्य है, और अपने ज्ञानमयी अनंत भेदोंसे व्याप्त है / ज्ञेयरूप अनंत द्रव्यपर्यायोंके निमित्तसे ज्ञानके अनंत भेद हैं / इसलिये अपने अनंत प्रव. विशेषणोंसे युक्त यह सामान्य ज्ञान सबको जानता है / जो पुरुष ऐसे ज्ञानसंयुक्त आत्माको प्रत्यक्ष नहीं जान सकता, वह सब पदार्थोंको कैसे जान सकेगा ? इसलिये 'एक आत्माके जाननेसे सब जाना जाता है। जो एक आत्माको नहीं जानता, वह सबको नहीं जानता', यह बात सिद्ध हुई। दूसरी बात यह है कि, आत्मा और पदार्थोंका ज्ञेयज्ञायक संबंध है / यद्यपि अपने अपने स्वरूपसे दोनों पृथक् पृथक हैं, तो भी ज्ञेयाकार ज्ञानके परिणमनसे सब ज्ञेयपदार्थ ऐसे भासते हैं, मानों ज्ञानमें ठहर ही रहे हैं / जो ऐसा आत्माको नहीं मानें, तो वह अपने स्वरूपको संपूर्णपनेसे नहीं जाने, तथा आत्माके ज्ञानकी महिमा न होवे / इस कारण जो आत्माको जानता है, वह सबको जानता है, और जो सबको जानता है, वह आत्माको जानता है / एकके जाननेसे सब जाने जाते हैं, और सबके जाननेसे एक जाना जाता है, यह कहना सिद्ध हुआ / यह कथन एकदेश ज्ञानकी अपेक्षासे नहीं है, किंतु केवलज्ञानकी अपेक्षासे है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 49
?यहाँ कैवल्यज्ञान को अर्थात भगवान की सर्वज्ञता का एक प्रश्न के माध्यम से समाधान बताया जा हैं।
?भगवान सर्वज्ञ हैं या नही? इस संशय का आचार्यो ने कई प्रकार से खण्डन किया हैं कि जब सभी कषायो का औऱ बाधक कारणों का अभाव हो जाता हैं ,तब सम्पूर्ण ज्ञान प्रकट होता हैं और उसे ही कैवल्यज्ञान कहते है।
? जैसे सोने की डली या किसी मणि पर धूल जम जाती हैं या मैली हो जाती हैं तो मैली होने के कारण उसका खरापन नही जाता हैं उसी प्रकार हमारी आत्मा पर कषाय रूपी मैल जमा हैं पर अगर हम उस पर से कषाय और कर्म के मैल हटा दे तो आत्मा में ज्ञान प्रकट हो जाता हैं ।अतः भगवान सर्वज्ञ हैं ।
?इस प्रकार हमें अपने अंतरंग में हमेशा आत्म चिंतन करना चाहिए और आत्म भावना भानी चाहिए,, हमे इंद्रिय ज्ञान से परे अतीन्द्रिय ज्ञान को पाने की भावना करनी चाहिए।,
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -49 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -50 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि /
ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि // 49 //
अन्वयार्थ- (जदि) यदि (अणंतपज्जयं) अनन्त पर्याय वाले (एकं दव्वं) एक द्रव्य को (आत्मद्रव्य को) (अणंताणि दव्वजादाणि) तथा अनन्त द्रव्यसमूह को (जुगवं) एक ही साथ (ण विजाणदि) नहीं जानता (सो) तो वह (सव्वाणि) सब (अनन्त द्रव्यसमूह) को (किध जाणादि) कैसे जान सकेगा?
आगे कहते हैं, कि जो एकको नहीं जानता, वह सबको नहीं जानता—यदि] जो [अनन्तपर्यायं एकं द्रव्यं] अनन्त पर्यायवाले एक आत्म द्रव्यको [नैव जानाति] निश्चयसे नहीं जानता, [तदा] तो [सः] वह पुरुष [युगपत् ] एक ही बार [अनन्तानि] अंत रहित [सर्वाणि] संपूर्ण [द्रव्यजातानि] द्रव्योंके समूह [कथं] कैसे [जानाति] जान सकता है ? भावार्थ-आत्माका लक्षण ज्ञान है / ज्ञान प्रकाशरूप है, वह सब जीव-राशिमें महासामान्य है, और अपने ज्ञानमयी अनंत भेदोंसे व्याप्त है / ज्ञेयरूप अनंत द्रव्यपर्यायोंके निमित्तसे ज्ञानके अनंत भेद हैं / इसलिये अपने अनंत प्रव. विशेषणोंसे युक्त यह सामान्य ज्ञान सबको जानता है / जो पुरुष ऐसे ज्ञानसंयुक्त आत्माको प्रत्यक्ष नहीं जान सकता, वह सब पदार्थोंको कैसे जान सकेगा ? इसलिये 'एक आत्माके जाननेसे सब जाना जाता है। जो एक आत्माको नहीं जानता, वह सबको नहीं जानता', यह बात सिद्ध हुई। दूसरी बात यह है कि, आत्मा और पदार्थोंका ज्ञेयज्ञायक संबंध है / यद्यपि अपने अपने स्वरूपसे दोनों पृथक् पृथक हैं, तो भी ज्ञेयाकार ज्ञानके परिणमनसे सब ज्ञेयपदार्थ ऐसे भासते हैं, मानों ज्ञानमें ठहर ही रहे हैं / जो ऐसा आत्माको नहीं मानें, तो वह अपने स्वरूपको संपूर्णपनेसे नहीं जाने, तथा आत्माके ज्ञानकी महिमा न होवे / इस कारण जो आत्माको जानता है, वह सबको जानता है, और जो सबको जानता है, वह आत्माको जानता है / एकके जाननेसे सब जाने जाते हैं, और सबके जाननेसे एक जाना जाता है, यह कहना सिद्ध हुआ / यह कथन एकदेश ज्ञानकी अपेक्षासे नहीं है, किंतु केवलज्ञानकी अपेक्षासे है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 49
?यहाँ कैवल्यज्ञान को अर्थात भगवान की सर्वज्ञता का एक प्रश्न के माध्यम से समाधान बताया जा हैं।
?भगवान सर्वज्ञ हैं या नही? इस संशय का आचार्यो ने कई प्रकार से खण्डन किया हैं कि जब सभी कषायो का औऱ बाधक कारणों का अभाव हो जाता हैं ,तब सम्पूर्ण ज्ञान प्रकट होता हैं और उसे ही कैवल्यज्ञान कहते है।
? जैसे सोने की डली या किसी मणि पर धूल जम जाती हैं या मैली हो जाती हैं तो मैली होने के कारण उसका खरापन नही जाता हैं उसी प्रकार हमारी आत्मा पर कषाय रूपी मैल जमा हैं पर अगर हम उस पर से कषाय और कर्म के मैल हटा दे तो आत्मा में ज्ञान प्रकट हो जाता हैं ।अतः भगवान सर्वज्ञ हैं ।
?इस प्रकार हमें अपने अंतरंग में हमेशा आत्म चिंतन करना चाहिए और आत्म भावना भानी चाहिए,, हमे इंद्रिय ज्ञान से परे अतीन्द्रिय ज्ञान को पाने की भावना करनी चाहिए।,