08-04-2022, 08:21 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -37 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -38 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तकालिगेव सव्वे सदसम्भूदा हि पज्जया तासि /
वटते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं / / 37 //
अन्वयार्थ- तेसिं दव्वजादीणं) उन द्रव्य जातियों की ते सव्वे) समस्त सदसल्भूदा हि) वामान और अविद्यमान (पज्जया) पर्यायें (तक्कालिकेव) तात्कालिक पर्यायों की भाँति (विसेसदी) विशिष्टता पूर्वक (णाणे वट्टते) ज्ञान में वर्तती हैं।
आगे कहते हैं, कि अतीत कालमें हुए द्रव्योंके पर्याय और अनागत (भविष्यत्) कालमें होनेवाले पर्याय, ज्ञानमें वर्तमान सरीखे प्रतिभासते (मालूम पड़ते ) हैं-[तासां द्रव्यजातीनां उन प्रसिद्ध जीवादिक द्रव्य जातियोंके [ते सर्वे] वे समस्त [सदसद्भूताः] विद्यमान तथा अविद्यमान [पर्यायाः] पर्याय [हि] निश्चयसे [ज्ञाने] ज्ञानमें [विशेषतः] भिन्न भिन्न भेद लिये [तात्कालिका इव] वर्तमानकाल संबंधी पर्यायोंकी तरह [वर्तन्ते] प्रवर्तते हैं। भावार्थ-जैसे किसी चित्रकारने (चितेरेने) चित्रपटमें बाहुबली-भरतादि अतीतपुरुषोंका चित्र बनाया, और भावीकाल सम्बन्धी श्रेणिकादि तीर्थंकरका चित्र बनाया, सो वे चित्र उस चित्रपटमें वर्तमानकालमें देखे जाते हैं। उसी प्रकार ज्ञान चित्रपटमें जो पर्याय होचुके, तथा जो आगे होनेवाले हैं, उनका वर्तमान प्रतिबिम्ब भासता है। यहाँपर कोई प्रश्न करे, कि " वर्तमानकालके ज्ञेयोंके आकार ज्ञानमें प्रतिबिम्बित हो सकते हैं, परंतु जो हो चुके हैं, तथा जो होनेवाले हैं, उनका प्रतिभास होना असंभव मालूम होता है / " उसका समाधान यह है कि जब छद्मस्थ ज्ञानी (अल्पज्ञानी) तपस्वी भी योगबलसे वा तपस्याके प्रभावसे ज्ञानमें कुछ निर्मलता होनेसे अतीत अनागत वस्तुका विचार करलेते हैं, तब उनका ज्ञान अतीत अनागत वस्तुके आकार होजाता है, वहाँपर वस्तु वर्तमान नहीं है। तैसे निरावरणज्ञानमें (जिसमें किसी तरहका आच्छादन न हो, बिलकुल निर्मल हो ऐसे ज्ञानमें ) अतीत अनागत वस्तु प्रतिभासे, तो असंभव नहीं है। ज्ञानका स्वभाव ही ऐसा है / स्वभावमें तर्क नहीं चल सकता |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 37
पूज्य मुनि श्री इस गाथा संख्या 37 की वाचना से आप जानेंगे कि
* जीव द्रव्य में घटित होने वाली अनेक परिणितियों का नाम ही पर्याय है।
* द्रव्य की पर्याय निरंतर उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं।
* केवलज्ञानि के ज्ञान मेन वह पर्यायों का समूह (भूत,भविष्य,वर्तमान) स्पष्ट दिखता है।
* पर्याय से जुड़ाव रख कर हमें बहुत दुःख पहुँचता है। इसलिए हमेशा द्रव्य दृष्टि रखनी चाहिए।
* पर्याय को केवल पर्याय की दृष्टि से देखेंगे तो दुःख से दूर रह पाएँगे।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -37 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -38 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तकालिगेव सव्वे सदसम्भूदा हि पज्जया तासि /
वटते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं / / 37 //
अन्वयार्थ- तेसिं दव्वजादीणं) उन द्रव्य जातियों की ते सव्वे) समस्त सदसल्भूदा हि) वामान और अविद्यमान (पज्जया) पर्यायें (तक्कालिकेव) तात्कालिक पर्यायों की भाँति (विसेसदी) विशिष्टता पूर्वक (णाणे वट्टते) ज्ञान में वर्तती हैं।
आगे कहते हैं, कि अतीत कालमें हुए द्रव्योंके पर्याय और अनागत (भविष्यत्) कालमें होनेवाले पर्याय, ज्ञानमें वर्तमान सरीखे प्रतिभासते (मालूम पड़ते ) हैं-[तासां द्रव्यजातीनां उन प्रसिद्ध जीवादिक द्रव्य जातियोंके [ते सर्वे] वे समस्त [सदसद्भूताः] विद्यमान तथा अविद्यमान [पर्यायाः] पर्याय [हि] निश्चयसे [ज्ञाने] ज्ञानमें [विशेषतः] भिन्न भिन्न भेद लिये [तात्कालिका इव] वर्तमानकाल संबंधी पर्यायोंकी तरह [वर्तन्ते] प्रवर्तते हैं। भावार्थ-जैसे किसी चित्रकारने (चितेरेने) चित्रपटमें बाहुबली-भरतादि अतीतपुरुषोंका चित्र बनाया, और भावीकाल सम्बन्धी श्रेणिकादि तीर्थंकरका चित्र बनाया, सो वे चित्र उस चित्रपटमें वर्तमानकालमें देखे जाते हैं। उसी प्रकार ज्ञान चित्रपटमें जो पर्याय होचुके, तथा जो आगे होनेवाले हैं, उनका वर्तमान प्रतिबिम्ब भासता है। यहाँपर कोई प्रश्न करे, कि " वर्तमानकालके ज्ञेयोंके आकार ज्ञानमें प्रतिबिम्बित हो सकते हैं, परंतु जो हो चुके हैं, तथा जो होनेवाले हैं, उनका प्रतिभास होना असंभव मालूम होता है / " उसका समाधान यह है कि जब छद्मस्थ ज्ञानी (अल्पज्ञानी) तपस्वी भी योगबलसे वा तपस्याके प्रभावसे ज्ञानमें कुछ निर्मलता होनेसे अतीत अनागत वस्तुका विचार करलेते हैं, तब उनका ज्ञान अतीत अनागत वस्तुके आकार होजाता है, वहाँपर वस्तु वर्तमान नहीं है। तैसे निरावरणज्ञानमें (जिसमें किसी तरहका आच्छादन न हो, बिलकुल निर्मल हो ऐसे ज्ञानमें ) अतीत अनागत वस्तु प्रतिभासे, तो असंभव नहीं है। ज्ञानका स्वभाव ही ऐसा है / स्वभावमें तर्क नहीं चल सकता |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 37
पूज्य मुनि श्री इस गाथा संख्या 37 की वाचना से आप जानेंगे कि
* जीव द्रव्य में घटित होने वाली अनेक परिणितियों का नाम ही पर्याय है।
* द्रव्य की पर्याय निरंतर उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं।
* केवलज्ञानि के ज्ञान मेन वह पर्यायों का समूह (भूत,भविष्य,वर्तमान) स्पष्ट दिखता है।
* पर्याय से जुड़ाव रख कर हमें बहुत दुःख पहुँचता है। इसलिए हमेशा द्रव्य दृष्टि रखनी चाहिए।
* पर्याय को केवल पर्याय की दृष्टि से देखेंगे तो दुःख से दूर रह पाएँगे।